जय केशव 20

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जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

भोर होते ही महमूद किले में घुसा तो वहाँ के भवनों का निर्माण, उनका सौन्दर्य देखते हुए कहने लगा "या खुदा मेरा गुनाह मुआफ करना। आज तक दुनियां में कही ऐसी मिसाल नहीं। दिल को गवारा नहीं हो रहा कि इस चमन को उजाड़ा जाये। लेकिन महमूद यह जंग किसके लिये कर रहा है। यह वे सियासतदां ही अच्छी तरह जान सकते हैं जिनसे सियासत की मजबूरियाँ वह सब करा लेती हैं जिन्हें वे नहीं करना चाहते।"काश महमूद के होंठों तक आये शब्द उत्वी अथवा अलबरूनी ने सुने होते।

सोम ने जब यह जान लिया कि श्री महाराज मथुरा पहुँच चुके होंगे तो उसने हंसा को बुलाया और उसे सभी दुर्ग में फँसी वीरांगनाओं के साथ मथुरा जाने के लिये कहा तो बह बोली−"आर्य सेनापति−अभी हमारा कार्य पूरा नहीं हुआ है। यवन हम पर रहम नहीं करेगा तब क्यों न यहाँ से जाने से पूर्व हम ही यहाँ की ऐसी स्थिति कर चले कि यवन हाथ मलता रह जाये।"
        "तू ठीक कहती है। तू शीघ्र रानी माँ के वस्त्र बदल और मेरे साथ चल।" कह सोम ने दुर्ग की समस्त वीरांगनाओं को गुप्त मार्ग में उतार दिया और जब हंसा को लेकर प्रांगण की ओर एक खिड़की से दृष्टिपात कराया तो मसऊद देखते ही चीखा−"आलम पनाह, कयामत की मलिका अभी जिन्दा है। वह देखिये ऊपर की ओर।"
महमूद ने एक नजर देखा तो महलों से धुँआ उठ रहा था। उसी बीच उसे राजसी परिधानों में सजी महिला दिखाई दी। उसने तुरन्त उस महल को घेरने का हुक्म दिया। लेकिन सोमदेव हंसा को लेकर मथुरा जा चुका था। हंसा ने जहाँ−जहाँ गुप्त मार्ग थे उन्हें नष्ट करवा दिया। महमूद की सेना जिधर भी जाती उधर उसे आग का सामना करना पड़ता। वह जिस धन और वैभव को मथुरा से लूट कर ले जाना चाह रहा था वह उसी के सामने राख का ढेर बनता देख क्रोध से पागल हो उठा। तभी महलों के गिरने कि आवाज हुई। महमूद अट्टहास कर उठा−"अय बहादुर कुलचन्द्र, मैं तेरी और तेरी रिआया की बहादुरी के आगे अपना सिर झुकाता हूँ।"
        महावन पर महमूद का अधिकार हो गया। कई दिन तक उसने रसद इकट्ठी की। सेना ने आस−पास में पड़ने वाले गाँव उजाड़ दिये। बलदेव, योगिनी, कारव आदि नष्ट कर दिये। जंगलों से स्वस्थ हाथी और घोड़ों को पकड़वा कर उसने सेना की व्यवस्था की। लेकिन उसका दिल मथुरा की ओर जाने में डरने लगा।
        महारानी इन्दुमती और राजा कुलचन्द्र ने मथुरा पहुँच कर राजगुरु को प्रणाम किया और भगवान केशव के चरणों में सादर प्रणाम कर विजय की कामना की। राजगुरु ने उसकी सारी व्यवस्थाएं देखी। विजयपाल का दाहसंस्कार कराया। तत्पश्चात् इन्दुमती गोविन्द को लेकर उसे दुग्ध पान कराने लगी। अभी थोड़ी ही देर बीती होगी कि सोम और हंसा को आता देखा तो देखती ही रह गई। हँसा ने चरण छुए तो उसके सिर पर हाथ फेरा−पुन: सोम की ओर देखकर बोली−"वत्स सोम इतिहास क्या लिखेगा मुझे इसकी चिन्ता नहीं लेकिन मथुरा की रानी माँ हो कर कायरता कभी सहन नहीं होगी। हमारा त्याग बलिदान ओर कर्म कभी हमसे हमारे केशव को दूर नहीं होने देंगे।"

सोमदेव पुन: प्रणाम कर राजा कुलचन्द्र और राजगुरु से मिला और महावन का सारा विवरण दिया। विवरण देकर वह दैनिक क्रियाओं से निवृत हो अपने घावों पर पट्टियाँ बँधवा महाविद्या के प्रांगण में पहुँचा ही था कि मन्दिर की सीढियों से उतरती उसे दिव्या दिखाई दी।
        "दिव्या"
        "आर्य....आप....।" वह आगे कुछ न कह पाई और बिलख पड़ी। "आर्य क्या आप जानते है ? आपके पीछे कितनी चिन्ता में जीना होता है।"
        "देवी, यवनों के संहार का वचन भी तो तुमने लिया था। प्राणों का मोह त्याग सभी उसी के संहार में लगे हैं।"
        "जो राजा दुर्ग हार जाये फिर लड़ाई जीत भी जाये तो वह दुर्ग जीत लेगा ऐसा उदाहरण नहीं मिलता।" कहते−कहते दिव्या घनी झाड़ियों की ओर चलने लगी। वह पुन: नि:श्वास छोड़ते हुये बोली−"सैंकड़ों हजारों साल पुरानी मूर्तिकला भग्न कर दी गई है। महलों में अब्रक पर किया चित्रांकन खण्ड−खण्ड हो गया हैं। जैन−बौद्ध और भागवद् कालीन भित्त चित्रण नष्ट हो रहा है। सारे नगर के रास्ते लाशों से पट गये है......और....सभी को दुर्ग छोड़ कर भगवान की शरण लेनी पड़ी है। हे आर्य, हम तो.....वह कुछ और कह पाती कि सोम चकित हो उठा। वह धैर्य बँधाते हुए बोला−"यह सच है कि भूलें तो हम से भी हुई हैं परन्तु "
 "परन्तु कुछ नहीं आर्य। महाकाल भैरव के मन्दिर के पास तिकौना घाट हैं उसी के नीचे हो कर दो गुप्त रास्ते गये थे जिन्हें फुड़वाकर बन्द कर दिया गया है। आप तो आज्ञा करें। मैं तो अपकी पीड़ा के बारे में भी नहीं पूछ पाती।"
        "जब तक तुम हो मुझे कुछ नहीं होगा। मुझे परमार सेनापति से मिलना है।"
        "भगवती आपको विजयी बनायें।" दिव्या ने एक बार फिर सोम की ओर देखा और सोम दीर्घ नि:श्वास छोड़ता हुआ वहाँ से चल दिया।

टीका टिप्पणी और संदर्भ