जय केशव 9

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जय केशव ऐतिहासिक उपन्यास-लेखक, श्री सत्येन्दु याज्ञवल्क्य

उधर भृगुदत्त जैसे लोग स्वार्थ में अंधे होकर अपनी मातृभूमि से विश्वासघात कर रहे थे। तो मृत्यु से भयभीत भारतीय नरेश महमूद सुल्तान के घोड़ों की रकाब को जीभ लगाकर चाट रहे थे।" मातृभूमि का अर्थ मात्र हाड़ मांस के पिण्डों द्वारा भूखण्ड विशेष पर जन्म लेना ही नहीं है वरन उसकी सीमाएं वहाँ तक होती है जहां तक अपने महान पूर्वजों के आदर्श, संस्कार और सभ्यता का दर्शन निहित होता है। उन भौतिक–अभौतिक सीमाओं में जन्में प्रत्येक जीवात्मा का धर्म ही उसके नैतिक मूल्यों को सुरक्षित रखना है। व्यक्तिगत स्वार्थ के समष्टि का हित त्याग ही राष्ट्र द्रोह, देश द्रोह या विश्वासघात है। मथुरा में विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य समभाव और सद्भावात्मक समन्वयवादी विचारधारा ही एकता की एकमात्र आधार थी। फिर भी कोई न कोई षड़यंत्र जन्म लेता रहता। महारानी इन्दुमती अर्द्ध–रात्रि से पूर्व ही रूप–महल से लौट आई और दासियां भी उनसे विदा लेकर चली गईं। हंसा ने सारे आभूषण यथा स्थान सुरक्षित रखवा दिये। इन्दुमती अपने शयनकक्ष में जाकर रत्नजड़ित पलंग पर लेट गईं। वह मस्तिष्क पर छाये विचारों को हटाने का प्रयास करती परंतु सफल न हो पा रही थी। अन्तत: वह उठकर कक्ष में ही टहलने लगी। अनायास ही उनकी दृष्टि पंलग के पास रखी प्रतिमा पर पड़ी और जब उस प्रतिमा के पास ही काले धागे में बंधे ताबीज को देखा तो वह चौंक पड़ी, यह क्या हो सकता है ?" कहते हुए उसने वह ताबीज उठा लिया। अनेक विचारों और संदेहों में डूबी वह अकेली ही परेशान होती रहीं। परंतु अंगरक्षिकाओं का साहस न हो सका कि वे कुछ भी पूछ सकें। वह अब अत्याधिक परेशान हुई तो भोर की प्रतीक्षा करती पलंग पर लेट गई। उसने सोचा हंसा को बुलकार पूछे परंतु उस पर संदेह करने का तो प्रश्न ही न था। प्रात: जब वह राजा कुलचन्द्र के सामने गई तो उसे उदास देख उन्होंने उदासी का कारण जानना चाहा और जब इन्दुमती ने सारा वृत्तांत कह सुनाया तो दुभाषिये को बुलाया उसने ताबीज के अक्षरों को विदेशी बताया तो पूरी छानबीन के पश्चात् यही सामने आया कि यह किसी 'जरीना' नामक जासूस का परिचय पत्र है। उसने यह भी बताया कि यह नाम अवश्य ही किसी यवन महिला को होना चाहिए। परंतु यह महिला कौन हो सकती है। यह सुनकर इन्दुमती मन से यह प्रश्न करती तो बुद्धि में हंसा का चित्र सामने आ जाता।" वह कुछ और कहती कि कुलचन्द्र रोकते हुए बोले–

 "तुम्हारा कहना ठीक ही है। अब तक मैं यही समझता था कि अर्जुनसिंह जो समाचार लाया है उसका कोई आधार दिखाई नहीं देता। परंतु हंसा....। वह है कहां ?"
        "वह तो तत्काल बन्दीग्रह में डाल दी गई हैं।"
        "बहुत ठीक किया। परंतु.... हंसा से कुछ पूछताछ की ?"
        "श्री महाराज, वह तो तभी से निरंतर रो रही है...।"
        "रो ... रही है ?"
        "जी। बस इतना ही बताया है कि कल दुर्ग भ्रमण में ही वह उसे प्राप्त हुआ था।"
        "क्या वह अकेली ही गयी थी ?"
        "जीं नहीं। रानी रूपाम्बरा की दासी चम्पा भी उसके साथ थी।"
        "इन्दुमती....चम्पा...।"
        "श्री महाराज का संदेह ठीक नहीं। चम्पा को मैं बहुत दिन से देखती आ रही हूं। उसमें मुझे कोई ऐसे लक्षण दिखाई नहीं दिए और न ही अन्त:पुर की किसी नारी गुप्तचर ने ऐसी सूचना ही दी है।"
        "फिर भी हम स्वयं प्रात: उससे बात करना चाहेंगे।"
        "स्वामी जो भी उचित समझें, करें। परन्तु ज्यों–ज्यों समय बीत रहा है। मन में तरह–तरह की शंकाएं उत्पन्न होने लगी हैं, कौन जाने कब, क्या हो ?"
        "भगवान पर विश्वास करो रानी फिर राजनीति में तो यह सब होता ही रहता है। महामात्य और सोमदेव दोनों से पूछने पर ही पता चलेगा। अब विश्राम करो, प्रिय।" इतना कह राजा कुलचन्द्र पूजागृह की ओर चल दिए।
        "प्रात: ही सेवक रानी रूपाम्बरा के महल पर चम्पा के लिए राजाज्ञा लेकर पहुंच गया, परंतु जब सेवक ने लौटकर यह सूचना दी कि वह तो कल ही जा चुकी हैं तो कुलचन्द्र के क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने तत्काल महामात्य और सोम दोनों को बुलाया तो ज्ञात हुआ कि चम्पा के पीछे कई सैनिक भिन्न–भिन्न दशा में गए हुए है। परंतु उसका कोई पता नहीं मिल रहा है।
        कई दिन इसी तरह कट गए परंतु चम्पा का कोई पता न लगा और हंसा अनेक प्रकार की यातनाएं सहकर भी सत्य से अधिक कुछ भी न कह सकी। कल तक अन्तपुर की हंसा अब बंदीगृह में कराह रही थी। उसने लाख प्रयत्न किए कि वह रानी मां को सही स्थिति बता सके, परंतु कुछ न हो सका।
        राज्य की सभी चौकियों को सतर्क कर दिया गया।
        आकाश पर तारों का जाल बिछा था। निशाकर की किरणें आम्रमंजरियों से झांककर धरा पर हंस रही थीं। उन्हीं के बीच महामात्य शीलभ्रद्र अपने साथ एक युवक को लिए टहल रहे थे। युवक के ग्रीवा तक झूलते बाल, कानों में तकी तथा भरा हुआ गौरवर्ण शरीर मन को आकृष्ट करने में किसी से कम न था। सम्भवत: वह दोनों किसी विषय पर गम्भीर थे। युवक कह रहा था–
        "बस इतना ही है पूज्यवर कि स्वार्थवश ही यह सब कुछ हो गया"।
        "ठीक है दिवाकर, परंतु यह तो तुम भी मानते हो कि जो कुछ तुम करने जा रहे थे उसके परिणाम कितने घातक होते।"
        "जी।"
        "तुमने जरीना के बारे में कुछ सुना ? यदि रूपाम्बरा सावधान होती तो ऐसा कदापि न हो पाता।"
        "आप सत्य कह रहे है, परन्तु रानी रूपाम्बरा के बारे में तो कभी सोचा भी नहीं जा सकता था।"
        "लेकिन...जब से...।"
        "कहिये, पूज्यवर....।"
        कुछ नहीं वत्य जब से तुम मेरे पास हो मैंने कभी तुम पर संदेह नहीं किया। तुम कलाकार हो और कलाकार कभी कला के प्रति अपनी भावनाओं के प्रति अन्याय नहीं करता। क्या अपनी ही दुर्धश कलाओं की ऐसी दशा में कोई साधक स्वंय को और अपने राष्ट्र को कलंकित कराना चाहेगा ? यदि कलाकार चाहे तो क्या नहीं कर सकता ? तुम क्या नहीं कर सकते ?
        "आप ठीक ही कह रहे हैं। परंन्तु...।"
        "मैं जानता हूं कि कोई भी कलाकार अपनी प्रेरणा के बिना कुछ नहीं कर सकता। तुम भी बिना रूपा.....के....कुछ नहीं कर पा रहे थे।"
        "हां सच है।"
        "तो बिना इसके क्या कुछ भी न होगा ? मेरा कहा मानों तो सच्चा कलाकार वही है जो अपनी अभिव्यक्ति से नये युग का निर्माण करता है।"
        "यह तो मैं भी चाहता था।"
        "तो फिर क्यूं न एक योद्धा कलाकार के रूप में अपने आपको प्रस्तुत करो।"
        "आपका आशय खड्ग धारण कर युद्ध करने से है ?"
        "हां।"
        "नहीं आर्य। "
        "फिर...?"
        "आज्ञा हो तो रूप–महल का दायित्य मुझे सौंप दें ताकि वहां से उत्पन्न किसी नये षड्यंत्र से राज्य की रक्षा हो सकें।
        "हूं दिवाकर मुझे तुम बालक समझते हो ?"
        "नहीं, परंतु क्या मुझ पर विश्वास नहीं ?"
        "नहीं, ऐसी बात नहीं, मैं कुछ और ही सोच रहा हूं।"
        "आर्य, आज्ञा करें।"
        "दिवाकर। कलाकार अपने देश के लिए प्राण तक न्यौछावर कर देते हैं। मैं चाहता हूँ कि बृज की मूर्तिकला की सुरक्षा का भार तुम्हें सौंप देता। कितना अच्छा हो तुम उन्हें यवनों की कुदृष्टि से बचा सको।"
        "मैं आर्य की भावनाओं का सम्मान करता हूं। आर्य विश्वास करें ऐसा ही होगा।"
        "तो फिर होली के बाद यह कार्य तुम्हारे संरक्षण में ही हो।"
        "मुझे स्वीकार है।"
        "तुम्हे सम्पूर्ण राज्य में भ्रमण और मूर्ति स्थानान्तरण का अधिकार होगा और शास्त्री जैसे विद्वान साथी का सहयोग। शीलभद्र ने स्निग्ध ज्योत्सना के प्रकाश में रहस्यमय दृष्टि से दिवाकर की ओर देखा। दिवाकर के चेहरे पर वे कुछ पढ़ पाते कि उसी समय दिवाकर ने प्रश्न किया–
        "आर्य, क्या आक्रमण निश्चित होगा। "
        "हां, राज्य हो या राष्ट्र ,उनका विश्वास और शांतिमय जीवन तभी तक संभव है जब तक उनका बाहर–भीतर कोई शत्रु नहीं है। बाह्य शत्रुता स्वार्थ परक होती है और अंतरंग शत्रुता का आधार भावनात्मक विषमता होती है। राज्य और तंत्र दोनों ही इसके काल होते है। अमीर का घृणित स्वार्थ युद्ध को जन्म दिए बिना नहीं रह सकता। आक्रमण तो होना ही है लेकिन क्या उसका उत्तर नहीं दिया जाना चाहिए ? तुम अभी युवा हो, युद्ध से उसकी आशंका बहुत गंभीर होती है। गजनी का अमीर एक सम्प्रदाय विशेष का प्रतिधित्व भले ही कर रहा हो परंतु हमारे लिए सभी सम्प्रदायों के मूल में जो 'धर्म' स्थित है उसकी परीक्षा है।"
        "आर्य....।" दिवाकर कुछ कहना चाहता था। परंतु शीलभद्र कहते ही गए–
        "जिसे तुम प्रेम करते हो, समझों वह तुमसे दूर नहीं है और नारी कभी विश्वासघातिनी नहीं होती। वत्स, रूपा को उचित मार्ग दिखाना ही तुम्हारा प्रेम है। हो सके तो रानी मां से मिल लेना।"
        "आर्य....ऐसा ही होगा। लेकिन वह काल भैरव का पुजारी.....?"
        "हां, नवासाशाह और अबुलफतह उससे मिले हैं और उसे लालच भी दिया है।"
        "जी, कल मैंने उन्हें छद्मवेष में घूमते देखा था।"
        "मैं जानता हूं।"
"क्या वह धूर्त पुजारी विश्वासधात करेगा ?"
        "यह भी जानता हूं। तुमने अभी तक सृजन किया है विनाश नहीं। अभी वह समय नहीं आया कि काल भैरव का घेरा डाल दिया जाए। सोम और विजय का व्यवहार तो ठीक है ?" अंतिम वाक्य शीलभद्र ने विषय बदलने के लिए कहा।
        "उनका व्यवहार सदैव मित्रवत रहा है। फिर सारे राज्य में कहीं राग और द्वेष दिखाई तक नहीं दिया।"
        "देना भी नहीं चाहिए। चलो, अब समय भी अधिक हो गया है प्रात: सोम या विजय के साथ अवश्य आना।" कह शीलभद्र आवास की ओर की मुड़ दिए। दिवाकर भी उनके साथ–साथ आया और फिर प्रणाम कर अपने शयनागार की ओर मुड़ गया। समस्त प्रजा अपनी सुरक्षा छोड़ धैर्य और वैभव की सुरक्षा को चिन्तित हो उठी, लेकिन यह चिंता पराजय की भावना से ग्रस्त न होकर शत्रु से दो–दो हाथ करने की थी।


टीका टिप्पणी और संदर्भ