जय केशव 2

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जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

राजा कुलचन्द्र के संरक्षण में मथुरा का राज्य नित्य प्रति विकास की ओर बढ़ रहा था। उत्तर में तोमर वंश के राजाओं का राज्य था तो दक्षिण में कछवाहों और पवारों के राज्य थे। पूर्व में प्रतिहार थे तो पश्चिम में चौहान राजा थे। वह ब्रज जिसकी सीमाएं कभी हिमालय से विंध्याचल तक और बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक रहीं थी। जिस ब्रज की जनता ने अपने सम्राटों को महेन्द्रायुध और निर्भयराज की उपाधियों से विभूषित किया था। उन्ही राजाओं में से महेन्द्रपाल के बाद भोज द्वितीय, देवपाल, विनायकपाल, विजयपाल, राज्यपाल और त्रिलोचनपाल के अपने कठिन परिश्रम और बाहुबल से मथुरा को गौरवान्वित किया। परंतु कालचक्र की गति में ब्रज की भौगोलिक सीमाएं सिमट अवश्य रही थीं। ब्रज का गौरव अक्षुण्ण था। राजा कुलचन्द्र ने अपने राज्य को सुदृढ़ बनाने में कोई कसर न छोड़ी थी। सीमावर्ती सामरिक महत्व के अनेक ग्राम एवं नगरों में सुदृढ़ गढ़ियों और किलों का निर्माण करा दिया था। उनके प्रबंध का सारा भार राज्य के ऊपर था। राज्य की आर्थिक दशा सुधारने के लिए सभी को समान सुविधाएं प्राप्त थी। सुरक्षा की दृष्टि से हर एक गढ़ी में पर्याप्त सेना थी।

राज्य की सामाजिक व्यवस्था में भी अनेक सुधार कर उसे सुव्यवस्थित किया गया था। एक ओर समाज को पूर्ण स्वतंत्रता थी तो दूसरी ओर कठोर अनुशासन और दण्ड भी। प्रजा को न्याय पाने का पूर्ण अधिकार था तो अपराधी को दण्ड देना राज्य का कर्त्तव्य फिर भी राजनैतिक षड़यंत्रों से ब्रज अछूता न था। इतना सब कुछ होते हुए भी राजा के सभी पड़ोसी राज्यों से आत्मीय संम्बंध थे। राजा कुलचन्द्र ने अपने सभी विभागों पर योग्य और विश्वस्त व्यक्तियों को नियुक्त किया हुआ था। लेकिन राजा कुलचन्द्र अपने महल में चिन्तित हुए बैठे थे। संध्या को आमंत्रण देती सूर्य की किरणें नन्ददुर्ग की प्राचीरें छूने लगी थीं। ब्रज बालायें रंग–बिरंगे लहंगा ओढ़नियां, धारणकर, सिर पर भरी हुई गागरें रखे गीत गाती हुई पनघट से लौट रही थी। महारानी इन्दुमती जमुना की लहरों में प्रतिबिम्बित किरणों का आनंद ले रही थी कि तभी उनकी दासी ने आकर कहा–"अपराध क्षमा हो रानी मां।"

"हंसा। क्या बात है ?"
"रानी मां। अतिथि ग्रह से भी महाराज की आज्ञा हुई है कि आप यथा शीघ्र अतिथि गृह पधारें।"
"सब कुशल तो है न।"
"यह तो नहीं पता परंतु श्री महाराज के पास राजगुरु महामात्य और सेनापति जी सभी बैठे हुए है।"
"तब अवश्य ही कोई विशेष बात है चलो।" कह इन्दुमती हंसा के साथ अतिथि गृह की ओर चल दी।"
नन्ददुर्ग का अतिथि गृह आज अनायास ही गम्भीरता धारण किए हुए था। राजा कुलचन्द्र निरंतर द्वार की ओर देख रहे थे और ज्योंही द्वारपाल ने महारानी के आने की सूचना दी सभी की दृष्टि द्वार की ओर लग गयी। जैसे ही इन्दुमती ने प्रवेश किया राजगुरु ने उन्हें आशीर्वाद दिया। पुन: वे सभी का अभिवादन स्वीकार कर राजा कुलचन्द्र के पास बैठते हुए बोली–"श्री महाराज। सब कुशल तो है।"
"महारानी"। यदि कुशल ही होता तो आपको कष्ट न दिया जाता।"
"मै कुछ समझी नहीं क्या कोई भंयकर अपराध किया है किसी ने ?"
"यह तो महामात्य ही बतायेंगे।" कहते हुए राजा कुलचन्द्र ने शीलभद्र की ओर संकेत किया तो वे उत्तरीय संभालते हुए बोले–"राजमहिषी। सारे नगर में यह सामाचार जोर पकड़ रहा है कि कल महाकाल भैरव के मंदिर से एक प्रमुख साधिका का अपहरण हुआ है और भैरविये खुले रूप से इसका आरोप सेनापति पर लगा रहे हैं।"
"लेकिन इस आरोप की सच्चाई का पता आपने भी तो लगाया होगा ?" इन्दुमती ने रोकते हुए कहा तो महामात्य गंभीर हो उठे और बोले–
"खोज करने पर यही ज्ञात हुआ है कि कल सेनापति महाकाल के मंदिर की ओर गये तो थे।" इतना कह महामात्य सोम की ओर देखने लगे।
सेनापति सोम गर्दन नीची किए बैठा था। इन्दुमती ने एक बार उसकी ओर देखा और पुन: महामात्य का सम्बोधित करते हुए बोली–"हम सबका चिन्तित होना स्वाभाविक है महामात्य, परंतु इस महिला की ओर से किसी ने कोई प्रतिवाद नियमानुसार आपके कार्यालय में किया है?"
"जी नहीं।"
"तो फिर क्या मात्र उन भैरवियों के चीखने चिल्लाने पर ही विश्वास कर लेना चाहिए। मेरा व्यक्तिगत सुझाव है कि सत्य की जड़ तक पहुंचे बिना हमें संदेह से मुक्त रहना चाहिए। सेनापति के प्रति संदेह का निवारन होना ही चाहिए साथ ही अपराधी जो भी हो उसे दण्ड मिलना ही चाहिए और इस कार्य के लिए आप पूर्ण समर्थ है मेरा तो इस सम्बन्ध में यही विचार है। शेष राजगुरु और श्री महाराज जैसी आज्ञा दें।"
"नहीं महारानी। आपका विचार सही है। समस्या का समाधान भी और न्याय की कामना भी। मेरी सम्मति तो यही है कि नागरिकों में फैली अफवाहों को और समय देना चाहिए।" इतना कह राजगुरु ने राजा कुलचन्द्र की ओर देखा। कुलचन्द्र कुछ सामान्य हुए और महामात्य की ओर देखते हुए बोले–"महामात्य, राजगुरु का कहना उचित ही है। परंतु शीघ्रातिशीघ्र सत्य क्या है इसका पता लगवाकर हमें सूचित करें।" इतना कह राजा कुलचन्द्र खड़े हो गये। सभी लोगों ने उनका अनुसरण किया और अपने–अपने गन्तव्य की ओर चल दिये।
इन्दुमती, सोमदेव को साथ ले महलों की ओर चल दी। रास्ते में सोम ने जब सारी घटना सुनाते हुए यह बताया कि भैरवियों ने जान बूझकर सुखदा का अपहरण किया है और उसे हमारे राज्य में इसलिए रखा है ताकि भेद खुलने पर हमारा ही मित्र राज्य मित्रता के स्थान पर शत्रुता में बदल जाय। रानी मां यदि मैं समय ने न पहुँचा होता तो बहुत अनर्थ हो जाता।"
'नहीं वीर। तुमने जो कुछ किया सही किया। तुम जाओ और शीघ्र उसे हमारे पास पहुंचाने का प्रबंध करो। हां यदि महाराज पूछें तो सब कुछ स्पष्ट बता देना।" इतना कह महारानी ने सोम को विदा किया और स्वयं हंसा को लेकर महल में पहुँची। उन्होंनें तुरंत दासियों को विशेष दिशा निर्देश दिए और सोम की प्रतीक्षा करने लगीं।

कुछ समय बाद महल में गुप्त मार्ग से एक डोली पहुँची। संकेत पाते ही दासियों ने डोली को घेर लिया। महारानी इन्दुमती ने स्वयं आगे बढ़कर उसको डोली से उतारा ओर अपने गले लगा दिया। महल में चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश फैल रहा था। अनुपम सुन्दरी को देख इन्दुमती बोली–"बेटी। निश्चिन्त रहो, तुम पूर्ण सुरक्षित हो।" इतना कह उन्होंने दासियों को संकेत किया और वे सभी अतिथि की सेवा में जुट गईं। इधर महारानी के मन में यह सब हो रहा था तो उधर राजा कुलचंद्र मथुरा की ओर केशव महालय पर जलते दीप की लौ देखने में व्यस्त थे। कभी उनका ध्यान भंग होता तो वे राज्य भक्त प्रहरियों को देख संतोष की सांस लेते। प्रकृति का मूल स्वभाव ही ऐसा है कि वह एकनिष्ठ नहीं रह पाती। परिवर्तन ही उसका गुण है। आनन्द ही उसका प्राण, परंतु उत्तरदायित्व के निर्वहन में मनुष्य की निष्पक्ष निष्ठा भी एकनिष्ठ व स्थित नहीं रह पाती। महाराजा कुलचन्द्र का अंत:मन आध्यात्म भाव में राधा–कृष्ण में लीन रहना चाहता था तो मन बुद्धि, विवेक और बल राज्य, प्रजा और धर्म रक्षा के लिए समर्पित थे। राज्य के सर्वेसर्वा होने के नाते उनका चिन्तन निर्मूल न था। विदेशी आक्रांता महमूद गजनवी आक्रमण पर आक्रमण कर राष्ट्र की पावन धरा को अपनी अमानवीय नीतियों, अत्याचारों और सेना के साथ कुचलता चला आ रहा था। वे एकांत पाते तो भावी युद्ध की आंशका से चिन्तित हो उठते, आज भी इसी चिन्ता में डूबे वे अर्ध्द रात्रि को ध्रुव चौकी, गोकरण, अम्बरीष चौकी की ओर देख विचारमग्न हो रहे थे। परंतु जब बहुत देर तक वे महारानी के पास न पहुंचे तो इन्दुमती स्वयं ही उनके पास चली आई। महारानी के आने की सूचना जब सेवक द्वारा राजा कुलचन्द्र को मिली तो वे चौंक पड़े। वे विचारों में इस तरह खोये थे कि समय का ध्यान तक न रहा। वे इन्दुमती की ओर बढ़ते हुए बोले–'देवी। इतनी रात गए तुम यहाँ।

"बस कीजिये स्वामी। मैं देवी नहीं, आपकी अर्द्धांगिनी हूं। क्या आपकी चिन्ता मेरी चिन्ता नहीं ?" इन्दुमती वक्ष से लगती हुई बोली तो महाराजा कुलचन्द्र ने अपना हाथ उसके सिर पर रख लिया, फिर बोले–"नहीं। प्रिये। ऐसा मत सोचो। परंतु कभी–कभी इतनी आंशकायें होने लगती हैं कि समझ नहीं आता क्या होगा ?"

"श्री महाराज आप धर्म के रक्षक है। धीर–वीर है। यदि आप ही अस्थिर होने लगेंगे तो राज्य और प्रजा का क्या होगा। प्राण चलें और चलकर विश्राम करें। मुझे विश्वास है सोमदेव आप से मिल लिया होगा।" इन्दुमती इतना कह कुलचन्द्र को अपने साथ ले जाने लगी तो चलते–चलते वे बोले–"हां, सोम ने सुखदा के बारे में सब कुछ बता दिया है। उसका ध्यान रखना प्रिय। "

"आप निश्चिन्त रहें।"

"हमारी निश्चिन्तता पर तो यवन ने प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।" कहते हुए वे शयन कक्ष की और चल दिये। विदेशी आक्रान्ताओं को लेकर सभी राज्यों का चिन्तित होना स्वाभाविक था। ग्यारहवीं शताब्दी का प्रारंभ भारत के इतिहास व गौरवमयी अतीत के लिए खुली चुनौती देता बढ़ रहा था। लेकिन स्वाभिमानी राज्य अभी अपने राज्य और मातृभूमि के लिए मर मिटने को कटिबद्ध खड़े थे।

टीका टिप्पणी और संदर्भ