जय केशव 8

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जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

महाराजा कुलचन्द्र रात भर जागते रहे। उन्हें जाने क्यूं नींद नहीं आ रही थी। पलंग के सामने स्वर्ण दीप जलता रहा और वह निरंतर लिखते रहे। उन्होंने कई राजाज्ञायें स्वयं ही लिख दी। जिसमें सेना का नियमित अभ्यास, सैनिकों को शस्त्रों से हर तरह सुसज्जित रखना। लोहारों और बढ़ईयों को तलवार, भाले, तीर, खड़गों को निरंतर बनाते रहना तथा सभी सरदारों, सामन्तों को अपनी–अपनी सेनाओं को किसी भी समय युद्ध के लिए तैयार रखने की आज्ञाएं थी। सूर्योदय से पूर्व उन्होंने महामात्य को वे सब आज्ञायें भेज दीं ओर कहलवा दिया कि शीघ्र यह आज्ञाएं भेज दी जायं। महामात्य के पास प्रात: काल ही जब यह संवाद पहुंचा तो वह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने शीघ्र शाल कन्धे पर डाल खड़ाऊं पहने और सेवक से कुछ कहकर एक ओर चले गये। अभी दिन निकले दो घंटे भी न हुए कि सेवक के साथ अन्य कई सैनिक एक गाड़ी पर आरूढ़ हो नगर की ओर बढ़ दिये। ढ़ोल का निरंतर स्वर सुन सभी नगरवासी उनको घेर कर खड़े होने लगे। दुकानदार अपनी दुकानों पर से उधर ही को देख रहे थे। बालक, वृद्ध उस स्थान पर खड़े हो जाते और राज्य सेवक राजाज्ञा सुनाकर आगे बढ़ जाते। इसी प्रकार चारों ओर सन्नाटा छाता जा रहा था। नगर श्रेष्ठियों, महाजनों ने समाचार सुना तो अपने–अपने हृदयों को थाम कर 'हरे कृष्ण' पुकारने लगे। ऐसे ही कई सेवक मथुरा मधुपुर, अग्रपुर, लोहवन, रिषिपुर, नन्दगांव, बरसाना आदि को भेज दिए गए। समाचार प्राप्त होते ही सभी के मुख पर उदासी छा गई। ग्रहणियों के मुंह फटे के फटे रह गये। सैकड़ों वर्ष हो गये, परंतु हूणों के बाद उन्हें मथुरा पर ऐसा आक्रमण होगा उसकी तो कल्पना भी नहीं की थी। वे सब आपस में तरह–तरह की बातें करने लगीं। परंतु जब पुरूषों के मुख से यह सुना कि आक्रमण हो गया नहीं होने की सम्भावना है तो उन्हें कुछ धैर्य बंधा। धीरे–धीरे दो दिन बीत गये। उधर इन्दुमती भी स्वस्थ हो गई। इस बीच चम्पा कई बार महल में आकर महारानी के स्वास्थ की सूचना ले जाती रही। रानी रूपाम्बरा और अनेक नगर की महिलाएं भी उन्हें बधाई और स्वास्थ्य की कामना करने आती जाती रही। लोहबन में राज्य शस्त्रागार था। वहीं सभी लोहार, बढ़ई और चर्मकार रहते थे। जो छोटे–मोटे काम किया करते थे। अब उनकी भट्टियां पुन: आग उगल उठीं। झोपड़ियों में जहां छोटे–छोटे दिए जला करते थे वहां रात–दिन आग की लपटें उठने लगीं। रिषिपुर के मूर्तिकारों के हाथ जहां के तहां रूक गये। जब यह दशा हुई और हथौड़ों और टांकियों का लयबद्ध स्वर राज शिल्पी को सुनाई न दिया तो वह खांसता हुआ उठा...परंतु जैसे वह जर्जर हो चुका था। उससे उठा न गया उसने वहीं से अपने पड़ोसी को पुकारा। पड़ोसी उठकर आया और हुक्का गुड़गुड़ाते हुए बोला–"दादा कहां चले ?" शिल्पी खांसते हुए चारपाई पर बैठे गया और उसे बैठने का संकेत कर बोला–"अरे...आज यह सन्नाटा कैसा ?" "कहां दादा ? "क्या मथुरा के शिल्पी मर गये ? यह मेरे कानों में कैसी आवाजें आ रही हैं ?" "कुछ नहीं दादा। आपको बहुत तेज ज्वर चढ़ा हुआ है।" "नहीं रे। शिल्पी मर गये। मूर्तियाँ खंडित हो गई। आह कृष्ण तूने यह सब क्या किया ? अब यहां भूतों का वास होगा। युगों–युगों तक यहां ऐसी ही नीरवता छाई रहेगी। इस कला का...।" "दादा। यवन चढ़ाई करने वाला है। इसलिये चारों ओर युद्ध की तैयारियां होने लगी है। धनिकों ने निर्माण रोक दिया है। सभी लोग मूर्तियों को सुरक्षित स्थानों में पहुँचाने की बात सोच रहे है।" "क्या सचमुच ही चढ़ाई होगी। लड़ाई होगी ?" कहते–कहते उसके आंसू ढुलक पड़े। कुछ देर रूक कर वह पुन: बोला – "लोग मारे जायेंगे। बच्चों का वध होगा। महल भूमिसात हो जायेगें। मूर्तियां तोड़ दी जायेंगी। म...हा...ल...य।" कहते हुए वृद्ध चारपाई पर लुढ़क गया। इधर शीलभद्र अपनी योजनाओं में संलग्न था। धीरे–धीरे जो व्यक्ति राज्य से बाहर गये थे वे लौट आये। शीलभद्र ने सुखदा से मिलकर कन्नौज के लिए अर्जुन सिंह के साथ राजगुरु के पुत्र को जो एक उद्भट विद्वान भेजा था। उन्होंने लौट कर महाराज को समाचार दिया और उस समाचार को सुनकर महाराज के मुख से एक ही शब्द निकला–"केशव। क्या सुखदा के लिए मैं वास्तव में दोषी हूं सो कन्नौज के राजा ने ब्रज आने में असमर्थता प्रकट की है।" वे अभी कुछ और सोचते कि हंसते हुए सोमदेव ने प्रवेश किया। इन्दुमती ने स्वयं सोमदेव को समाचार दिया था, समझाया था। वह उसी की योजना के अनुसार दक्षिणी राज्यों से लौटकर कन्नौज जा पहुंचा। सोमदेव को देखकर राजा कुलचन्द्र उसकी ओर बढ़े ही थे कि सोमदेव ने प्रणिपात हो प्रणाम किया। पुन: चरण स्पर्श किये। "सोम तुम.....।" "श्री महाराज। अभी कन्नौज से आ रहा हूं। आप कुछ चिंतित प्रतीत हो रहे है। क्या बात है ?" "नहीं। कुछ भी तो नहीं।" "आप छिपा रहे हैं। रानी मां कहां है ?" "लगता है अभी तुम्हें कन्नौज का समाचार पता नहीं लगा।" "क्या कोई नया समाचार मिला है, महाराज ?" गम्भीर होते हुए उसने पूछा। "हां अर्जुन और शास्त्री दोनों गये थे, परंतु उन्होंने हमें शत्रु मान लिया है।" "इससे क्या होता है ? वे माना करें।" "कैसी बच्चों की–सी बात करते हो सोम।" कुलचन्द्र ने कहा तो वह समाचार के लिये उत्सुक हो उठा। इसलिये वह भी बड़े भाई के पास ही रूक गया और बैठते हुए उसने धीरे से कहा– "कुंवर राज्यपाल नाम के ही राजा है। महासेनापति एक सुलझे हुए व्यक्ति हैं। उन्होंने एक बार तो वही उत्तर दिया जो और स्थानों से मिला।" "क्या ?" कुलचन्द्र ने पूछा। "यहीं कि जब से यवन महमूद को भारत में विजय मिल गई है, उसका साहस बढ़ता ही जा रहा है और न मालूम उसकी सेना कब किस दिशा में कूच कर दे कुछ कहा नहीं जा सकता फिर इस दशा में सभी राजा अपने–अपने राज्यों की सुरक्षा के लिये भी चिन्तित हैं।" "तब फिर हमें वे क्या सहयोग कर सकेंगे ?" "उनकी योजना से मैं कुछ सहमत हूं।" "कैसी योजना ?" "उनका विचार है कि सभी राज्य अपनी सेना का एक सरदार सेना की टुकड़ी के साथ ब्रज में भेंजे और बाकी सेना को हर समय यवन से सामना करने को तैयार रखें। साथ ही बनों में दबाते चले जायें। इधर सघन वन, उधर बीच में गंगा–यमुना, उधर हमारी सेना और जाग्रत प्रजा।" "क्या यह योजना राजगुरु और महामात्य को पता है।" "जीं हां। मैं उनसे मिलकर ही आ रहा हूं।" "ठीक है सोम। यह एक गूढ़ योजना है। यह योजना लाभप्रद होगी, ये कैसे कहा जा सकता है ? फिर भी तुम जाओ और विश्राम करो और हां सुनो प्रात: हम सैन्य निरीक्षण करेंगे।" सोम जैसे ही बाहर आया कि द्वार पर चम्पा दिखाई दी। सोम को अपने सामने देख चम्पा ने हाथ जोड़े और सिर झुका कर प्रणाम किया। सोमदेव को रूपाम्बरा की दासी को अनायास वहां देख आश्चर्य–सा हुआ। वह कुछ कहे कि तभी चम्पा ने धीरे से पूछा–"अपराध क्षमा हो आर्य सेनापति हंसा यहां तो नहीं आई ?" चम्पा दोनों हाथ जोड़ कर बोली। 'क्यों ?" "जी कुछ नहीं। वहां रानी जी के यहां होली होगी सो उन्होंने हंसा को बुलवाया था।" "आह। तो भौजी के यहां आज संगीत और नृत्य होगा ?" "जीं।" "कौन–कौन जायेगा ?" "यदि भूल नहीं रही हूं तो क्या आर्य का संकेत सुखदा की ओर तो नहीं है ?" "तेरी जैसी चतुर नारी मैंने नहीं देखी।" कहते हुए वह पुन: रानी मां के महल की ओर बढ़ा। चम्पा पीछे–पीछे चल रही थी। सोम तेजी से डग भरता हुआ बढ़ा जा रहा था। वह कहने लगा – "हां चम्पा। मैं सुखदा के लिए ही चिंतित था। उसको नृत्य बहुत प्रिय है और हमें आज तक देखने के नहीं मिला।" " तब आर्य भी पधारें। चम्पा ने कहा। लेकिन उसकी आंखे कुछ ढूंढ रही थी। किस को ढूंढ़ रही थी। परंतु तभी सामने हंसा दिखाई दी। उसे देख सोम ने कहा– "लो तुम्हारी सखी आ गई। समय मिला तो अवश्य आऊँगा।" कह वह महलों में चला गया। होली संगीत की मधुर लहरियों में सारा ब्रज झूम उठा था। क्या मथुरा क्या वृन्दावन, बरसाना चारों ओर नृत्य की धूम होने लगी थी। अन्य देश और प्रदेशों के यात्री राधा और कृष्ण की अनुरागिनी लीला स्थली में रंग और अबीर का आनंद ले रहे थे। कर्मकाण्ड के माध्यम से अलौकिक विज्ञान सारे वातावरण को सुगंधित कर रहा था। सोमदेव बहुत देर तक महारानी इन्दुमती से बातें करता रहा। पुन: वह आज्ञा लेकर अश्व पर सवार होकर अश्व सेना नायक संग्राम सिंह, गजपति आदि अनेकों को साथ ले सैन्य निरीक्षण पर निकल गया। पुनः रात्रि हो जाने पर भी दाऊ जी से लौटकर मथुरा में महाकाल भैरव के मंदिर की ओर चल दिया। उसने रिषीपुर में अपना अश्व छोड़ दिया और गुप्तचरों के साथ मंदिर में प्रविष्ट हुआ। मंदिर के पास एक कोठरी में भृगुदत्त एक कोपीन लगाये बैठा था। वह बहुत धीमी आवाज में किसी दूसरे साधु से बातें कर रहा था। एक थाल में मिठाइयां रखी थी और दो सुंदर बालाएं उनकी सेवा कर रही थीं। सुरा का घूंट भरते हुए साधू हंसकर बोला–"तब तो हमारा काम हुआ समझो।" "मृगुदत्त कभी झूठ नहीं बोलता। चामुण्डा चौकी का रक्षक मेरा शिष्य है। मेरा एक संकेत पाते ही वह दरवाजा खोल देगा। लेकिन वचन मत तोड़ देना।" "आप नवासाशाह साधू से नहीं उस क्षत्रिय से बात कर रहे है जो अपनी आन पर प्राणों को हंसते–हंसते नौछावर कर देते हैं।" "हां, वह तो देख ही रहा हूं। अच्छा ये बताइये कि मुझे क्या करना होगा ?" "आप तो बस सुल्तान को नन्द दुर्ग में दाखिल करा दें।" "नन्द दुर्ग में प्रवेश पाना आसान नहीं है।" "हम आपको पांच हजार मोहरें देंगे।" "इनसे क्या होगा ?" सुनकर साधु ने दूसरी थैली खोलकर पलट दी। जिसमें हीरा जवाहरात भरे थे। भृगुदत्त आंखे फाड़कर देखने लगा। पुन: बोला–"काम हो जायेगा' परंतु आपको भी मेरा कार्य करना होगा।" "क्या ?" "जरीना से कहें, मुझसे मिलती रहे।" "आप जानते हैं उससे मिलना कितना कठिन है।" "यह तो ठीक कहते हो। शीलभद्र अपने आपको न जाने क्या समझता है ? लेकिन वह यह नहीं जानता कि उसने राज्य के बाहर जाने का ही निषेध किया है आने पर नहीं। और ऐसा वह कर भी सकता है तीर्थ जो है।" "आप कुछ तरकीब निकालिए।", "मेरे मस्तिष्क में एक योजना है।" "क्या ?" नवासाशाह आगे सरकते हुए बोला। "देखता हूं, कब तब बचायेगा उस राजकुमारी को वह कुछ और कहता कि उसे ऐसा लगा जैसे बाहर कोई है फिर अपने आप में संतुष्ट होकर बोला–"मैं सोचता हूं जब सुल्तान अपनी सेना लेकर यहां आए तो कुछ चुने हुए जवानों को यात्रियों के भेष में यहां भेज देना चाहिए।" "यहां से मतलब ?" "महावन में" "ओह, मैं समझा। यात्री लोग योगमाया के दर्शनों की प्रार्थना करें।" "बिल्कुल ठीक। द्वारपाल के पास ये यात्री लोग दर्शन का लाभ पाने की प्रार्थ्ना करें क्योंकि राजा कुलचन्द्र ब्रह्म बेला में ही पूजा पर बैठ जाता है और सूर्योदय तक वह पूजा में रहता है।" "आपका आशीर्वाद रहा तो अवश्य सफलता मिलेगी। हां, आप आज्ञा दें तो वृन्दावन जाकर काकाजी से मिलता जाऊं ?" "काकाजी, से नहीं , मिलना ही है तो पण्डा से क्यों नहीं मिलते ? क्योंकि काकाजी ने तो राजनीति से सन्यास ले रखा हैं। परंतु तुम्हारा यहां अब अधिक रूकना ठीक नहीं। इस समय सभी लोग आ–जा रहे हैं। आप इस गुप्तमार्ग से निकल जाइये।" इतना कह भृगुदत्त ने त्रिशूल उठाया और दोनों साधुओं को लेकर चल दिया।

टीका टिप्पणी और संदर्भ