जहाँगीर

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जहाँगीर (शासन काल सन् 1605 से सन्1627)

उसका जन्म सन् 1569 के 30 अगस्त को सीकरी में हुआ था । अपने आरंभिक जीवन में वह शराबी और आवारा शाहजादे के रूप में बदनाम था । उसके पिता सम्राट अकबर ने उसकी बुरी आदतें छुड़ाने की बड़ी चेष्टा की ; किंतु उसे सफलता नहीं मिली । इसीलिए समस्त सुखों के होते हुए भी वह अपने बिगड़े हुए बेटे के कारण जीवनपर्यंत दुखी रहा । अंतत: अकबर की मृत्यु के पश्चात जहाँगीर ही मुग़ल सम्राट बना । उस समय उसकी आयु 36 वर्ष की थी । ऐसे बदनाम व्यक्ति के गद्दीनशीं होने से जनता में असंतोष एवं घबराहट थी । लोगों की आंशका होने लगी कि अब सुख−शांति के दिन विदा हो गये, और अशांति−अव्यवस्था एवं लूट−खसोट का जमाना फिर आ गया । उस समय जनता में कितना भय और आतंक था, इसका विस्तृत वर्णन जैन कवि बनारसीदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "अर्थकथानक" में किया है । उसका कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत है,−

"घर−घर दर−दर दिये कपाट । हटवानी नहीं बैठे हाट ।

भले वस्त्र अरू भूषण भले । ते सब गाढ़े धरती चले ।

घर−घ्र सबन्हि विसाहे अस्त्र । लोगन पहिरे मोटे वस्त्र ।।"

खुसरो का विद्रोह और निधन

जहाँगीर के बड़े पुत्र का नाम खुसरो था । वह रूपवान, गुणी और वीर था। अपने अनेक गुणों में अकबर के समान था । इसलिए बड़ा लोकप्रिय था । अकबर भी अपने उस पौत्र को बड़ा प्यार करता था । जहाँगीर के कुकृत्यों से जब अकबर बड़ा दुखी हो गया, तब अपने अंतिम काल में उसने खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया । फिर सोच विचार करने पर अकबर ने जहाँगीर को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया । खुसरो के मन में बादशाह बनने की लालसा पैदा हुई थी, उसने उसे विद्रोही बना दिया । चूँकि जहाँगीर गद्दीनशीं था, अत: राजकीय साधन उसे सुलभ थे । उनके कारण खुसरों का विद्रोह विफल हो गया; और उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा ।

प्रशासन

जहाँगीर ने अपनी बदनामी को दूर करने के लिए अपने विशाल साम्राज्य का प्रशासन अच्छा करने की ओर ध्यान दिया । उसने यथासंभव अपने पिता अकबर की शासन नीति का ही अनुसरण किया और पुरानी व्यवस्था को कायम रखा था । जिन व्यक्तियों ने षड़यंत्र में सहायता की थी उसने उन्हें मालामाल कर दिया; जो कर्मचारी जिन पदों पर अकबर के काल में थे, उन्हें उन्हीं पदों पर रखते हुए उनकी प्रतिष्ठा को यथावत् बनाये रखा । कुछ अधिकारियों की उसने पदोन्नति भी कर दी थी । इस प्रकार के उदारतापूर्ण व्यवहार का उसके शासन पर बड़ा अनुकूल प्रभाव पडा ।

न्याय

जहाँगीर ने न्याय व्यवस्था ठीक रखने की ओर विशेष ध्यान दिया था। न्यायाधीशों के अतिरिक्त वह स्वयं भी जनता के दु:ख दर्द को सुनता था । उसके लिए उसने अपने निवास−स्थान से लेकर नदी के किनारे तक एक जंज़ीर बंधवाई थी और उसमें बहुत सी घंटियाँ लटकवा दी थीं । यदि किसी को कुछ फरियाद करनी हो, तो वह उस जंज़ीर को पकड़ कर खींच सकता है, ताकि उसमें बंधी हुई घंटियों की आवाज सुन कर बादशाह उस फरियादी को अपने पास बुला सके । जहाँगीर के आत्मचरित से ज्ञात होता है, वह जंज़ीर सोने की थी और उसके बनवाने में बड़ी लागत आई थी । उसकी लंबाई 40 गज की थी और उसमें 60 घंटियाँ बँधी हुई थीं । उन सबका वजन 10 मन के लगभग था । उससे जहाँ बादशाह के वैभव का प्रदर्शन होता था, वहाँ उसके न्याय का भी ढ़िंढोरा पिट गया था । किंतु इस बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि किसी व्यक्ति ने उस जंजीर को हिलाकर बादशाह को कभी न्याय करने का कष्ट दिया हो । उस काल में मुस्लिम शासकों का ऐसा आंतक था कि उस जंज़ीर में बँधी हुई घंटियों को बजा कर बादशाह के ऐशो−आराम में विध्न डालने का साहस करना बड़ा कठिन था ।


जहाँगीर के शासन−काल में प्लेग नामक भंयकर बीमारी का कई बार प्रकोप हुआ था । सन् 1618 में जब वह बीमारी दोबारा आगरा में फैली थी, तब उससे बड़ी बर्बादी हुई थी । उसके संबंध में जहाँगीर ने लिखा है − "आगरा में पुन: महामारी का प्रकोप हुआ जिससे लगभग एक सौ मनुष्य प्रति दिन मर रहे हैं । बगल, पट्टे या गले में गिल्टियाँ उभर आती हैं और लोग मर जाते हैं । यह तीसरा वर्ष है कि रोग जाड़े में जोर पकड़ता है और गर्मी के आरंभ में समाप्त हो जाता है । इन तीन वर्षों में इसकी छूत आगरा के आस−पास के ग्रामों तथा बस्तियों में फैल गई है । ....जिस आदमी को यह रोग होता था, उसे जोर का बुखार आता था और उसका रंग पीलापन लिये हुए स्याह हो जाता था, और दस्त होते थे और दूसरे दिन ही वह मर जाता था । जिस घर में एक आदमी बीमार होता, उससे सभी को उस रोग ही छूत लग जाती और घर का घर बर्बाद हो जाता था ।"

शराबबंदी का निर्देश

जहाँगीर को शराब पीने की लत थी, जो अंतिम काल तक रही थी । वह उसके दुष्टपरिणाम को जानता था ; किंतु उसे छोड़ने में असमर्थ था । किंतु जनता को शराब से बचाने के लिए उसने गद्दी पर बैठते ही उसे बनाने और बेचने पर पाबंदी लगा दी थी । उसने शासन−सँभालते ही एक शाही फरमान निकाला था, जिसमें 12 आज्ञाओं को साम्राज्य भर में मानने का आदेश दिया गया था । उसमें तीसरी आज्ञा शराबबंदी से संबंधित थी । उस प्रकार की आज्ञा होने पर भी वह स्वयं शराब पीता था और उसके प्राय: सभी सरदार सामंत, हाकिम और कर्मचारी भी शराब पीने के आदी थी । ऐसी स्थिति में शराबबंदी की शाही आज्ञा का कोई प्रभावकारी परिणाम निकला हो, इससे संदेह है ।

ग्रामीणों का विद्रोह

जहाँगीर के शासन−काल में एक बार ब्रज में यमुना पार के किसानों और ग्रामीणों ने विद्रोह करते हुए कर देना बंद कर दिया था । जहाँगीर ने खुर्रम को उसे दबाने के लिए भेजा । विद्रोहियों ने बड़े साहस और दृढ़ता से युद्ध किया ; किंतु शाही सेना से वे पराजित हो गये थे । उनमें से बहुत से मार दिये गये और स्त्रियों तथा बच्चों को कैद कर लिया गया । उस अवसर पर सेना ने खूब लूट की थी , जिसमें उसे बहुत धन मिला था । उक्त घटना का उल्लेख स्वयं जहाँगीर ने अपने आत्म चरित्र में किया है किंतु उसके कारण पर प्रकाश नहीं डाला । संभव है, वह विद्रोह हुसैनबेग़ बख्शी की लूटमार के प्रतिरोध में किया गया हो ।

ब्रज के जंगलों में शिकार

उस समय में ब्रज में अनेक बीहड़ वन थे, जिनमें शेर आदि हिंसक पशु भी पर्याप्त संख्या में रहते थे । मुस्लिम शासक इन वनों में शिकार करने को आते थे । जहाँगीर बादशाह ने भी नूरजहाँ के साथ यहाँ कई बार शिकार किया था । जहाँगीर अचूक निशानेबाज था । सन् 1614 में जहाँगीर मथुरा में था, तब अहेरिया ने सूचना दी कि पास के जंगल में एक शेर है, जो जनता को कष्ट दे रहा है । यह सुन कर बादशाह ने हाथियों द्वारा जंगल पर घेरा डाल दिया और खुद नूरजहाँ के साथ शिकार को गया । उस समय जहाँगीर ने जीव−हिंसा न करने का व्रत लिया था, अत: स्वयं गोली न चला कर उसने नूरजहाँ को ही गोली चलाने की आज्ञा दी थी । नूरजहाँ ने हाथी पर से एक ही निशाने में शेर को मार दिया था । सन् 1626 में जब जहाँगीर [मथुरा]] में नाव में बैठ कर यमुना की सैर कर रहा था, तब अहेरियों ने उसे सूचना दी कि पास के जंगल में एक शेरनी अपने तीन बच्चों के साथ मौजूद है । वह नाव से उतर कर जंगल में गया और वहाँ उसने शेरनी को मार कर उसके बच्चों को जीवित पकड़वा लिया था । उस अवसर पर जहाँगीर ने अपने जन्मदिन का उत्सव भी मथुरा में ही मनाया था । उसका तब 56 वर्ष पूरे कर 57 वाँ वर्ष आरंभ हुआ था । उसके उपलक्ष में उसने तुलादान किया और बहुत सा दानपुण्य किया था ।

व्यक्तित्व एवं अभिरूचि

सम्राट जहाँगीर का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था ;किंतु उसका चरित्र बुरी−भली आदतों का अद्भुत मिश्रण था । अपने बचपन में कुसंग के कारण वह अनेक बुराईयों के वशीभूत हो गया था, उनमें कामुकता और मदिरा−पान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । गद्दी पर बैठते ही उसने अपनी अनेक बुरी आदतों को छोड़ कर अपने को बहुत कुछ सुधार लिया था ; किंतु मदिरा−पान को वह अंत समय तक भी नहीं छोड़ सका था । अतिशय मद्य−सेवन के कारण उसके चरित्र की अनेक अच्छाईयाँ दब गई थीं । मदिरा−पान के संबंध में उसने स्वयं अपने आत्मचरित में लिखा है −"हमने सोलह वर्ष की आयु से मदिरा पीना आरंभ कर दिया था । प्रतिदिन बीस प्याला तथा कभी−कभी इससे भी अधिक पीते थे । इस कारण हमारी ऐसी अवस्था हो गई कि यदि एक घड़ी भी न पीते तो हाथ काँपने लगते तथा बैठने की शक्ति नहीं रह जाती थी । हमने निरूपाय होकर इसे कम करना आरंभ कर दिया और छह महीने का समय में बीस प्याले से पाँच प्याले तक पहुँचा दिया।"


जहाँगीर साहित्यप्रेमी था, जो उसको पैतृक देन थी । यद्यपि उसने अकबर की तरह उसके संरक्षण और प्रोत्साहन में विशेष योग नहीं दिया था, तथापि उसका ज्ञान उसे अपने पिता से अधिक था । वह अरबी, फारसी और ब्रजभाषा−हिन्दी का ज्ञाता तथा फारसी का अच्छा लेखक था । उसकी रचना "तुज़क जहाँगीर" (जहाँगीर का आत्म चरित ) उत्कृष्ट संस्मरणात्मक कृति है ।

ब्रज की धार्मिक स्थिति

ब्रज अपनी सुदृढ़ धार्मिक स्थिति के लिए परंपरा से प्रसिद्ध रहा है । उसकी यह स्थिति कुछ सीमा तक मुग़लकाल में थी । सम्राट अकबर के शासनकाल में ब्रज की धार्मिक स्थिति में नये युग का सूत्रपात हुआ था । मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा ब्रजमंडल के अंतर्गत थी; अत: ब्रज के धार्मिक स्थलों से सीधा संबंध था । आगरा की शाही रीति-नीति, शासन−व्यवस्था और उसकी उन्नति−अवनति का ब्रज का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा था । सम्राट अकबर के काल में ब्रज की जैसी धार्मिक स्थिति थी, वैसी जहाँगीर के शासन काल में नही रही थी ; फिर भी वह प्राय:संतोषजनक थी । उसने अपने पिता अकबर की उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया , जिससे उसके शासन−काल में ब्रजमंडल में प्राय: शांति और सुव्यवस्था कायम रही । उसके 22 वर्षीय शासन काल में दो−तीन बार ही ब्रज में शांति−भंग हुई थी । उस समय धार्मिक स्थिति गड़बड़ा गई थी ; और भक्तजनों का कुछ उत्पीड़न भी हुआ था किंतु शीघ्र ही उस पर काबू पा लिया गया था।

अंतिम काल और मृत्यु

जहाँगीर ने अपने उत्तर जीवन में शासन का समस्त भार नूरजहाँ को सौंप दिया था । वह स्वयं शराब पीकर निश्चिंत पड़े रहने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझता था । शराब की बुरी लत और ऐश−आराम ने उसके शरीर को निकम्मा कर दिया था । वह कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता था । सौभाग्य से अकबर के काल में मुग़ल साम्राज्य की नींव इतनी सृदृढ़ रखी गई थी कि जहाँगीर के निकम्मेपन से उसमें कोई खास कमी नहीं आई थी । अपने पिता द्वारा स्थापित नीति और परंपरा का पल्ला पकड़े रहने से जहाँगीर अपने शासन−काल के 22 वर्ष बिना खास झगड़े−झंझटों के प्राय: सुख−चैन से पूरे कर गया था । नूरजहाँ अपने सौतेले पुत्र खुर्रम को नहीं चाहती थी । इसलिए जहाँगीर के उत्तर काल में खुर्रम ने एक−दो बार विद्रोह भी किया था ; किंतु वह असफल रहा था। जहाँगीर की मृत्यु सन् 1627 में उस समय हुई जब वह कश्मीर से वापिस आ रहा था । रास्ते में लाहौर में उसका देहावसान हो गया । उसे वहाँ के रमणीक उद्यान में दफनाया गया था । बाद में वहाँ उसका भव्य मकबरा बनाया गया । मृत्यु के समय उसकी आयु 58 वर्ष की थी । जहाँगीर के पश्चात् उसका पुत्र खुर्रम शाहजहाँ के नाम से मुग़ल सम्राट हुआ