जय केशव 16

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
व्यवस्थापन (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:५०, २ नवम्बर २०१३ का अवतरण (Text replace - " ।" to "।")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

महदूद और अलबरूनी दोनों फिर लौट लिये। पंजाब की सीमा में घुसते ही खबरें लगीं कि सुल्तान की फौजें बरन की ओर गई हैं। सुनकर महदूद और अलबरूनी ने पंजाब से दो बढ़िया नस्ल के घोड़े लिये और तीव्रगति से बरन की ओर बढ़ दिये। अमावस्या की रात्रि को चारों ओर अन्धकार छाया हुआ था। आकाश पर तारे चमक रहे थे। उस अंधेरी रात्रि में भी किले के बुर्ज पर तीन छायायें हिल रही थी। ये तीनों ही बरन के राजा हरदत्त, सेनापति वीरसिंह और एक अन्य सामन्त थे। तीनों की निगाहें उस पार के जंगलों पर लगीं हुई थीं। बरन की सीमा से लगे नगर व गाँव ख़ाली पड़े थे। चारों ओर कुछ न दिखाई दिया तो वह बौखला उठा। उसने राह में पड़ने वाले गाँव, नगर सभी को आग लगवा दी। रात्रि के अन्धकार में जलते हुए नगर और गाँव देख हरदत्त की आँखे अँगारों की भाँति जलने लगीं। कभी वह सोचने लगता−"दो दिन हो गये लेकिन महूमूद अभी तक चुप क्यूँ पड़ा है ?" हरदत्त और वीरसिंह की समझ में न आ रहा था। इसी पर विचार करते−करते उन तीनों की रात बीत चली थी। तभी जीवटसिंह के पास समरसिंह पेट के बल खिसकता हुआ आया।

"दादा, सावधान........?"
        "समर...... दुश्मन डरपोक है तभी उसकी हिम्मत नहीं हो रही।"
        "दादा। धीरे बोलो। वह चीटीं की चाल संभलता हुआ चारों ओर फैल रहा है। मैं श्री महाराज को सूचित कर दूँ।"
        समरसिंह के आगे बढ़ते ही वृद्ध जीवट सिंह ने मुँह से अनोखी ध्वनि की। दुर्ग की दूसरी ओर से वैसी ही ध्वनियाँ परत आयीं। ऐसा लगा जैसे जीवटसिंह का स्वर एक से दूसरे तक एकात्म हुआ बढ़ रहा है। पलक मारते ही दुर्ग के बाह्य द्वार पर चारों ओर काली−काली घटायें मंडराने लगीं।
        वीरसिंह मेरठा के समाचार जानने को उत्सुक को रहा था।
        मेरठा को जलाकर महदूद ने घोड़ों की रास खींच ली। वह बिना रूके ही आगे बढ़ दिया। मेरठा का सरदार वीरसिंह का ही बड़ा बेटा था। उसने अपनी सारी सेना सुनियोजित स्थानों में छिपा कर कुँए और बावड़ियों में विष घुलवा दिया। वनों के मध्य रास्तों को इस तरह रोका कि महदूद की सेना जिधर भी बढ़ी, वह अपने आपको सुरक्षित समझने लगी।
        सघन वन ही ब्रज के लिये हिमालय थे। वीरसिंह ने वनों के मुख्य रास्तों में दस हाथ गहरी खाइयाँ खुदवाकर उनको झाड़ फूसों से पाट दिया। एक ओर मुड़कर दूसरी ओर मुड़ने के लिये बहुत दूर घूमना पड़ता था। इसी प्रकार वीरसिंह ने एक ऐसा व्यूह रचा कि अमीर की सेना कुण्डली बनाने लगी। यहीं वे खाइयाँ थी। अमीर की भिन्न−भिन्न ध्वनियाँ से वन काँप रहा था। लेकिन ऐसा लगता था जैसे धरती को स्वयं दासता स्वीकार नहीं। कुछ ही देर बाद अनौखी चींखे सुनाई देने लगीं।
        चीखें सुनते ही महदूद जोर से चीखा− "फौजें रोक दीं जायें। हम दुश्मन की चाल में फँस गये हैं। बहादुरों, राहे मंजिल का इम्तिहाँ आ गया है।" महदूद की आवाज सुनते ही सारी सेना में सन्नाटा छा गया। पैदल से लेकर वजीर तक के हाथ रहम के लिये उठ गए।
        महदूद की सेना जिस तरह फंसी थी उसमें बड़ा मुश्किल था कि घूम भी सके। महदूद बार−बार सिर पीटने लगा। फिर उसने जैसे−तैसे घोड़े को मोड़ कर ऊँचे स्थान पर खड़ा किया। मशाल पकड़े हुए कुछ लोग आगे बढ़े तो देखा घोड़े और घुड़सवार सभी मर गये थे। घोड़ो के शरीर को फाड़कर भाले ऊपर निकल रहे थे। टोहियों के शव विकराल हो गये थे। आँखे बाहर निकल गयी थीं। घोड़ों के नीचे शरीर बिछ गये थे। जिन में जान थी वे कराह रहे थे। महमूद पीछे की ओर ध्यान से कान लगाये था। थोड़ी देर तक वह इसी तरह देखता रहा तो अचानक उसकी फौज में कुछ हलचल दिखाई दी। सेना का दबाव आगे बढ़ रहा था। सुदूर उसे कोलाहल सुनाई दिया। हवा की तरह पीछे से आ.....ग.....आग का स्वर बहा चला आ रहा था।
        महदूद की सारी सेना में से अब केवल कुछ ही लोग वन से बाहर रह गये थे। शीघ्र वन में पीछे की ओर से आग लगवा दी थी। अपने पाँच सौ जवानों को लेकर वीरसिंह का वीर पुत्र गजनी की पीठ पर आक्रमण कर बैठा।
        आगे जाने का रास्ता अनजान था। जिस रास्ते पर वे चले वह मृत्यु से भयानक था। बलिदानी वन खण्ड ने शीघ्र की अग्नि ग्रहण की और शीतकाल की अंधेरी रात्री में वन में आग तेज गति से बढ़ने लगी।
        घोड़े आग की लपटों से बिदक उठे। वे जहाँ सींग समाया जंगल में भागे। ऊनी पोशाकों में गर्वीला यवन सैनिक चीख उठा। सैनिकों का अनुशासन भंग होते देख, तलवार ऊँची कर वह बोला−"खुदा का बन्दा महदूद खुदा के वास्ते तुम्हें साथ लेकर आया है और तुम्हारे ही साथ जायेगा। आओ, मैं तुम्हारे आगे चलता हूँ।" कह महदूद ने घोड़े की रासें आगे बढ़ने के बजाय दक्षिण पूर्व की ओर मोड़ दीं। उसके कामगार आगे जाकर राह बना रहे थे।
        "राह में आगे बढ़ते ही महदूद ने जानकी शाही से कहा−"लगता है तू बगावत कर रहा है।"
"सखीमे फरानी अमीरे, गजनी, जानकी शाही वंश का बेटा है, दगा की जिन्दगी से मौत बेहतर समझता है। लगता है हमारी टोलियों में दुश्मन आ मिला है।"
        "लेकिन जिस ओर हम चल रहे है।"
        "इसी तरह चलते रहे तो सूरज उगने तक दरिया के पास होंगे।"
        महदूद सुल्तान ने तभी मसऊद को आवाज दी। बहुत दूर निकल जाने पर भी जब कोई नई दुर्घटना न हुयी तो उसने अपनी चाल और तेज कर दी। झाड़ झंकार रोंदती हुई यवन सेना आगे बढ़ने लगी। आगे जाकर ऊँचे−ऊँचे वृक्षों की श्रृंखला समाप्त हो गई अब करील, बबूल आदि के काँटेदार वृक्ष आने लगे। घुड़सवार सीधे होकर निकलता तो सवार चीखकर नीचे गिर जाता। पीठ पर लदे बोझ से टकरा कर कभी−कभी जानवर भी गिर जाता। तभी उस निविड़ वन में हाथियों की चिंघाड़ सुनाई दी। हाथियों की सूंड़ों में तीर घुस गये थे। हाथियों में भगदड़ मच गयी।
        उनके आगे जो भी आता वही काल कवलित हो जाता। सैकड़ों आदमी हाथियों के पैरों तले कुचल गये। एक दूसरे पर पर लाशें चिन गयीं। लोग एक दूसरे पर धड़ाधड़ गिर रहे थे। हाथी बिगड़ कर वन में भागे। सरदारों ने सेना को फिर एकत्रित किया। तभी कुछ शोर सुनाई दिया। महदूद बोला−"शायद कोई गाँव आ रहा है।"
        "दरिया पास ही है और हो सकता है दुश्मन के आदमी हों। हमें होशियार हो जाना चाहिये। नवासाशाह को हमारे पास भेजो।" वह कह कर चुप ही हुआ कि तभी अमीर के आगे लगभग दो हजार पैदल लेकर सरदार आगे निकल गये। पीछे कुछ घुड़सवार बढ़े। उनके बाद गजनी का अमीर अपने अंगरक्षकों से घिरा हुआ आगे बढ़ा।
        वह अभी कुछ ही दूर बढ़ा कि सामने तीरों की बौछार हुई। यवनों की लोथें या अल्लाह.....कहते हुये चीख पड़ी। अमीर ने मसऊद को अपनी दाहिनी ओर बढ़कर जंगल से बाहर निकल दुश्मन को उधर से दबाने का हुक्म दिया। लम्बे−लम्बे भाले पकड़े हुये यवन पेड़ों की छाया में चलने लगे।
        पूर्व दिशा का रंग कुछ फीका पड़ने लगा। तभी दो छायायें एक पेड़ से उतर कर आगे की ओर भागी कि भागते हुओं में से एक ने कहा−"समर अब समय नहीं है, तू जा और श्री महाराज से कहना, वीरसिंह का वीर बेटा जा रहा है अपनी वीर माता का ऋण चुकाने।"
        "लेकिन आपके पास कुल सौ आदमी भी नहीं होंगे।"
        "तू नहीं जानता, इस समय सामने की मार से उसके बहुत से हाथ कट जायेंगे और अपंग लुटेरा जमुना के पार पहुँचने से पहिले की काल में मुँह में फँस जायेगा।"
        "लेकिन मेरा मन आपको अकेले छोड़ने को नहीं होता।" कहते हुये समर का कंठ रूंध गया।
        "तू शीघ्र जा। माँ और तेरी भाभी दोनों नौका पर तेरी प्रतीक्षा कर रही होगी।"
        "तब फिर विदा...."
        "विदा मित्र।"
        "विजयी हो, मित्र।" कह समरसिंह पश्चिम की ओर थोड़ी दूर तक गया और घने वृक्षों के बीच से घोड़ा खोल एक छलांग में उस पर सवार हो गया और हवा में तलवार घुमाता हुआ यमुनाकी बालू पर हवा की तरह उड़ चला।
        दौलत सिंह ने सभी साथियों को एकत्रित किया और सबको एकत्र कर बोला−"मेरठा के ठाकुरो। रण से पीठ दिखाकर क्या मुँह दिखायेंगे। चलो, आज सब मिलकर क्यों न उस दैत्य को ही समाप्त कर दें।" उसकी बात सुनते ही सबने तलवारें खीच लीं ।
        "हर−हर महादेव" के घोष से वन के सारे पक्षी उड़ चले। पौ फटने तक मेरठा के ठाकुर यवन सेना पर टूट पड़े।
        महमूद की परवश, नि:सहाय सेना को संभलने का अवसर भी न मिला। वे सब फैलकर इस तरह टूटे कि उनका जहाँ हाथ पड़ता चीख निकल कर शान्त हो जाती। इधर यवन सैनिक लम्बे−लम्बे भाले चला रहे थे। घने वन में सेना बिखर गयी थी। लम्बे भालों का वार जब होता तो उसका भार यवन पर ही पड़ता।
        सुल्तान ने मसऊद को जिधर से भेजा था वह कामयाब हुआ। वह पीछे से घुड़सवार लेकर झपटा। तब तक सूर्य की लालिमा क्षितिज को चीरती हुई उधर आने को लालायित हो उठी थी। मेरठा के ठाकुर सब खेत रहे थे लेकिन दौलत सिंह की तलवार अभी भी घूम रही थी। उसके अंग−अंग से रक्त बह रहा था फिर भी वह अड़िग हो लड़ रहा था। महदूद उसकी वीरता सराहे बिना न रह सका। वह उससे कहना ही चाहता था कि तभी नवासाशाह की तलवार उसके सिर पर पड़ी और तलवार का भरपूर वार दौलत सिंह को वक्ष तक चीरता हुआ चला गया। वह वीर अपनी मातृभूमि के ऊपर बलिदान हो गया। तभी पूर्व में अग्नि पिण्ड उदित हुआ। चारों ओर रक्त ही रक्त बिखर रहा था। सूर्य उदय ऐसा लग रहा था मानों वह वीर उस सूर्य की भांति अमर हो गया है।
        राजा हरदत्त ने जब मेरठा के ठाकुरों की वीरता समर सिंह के मुख से सुनी तो वे प्रसन्न हो उठे। लेकिन दौलत सिंह अमर हो चुका है, यह सुनकर ऐसा लगा कि मानो यवनों ने सारा दुर्ग घेर लिया हो। अमा की रात्रि में कुछ भी दिखाई न देता था। परंतु महदूद को नदी पार करने में कोई कठिनाई न हुई। दूसरे दिन भी वह घेरा डाले पड़ा रहा।
        दो दिन तक उसने अपने बहुत से गोइन्दों की प्रतीक्षा की परंतु कोई ऐसा व्यक्ति न मिला जो किले को जीतने का रास्ता बता सकता। हार कर सुल्तान ने सीधे आक्रमण करने का ही निश्चय किया। वह अरबी घोड़े पर चढ़ कर पूरे किले का चक्कर लगाने चल दिया।
        दो बांस सूरज चढ़ आया था। माघ के दिन थे। सभी लोग अपने अंगो को ऊनी वस्त्रों में ढ़के हुये थे। थोड़ी दूर हटकर उसने एक तीर दुर्ग पर फहराती हुई ध्वजा की ओर मारा। तीर जीवटसिंह के पास आकर गिरा।
        हरदत्त ने भी धनुष पर बाण रखकर अमीर को निशाना बनाया और तीर छोड़ा। तीर सांय करता हुआ घोड़े के सामने जाकर गड़ गया।
नगर के चारों ओर सेना थी। महमूद सुल्तान की सेना किसी भी तरह किले तक पहुंचना चाहती थी। जैसे ही वे लोग कोट के पास पहुंचे तभी कोट से जीवटसिंह की दहाड़ सुनाई दी। 'हर−हर महादेव' और दुर्ग से तीक्ष्ण तीरों की वर्षा होने लगी, लेकिन दुश्मन के पास कोई और रास्ता नहीं था।
        नगर के अंदर घुसने के लिये जो द्वार बने थे उन पर लगे फाटकों पर गजनी के सैनिक जूझ रहे थे, लेकिन द्वार टस से मस न हुये। उधर ऊपर से तीरों की मार जहां भी पड़ती यवनों को ढेर लग जाता। दोपहर ढलने लगी। महमूद सुल्तान को सफलता न मिली तो वह खीझ उठा। उसके कई सौ सैनिक हताहत हो चुके थे। उसने मसऊद को हाथियों को आगे लाने का हुक्म दिया। हाथियों को लेकर वह आगे बढ़ा। साथ ही एक दम आक्रमण होने पर एक बार तो जीवटसिंह सकते में आ गया। उसने अपनी शक्ति का अत्यधिक विनाश करना ठीक न समझा और अपने स्थान से हटकर तुरंत उसने महाराज के पास समाचार भेजा।
        यवन के पास डेढ़, दो लाख क्रूर सेना थी, तो वहां हरदत्त के पास सब मिलाकर बीस हजार सेना थी। लेकिन जीवट की बात उसकी समझ में न आई। हरदत्त स्वयं अश्व पर चढ़ कर सीधे द्वार की ओर बढ़ा। हाथी द्वारों पर टक्कर मार रहे थे। सैनिक सीढ़ियों और गोहों के द्वारा किसी तरह भीतर पहुँचने का प्रयास कर रहे थे। इसी बीच यकायक अश्वारोहियों के साथ वीर सिंह द्वार पर पहुँच गया। वह जाते ही बोला−"श्री महाराज
 द्वार मेरा....।"
        "लेकिन....वीर सिंह अब समय नहीं रहा, न जाने कब द्वार टूट जाये।" हरदत्त ने कहा।
        "तब श्री महाराज आप−दुर्ग को देंखे, नगर को मैं देखता हूं। हां समर को कह दीजिये, सभी द्वारों को पत्थरों से बन्द करा दे। मैं चला," कह वह पुनः किले में लौट गया।
        यह समाचार भेज उसने दुर्ग के सभी द्वार पत्थरों से बंद करा दिये। द्वारों के पीछे उधर बड़े−बड़े पत्थर रखे जा रहे थे। इधर कोट से जलती लकड़ियाँ, तेल और पत्थर बरसाये जा रहे थे। यवन सैनिक ऊपर तक चढ़ कर आते कि धनुर्धर ऐसी मार करते कि यवन त्राहि−त्राहि कर उठते।
        संध्या हो चली लेकिन यवन महमूद सुल्तान की सेना को कोई विजय न मिली। वह अपनी सेना के पीछे पहुँचा। नमाज का समय हो चला था, इसलिए वह घोड़े से उतर कर नमाज पढ़ने बैठ गया।
        जीवटसिंह ने जब देख लिया कि उसके धनुर्धरों में से बहुत से वीर अमर हो चुके हैं तो उसने कमर की ओर हाथ बढ़ाया। वह अभी तलवार की ओर हाथ बढ़ा रहा था कि तभी उसे पूर्वी द्वार पर−"अल्ला हो अकबर' का उच्च घोष सुनाई दिया। समर सिंह अभी तक अपने वीरों को साथ लिये वहां सुरक्षा की व्यवस्था में लगा ही था कि द्वार उसे चरमराता दिखाई दिया। समर सिंह सोच चुका था कि अब आमने−सामने का युद्ध निश्चित ही है। उसके साथ लगभग दो सौ सैनिक खड़ग और तलवार लिये तैयार थे। उन्हें देख समर सिंह बोला−
        "वीरो, यह द्वार हमारा है। भगवान शंकर की आन हमारे जीते जी यवन नगर में प्रवेश न करने पाये।"
        वह वाक्य समाप्त ही कर पाया कि द्वार टूट कर एक ओर गिर पड़ा औ एक रेले की साथ यवन सैनिक अंदर की ओर घुसे।
        समरसिंह वीरों की तरह ललकारते हुए बाज की तरह झपटा। दोनों दल एक दूसरे से सीना भिड़कर युद्ध करने लगे। लाशों के ढेर लग गये। जो गिर गया उसकी चिन्ता किसी न को न थी। कुछ गिरते−गिरते भी वार कर जाते। समर की तलवार जिधर घूमती उधर खाई−सी पट जाती लेकिन तभी कुछ सिपाही दीवार पार करने में सफलता प्राप्त कर गये। वीरसिंह दूर थे। यवन सैनिकों ने साथियों को ऊपर खीचना प्रारंभ कर दिया।
        अभी सूरज डूबने ही वाला था कि उत्तरी द्वार भी खंडित हो गया। अब यवन सेना नगर में प्रवेश कर गयी। सैनिकों से घुसते ही वीरसिंह ने हवा में तलवार घुमाते हुए उच्च घोष किया और पल भर में घमासान युद्ध प्रारंभ हो गया। पैदल यवन ढ़ालों की आड़ लेकर लम्बे−लम्बे भालों से आक्रमण करने लगे। उधर अमीर नमाज पढ़कर अपने अरबी घोड़े पर सवार हो पुन: आगे बढ़ा। अँधियारा बढ़ने लगा इसलिए वह नहीं चाहता था कि उसकी सेना रात्रि के अंधकार में घिर जाय। वह जल्दी ही युद्ध को रोकना चाहता था। लेकिन लाशों के ढ़ेर इतने लग चुके थे कि उन पर होकर घोड़ों का दौड़ना आसान न था। मसऊद की घुड़सवार सेना अंदर प्रवेश पाने में समर्थ न हो रही थी।
        वीरसिंह बार−बार मसऊद को ढूँढ़ रहा था। नगर में प्रवेश पाते ही नि:सहाय प्रजा भागने लगी। जो दुर्ग में थे वे अपने आपको सुरक्षित समझ रहे थे। लेकिन सैनिकों ने मकानों, दुकानों और मन्दिरों में आग लगाना प्रारम्भ कर दिया। समरसिंह बुरी तरह घायल को चुका था। उसके वस्त्र फट गये थे। रूधिर प्रवाह तेजी से हो रहा था। उसकी आँखों के समक्ष अंधकार बढ़ता जा रहा था। दक्षिण की ओर से हर−हर महादेव का घोष सुनाई दिया। लगभग तीन−चार सौ सैनिकों के साथ श्री पथ का राजा जैतपाल अपनी सेना लेकर पश्चिमी द्वार पर पीछे से मार कर बैठा। एक बार यवन सेना पर पुन: दबाव पड़ा। यवन सेना को यह स्वप्न में भी ध्यान न था कि इस प्रकार वे पीछे से मारे जा सकते है। पश्चिमी द्वार पुन: बरन की सेना के अधिकार में आ गया।
        लेकिन अहिंसक प्रजा पर हिंसा चीत्कार कर उठीं। मातायें नग्न, अर्धनग्न, पतित कर विकलांग बना दीं गईं। नारी की यह परवशता। यवन की यह पशुता, दुध−मुँहे बच्चों को उछाला और भालों में टाँग दिया। विदेशी
यवन भयभीत होते हुए भी अपनी अमानवीयता पर हंस रहा था। देवगृहों का समस्त धन हस्तगत कर वह उन्हें नष्ट करवाने लगा।
        इधर जीवटसिंह की पाग कहीं गिर पड़ी थी। श्वेत दाढ़ी रक्त से भीग रही थी। वृद्ध फिर भी उन्माद की अवस्था में तलवार चला रहा था कि तभी एक यवन ने पीछे से बार किया। जीवट सिंह ने झुककर उसे बचाने का प्रयास किया तो दूसरे यवन का भाला जीवट सिंह के जबड़ों को चीरता हुआ बाहर निकल गया। इसी बीच समर भी वहाँ पहुँच गया। जीवट के गिरते ही वह क्रोध से चीख उठा।
        जब यवन महदूद ने देखा कि रात्रि काफ़ी हो चुकी है तो उसने लड़ाई बन्द करने का संकेत दिया। दोनों ओर से युद्ध रूक गया। तभी हट्टा−कट्टा यवन सेनापति मसऊद वीरसिंह से बोला−
        "वजीरे आजम वीरसिंह ! तुम्हारे हौसले की हम तारीफ करते हैं। अपने राजा को समझाओ नाहक अपनी ताकत को बर्बाद करके उसे हासिल क्या होगा ?"
        "यवन शत्रु ! अब तक कहाँ छिपा था ? भोले नर−नारियों की हत्यायें कर क्या दुनियाँ का कोई इन्सान तुझे वीर कहेगा ? क्या ताकत को न्याय की तुला पर तोलकर उसके प्रयोग का विधान तुम्हारे यहाँ नहीं है ? जा.......कल सूरज उगने से डूबने तक फैसला खुद व खुद हो जायेगा।" कह वह विदा हो गया।
        बरन का राजा दुर्ग पर खड़ा हो देख रहा था। उसने चारों ओर दृष्टि डाली। यवन की सेना उसे चारों ओर से घेरे हुए थी। यवन सेना के जाते की सैनिकों ने घायलों को किले में ले जाना प्रारम्भ किया। वीरसिंह बार−बार जीवटसिंह और समरसिंह के शवों को ढूंढ़ रहे थे। "तुम अमर हो गये। तुम धन्य हो।" भाले को खींचकर एक ओर फेंक जीवटसिंह को चौक की ओर ले गये और उनका शव रख दिया।
        हरदत्त वीरों की चिताओं पर आँसू न रोक सका। वीरसिंह अपने पचास से भी अधिक कुशल नायकों को खोकर बहुत दु:खी था। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया विद्रोही हो उठी और इसी भावना से सभी लोग अन्दर गये।
        चौक में धूँ−धूँ करती चितायें जल रहीं थी। हजारों लाशें बिना कफ़न से सड़कों और गलियों में बिखरी पड़ी थीं। ऊँचे−ऊँचे भवन टूट−टूटकर गिर रहे थे। देवग्रह मूर्ति−विहीन हो चुके थे। लेकिन भारतीयों ने सदैव विश्वास पर विश्वासघात खाया। इस बार भी यही हुआ।
        वीरसिंह अन्दर पहुँचे तो श्री पथ का राजा जैतपाल बोला−
        "वीरसिंह, यवन द्वारा इस तरह युद्ध रोकने में कोई चाल न हो।"
     "आप का कहना ठीक है लेकिन जब उसने याचना की है तो उसे ठुकराया भी तो नहीं जा सकता।"
        "परन्तु यदि वह विश्वासघात करे तब......?"
        "उस समय के लिये हमारे रण−बाँकुरे तैयार हैं।" कहते हुए वीरसिंह जैतपाल सहित सेनाओं को लेकर अन्दर प्रविष्ट हो गये। उनके अन्दर आते ही दुर्ग के द्वार एक बार पुन: बन्द हो गये ।
        गजनी का अमीर भी नाहक अपनी सेना को समाप्त करना नहीं चाहता था। मेरठा की मार वह भूला नहीं था। उसके हजारों सैनिक घायल हो चुके थे फिर वे लड़ने के योग्य न थे। इधर शाही के बेटे जानकी ने अभी तक कोई समाचार न दिया। वह बन्दियों में से एक−एक करके सभी को देखता जा रहा था। अनेकों कवि, कलाकार और साहित्यकारों की दुर्दशा देख वह महिलाओं की ओर बढ़ा। सभी के वस्त्र फाड़ दिये गये। अबोध ललनाओं के कपोलों पर यवनों की क्रूरता के चिन्ह अंकित हो उठे। उनके हाथ पींछे बँधे थे। निर्वसनाओं के पास ले जाते हुए यवन सरदार गुलाम−उल्लास एक−एक के बाल पकड़ता और ऊपर मुँह कर जानकी को दिखाता जा रहा था। उसके सीधे हाथ में तलवार थी। जो गुलाम उसके अशोभनीय व्यवहार का विरोध करती तो उसका सिर कलम कर दिया जाता।
        दुर्ग में पहुँच−कर वीरसिंह और हरदत्त ने बचे हुए सरदारों के साथ मंत्रणा की और नए नायकों को उनका उत्तरदायित्व समझाया। आधी रात बीतने को आई, परन्तु शत्रु की ओर से किसी नवीन घटना का संकेत नहीं मिला। दुर्ग के अन्दर ही एक बावड़ी थी। वह एक निर्जन से स्थान में पड़ती थी। अचानक बावड़ी में से कुछ छायाये निकलती दिखाई दीं तो बरन के सैनिक पहिले तो चौंके परन्तु तुरन्त ही कुछ सैनिक सत्य का पता लगाने आगे बढ़ दिये। इधर राजा हरदत्त ने भविष्य की आशंका से महारानी को जैतपाल के संरक्षण में राज्य से बाहर निकाल दिया।
        वीरसिंह अभी अपने घावों की पट्टियाँ सही कराकर तलवार म्यान में ही करने जा रहा था कि उसे किले की दीवारों पर कुछ हलचल दिखाई दी। वह कुछ समझे और राजा हरदत्त को उसकी सूचना भेजे कि हर−हर महादेव का नाद गूँजने लगा। उसने तलवार वापस खींच ली और चीख पड़ा−कायर यवन यह विश्वासघात है। इतना कह वह उछलकर घोड़े पर चढ़ गया। हरदत्त भी युद्ध में कूद पड़ा। लेकिन उसकी असावधान सेना अँधेरे में कुछ भी करने में असमर्थ हो रही थी। अभी हरदत्त कुछ सोच पाता कि दक्षिणी द्वार पर "अल्लाह हो अकबर" के शोर के साथ ही यवन सेना टूट पड़ी। घमासान युद्ध होने लगा। भोर होने तक लाशों के ढ़ेर लग गए। हजारों ब्रज−भक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। हरदत्त अपने अंगरक्षकों के साथ शत्रु का संहार करने में लगा। इधर उत्तरी द्वार पर भी शत्रु ने अधिकार कर लिया। आखिरकार यवनों ने राजा हरदत्त को घेर लिया। यह देख वीरसिंह बाज की तरह झपटा और यवनों को मारता−काटता पास आकर बोला−
"अन्नदाता !आप शीघ्र की यहाँ से हट जाइये।"
"वीर सिह रण से भागना कायरता होगी।"
 "आप समझने का प्रयत्न करें। महलों में जाकर अन्त:पुर की सुरक्षा करें। समय कम है। कुछ योद्धाओं के साथ आप निकल जाइए।" इतना कर वीरसिंह महदूद की सेना से भिड़ गया। महदूद जो दूर खड़ा देख रहा था। वीरसिंह की प्रशंसा किये बिना न रह सका। परन्तु जब उसने हरदत्त को महलों में घुसते देखा तो चीख पड़ा और तुरन्त महलों को घेरने का हुक्म दिया।
        मसऊद और वीरसिंह एक−दूसरे पर वार कर रहे थे। वीरसिंह ने घोड़े को ऐड़ लगाई और मसऊद कर करारा वार किया। वार इतना घातक था कि लाख बचाने पर भी मसऊद घोड़े पर न रह सका। वह नीचे गिर पड़ा। वह तुरन्त सँभला और वीरसिंह उसकी गर्दन पर वार कर पाता कि एक भाला उसकी गर्दन चीरता धँस गया। महमूद के सैनिक अत्याचार, लूटमार और आगजनी में लग गये। इधर उसने शीघ्र नवासाशाह को राजा हरदत्त के पास भेजा।
        विवशता मनुष्य से क्या नहीं करा लेती। बरन में लगभग सोलह हजार वीर सैनिक अमर हो गये। हरदत्त अन्त:पुर में रानियों के समक्ष बिलख पड़ा। असहाय, अशक्त हरदत्त का चेहरा काला हो उठा। उसे जब कोई उपाय न सूझा तो सामने खड़े नवासाशाह से बोला−
        "नवासाशाह ! अब तो खुश हो। देख रहे हो तुम्हारा अमीर क्या कर रहा है। अब मेरे पास क्या है। अपनी तलवारें उठाओं और मेरा भी सिर उड़ा दो।"
        "नहीं वीर! विधर्मी शत्रु के सामने मरने से कुछ नहीं होगा। वह और अत्याचार ही करेगा। आप जानते हैं उसने मुझे आपके पास क्यूँ भेजा है ?"
        "नहीं।"
        "उसने मुझे यही कहा है कि मैं उनकी इच्छा से आपको अवगत करा दूँ।"
        "कैसी इच्छा ?" हरदत्त कहकर नवासाशाह की ओर देखने लगा।
        "उसकी इच्छा है कि आप उसे अच्छी−ख़ासी रकम देकर उसकी अधीनता स्वीकार कर लें।"
        "मतलब मैं इस्लाम स्वीकार कर लूँ ?"
        नवासाशाह सारे वातावरण को देख द्रवित हो उठा। पुन: पास सरकते हुए कहने लगा−"आप सोचते हैं वह विधर्मी दयालु हो सकता है। यहाँ उसका क्या है जो वह ऐसा सोचे। फिर आप इतना तो विचार कीजिये कि यह समय निरीह प्रजा को बचाने का है न कि उसे कटवाने का। राजनीति में जैसे भी हो वर्तमान पर पकड़ बनाये रखिए। यदि वह आपसे इस्लाम स्वीकार करने को भी कहता है तो हाँ कर दीजिये। वह आज यहाँ है तो कल चला जायेगा।"
        "तुम ठीक कहते हो। मैं विवश हूँ, मुझसे निहत्थी प्रजा का चीत्कार नहीं सुना जा रहा। बालकों का कत्ल और नारी के साथ अमानुषिकता....बस....अब असह्य हो उठा है। सुखपाल यह देश मात्र मेरा ही है ऐसा तो नहीं, तुम जैसा चाहो वैसा करो परन्तु इस सब को रोको। "कहकर वह फफक कर रो पड़ा। नवासाशाह ने धैर्य दिलाया और बोला−"तो ठीक है, कल अमीर के स्वागत की तैयारी कीजिये। उसका स्वागत इस तरह कीजिये कि दुनिया याद रखे। इतना कह नवासाशाह महमूद के डेरे की ओर चल दिया।
        दूसरे दिन भी किले में पड़ी लाशें उठाने वाले न थे। फिर भी हरदत्त की आज्ञा से महमूद के स्वागत की तैयारी की गईं। महमूद अपने अरबी घोड़े पर सवार अंगरक्षकों के साथ महलों की ओर बढ़ रहा था तो द्वार पर राजा हरदत्त अपना ताज हाथ में लिये सिर झुकाये खड़ा था। एक ओर हजारों सुन्दर बालायें अपने हाथों में बड़े−बड़े स्वर्ण थाल लिये थीं। जिनमें स्वर्ण मुद्रायें भरी थीं। उनके पीछे राजगज के अलावा उन्तीस हाथी और खड़े थे। वे सभी बहुमूल्य रत्नों से जड़ी झूलों से सज रहे थे। महमूद ने देखा तो आश्चर्य में पड़ गया।

वह राह में पड़ने वाली हर एक वस्तु को देखता हुआ बढ़ रहा था। जैसे ही वह समीप आया तभी राजा हरदत्त अपनी प्रजा को साथ ले आगे बढ़ा। सभी के सिर झुके हुये थे। राजा को अपने पास आते देख अमीर ने घोड़ा रोक दिया और स्वयं नीचे उतर आया। हरदत्त ने तीन बार कोर्निश की और आगे बढ़ ताज को अमीर के कदमों में रखने की लिये झुका तो अमीर उसके काँधे पकड़ अपने सीने से लगाते हुए बोला−"इस्लाम को स्वीकार करने वाले राजा हरदत्त अपनी गर्दन ऊँची रख। तेरा ताज मैं ने कुबूल किया।" ताज को अपने हाथ में लेकर महमूद ने पुन: उसी के सिर पर रखते हुए कहा−" राजा हरदत्त ! अब यहाँ एक बूँद भी खून नहीं गिरेगा। यहाँ की रियाया को तुम ही इस्लाम का पाठ पढ़ाना।" इतना कर महमूद हरदत्त के साथ आगे बढ़ दिया। स्वर्ण थालों में लाखों स्वर्ण मुद्रायें लिये बालायें यवनों ने अपने अधिकार में ले लीं। और महलों में जीत का जश्न मनाया जाने लगा। जब राजा जैतपाल, हरदत्त के परिवार को लेकर मथुरा पहुँचा तो महारानी इन्दुमती ने उन्हें सम्मान सहित अपने पास रखा। जनता में जब बरन के युद्ध की वीरता का समाचार पहुँचा तो चारों ओर जय−जयकार होने लगी। लेकिन दो दिन भी न बीतने पाये कि हरदत्त द्वारा इस्लाम स्वीकार किये जाने का समाचार सुन राजा कुलचन्द्र के क्रोध का पारावार न रहा। यह समाचार मथुरा में आग की तरह फैल गया। संकट की घड़ी में प्रजा चौगुने उत्साह से उठ खड़ी हुई।

टीका टिप्पणी और संदर्भ