जय केशव 18

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जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

खुर्जा निकलते ही घने जंगल शुरू हो गए। रात्रि के अन्धकार में कुछ भी दिखाई न देता था। महमूद ने चाहा कि सेना का पड़ाव डाल दिया जाय। परन्तु वह ऐसा न कर सका क्यों कि महदूद मथुरा की जिद पर अड़ा था। उधर चुटैल सेना के अधिकांश सरदार आगे बढ़ने में कतरा रहे थे। सरदारों की मंशा देख वह एक ऊँचे स्थान पर खड़ा होकर बोला"

 "गजनी के बहादुरो। हम शेरों की भाँति फतह हासिल करते हुए यहाँ तक आ पहुँचें हैं और अगर हम रूकते हैं तो पता नहीं दुश्मन हमारी चाल हम पर ही न चल दे। ऐसा न हो कि हम जिन तकलीफों का सामना पीछे कर चुके हैं उन्हीं में फिर फँस जायें। इस वक्त हमारे सामने दो ही रास्ते हैं−एक यह कि हम जंगल के किनारे−किनारे आगे बढ़ें और दूसरा यह कि हम यूँ हीं चलते रहें और खादरों के रास्ते आगे बढ़ें। अल्लाह ने चाहा तो फतह हमारी होगी। अय इस्लाम के बन्दों डरो नहीं। आओ, मेरे साथ चलो।" कह महमूद ने अपना घोड़ा बढ़ा दिया इस तरह बढ़ते−बढ़ते घने जगंल आने लगे। अभी कुछ ही दूर निकले होंगे कि मसऊद को जंगल में कहीं−कहीं रोशनी दिखाई दी। वह जैसे ही अमीर की ओर मुड़ा तो उसे जलती हुई मशालों की भीड़ अपनी ओर आती दिखाई दी। मसऊद ने तुरन्त अमीर को जानकारी दी तो महमूद काँप उठा। महमूद अपनी दाढ़ी खोंसने लगा फिर ना−जाने क्या सोच कर उसने अपना घोड़ा खादरों में उदार दिया। यवनों के खादर में उतरते ही सेनापति सोम देव को दिवाकर ने सूचना दी तो सोम ने धनुष उठा लिया। दिवाकर एक ओर हट गया। धनुष के साथ ही ध्वनि संकेत हुआ और यवनों पर तीर बरसाये जाने लगें। यवनों में हा−हाकार मच गया। पीछे सेना का रेला और ऊपर तीरों की बौछार में महमूद की श्वास घुटने लगी। वह दाहिनी ओर राह बनाता हुआ आगे बढ़ने लगा। लेकिन ऊपर की मार उसे कुछ नहीं करने दे रही थी। अंधकार में वह जानकी शाह और नवासाशाह को गालियाँ बकने लगा।
        सोमदेव ने यवनों की चाल देखकर अपनी दूसरी टुकड़ी के नायक को आदेश भेजा और करबन नदी के घाट को पूर्व की ओर से घेर लिया। लेकिन यवनों की इस दशा का लाभ विजयपाल न उठा सका और यह उसकी एक भयंकर भूल थी। विजयपाल ने सूझबूझ से काम लिया होता तो हालात ही कुछ और होते परन्तु वह सोमदेव की प्रतीक्षा करता रहा।
        दिन निकलते ही विजयपाल तोमर सरदार को साथ ले अमीर की सेना पर बाज की तरह झपटा। वह उसका मार्ग बदलना चाह रहा था और यवन के लिये कोई दूसरा मार्ग न था। विजयपाल जिधर भी तलवार लेकर घुसता त्राहि−त्राहि मच जाती। युद्ध बढ़ता ही जा रहा था। उधर तोमरों से घिरा मसऊद बाहर निकलने के लिये विजयपाल की ओर बढ़ रहा था। विजयपाल ने मसऊद को देखा तो उसका रक्त खौल उठा। उसने अपने घोड़े की गर्दन पर हाथ मारा। वह लड़ाई का मैदान छोड़ दक्षिण की ओर भागा। मसऊद ने पीछा किया परन्तु उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने देखा कि पास पहुँचने से पहिले ही उसका घोड़ा दोनों पैरों के बल खड़ा हो गया और पलटकर विजयपाल ने ऐसा वार किया कि तलवार मसऊद की पीठ पर होती हुई उसके घोड़े पर पड़ी। घोड़े की रीढ़ कट गई । मसऊद नीचे गिरा तो विजयपाल अट्टहास कर उठा−"इसी बल के भरोसे मथुरा को जीतने चला था" मसऊद उछलकर दूसरे घोड़े पर जा बैठा।
दोपहर हो चली थी लेकिन चारों तरफ मार−काट मच रही थीं। हास्यवन से लगी भूमि पर इस तरह रक्त बह रहा था मानों कालिका स्वयं अपना खप्पर भरने चल पड़ी हों। विजयपाल बुरी तरह घायल हो गया। शास्त्री ने देखा तो उसने अपनी टुकड़ी को संकेत किया और पलक झपकते ही मसऊद को घेर लिया। मसऊद को घिरा देख शास्त्री जो विजयपाल की गिरती हालत पर दृष्टि लगाये हुए था तुरन्त विजयपाल के पास पहुँचा और भाग गया। लोग जब−तक समझते कि रामचन्द्र चढ़ बैठा। उसे देख महमूद ने नवासाशाह से पूछा और नवासाशाह ने तुरन्त महमूद को हमला करने का हुक्म दिया। रामचन्द्र की सेना भी मैदान में डट गई। घमासान युद्ध की घड़ी थी लेकिन हिन्दू सेना की संख्या कम होती देख वह और भी वेग से वार करने लगा। अन्ततोगत्वा रामचन्द्र युद्ध में मारा गया। कोहिन ऋषि की तपस्थली में एक योद्धा ने प्राण त्याग दिये परन्तु जीते जी यवन की सेना को हास्यवन के कोला दुर्ग तक न पहुँचने दिया।
        जीत के साथ ही यवन ने किले को लूट लिया। औरतों को बन्दी बना लिया। हुक्म हुआ बुतघरों को मिट्टी में मिला दिया जाये। फसलों में आग लगा दी जाये ,गुलामों को जिन्दा पकड़ा जाये। अमीर अब तक अपनी बीस हजार सेना से हाथ धो बैठा था। वह चिन्तित हो उठा और हार कर उसने यही निर्णय किया कि आगे की लड़ाई में गुलामों को आगे रखा जाये ओर जो इस्लाम कुबूल करता हो उसे मुआफ कर दिया जाये।
        राजा कुलचन्द्र हास्यवन के समाचार जानने को चिन्तित हो रहे थे। इन्दुमति गोविन्द को गोद में लिये उनके पास बैठी थी तभी किसी ने शास्त्री के आने का समाचार दिया। कुलचन्द्र ने तत्काल उपस्थित होने के लिये कहा। शास्त्री का लहुलुहान शरीर देख वे तुरन्त उठ खड़े हुए −शास्त्री क्या बात है। तुम्हारे चेहरे पर घबराहट कैसी ?" अन्नदाता विजयपाल गम्भीर रूप से धायल हैं। क्या हुआ उसे ?­ कहते हुए इन्दुमती भी उठ आई। वे अचेत अवस्था में हैं। महामात्य ने अर्जुनसिंह के सहारे उन्हें उतार लिया है ओर वैद्य को बुलवा लिया है। श्री महाराज हमें देखना चाहिए। इतना कह कर इंदु ने गोविंद को हंसा की गोदी में दिया और श्री महाराज को साथ ले विजय को देखने चल दिये।
        विजयपाल के घावों को धोकर वैद्य दवा लगा रहे थे कि तभी राजा कुलचन्द्र ओर महारानी इन्दुमती ने प्रवेश किया। महारानी इन्दुमती के मन की दशा को पढ़ पाना कठिन था लेकिन उसने पहुँचते ही विजय का सर अपनी गोद में रख लिया ओर सिर पर हाथ फिराते हुये बोली−"वीर विजयपाल, वीर कभी अचेत नहीं होते। तुमने तो अपना रक्त बहा कर माँ की कोख को सम्मान दिया है। "इधर राज्य की रानी माँ एक वीर का सिर अपनी गोद में रखे बैठी थी उधर महामात्य शीलभद्र ने भी रामचन्द्र के बलिदान का सामाचार दिया तो कुलचन्द्र अवाक रह गये। वैद्य ने विजयपाल को सचेत होने में एक दो दिन का समय बताया।
        महलों में पहुँचकर रामचन्द्र और अन्य वीरों के प्रति शोक सवेंदनायें व्यक्त की गयीं। हास्यवन से लौटकर सोमदेव भी सीधा महलों की ओर गया। राजा कुलचन्द्र ने मंत्रणाग्रह में सभी राज्यों के राजाओं, सेनापतियों, सरदारों के साथ−साथ राजगुरु और माहामात्य को बुलाकर मँत्रणा की। महामात्य के आग्रह पर युद्ध संचालन का भार श्री महाराज ने अपने ऊपर लिया। महामात्य और सोमदेव ने मथुरा की गणेश चौकी, ध्रुव चौकी, बलि चौकी तथा कंस किले की सुदृढ़ सैन्य व्यवस्था का वर्णन किया। चामुण्डा अक्रूर घाट और रूद्रघाट से लेकर महादेवघाट रावण कोटी तक चारों ओर सैन्य बल को सचेत कर दिया गया था। रिषीपुर में यमुना पार विद्याघर अपनी सेना के साथ तैयार खड़ा था।

राजा कुलचन्द्र ने जब गजवाहिनी सेना के बारे में पूछा तो शीलभद्र ने बताया कि उसे वनों में छिपाया गया है। लेकिन वह नीच सब से पहले दुर्ग पर आक्रमण करेगा राजा ने अपनी शंका जताई तो सोमदेव बोला− "श्री महाराज आपकी शंका निर्मूल नहीं है परन्तु महमूद की ताकत जवाब देने लगी है। मसऊद का एक पैर टूट चुका है सेना में बीमारी फैलने लगी है। गुप्तचरों से ज्ञात हुआ है कि अमीर ने अपने गुप्तचर भी भेजे हैं। जो मुरसान से राया की ओर चल चुके हैं। "वह कुछ और कहता कि द्वारपाल ने गजनी के दूतों के आने की सूचना दी। सुन कर सभी के हाथ तलवार पर पहुँच गये। राजा ने उन्हें आने के लिए कहा तो थोड़ी देर पश्चात जानकीशाह और नवासाशाह ने प्रवेश किया। उन्हें देखते ही राजा की आंखे दहकने लगीं। "ब्रजराज राजेश्वर श्री महाराज की जय हो" "बोलो सुख पाल क्या बात है,"

 श्री महाराज अमीर ने हमें सन्धि हेतु भेजा है।"
 सुखपाल तुम और तुम्हारा अमीर दोनों ही कायर है। एक ओर वह विश्वास की बात करता है तो दूसरी ओर युद्ध की धमकी देता है आखिर वह चाहता क्या है ? "
 "अमीर का इरादा बदल चुका है। अब तो वह आपसे कन्नौज का रास्ता चाहता है। "
        "इसके बदले वह हमसे क्या चाहता है ? उसने कुछ शर्तें भी तो रखीं होगी ?"
 " श्री महाराज उसने मात्र दो शर्तें रखी हैं। "
        "क्या ?"
"पहली तो यह की यहां कि समस्त देव प्रतिमायें उसे सौंप दी जायें।"
 "असम्भव" कहते कुलचन्द्र का चेहरा तमतमा उठा। वह क्रोध को पीते हुए पुन: बोले−"और दूसरी "।
 "श्री महाराज अमीर तो बरन से ही अपना इरादा बदल चुका था। परन्तु महदूद ने जिद करके उसे मथुरा पर हमला करने को बाध्य किया है। वह........। यहाँ की महारानी......।"
        "सावधान जो एक भी शब्द कहा तो। काश कि तुम दूत न होते। जाओ, और उस अत्याचारी से कहना कि ब्रजवासियों ने मरना सीखा है गिड़गिड़ाना नहीं ! यहाँ की किसी भी देव प्रतिमा को तो क्या हमारे जीते जी एक पैर भी नहीं रख सकता।" इतना कह कुलचन्द्र उठ खड़े हुए। चारों ओर जय−जय कार होने लगी।
        नवासाशाह और जानकी−शाही वापस लौट दिये। राजा कुलचन्द्र ने महामात्य और सोमदेव को रोक लिया। गजवाहिनी सेना को आदेश भिजवाये। दुर्ग के द्वार बन्द करा दिये गये । पुल और गुप्त मार्गों को नष्ट कराने का आदेश दे दिया। वहाँ से विदा होकर सोम महारानी इन्दुमती के पास पहुँचा। विजय की चेतना लौटने लगी थी।
        सोम ने जब सारी बातें रानी माँ को बताई तो उसकी आँखों से क्रोध की ज्वाला फूटने लगी। उसने हंसा की ओर देखा फिर सोम को सम्बोधित करती हुई बोली "वत्स ! महाराज को मैं अच्छी तरह जानती हूँ। इन्दुमती के प्राण भले ही चले जायें लेकिन वह श्री महाराज को छोड़कर कहीं नहीं जायेगी। आज माता चामुण्डा कंकाली और माता महाविद्या की आन वह दुष्ट मथुरा आकर तो देखे।" कहते−कहते वह मौन हो गई। सोमदेव आज्ञा लेकर सीधा राजगुरु के पास पहुँचा।
        महामात्य और श्री महाराज की आज्ञानुसार उसने महालय की व्यवस्था का निरीक्षण किया और आश्वस्त हो कर वह ब्रह्म देव की प्रतीक्षा करने लगा।
        राजगुरु ने आते ही उसे आशीर्वाद दिया और साथ ले पाषाणी परकोटे की ओर चल दिये। परकोटे के सहारे वे काल भैरव की ओर बढ़ने लगे तो सोम बोला−"गुरुदेव क्या भृगुदत्त कोई नई चाल चल रहा है ?"
        "कहा नहीं जा सकता लेकिन इस शीत भरी रात्रि में भी दिव्या ने कई सन्यासी भेषधारी व्यक्तियों को मंदिर में जाते हुए देखा है।" " वे अवश्य शत्रु होंगे। हमें यहाँ के गुप्त मार्गों पर ध्यान देना होगा।"
        "हाँ। रिषीपुर में जो सरदार हैं वह और देवालय के समीप जो कुण्ड है। इनसे आने वाले मार्ग बन्द कराने होंगे।" ब्रह्मदेव कुछ और कहते कि उन्हें कालिन्दी के जल में से कुछ छायायें ऊपर उठती और पुन: वनों में विलीन होती हुई दिखाई दीं। सोमदेव ने राजगुरु से धीरे से कुछ कहा और पानी में उतर गया। वह तीव्र गति से उसके पिछे लगा लेकिन उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उस पार पहुँचती उस छाया को तड़पते देखा और पास में खड़ी स्त्री को देखा−"देवी दिव्या आधी रात को तुम यहाँ।"
        "हाँ आर्य।"
        "यह कौन है ?"
        "इसी से पूछना होगा।"
        "कौन है तू ? सोमदेव ने उसे एक ही झटके में उठाकर खड़ा कर लिया। लेकिन उसे कोई उत्तर न मिला तो दिव्या बोली−
        "आर्य। सुखपाल को बोलना नहीं आता।"
        "सुखपाल नवासाशाह। अरे नीच गद्दार ! तेरे जैसों ने ही भारत माता को कंलकित किया है। और कौन है तेरे साथ जल्दी बोल−अन्यथा यह तलवार तेरे सीने के पार होगी," कहते−कहते सोमदेव ने तलवार सीने से अड़ा दी।
        नवासाशाह चौंक उठा−"मुझे क्षमा कीजिये।"
     " तेरे साथ और कौन था"......."
        "जानकी शाह।"
        "यहाँ क्या करने आया था ?"
        "भृगुदत्त को ले जाने के लिये।"
        "कहाँ ?भृगुदत्त कहाँ है ?"
      " वह अमीर के पास पहुँच रहा होगा।"
        "तब जब तक वह लौट नहीं आता, तुझे यहीं रहना होगा। इतना कह कर वह उसे घसीटता हुआ रिषीपुर की ओर ले चला। दिव्या ने भी साथ जाने को कहा तो उसने उसे राजगुरु के पास भेजा दिया और यह सन्देश भी भेजा कि पूरे समाचार श्री महाराज तक अभी पहुँचवा दे। दिव्या ने एक बार सोम की ओर देखा और पुन: पलटकर चल दी। सोम ने नवासाशाह को विद्याधर के हवाले किया और पुन: घोड़ा लेकर सभी को सावधान करता हुआ चल दिया। महमूद गजनी के सामने राजा कुलचन्द्र की चुनौती थी तो अपनी सेना में फैलती बीमारी भय और निराशा थी। वह बार−बार अपनी योजनाओं में परिवर्तन करता मथुरा की ओर बढ़ रहा था। वह भृगुदत्त से मिलना चाहता था। उधर राजा कुलचन्द्र के गुप्तचर उन्हें पल−पल पर समाचार दे रहे थे। राजा के सामने दुर्ग और देवालय तथा कालिन्दी के दो किनारे थे। उन्हीं पर युद्ध संचालन का भार था। वह विचार मग्न अपने कक्ष में घूम रहे थे कि तभी प्रहरी ने महामात्य के आगमन की सूचना दी उन्हें तुरन्त आने की कह राजा कुलचन्द्र प्रतीक्षा करने लगे। शीलभद्र ने आकर प्रणाम किया−"अन्नदाता की जय हो। श्री महाराज अनर्थ हो गया है।"
        "अनर्थ कैसा ? महामात्य।"
        "भृगुदत्त भाग गया।"
        "कैसे ? उसका भाग जाना चिन्ता का विषय है। आपने क्या किया ?"
        "रिषीपुर से जो सैनिक नवासाशाह और जानकी−शाही को पकड़ कर लाए हैं उनसे यही पता चला है कि सोमदेव ही इन्हें सौंपकर अकेले भृगुदत्त के पीछे गए हैं।"
        "महामात्य ! तुरन्त सेना भेजकर पीछा कराइये। उस लोभी राज्यद्रोही का पीछा कराइये। रात्रि का अन्तिम प्रहर है शीघ्रता कीजिए।"
        "जैसी आज्ञा, श्री महाराज।" इतना कह शीलभद्र वापस लौट दिये। कुछ ही क्षणों में घुड़सवारों को साथ ले वे अभी लोहवन ही निकल पाये होंगे कि सेनापति सोमदेव लौटता दिखाई दिया। भृगुदत्त के मारे जाने का समाचार सुन उन्होंने तुरन्त महाराज को समाचार देना चाहा और सोमदेव के साथ स्वयं महावन लौट गये। सूर्योंदय के साथ जब उन्होंने यह समाचार विस्तार से सुना तो उन्होंने सोमदेव की पीठ थपथपाई और उसे विश्राम करने की सलाह दी।
        सोमदेव के जाने के पश्चात कुलचन्द्र महामात्य को साथ लेकर प्राँगण की ओर चल दिये। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है परन्तु जब किसी धार्मिक सम्प्रदाय का संचालन वृत्ति मूलक समुदाय के संरक्षण में चला जाता है तो समुदाय विशेष अपने स्वार्थ के लिये धर्म की वास्तविकता से सुदूर स्वार्थ सिद्धि का मायाजाल फैलाकर जन सामान्य में अनेकों भ्रान्तियां फैलाने लगता है। भाँति−भाँति के भय और प्रलोभन देने लगता है। ब्रज में ऐसी ही प्रवृत्तियाँ पनप रहीं थी, महामात्य को साथ ले राजा कुलचन्द्र ज्यों ही प्राँगण में पहुंचे तो वीर भेष में सहस्त्रों नारियों को देख गदगद हो उठे। वे कुछ कहते कि सभी नारियों ने तलवारें ऊंची कर राजा का सम्मान किया। उन्होंने ऊपर दृष्टि उठाई तो महारानी इन्दुमती कवच धारण किये दिखाई दी। वे उस ओर बढ़ते कि दुर्ग की प्राचीर से नरसिंहे की आवाज सुनाई दी−"महामात्य लगता है शत्रु सेना किले की ओर बढ़ने लगी है।"
        "मैं जानता हूँ महाराज।" परन्तु.......
        "परन्तु कुछ नहीं, महामात्य अब तो महाशक्तियों के संरक्षण हेतु योगमाया का ही भरोसा है। भगवान श्री राधा−कृष्ण की आन हम अपने जीते जी एक तिनका भी उस लुटेरे के हाथ नहीं लगने देंगें। आप राज गुरु को बुलायें।' कह राजा कुलचन्द्र महलों में पहुंचे तो महारानी इन्दुमती ने अपने स्वामी के चरणों के सिर रख दिया।
        "उठों वीरागंना। भगवान केशव ब्रज में ऐसी शक्तियाँ पैदा करें। आओ और पुन: अपने हाथों विजय−तिलक कर हमें युद्ध हेतु विदा करो।
        "जो आज्ञा, श्री महाराज।" कह इन्दुमती ने दासियों को तैयारी करने की आज्ञा दी। उधर लोह कवच और अस्त्र शस्त्रों से कुलचन्द्र को तैयार किया जाने लगा। नरसिंहे की आवाज सुनते ही सेनापति सोमदेव भी आ पहुँचा। पलक झपकते ही योद्धा लोग अस्त्र−शस्त्रों से सुज्जित हो प्रांगण में एकत्रित होने लगे। राज−गज, शास्त्री, दिवाकर, महामात्य और राजे, महाराजे सरदारों के चेहरे क्रोध से तपे जा रहे थे। गजराज को हीरे जवाहरातों की झूल से सजाया गया। गजराज की दाहिनी ओर सेनापति सोम था तो बांई ओर का स्थान ख़ाली था। मंगल वाद्य बजने लगे ,महिलायें गीत गाने लगीं। लेकिन कुलचन्द्र विजय को न देख इन्दुमती की ओर देखने लगे। इन्दुमती जो दीप जलाये खड़ी थी को समझने में एक पल भी नहीं लगा वह धीरे स्वर में बोली−"महाराज विजय अभी इस योग्य नहीं हुआ है।"
        "तो क्या आज हमें बिना विजय के ही तिलक करेंगी ?" महाराज अपनी बात पूरी करते कि विजयपाल कच्चे घावों से बहते लहू के साथ ही सामने सीना ताने योद्धा की भाँति चला आ रहा था। इन्दुमती ने देखा तो उसका कलेजा धक−धक करने लगा। गीत बन्द हो गये। सभी विजयपाल की ओर देखने लगे। तभी प्राँगण से राणा कतीरा की जय हो, राजा कुलचन्द्र की जय हो, के बोल से दुर्ग गूंज उठा। इन्दुमती ने तिलक किया और सर्वप्रथम महाराजा कुलचन्द्र को फिर सोमदेव और विजयपाल को शस्त्र दिये। राजगुरु ने सभी की विजय की कामना करते हुये आशीर्वाद दिया। पुन: वे योगमाया के मन्दिर गए सभी तीर्थों, शक्ति- पीठों, और महापुरूषों का आशीष ग्रहण कर प्राँगण में लौट गये।
        चारों ओर से फूल बरस रहे थे। घोड़े हिनहिना रहे थे। हाथी चिंघाड़ रहे थे। ऐसा लगता था मानो भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत का पाञ्चजन्य शँख पुन: फूंक दिया हो। राजा कुलचन्द्र ने विजय की गम्भीर हालत देख उसे पुन: विश्राम करने भेज दिया। रानी रूपाम्बरा आगे बढ़ी तो कुलचन्द्र के मुँह से निकला−
        "देवी रूपाम्बरा, सामाजिक मूल्यों की आत्मा में भी वैयक्तकि मूल्यों की महानता होती है। तुम्हारी देशभक्ति, शालीनता, दृढ़ चरित्रता के बदले हम ब्रजवासी सिवाय तुम्हें पूज्य भाव से देखने के अतिरक्ति क्या दे सकते हैं ? तुम स्वतन्त्र होकर महारानी की आज्ञा पालन करो।" इतना कह वे राज गज की ओर बढ़ने लगे तो महारानी भी साथ चलने लगी। इन्दुमती को आते देख राजा कुलचन्द्र के मुख से निकल ही गया−"महारानी आप गोविन्द के पास रहती।"
        "श्री महाराज, गोविन्द सभी का है।" इतना कह वह राजा कुलचन्द्र के साथ चल दीं। महामात्य ने सेनापति और स्वयं को दुर्ग से बाहर जाने की अनुमति ली। चारण और कवियों द्वारा प्रजाजन में वीरता के भाव फूँक जाने लगे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ