जय केशव 21

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जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

मथुरा राज्य की सबसे बड़ी विशेषता तो यही थी कि−भगवान श्री कृष्ण की जन्म स्थली होने के नाते इस स्थान की पवित्रता और भव्यता को यथा सम्भव बनाये रखा गया। हर सम्प्रदाय के तीर्थ, देवालय, संघाराम और शक्ति पीठों के अनादिकालीन शाश्वत सत्य यहाँ विद्यमान थे। राधा और कृष्ण की लीला स्थलों को राज्य का पूर्ण संरक्षण प्राप्त था। यंत्र, मंत्र, तंत्र, के महान ज्ञाताओं की भूमि सन्त और तपस्वियों से लेकर सामान्य प्रजा तक थे। मथुरा धर्माचरण का अनूठा प्रेरणा स्त्रोत था। वैदिक काल से लेकर स्मृतियों; पुराणों, उपनिषदों का सृजन इसी भूमि पर हुआ। यहाँ की सघन वनस्पतियाँ व सरोवरों के किनारे अनेक ऋषि−महर्षियों के आश्रम रहे। इन आश्रमों में मानव समुदाय के कल्याण हेतु ज्ञान और विज्ञान का गहन अध्ययन किया और कराया जाता था। सम्भवत: इसी लिये पूर्वजों ने राज्य संचालन का केन्द्र मथुरा को बनाया था परन्तु नन्द−दुर्ग के पराभव के बाद व्यापारी मारवाड़ी सेठ और श्रेष्ठियों ने अपनी सम्पत्ति को हटाना प्रारम्भ कर दिया। राजा कुलचन्द्र जो एक महान योद्धा, कुशल सेनापति थे वे ब्रज के शासन को सँभालते ही भगवान केशव के अनन्य भक्त हो गये। अंहिसा और भक्ति के मार्ग की ओर अतिशय श्रृद्धा होने के कारण राज्य के संचालन का सारा भार महामात्य शीलभद्र और अपने अनुज भ्राताओं पर छोड़ दिया। आज राज्य में जो कुछ भी दिखाई दे रहा था उसमें महारानी इन्दुमती का बहुत बड़ा हाथ था। सोमदेव, परमार सेनापति से मिला और उनको लेकर सीधा महालय पहुँचा। चारों ओर भीड़ दिखाई दे रही थी। वह सभी को एक ओर छोड़कर विशाल सभानगर की ओर मुड़ा। परमार सेनापति के साथ सोम को आता देख इन्दुमती ने राजा कुलचन्द्र को संकेत किया। राजा ने संदेश भेजकर उन्हें अपने ही पास बुला लिया। राजगुरु सभी को सम्बोधित कर रहे थे।

 "ब्रजवासियों, जो कार्य कंस नहीं कर सका, उसे करने का आज बीड़ा यवन ने उठाया है। लेकिन गजनी का यह राक्षस लोभ के कारण ही हमारे देश में आक्रमण करता है और हमें लूटने के साथ−साथ हमारी आस्थाओं, मान्यताओं, कला और संस्कृतियों धरोहरों को मिट्टी में मिलवा कर चला जाता है। हम कायर नहीं जो मृत्यु के भय से भयभीत हों ! आज राज्य का पूर्वी भाग हम हार चुके हैं और इस हार के पीछे भी हमारी ही मातृभूमि में जन्मे वे लोग हैं जो मृत्यु से डर कर अपने स्वार्थ हेतु अपने ही हाथों आने वाली पीढ़ियों की पीठ में खंजर घोंप रहे हैं। क्या आप चाहते हैं हम भी ऐसे ही बन जाँए।"
        "नहीं−नहीं। हम मर जाँयेंगे लेकिन जीते जी उसे एक कण भी ले जाने देंगे।" कहते सभी ने तलवार खींच ली।
        "धन्य हैं आप लोग। धन्य हैं वे मातायें जिन्होंने आपको जन्म दिया है। आप लोग ध्यान से ख़ास बात और सुनें, आज श्रीमहाराज के सेनापतित्व में आप सबको भविष्य का निर्धारण करना होगा। युद्ध की विजय के लिये मात्र शस्त्र संचालन पर्याप्त नहीं है उसके लिये कुशल निर्देशन भी परम आवश्यक हैं। आपकों हर पल हर क्षण सचेत रहना है क्योंकि यवन महावन में बैठा मथुरा पर आक्रमण करने की सोच रहा था। मेरी यही कामना है कि आप न केवल विजयी हों वरन शत्रु को इस तरह समाप्त कर दें कि दुबारा फिर इधर को ना देख सके। जय केशव।" राजगुरु अभी अपनी बात समाप्त कर बैठ भी नहीं पाये कि जय−जयकार से सारा वातावरण गूँज उठा। सभा विसर्जित हो उससे पूर्व सभी ने भगवान केशव के चरणों में सौगन्ध ली। राजा कुलचन्द्र ने अग्रपुर से लेकर मथुरा तक के पूर्वी किनारे पर राजपूत, तोमर और चौहान वीरों की सेना को लगाया। ग्वालियर के कीर्तिराज कछवाए को वनों और मथुरा का भार सौंपा। वृन्दावन से लेकर चामुण्डा तक, चामुण्डा से महावि़द्या तक तथा चौरासी तीर्थ तक चारों ओर सेना ही सेना लगाई हुई थी। जय और विजय द्वार गण्ड पुत्र विद्याधर और सोम के अधिकार में दिये गये। महालय का भार राजा कुलचन्द्र ने अपने ऊपर लिया। सेनाओं के पास पर्याप्त रसद का प्रबन्ध किया गया।
        आश्रमवासियों ने आश्रम छोड़ने से मना कर दिया। वृन्दावन मथुरा आदि की शक्ति पीठों पर अनुष्ठान होने लगे। कवि और चारणों द्वारा वीरता के भाव जागरण के हेतु वीरों की वीरता का वर्णन किया जाने लगा।
        लेकिन महालय से न तो कोई से प्रतिमा ही हटाई गईं ना ही वहाँ की दिनचर्या में ही कोई परिवर्तन किया गया। राज गुरु से सोम देव मिला तो उसने काल भैरव के गुप्त मार्गों को बन्द करा दिये जाने का समाचार दिया। राजा कुलचन्द्र अपनी व्यवस्था को सुदढ़ करने लगे।

गजनी का अमीर−महमूद सुल्तान अपनी फौज की हौसला अफजाई करने में लगा था। उसके आदमी जंगलों में जानवरों, आदमियों और औरतों को पकड़−पकड़ कर ला रहे थे। उसने महदूद को लाख समझाया लेकिन वह अपनी जिद पर अड़ा रहा। महमूद गजनी अलउत्वी और अलबरूनी से बातें करते हुए किले ऊपर खड़ा मथुरा की ओर देख रहा था। उसी समय मसऊद ने जानकी शाही के आने की खबर दी। महमूद ने उस वही बुला भेजा। जानकी शाही के चेहरे पर हवाइयों उड़ रही थीं। उसने झुक कर तीन बार कोर्निश की और बोला −"आलम पनाह गजब हो गया।" "क्या बात है जानकी ! तुम्हारे चेहरे पर यह खौफ कैसा ?" "आलम पनाह अब फतह......"

 "बोल ना क्या बात है ?"
        "कुछ भैरविये मथुरा से निकलने में कामयाब हो गये हैं। उनसे पता चला है कि मथुरा में राजा ने जबरदस्त सेना इकट्ठी की हुई है।.....और।"
        "क्या राजा अभी जिन्दा है ?"
        "जी हुजूर और मथुरा की मलिका भी वहीं है।"
        "तब मैं, महमूद सुल्तान वहीं करूँगा जो मुझे कहना चाहिए। अमीर आज ये जंग हार गया। कल तुम अपनी तवारीख में कुछ भी लिखना। मुझे यकीन हो गया था कि मथुरा का राजा और उसकी मलिका मर चुके हैं और अब मथुरा की बेशुमार दौलत को बिना किसी हीलोहुज्जत के गजनी ले जाया जा सकेगा......अलबरूनी....., महमूद ने पुकारा तो अलबरूनी पास आकर बोला"−"हुक्कम आलम पनाह"
                "तुमने यहाँ के बावत जानते हो क्या कहा था।"
                "ये हकीकत है मेरे आका।"
                "मुझे तब यकीन नहीं हुआ था मगर.....अब......नहीं ,हम भी ऐसी मिसाल पेश करेगें कि तवारीख रोज हमारा नाम और काम दोहराया करेगी।"
        "आलम पनाह। मैं कुछ समझा नहीं।"
        "अय मेरे अजीज, महमूद दुनियाँ की इस्लामी कौम से अलग नहीं है। तुम जिस फरिश्ते के मथुरा में पैदा होने के बात करते हो, जिसके कदमों में दुनिया झुकती है उसे सभी लोग इज्जत देंगे मगर जंग का मैदान दो मुल्कों की सियासती लड़ाई है और अमीर अब तय कर चुका है कि वह फतह हासिल करके रहेगा।"
        महमूद क्रोध से काँप उठा। परन्तु वह जिधर से भी आक्रमण करने की सोचता उधर से ही सेना के हारने का भय उसे रोक देता। उसके सामने मथुरा के चारों ओर पाषाणी परकोटा था। परकोटे पर भारी पत्थरों की दीवारें थीं। इन दीवारों पर अद्वितीय मूर्तिकला और ब्रज दर्शन उकेरा हुआ था। जब और कोई राह न सूझी तो उसने जानकी शाही को अपने पास बुलाया और बोला−"मैं जानता हूँ कि मेरी फौज का भारी नुकसान हुआ है। यहाँ के राजा ने मुझे किला सौंपकर भी शिकस्त दी है। लेकिन मथुरा में होने वाली हर बात का जवाब मुझे तुम से चाहिये। अगर तुझे अपनी जान प्यारी है तो जा और वहाँ पहुंचने का रास्ता ईजाद कर।"
        "जी आलम पनाह।" इतना कहकर जानकी वहाँ से चल दिया।
        राजा कुलचन्द्र के आग्रह से राजगुरु ने सहमति व्यक्त की। भगवान केशव का श्रृंगार देखते ही बनता था। राजा और प्रजा, भगवान और भक्त भगवान केशव की जय−जयकार कर रहे थे। महारानी युवराज गोविन्द को लेकर आगे बढ़ीं और उसे भगवान श्री राधाकृष्ण के चरणों में रख मन ही मन सब की रक्षा की कामना करने लगीं। राजगुरु ने सभी सैनिकों और सेना नायकों को केसरिया चन्दन व प्रसाद बँटवाया। जो दूर थे उन्हें वहीं पहुँचाया।
        सन्ध्या−आरती, भोग और शयन की पूजा कर राजगुरु भगवान केशव के चरणों में नमन कर पट बन्द कर बाहर आए तो महालय के बाहर शान्ति देख कर आश्चर्यचकित हो गए। उनके मुँह से इतना ही निकला। "श्री महाराज ! आप मेरे साथ आयें। इतना कह व कुछ ही दूर बढ़े कि राजा कुलचन्द्र बोले−"पूज्यवर आज्ञा करें।"
        "राजन आप जानते हैं कि शत्रु स्वयं आक्रमण का मार्ग ढूँढ चुका है।"
        "जी गुरुदेव ! परन्तु वह निराश हो कर ही गया है।"
        "वत्स मुझे आपके पौरूष, शक्ति और रणकौशल पर सन्देह नहीं हो रहा, मैं तो अपने ही देश के उन कायरों से क्षुब्ध हूँ जो उचित अनुचित का ध्यान न कर अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते है ! अकेला सोम क्या करेगा ?" वे आपस में विचार−विमर्श कर रहे थे कि उधर सोमदेव अन्धकार में डूबा विजय द्वार पर पहुँचा तो मथुरा दास को सचेत पाया।
        वह कुछ पुछता कि मथुरा दास बोला−"आर्य सेनापति !"
        "क्या बात है मथुरा दास ?"
        "आर्य, वह देखिये, विश्राम घाट के सामने काली−काली छायायें बढ़ती चली आ रही हैं।"
        "तुम्हारा कहना सही प्रतीत हो रहा है परन्तु जब तक शंखनाद न सुनो शान्त ही रहना। हम देखते हैं।" इतना कह सोम वहाँ से चल दिया। शीत के कारण शरीर सुन्न पड़ रहे थे। कड़ाके की सर्दी और ऊपर से तेज हवाओं के झोंको से यवन सैनिकों की दशा चिन्तनीय हो रही थी। मानव स्वभाव से युद्ध प्रिय नहीं होता, युद्ध करने के लिये उसे प्रेरित किया जाता है । परन्तु अंधे को सिवाय स्वार्थ के और कुछ नजर नहीं आ रहा था। मसऊद ने एक बार अपनी दायीं ओर देखा, यमुना पार करने के लिये उसके सामने यमुना की धारा के बीच हो कर जाने के अतिरिक्त और कोई चारा न था। अत: वह बिना किसी आवाज के आगे बढ़ने लगा। उधर नगर प्राचीर के ऊपर ब्रज के बांके वीर धनुष पर बाण चढ़ाये तैयार खड़े थे। यवनों की सेना ज्यों ही प्राचीर के नीचे पहुँची कि तभी महालय से शंखनाद हुआ। शंखनाद सुनते ही लगभग पाँच सौ मथुरिया ब्राह्मण शस्त्र ले यमुना कि गोद में जा बैठे। उन्होंने पानी में पहुँचते ही मार काट प्रारम्भ कर दी।

यवन की समझ में कुछ आये कि उसने सैनिक चीखने लगे। मसऊद घाट पर नीचे बढ़कर छोटे से मन्दिर की आड़ में छिप गया। उत्तरी द्वार के द्वारपाल मथुरादास ने जैसे ही सैनिकों को देखा तो ऊपर से बाण वर्षा होने लगी। यवन किंकर्त्तव्य विमूढ़ हुये सिरों पर ढाल रखे बढ़ रहे थे। लेकिन बाण जब भी शरीर में घुसता एक चीख निकलती और शान्त हो जाती। महमूद ने रिषीपुर में आग लगवा कर अपना रास्ता साफ कर लिया था। अत: उसने अपने डेरे रिषीपुर में लगाये और वह अश्ववाहिनी लेकर यमुना की बालू में खड़ा हो जानकी शाही की राह देखता रहा। जब वह काफ़ी देर तक न लौटा तो उसने अरसलाँ जजीब को आगे बढ़ने का हुक्म दिया। विद्याधर ने जैसे ही शत्रु को अपनी ओर आते देखा तो वह चीख उठा और अपने वीरों को आक्रमण करने का संकेत दिया लेकिन अरसलाँ जजीव तूफान की तरह आगे बढ़ा और मृत्यु की परवाह किये बिना उसके सैनिकों ने दीवार से नसैनी टिकाना शुरू कर दिया। इधर वीर अपने प्राणों पर खेलकर ब्रज की रक्षा करने में जुटे थे। उधर महालय में मंगला की आरती हो रही थी। मसऊद के आदमी ऊपर चढ़ने का प्रयास कर रहे थे लेकिन उनका हर प्रयास विफल किया जा रहा था। मसऊद दूर से ही मथुरा दास पर दृष्टि लगाये हुए था। उसने मथुरादास को जैसे ही असावधान देखा, उस पर तीर का वार कर दिया। वार निशाने पर बैठा और मथुरादास−चीखता हुआ नीचे आ गिरा। मसऊद अवसर पाते ही रस्सा पकड़ ऊपर चढ़ने लगा तो किसी महिला ने तीर से उसे काट दिया। मसऊद नीचे गिरा लेकिन उसके हाथ में परनाला आ गया और उसी को पकड़ कर लटक गया। राजा कुलचन्द्र और राजगुरु महालय में भविष्य के प्रति चिन्तित हो रहे थे। राजगुरु ब्रह्मदेव कह रहे थे−"राजन अब अधिक विलम्ब करना उचित नहीं है, महारानी को गोविन्द के साथ यहाँ से निकल जाना चाहिये।"

"लेकिन गुरुदेव पट्टमहिषी मानेंगी नहीं।"
        "आप उन्हें बुलवाइये तो सही।"
                "आपका कहना सत्य है। परन्तु द्वारों पर भी ऐसी स्थिति दिखाई देती है कि यवन कभी भी नगर में प्रवेश पा सकता है।" इतना कह कुलचन्द्र ने सेवक को इन्दुमती के पास भेजा।
        इन्दुमती पति का समाचार पाते हंसा को साथ लिये महालय की ओर चल दी। सोमदेव ने महाकाल मन्दिर पर विद्याधर को नियुक्त किया। क्योंकि वह जानता था कि भगोड़े भैरविये कभी भी विश्वासघात कर सकते हैं।
        सूर्य डूबने लगा था। सन्ध्या की लालिमा को निशा की कालिमा निगलने लगी थी। घाटों पर यवनों की लाशों के ढेर लग गए थे लेकिन मसऊद को सफलता नहीं मिल रही थी। उसने घाटों पर बने मन्दिरों में आग लगवा दी मथुरा की विश्व प्रसिद्ध पाषाणी कला नष्ट होने लगी। लेकिन जब यवन को सफलता न मिली तो युद्ध रोक दिया गया। सन्ध्या होते ही कुहासा बढ़ने लगा था। धीरे−धीरे वह इतना सघन होने लगा कि हाथ को हाथ न सूझता। लेकिन मशाल की रोशनी में अमीर का चेहरा मुरझा रहा था। वह नवासाशाह और जानकी के साथ नई योजना बना रहा था।
        महालय में कीर्तिराज, महारानी इन्दुमती और राजगुरु के पास बैठ दिन भर के युद्ध को लेकर विचार-विमर्श कर रहे थे। सोम देव ने श्री महाराज को सारी स्थिति से अवगत कराया। जो स्थान युद्ध की दृष्टि से कमज़ोरदिखाई दिया उनकी दोबारा मरम्मत करने के लिये आदेश दिये गये। राजा कुलचन्द्र ने सोमदेव को नये आदेश दिये तो वह अश्व पर सवार होकर चल दिया। वह सीधा कनिष्क दुर्ग (कंस दुर्ग) पर पहुँचा तो हाथ में खड्ग लिये दिव्या आती दिखाई दी। उसके बाल बिखर रहे थे। सारा शरीर खून से नहा रहा था। आँखों से अँगारे बरस रहे थे। सोम देव देखता ही रह गया।−"दिव्या तुम्हारा यह रूप देखकर कौन विश्वास करेगा कि तुमने सदैव कलाओं को प्रेरणा दी होगी....तुम...."
        "आर्य सेनापति, दिव्या का प्रणाम स्वीकार करें.....।"
        "देवी.....मैं यह सब क्या देख रहा हूँ ?"
        "आर्य ब्रज की रक्षा कीजिये ? राधा कृष्ण के दिये संस्कारों को बचाइये आर्य। शत्रु की सेना चींटी की भाँति नगर में प्रवेश करने जा रही हैं।"
        "क्या कह रही हो तुम ?" कहते सोम देव चीख पड़ा।
        "आर्य चामुण्डा के मार्ग से जानकी यवनों के आगे−आगे चला आ रहा है।
        "लेकिन गण्डपुत्र......?"
        " वह अपनी सेना लेकर गोवर्द्धन की ओर भाग गया है।"
        "अब....। अच्छा तुम श्री महाराज को सूचित करो और शीघ्र सेना भिजवाओ। तब तक मैं जाकर उन्हें रोकता हूँ।"
        "आर्य....आप अकेले......।"
        "दिव्या ....।" आगे सोमदेव के मुख से कुछ न निकला और अश्व पर सवार हो अपनी टुकड़ी के साथ आगे बढ़ा ही था कि महालय से शंख और नरसिंहे का स्वर गूँज उठा। सोम को समझते देर न लगी कि शत्रु नगर में घुसने में सफल हो गया है। उसके लिए दिव्या का इतना संकेत पर्याप्त था कि यवन कहाँ होकर घुसे हैं। परन्तु वह आगे जाकर यवनों को रोकता कि उससे पहिले ही गुप्तचरों से समाचार मिला कि यवन सेना नगर में प्रवेश कर चुकी है। सोमदेव द्रुतगति से महालय की ओर चल दिया।
        उधर भगवान सूर्यदेव की किरणें उदित हो देवालयों के शिखरों का स्पर्श करने लगीं थी। मसऊद और गजनी का अमीर साथ−साथ आगे बढ़ रहे थे। जगह−जगह हरे भरे उद्यान और उनमें पाषाणी प्रतिमाओं का सौन्दर्य देख वह सिहर उठता। मथुरा के बाज़ारों में सन्नाटा देख मसऊद बोला −"हुजूरे अनवर ! दुश्मन की खामोशी काबिले गौर है।"
        "जो भी हो मगर यहाँ के माहौल से ऐसा लगता है जैसे सारा शहर ख़ाली हो गया है ! गजब के लोग हैं लेकिन इनके लिए.....।"
        "हुजूर का मकसद अमन परस्ती से है।"
        "हां। मगर राजा कुलचन्द्र मान ले तब न।"
        "क्या अलबरूनी को फिर से भेजा जाय ?"
        "नहीं हम देखेंगे।" इसी तरह वे बातें करते बढ़ रहे थे।
        सोमदेव राजा कुलचन्द्र से मिल कर महालय के पूर्वी द्वार पर अपनी सेना लेकर खड़ा हो अमीर की राह देखने लगा। महालय की प्राचीरों पर धनुर्धर छिपे हुए संकेत की प्रतीक्षा कर रहे थे। मथुरा के बलिष्ठ मथुरियों ने हाथों में शस्त्र लिये और देवगृहों के भीतर बैठ गए। राजा कुलचन्द्र राजगुरु के पास विचार विमर्श कर रहे थे कि तभी सेवक ने आकर साष्टाँग प्रणाम किया। "महाराज की जय हो।"
        "कहो क्या बात है।"
        "अन्नदाता। उत्तरी दीवार के नीचे दो साधु खड़े हैं वे राजगुरु के दर्शनों की आज्ञा चाहते हैं।"
        "क्या ?" सुनकर सभी एक−दूसरे की ओर देखने लगे। ब्रह्मदेव ने एक पल को आँखे बन्द की और फिर बोले−"वत्स तू जा और साधुओं से कहना राजगुरु अभी आते हैं।"
        "पूज्यवर, सेवक के होते हुए आपका जाना क्या उचित होगा ? आपकी आज्ञा हो तो इस विषम परिस्थिति में साधु अतिथि का सत्कार मुझे करने दें। राजा कुलचन्द्र इतना कह हाथ जोड़ उठ बैठे और महालय के उत्तरी परकोटे पर पहुँचे। साथ आये सेवक ने साधुओं की ओर संकेत किया और हाथ बाँध कर पीछे खड़ा हो गया। कुलचन्द्र ने एक दृष्टि डाली और बोले"−"अतिथि साधुजनों का राजा कुलचन्द्र अभिवादन करता है। विश्व वन्दित राजगुरु का यह सेवक जानना चाहता है कि आपका उनसे मिलने का प्रयोजन क्या है ?"
        "महाराज की जय हो। हम लोग अपना प्रयोजन उन्हीं के समक्ष निवेदन करेगें। हम उनके दर्शनों की कामना लेकर ही आये हैं।"
        "हा−हा−हा−।" राजा कुलचन्द्र अट्टहास कर उठे और पुन: आगे बढ़ कर गम्भीर स्वरों में बोले−यवन बादशाह महमूद दुनिया को त्याग कर तुम्हें भी साधु बनाकर अपने चरणों में बुला लेने वाली शक्ति के सत्य को अब तो तुमने स्वीकार कर लिया होगा । लेकिन तुम्हारा यह ढोंग ब्रजवासियों से छिपा नहीं रह सका।"
        "श्री महाराज....अमीर स्वयं आपसे संधि करने आये है।" महमूद का साथी कुछ और कह पाता कि कुलचन्द्र ने उसे बीच में रोक दिया − "शाही साम्राज्य के नपुंसक कुपूत, तेरी सच्चाई को सभी देख रहे हैं। अपने फ़कीर बादशाह से कह दे−मथुरा में कायर पैदा नहीं होते। कर्म योग की जन्म भूमि का कण−कण अपना कर्त्तव्य जानता है। हम डरपोक नहीं जो तेरी तरह तेरे अमीर की शर्तें मान लें और हजारों वर्षों से पूजित इस पूज्य भूमि को मात्र प्राणों के मोह के कारण....।"
        कुल चन्द्र कुछ और कहते कि महमूद गजनबी आगे बढ़ा और बोला −"मैं सच कहूँगा, सच के अलावा कुछ नहीं कहूँगा। तेरी बहादुरी पर महमूद नाज करता है। तूने अमीर को फ़कीर कह कर दुनियाई फलसफे की हकीकत बयान कर दी है। मगर मेरा दिली इरादा खून बहाने का नहीं है ! मैं तो यही सलाह देने आया हूँ कि सियासती जजबातों में बह कर तबाही को मोल न लें।"
        "यवन महमूद। तेरा आज तक का इतिहास झूठ फरेब और हैवानियत से भरा है। क्या मैं पूछ सकता हूँ कि हमारे देश का कौन − सा भाग था जहाँ तूने अपनी बहादुरी और ईमानदारी का परिचय दिया ! तूने गजनी से चलते समय ही अपने सैनिकों को यह छूट दे दी कि निहत्थों को मारो, मूर्तियों को तोड़ डालो, घरों, गाँवों और फसलों को आग लगा दो, औरतों के साथ नीचता का व्यवहार करो। न दिन देखो न रात देखो। खैर तू अपनी इच्छा प्रकट कर, आखिर तू राजगुरु से क्या मांगने आया है।"
        "यही कि−कुफ्र की खातिर इस बेमिसाल चमन को उजड़ने से रोक ले और इसे बचाने का रास्ता भी यही है कि मेरी शर्तें मान ली जाँय।"
े "कैसी शर्तें।"
        "अरबों दिरहम की लागत से बने बुत और बुतघरों को मेरे हवाले कर दे। मैं महमूद वायदा करता हूँ कि मथुरा में तोड़फोड़ और लूटपाट नहीं होगी।"
        " और....।" कहते−कहते कुलचन्द्र की आँखों से अंगारे बरसने लगे ­­! लेकिन महमूद दूसरी शर्त स्पष्ट करते बोला−"और महमूद की खातिर मथुरा की मलिका....।"
        "बस ! बन्द कर यह बकवास। तेरी शर्तें मानने वाले इस राज्य में नहीं रहते।" कहते कुलचन्द्र का चेहरा क्रोध से लाल पड़ गया। वे आगे बढ़े और तलवार ऊँची कर बोले −
        "लुटेरे यवन, जिस देश की प्रजा जाग्रत होती है वहाँ का राजा कभी तुझ जैसा भ्रष्ट नहीं हो सकता। मैं तो मैं, मेरे राज्य के देवालयों की प्रतिमायें भी पीठ पर वार नहीं खायेंगी। तू साधु का वेश धारण करके आया है नहीं तो....।"
        "राजा कुलचन्द्र।" महमूद चीखा तो कुलचन्द्र बोले"यवन महमूद तुझ जैसे हजार लुटेरे भी अगर मथुरा को नष्ट करना चाहे तो भी हमारा ब्रज ब्रज ही रहेगा। भगवान श्री राधा कृष्ण को यहाँ से कोई नहीं ले जा सकता। जा....तेरा अश्व लिये मसऊद तेरी बाट देख रहा है।
        "तब यह भी एक तवरीखी भूल होगी।"
        "तू यह सब छोड़, उधर देख, तेरे घुड़सवार मैदान छोड़कर भागने लगे हैं।"इतना कह कुलचन्द्र राजगुरु के पास लौट दिये।

राजा कुलचन्द्र का उत्तर सुन महमूद बौखला उठा उसके तुरन्त अपना घोड़ा मँगाया और सवार होकर सेना के मध्य जा पहुँचा। उसने मसऊद और महदूद के कानों में कुछ कहा और उन्हें छोड़ कर घुड़सवारों का हौसला बढ़ाने लगा। देखते ही देखते मथुरा में चारों ओर अल्ला हो अकबर का नाद गूँज उठा तो उधर "हर−हर महादेव" का बोल महालय की प्राचीरों से टकराने लगा। यवन अपने शस्त्र उठाये भागने लगे। सेनापति अपनी योजना में सफलता देख भागते यवनों पर बाज की तरह टूट पड़ा। चारों ओर मार काट शुरू हो गई। यवन सेना त्राहि−त्राहि कर उठी। सेनापति सोमदेव साक्षात महाकाल की तरह शत्रुओं को काट रहा था। उधर कीर्तिराज पश्चिम से उत्तर की ओर बढ़कर महमूद की पीठ पर आक्रमण कर बैठा ! मैदान और नगर की लड़ाई में अन्तर तो स्वाभाविक होता है। जहाँ तक घुड़सवार जा सकते थे गये और जहाँ नहीं पहुँच पाये वहाँ उन्होंने घोड़े छोडे़ दिये और यवनों को काटने लगे। अपनी ऐसा दुर्दशा देख महमूद स्वयं अपनी टुकड़ी लेकर आया और घमासान युद्ध होने लगा। कभी यवनों की तलवारें हिन्दुओं के शरीर में आर पार निकल जाती तो कभी मरते मरते हिन्दू यवन का सिर धड़ से उड़ा देता। कहीं किसी का हाथ गिर रहा था तो कहीं किसी का धड़। कोई चीखता तो कोई ललकारता हुआ झपटता ! महमूद बाज़ारों से निकल कर अपनी सेना को खुले में लाना चाहता था क्योंकि गलियों और बाज़ारों में सैनिक लड़ नहीं पा रहे थे। उधर सोम।देव अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। महमूद ने फिर भी खतरा उठाया ओर वह लड़ता हुआ महालय की ओर बढ़ने लगा ! लेकिन अब सोम के साथ मात्र एक हजार अश्वारोही रह गये थे। उसने मन ही मन में दिव्या का स्मरण किया और बोला−"जब तक प्राण हैं दिव्या यवन महालय को छू भी न सकेगा।" इतना कह वह वीरों को ललकार उठा। और आँधी की तरह यवनों से युद्ध करने लगा। युद्ध करते−करते महमूद पीछे हट गया परन्तु सोम की आँखें उसी को खोज रहीं थी कि सामने उसे महमूद दिखाई दिया। सोम के शरीर पर अनेकों घाव आ गये थे लेकिन उसे देख ऐसा लगता मानों कोई देव शक्ति उसके शरीर में बैठ गई हो। मसऊद के पास आते ही उसने उस पर खड़ग से वार किया। लेकिन मसऊद ने ढाल अड़ा दी। मसऊद यदि एक क्षण भी चूक जाता तो पता नहीं क्या होता लेकिन वार इतना प्रबल था कि मसऊद घोड़े पर न रह सका और नीचे आ गिरा। हजारों यवन तलवारें और भाले आकाश में छा गये। बचे हुए ब्रजवासी अपने प्राणों की आहुति देकर सोमदेव की रक्षा करने का प्रयास करने लगे। उधर कीर्तिराज कछवाये की सेना पर गुलाम अब्बास हावी होता चला जा रहा था ! जब कीर्तिराज को कोई उपाय न सूझा तो वह अपना अश्व ले दक्षिण पश्चिम की ओर भाग खड़ा हुआ। युद्ध द्वन्द्व युद्ध तक आ पहुँचा। सोम का शरीर शिथिल होता जा रहा था। फिर भी वह मसऊद को जहाँ से भी पकड़ लेता मसऊद चीख उठता। सोम की आँखों के सामने अन्धकार छाने लगा उसने मसऊद को अपनी बाहों में भींच लिया और उसे भीचने लगा लेकिन उसके बन्धन स्वत: ढीले पड़ने लगे। उसे ढीला पड़ते देख मसऊद चीख पड़ा यवनों की सैकड़ों तलवारें सोम देव पर टूट पड़ी।

पूर्वी द्वार पर अल्ला हो अकबर का नाद सुन इन्दुमती कुलचन्द्र के पास आई −"महाराज क्या हुआ ?"
        "महारानी.........वीर सोमदेव.....अमर हो गया ! मैंने उसकी वीरता स्वयं अपनी आँखों से देखी है।"
        "श्री महाराज !" इन्दुमती आगे कुछ न बोल पायी और मुँह पर आँचल रख लिया। राजगुरु बोले−
        "हाँ, महारानी उस जैसे महान योद्धा कम ही होते है फिर तुम्हें तो सारी प्रजा रानी माँ कहती हैं। एक वीर श्रत्राणी के लिये अमरता वरदान होती है। उसके मातृ धर्म की गरिमा होती है। यह सत्य है कि अब हमें भविष्य के बारे में सोचना चाहिये। श्री महाराज, आप इन्हें समझाइयें, सोम का दायित्व मेरे उपर छोड़िये।" इतना कह ब्रह्मदेव गर्भगृह की ओर चल दिये।
        राजगुरु के जाते ही इन्दुमती ने हंसा को कुछ आदेश दिये और कुछ क्षण बाद इन्दुमती को चारों ओर से वीरांगनाओं ने घेर लिया और फिर इन्दुमती को कवच धारण कराकर सभी अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित कर दिया। राजा कुलचन्द्र पहिले ही तैयार खड़े थे। वे दोनों जैसे ही महालय से नीचे उतरे कि सेना ने उनका जय−जय कार से स्वागत किया। राजा कुलचन्द्र ने सभी को शान्त किया और गम्भीर स्वरो में बोले−
        "वीरों, अब वह समय आ गया है कि हमे अपने प्राण देकर भी अपने धर्म की रक्षा करनी है। भगवान श्री कृष्ण के बताये मार्ग पर चल कर शत्रु पर विजय प्राप्त करनी है।यह माना कि उसके साथ हमसे कई गुनी सेना अधिक है। लेकिन हमने मिटना सीखा है, झुकना नहीं। हमारी अगली नीति यही है कि हमें शत्रु को इस तरह घेरना है कि उसको अधिक से अधिक हानि पहुँचाई जा सके। वीरों, स्वार्थी और ढ़ोगी पुरूष दुर्बुद्ध हुआ करता है, इसलिये वह महालय में घुसने का मार्ग अवश्य ढूँढ़ेगा और तब तक हमारे विश्वस्त सैनिक भैरवियों का रूप रख उसके पास पहुँच चुके होंगे। वे अमीर का ध्यान प्राचीरों से हटायेंगे और उसे यह समझायेंगे कि रतन कुण्ड के गुप्त मार्ग से शत्रु सीधे पोतरा कुण्ड के पश्चिम से निकलेंगे क्योंकि शत्रु इस समय राह पाने को छ्टपटा रहा है लेकिन हम अपनी योजना में सफल होंगे तो यह हमारे लिए बहुत उपयोग होगी। क्योंकि रतन कुण्ड से जाने का मार्ग बहुत संकरा है जो सरस्वती कुण्ड पर निकलता है। यहाँ अभी शत्रु की सेना भी नहीं है। अत:उनके निकलते ही हमारे वीर उनका काम तमाम कर देंगे !" राजा कुलचन्द्र का इतना कहना था कि सैनिकों में "राणा कतीरा की जय हो महारानी इन्दुमती की जय हो, के घोष के साथ ही हजारों तलवारें उठ गई।

टीका टिप्पणी और संदर्भ