जीव गोस्वामी

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श्री जीव गोस्वामी / Shri Jeev Goswami

पूर्व बंगाल के बरिशाल जिले का एक अंश कभी चन्द्रद्वीप नाम से प्रसिद्ध था। चन्द्र द्वीप के एक अंश बाकला में रूप-सनातन के पिता कुमारदेव की अट्टालिका थी। रूप-सनातन और उनके छोटे-भाई वल्लभ जब हुसेनशाह के दरवार में सर्वोच्च पदों पर नियुक्त थे, तब इस अट्टालिका का गौरव किसी राजप्रासाद से कम न थां धन-धान्य, राजैश्वर्य, बन्धु-बान्धवों, दास-दासियों से परिपूर्ण और तरू-लताओं, बाग-बगीचों से परिवेष्टित इस अट्टालिका की शोभा देखते ही बनती थी।

पर जब से तीनों भाई संसार छोड़कर चले गये मानो इसने भी वैराग्य ले लियां इसकी चमक-दमक और चहल-पहल अतीत के गर्भ में विलीन हो गयी। पुर-परिजनों और दास-दासियों का कलगुंजन भी अब इसमें सुनाई नहीं पड़ता। सुनाई पड़ता है नितान्त नीरवता के वातावरण में एक वर्षीय-सी विधवा का मन्द स्वर, जो रात्रि के अन्धकार में दीपशिखा के निकट बैठी पुराण का पाठ करती है और उसके शिशु का कलकंठ, जो उससे सटकर बैठा बड़े ध्यान से पुराण की कहानियाँ सुनता है और बीच-बीच में उचक-उचक कर विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देखते हुए रहस्यमय प्रश्न करता है।

विधवा माँ के नयनमणि यह बालक है वल्लभ का एकमात्र पुत्र जीव इसकी बुद्धि की तीक्षणता और परमार्थ विषयों में असाधारण रूचि इसके प्रश्नों से साफ झलकती है। इसने अपने परिवार से उत्तराधिकार में पाया ही और क्या है? न तो इसने पायाहै अपने पिता और पितृव्यों का राजवैभव, न उनके किसी सिंहासन का उत्तराधिकार। पायी है केवल उनकी विवेक बुद्धि और उनकी भक्ति की अदम्य स्पृहा। इसके बल-बूते पर ही इसे उत्तरकाल में करतलगत हुआ भक्ति का विराट साम्राज्य। इसके बल पर ही यह उदित हुआ वृन्दावन धाम में भक्ति-आन्दोलन के केन्द्र में भक्ति-सिद्धान्त और साधना के आलोक स्तम्भ के रूप में और परिचित हुआ गौड़ीय-वैष्णव समाज के महान् शक्तिधर अधि नायक श्रीजीव गोस्वामी के रूप में।

जन्म

जीव के जन्म काल का अनुमान भक्तिरत्नाकर की निम्न पंक्तियों के आधार पर लगाया जाता है-

श्री जीवादि संगोपने प्रभुरे देखिल।

अति प्राचीनेर मुखे ए सब शुनिल॥(भक्तिरत्नाकर 1/638)

श्रीनरहरि चक्रवर्ती के इस उल्लेख का आशय जान पड़ता है कि जीव बहुत छोटी अवस्था के शिशु थे और अधिकतर माँ के साथ या उनकी गोद में रहते थे जब उन्होंने महाप्रभु के दर्शन किये। महाप्रभु जब 1513 ई0 या 1514 ई0 में रामकेलि गये तो उनके साथ उनकी माँ और अन्य महिलाओं ने छिपकर कहीं से उनके दर्शन किये। नरहरि चक्रवर्ती ने यह भी लिखा है कि उन्होंने किसी बहुत प्राचीन या वृद्ध व्यक्ति के मुख से ऐसा सुना, जिसने स्वयं उस समय महाप्रभु के दर्शन किये थे। श्रीसतीशचन्द्र मिश्रका कहना है कि उस समय जीव की उम्र यदि दो वर्ष मानी जाय तो मानना होगा कि उनका जन्म सन् 1511 ई0 में रामकेलि में हुआ।[१]

बाल्यकाल

तीन वर्ष बाद सन् 1514 में रूप गोस्वामी ने संसार त्यागा। वल्लभ और परिवार के अन्य लोगों को साथ ले वे पहले फतेयाबाद वाले अपने घर गये। कुछ दिनों के लिये वहाँ रह गये। वल्लभ परिवार के अन्य लोगों को लेकर वाकला चले गये। जीव के साथ उन्हें सबकों वहाँ छोड़ वे फतेयाबाद में रूप गोस्वामी से फिर जा मिले। जब नीलाचल से महाप्रभु के वृन्दावन गमन का सम्वाद मिला, तब दोनों भाई वृन्दावन ओर चल दिये। प्रयाग में उनकी महाप्रभु भेंट हुई, जब वे वृन्दावन से लौटकर नीलाचल जा रहे थे। एक मास वृन्दावन में रह कर दोनों भाई गौड़ लौटे। गौड़ में गंगातीर पर बल्लभ को अभीष्ट धाम की प्राप्ति हुई। उस समय जीव की उम्र 4 या 5 वर्ष की थी।

पिता और पितृव्यों के समान जीव भी बहुत सुन्दर थे-

जैछे सनातन, रूप, वल्लभ सुन्दर।

तैछे श्रीजीवेर कि सौन्दर्य मनोहर॥(भक्तिरत्नाकर 1/644)

उनके दीर्घ नेत्र, उच्च नासिका, उच्च ललाट, प्रशस्त वक्ष और कंचन के समान मुख की दीप्ति उनके महापुरूष होने की सूचना देते थे। भक्तिरत्नाकर में जीव के वाल्य-चरित्र का सुन्दर वर्णन है। वे ऐसा कोई खेल ही न खेलते, जिसका श्रीकृष्ण न होता। कृष्ण-बलराम की दो मूर्तियाँ वे सदा अपने पास रखते। पुष्प-चन्दनादि से उनकी पूजा करते, वस्त्र-भूषणादि से उन्हें सजाते, फिर अनिमिष नेत्रों से उनकी ओर देखते रहते, कनकपुतली की तरह भूमि पर लोट कर सिक्त नेत्रों से उन्हें प्रणाम करते और भक्तिपूर्वक विविध प्रकार के मिष्ठान का उन्हें भोग लगा बालकों के साथ प्रसाद ग्रहण करते। अकेले भी निर्जन में उन्हें लेकर तरह-तरह के खेल खेलते। सोते समय उन्हें अपने वक्ष से लगाकर रखते। उस समय भी धर के लोग दोनों मूर्तियों को उनके वक्ष से हटाना चाहते तो न हटा सकते-

कृष्ण-बलराम बिना किछुइ न भाय।

एकाकिओ दोंहे लइया निर्जने खेलाय॥

शयन समये दोहे राखये बक्षेते।

मात कौतुकेओ ना पारे लइते॥(भक्तिरत्नाकर 1/724-725)

कभी कभी कृष्ण-बलराम उन्हें स्वप्न में दर्शन देते।

विद्यार्थी जीवन और वैराग्य

जीव पाठशाला जाने लगे। अल्पकाल में ही उन्होंने व्याकरण, अलंकार, काव्यादि पर पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया-

अल्पकाले श्रीवेर बुद्धि चमत्कार।

व्याकरण आदि शास्त्रे अति अधिकार॥(भक्तिरत्नाकर 1/639)

मेघा और बुद्धि का ऐसा चमत्कार देख अध्यापक और सहपाठीगणों के आश्चर्य की सीमा न रही। सभी कहने लगे-"जीव कोई साधारण बालक नहीं है। लगता है इसका जन्म किसी देव-अशं से है-

सबे कहे-देव अंशे जनम इहार। नहिले कि अल्पकाले एत अधिकार॥(भक्तिरत्नाकर 1/639) 1/643)

जीव पढ़ते लिखते तो बड़े मनोयोग से, पर कृष्ण बलराम की याद कर कभी कभी रो पड़ते। उनका जैसा भाव कृष्ण बलराम के प्रति था, वैसा ही और निताई के प्रति भी। कभी-2 वे एकान्त में भाव विह्नल अवस्था में उनसे न जाने क्या क्या कहते। परिवार के लोग उन पर दृष्टि रखते और अलक्षित रूप से एकान्त में उनकी भाव मुद्रा देख परस्पर कहते-"जीव की जो दशा है उसे देख लगता है कि वह थोड़े ही दिनों में गृह त्याग देगा-)

केह कहे-"अहे भाई! बिचारिनु मने। जीव छाड़िबे घर आति अल्प दिने॥ (भक्तिरत्नाकर 1/639) 1/643) 1/102)

एक बार वे रोकर श्रीकृष्ण चैतन्य को पुकारते हुए धैर्य खो बैठे। आन्तरिक वेदना इतनी असह्य हो गयी कि पृथ्वी पर लोट पोट होने लगे। उनका मुख और वक्ष नेत्रों के जल से भीग गया और अन्त में मूर्च्छा आ गयी। भक्तरत्नाकर में वर्णन है कि परिवार के किसी व्यक्ति ने अलक्षित रूप से उनकी यह दशा देखी-

एक दिन देखिल अलक्षित। श्रीकृष्ण चैतन्य बलि हइला मूर्च्छित॥

धरनी लोटाय, धैर्य धरन न जाय। मुख, वक्ष भासे दुइ नेत्रेर धाराय॥(भक्तिरत्नाकर 1/639) 1/643) 1/102) 4/699-700)

उस दिन रात को उन्हें निद्रा न आयी। थोड़ी देर को आँख लगी तो स्वप्न में कृष्ण-बलराम के दर्शन हुए। दूसरे ही क्षण कृष्ण-बलराम में गौर-निताई के दर्शन हुए। उनके गौर कान्तिमय स्वरूप की अपूर्व छठा को अनिमेष देखते-2 वे उनके चरणों में लोट गये और नेत्रों के जल से उन्हें अभिषिक्त कर दिया। तब उन्होंने अपने चरणकमल उनके मस्तकपर रखे और प्यार से बार-बार उन्हें आलिंगन कर अमृतमय प्रबोध-बचन कहे-

करूणा समुद्र गौर नित्यानन्द रायं पादपद्म दिलेन जीवरे माथाय॥

परम वात्सल्ये पुन: करे आलिंगन। कहिल अमृतमय प्रबोध वचन॥(भक्तिरत्नाकर 1/639) 1/643) 1/102) 4/699-700)1/734-735)

गौर सुन्दर ने प्रेमाविष्ट हो नित्यानन्द प्रभु के चरणों में उन्हें डाल दिया। नित्यानन्द ने आशीर्वाद देते हुए कहा-"मेरे प्रभु गौरसुन्दर में तुम्हारी रति होह। वे तुम्हारे जीवन सर्वस्व हों।"

श्री गौर सुन्दर महाप्रेमाविष्ट हैया। प्रभु नित्यानन्द पदे दिल समर्पिया॥

नित्यानन्द श्रीजीवे कहये बार-बार। एइ मोर प्रभु होक सर्वस्व तोमार॥(भक्तिरत्नाकर 1/639) 1/643) 1/102) 4/699-700)1/734-735) 1/736-737)

तब से गौर-निताइ की स्पप्नदृष्ट मूर्तियाँ छाया की तरह उनके आगे-पीछे बनी रहती। संसार के प्रति उदासीनता का भाव उन पर सदा छाया रहता। परिवार के प्राचीन ऐश्वर्य का लोप हो जाने पर भी, उनके पास अपने और परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त धन था। पर उन्होंने अपने धन-सम्पत्ति की ओर कभी मुड़कर नहीं देखां वे अपनी माँ और अन्य लोगों के मुख से सुनते अपने दोनों पितृव्यों के त्याग और वैराग्य की कहानी और उनका हृदय एक अपार्थिव पुलक से बार-बार सिहर उठतां उनका दिव्य आकर्षण उन्हें अपनी ओर खीचता जाना पड़ता। वे उनके दर्शन के लिये उद्धिन हो उठते। पर दर्शन तो दूर उनके सम्वाद के लिए भी उन्हें निराश होना पड़ता, फिर भी उनकी छाप उनके ऊपर स्पष्ट दीखती। ऐसा जान पड़ता कि जैसे उन्होंने उस अल्पावस्था में ही उनका अनुसरण करने का संकल्प कर दिया हो।

प्रेम-विलास' में वर्णन है कि माँ से अपने पितृव्यों के दैन्य और डोर-कौपीन धारण कर वृन्दावन में घर-घर मधुकरी भिक्षा माँग कर जीवन निर्वाह करने की बात सुन वे उनका पथानुसरण करने के लिए इतना बेचैन हो उठे कि बाक्ला में रहते हुए कैशोरावस्था में ही उनके समान वैराग्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगे। माँ को यह देखकर चिन्ता हुई कि वे भी कहीं संसार त्याग कर वृन्दावन में उनसे न जा मिलें। पर स्वयं धर्मपरायणा और भक्तिभाव सम्पन्न होने के कारण उन्होंने इसमें कोई बादा न दी।

जीव के त्याग-वैराग्य, अखण्ड ब्रह्मचर्य और पवित्र भक्तिमय जीवन ने उनकी सूक्ष्म बुद्धि पर धार रख उस सूक्ष्मतर कर दिया। इसलिए 16/17 वर्ष की अवस्था में ही स्थानीय चतुष्पाठी में काव्य, व्याकरण, स्मृति प्रभृति की शिक्षा समाप्त कर वे वेदान्त आदि दर्शनशास्त्र पढ़ने के लिए व्यग्र हो उठे। साथ ही वृन्दावन जाने की उनकी इच्छा भी प्रबल हो गयी।

गृह-त्याग

नवद्वीप से बहुत से लोग पहले वृन्दावन जा चुके थे। उनके लिए भी कोई सुयोग मिलने पर नवद्वीप से वृन्दावन जाना आसान था। नवद्वीप उस समय विद्या का प्रधान केन्द्र भी था। इसलिए उन्होंने वेदान्त आदि के अध्ययन के छल से नवद्वीप जाने का विचार किया वे पहले कुछ आत्मीय स्वजनों के साथ नौका द्वारा फतेयाबाद के अन्तर्गत प्रेम भाग वाले अपने घर गये। कुछ दिन वहाँ रूक कर केवल एक नौकर को साथ ले चल पड़े नवद्वीप की पदयात्रा पर। स्वजनों को उन्हांने पहले ही नौका से वाक्ला वापस भेज दिया था। नवद्वीप जाते समय उनका नैष्टिक ब्रह्मचारी का वेष था। उनके हाथ में जप की माला थी और कन्धे पर लटक रहा था भिक्षा का झोला। वे गृह छोड़ कर जा रहे थे, उत्तर जीवन में फिर कभी संसार में लौट कर न आने का दृढ़ संकल्प लिये।

नवद्वीप में नित्यानन्द प्रभु के चरणों में

नवद्वीप पहुँचते ही सहसा उनका भाग्यसूर्य उदय हुआ। खड़दह से नित्यानन्द प्रभु कई दिन पूर्व सदल-बल वहा आये थे और श्रीवास पण्डित के घर ठहरे हुए थे। मानो श्रीजीव पर कृपा करने के उद्देश्य से ही उन्होंने नवद्वीप की यात्रा की थी और उनके आगमन की प्रतिक्षा कर रहे थे। जीव को नवद्वीप मेंपैर रख्तो ही यह शुभ संवाद मिला। वे भावविभोर अवस्था में उलटे सीधे पैर रखते झट जा पहुँचे श्रीवास पण्डित के घर और लोट गये नित्यानन्द प्रभु के चरणों में।

रूप-सनातन के भ्रातुष्पुत्र को अपने चरणों में पड़ा देख नित्यानन्द का आनन्द समुद्र उमड़ पड़ा। उद्दण्ड नृत्य कीर्तन करते हुए उन्होंने अपना चरण उनके मस्तक पर रखा और आशीर्वाद दिया। उन्हें अपने साथ ले जाकर गौर-लीला के चिन्हित स्थानों का दर्शन कराया। महाप्रभु की स्मृति से परिपूर्ण उनकी एक-एक लीलास्थली के दर्शन कर जीव भाव-समुद्र में खो गये। दूसरे दिन नित्यानन्द प्रभु से हाथ जोड़कर बोले-"प्रभु! आपकी कृपा से महाप्रभु की आदि लीला के सभी स्थानों के दर्शन कर लिये। अब आज्ञा दे, नीलाचल जाकर उनकी अन्त्य-लीला-स्थलियों के दर्शन कर आने की। वहाँ से लौटकर मेरी इच्छा है आपके दास रूप में आपकी चरण छाया में रहकर साधन-भजन करने की। आप मुझे अंगी कार करने की कृपा करें।"

पर नित्यानन्द प्रभु को तरूण जीव के मुखारविन्द की दिव्य कान्ति, तीक्ष्ण नासिका, प्रशस्त ललाट की तेजस्विता और नेत्रों की भाव मय उद्दीपना देख भूल न हुई उन्हें भविष्य के वैष्णव समाज के नायक के रूप में पहचानने में। उन्होंने उन्हें प्रेम से आलिंगन करते हुए कहा-

"शीघ्र ब्रजे रकह प्रयान तोमार वंशे प्रभु दियाछेन सेई स्थान।"(भ0 र0 1/772)

अर्थात् तुम्हारे वंश को प्रभु ने वृन्दावन की सेवा का अधिकार सौपा है। इसलिए तुम वृन्दावन जाओ। वही तुम्हारा प्रकृत कार्यक्षेत्र है। तुम्हारे पितृव्य रूप-सनातन महाप्रभु के आदेश से वहाँ रहकर भक्ति धर्म का प्रचार कर रहे है। तुम जाकर उनकी सहायता करो। उनके पश्चात् तुम्हें ही महाप्रभु द्वारा प्रचारित वैष्णव धर्म के प्रचार का गुरूतर भार सम्हालना है, और तैयार करनी है उसकी दार्शनिक भित्ति। पर इस कार्य के लिए वेद वेदान्त का अध्ययन करना आवश्यक है। इसलिए वृन्दावन जाने से पूर्व कुछ दिन काशी में रहकर मधुसूदन वाचस्पति से वेदान्त की शिक्षा ग्रहण करो।

काशी में मधुसूदना वाचस्पति से वेदान्त अध्ययन

जीव काशी चले गये। मधुसूदन वाचस्पति से वेदान्त पढ़ने लगे। मधुसूदन वाचस्पति का उस समय काशी में प्रबल प्रताप था। वे सार्वभौम भट्टाचार्य के प्रियतम शिष्य थे। न्याय और वेदान्त के भारत विख्यात पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य का महाप्रभु से साक्षात होने के पश्चात् मत-परिवर्तन हो गया था। वे भक्ति-सिद्धान्त के अनुसार वेदान्त का प्रचार करने लगे थे। उन्हीं से वेदान्त की शिक्षा ग्रहण कर मधुसूदन वाचस्पति काशी धाम में श्रेष्ठतम प्राचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे।

जीव की अद्भुत मेधा से वाचस्पति प्रभावित हुए। प्रेम से उन्हें वेदान्त का पाठ पढ़ायां उन्नीस वर्ष की आयु में उनके न्याय-वेदान्त। शास्त्र में आद्वितीय होने की ख्याति काशी में चारों ओर फैल गयी-

"काशीते श्री जीवेर प्रशंसा सर्व ठाई।

न्याय वेदान्तादि शास्त्रे ऐछे केह नाइ।"(भ0र0 1/119)

वृन्दावन आगमन और दीक्षा

काशी में वेदान्त का पाठ समाप्त करने के पश्चात् वे वृन्दावन चले गये। अनुमान किया जाता है कि वेदान्त पढ़ने के लिए वे काशी में कम से कम दो वर्ष रहे होंगे। वृन्दावन में उस समय स्वर्णिम युग था। भक्ति की गंगा अवाधगति से उमड़-घुमड़कर वह रही थी। उनके पितृव्य नव-स्थापित कृष्ण-भक्ति के साम्राज्य पर शासन कर रहे थे। कृष्ण के श्रीविग्रहों की स्थापना,कृष्ण-भक्ति-शास्त्रों के निर्माण और कृष्ण-लीला सम्बन्धी स्थलियों के आविष्कार का कार्य तीव्र गति से चल रहा था। रघुनाथभट्ट गोस्वामी, प्रबोधानन्द सरस्वती, गोपालभट्ट गोस्वामी, रघुनाथदास गोस्वामी, काशीश्वर और कृष्णदास कविराज आदि प्रधान-प्रधान चैतन्य महाप्रभु के परिकर वृन्दावन पहुँच चुके थे और विभिन्न प्रकार से रूप सनातन के प्रचार-कार्य में उनका हाथ बटा रहे थे।

जीव को भी इस कार्य में सहयोग करने के लिए नित्यानन्द प्रभु ने वृन्दावन भेजा था। उन्हें प्राप्त कर रूप और सनातन अति प्रसन्न हुए। उन्हें ले जाकर सब महात्माओं से उनका परिचय कराया, सबका आशीर्वाद दिलवाया। उनकी अवस्था इस समय केवल 19 वर्ष की थी। वे सबसे छोटे और रूप्-सनातन के भ्रातुष्पुत्र होने के कारण तो सबके स्नेहभाजन थे ही, उन्हें अपने रूप, गुण, चरित्र, असाधारण पांडित्य, कृष्ण-भजन और वैष्णव सेवा में अदम्य-उत्साह के कारण सबको विशेष रूप से प्रावित करने में देर न लगी। शास्त्र-चर्चा हो या उत्सव अनुष्ठान सब में वे सबसे आगे रहने लगे।

सनातन गोस्वामी के आदेश से रूप गोस्वामी से दीक्षा ले वे उनके पास रह कर उनकी सेवा करने लगे। वे उनके लिए विग्रह-सेवा की सामग्री जुटाते, सेवा-पूजा में उनकी सहायता करते, उनके भोजन कर लेने पर उनका प्रसाद ग्रहण करते, उनके शयन करने पर उनका पाद-सम्वाहन करते, उनके ग्रन्थ-रचना के समय पोथी पत्र जुटाकर देते, आवश्यकता होने पर विभिन्न ग्रन्थों से आवश्यक श्लोकों को खोजकर देते औ जब जिस प्रकार से आवश्यक होता ग्रन्थ रचना में उनकी सहायता करते।

जीव गोस्वामी और वल्लभ भट्ट

[२]'भक्तिरत्नाकर' और 'प्रेमविलास' में उल्लेख है कि जब रूप गोस्वामी भक्तिरसामृतसिन्धु की रचना में लगे थे, दिग्विजयी श्रीवल्लभ भट्ट आये उनसे मिलने। उस समय जीव गोस्वामी उनके निकट बैठे पंखा कर रहे थे। रूप गोस्वामी ने उन्हें आदर पूर्वक आसन दियां कुछ वार्तालाप के पश्चात् वल्लभ भट्ट भक्तिरसामृतसिन्धु के पन्ने उलट कर देखने लगे। उन्हें निम्नलिखित श्लोक में 'पिशाची' शब्दा का प्रयोग खटका-

'भुक्ति-मुक्ति-स्पृहा यावत् पिशाची हृदि वर्तते।

तावद्धक्ति सुखस्यात्र कथमम्युदयो भवेत?(भक्ति रसामृतसिन्धु 1/2/22)

-जब तक भुक्ति-मुक्ति स्पृहारूपी पिशाची हृदय में वर्तमान रहती है, तब तक भक्ति सुख का उदय होना सम्भव नहीं।"

उन्होंने पिशाची' शब्द श्लोक से निकाल कर इस प्रकार उसका संशोधन करने की बात कही-

"व्याप्नोति हृदयं यावद्भुक्ति-मुक्ति स्पृहाग्रह"

रूप गोस्वामी ने उनके प्रति श्रद्धा और अपने दैन्य के कारण संशोधन सहर्ष स्वीकार कर लिया। जीव को उनका संशोधन नहीं जंचा। उन्हें एक नवागत व्यक्ति का गुरूदेव जैसे महापण्डित और शास्त्रज्ञ की रचना का संशोधन करने का साहस भी पण्डितों के शिष्टाचार के प्रतिकूल लगा। क्रोधाग्नि उनके भीतर सुलगने लगी। पर गुरूदेव उस संशोधन को स्वीकार कर चुके थे, इसलिए वे उनके सामने कुछ न कह सके। उनके परोक्ष में उनसे तर्क द्वारा निपट लेने का निश्चय कर चुपचाप बैठे रहे। वे क्या जानते थे कि जिन्हांने संशोधन सुझाया है वे कोई साधारण व्यक्ति नहीं, एक दिग्विजयी पण्डित हैं।

थोड़ी देर बाद जब वल्लभ भट्ट जमुना स्नान को गये, तो वे भी उनके वस्त्रादि लेकर उनके पीछे पीछे गये। कुछ दूर जाकर क्रुद्ध और कठोर स्वर में बोले-"श्रीमान् आपने भक्ति रसामृतसिन्धु में जो संशोधन सुझाया वह ठीक नहीं। गुरूदेव ने केवल दैन्यवश उसे स्वीकार कर लिया है।"

पण्डित हक्का-वक्का सा तरूण की ओर देखते रह गये। कुछ अपने आपको सम्हालते हुए बोले-"क्यों भाई मुक्ति को पिशाची कहना तुम्हें अच्छा लगता है? मुक्ति बहुत से साधकों की काम्य-वस्तु और सिद्धो की चिरसंगिनी है, शोक-नाशिनी और आनन्ददायिनी है। उसकी पिशाची से तुलना करना अनुचित नहीं है?"

जीव ने विनम्रतापूर्वक कहा-" आचार्य! मुक्ति को पिशाची कहना अनुचित हो सकता है। पर उस श्लोक में मुक्ति को पिशाची कहा ही कब गया है? पिशाची कहा गया है मुक्ति की स्पृहा को, जो यथार्थ है। स्पृहा या वासना चाहे जैसी हो, उसका भक्त के हृदय में कोई स्थान नहीं। यदि वह भक्त के हृदय में प्रवेश कर जाती है, तो उसके भक्तिरस का शोषण कर लेती है और उसे उसी प्रकार अशान्त बनाये रहती है, जिस प्रकार पिशाची किसी मनुष्य के भीतर प्रवेश कर उसे अशान्त बनाये रखती है। शान्त तो केवल कृष्ण भक्त है, जो कृष्ण सेवा के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहते। भुक्ति-मुक्ति कामी जितने भी हैं सब पिशाची-ग्रस्त व्यक्ति की तरह ही अशान्त हैं। श्लोक में पिशाची शब्द का प्रयोग किये बिना भी काम तो चल सकता था, पर उसके बगैर श्लोक का भाव प्रभावशाली ढंग से स्पष्ट न होता। इसलिए 'पिशाची' शब्द का उस में रहना ही ठीक है। आप....।

जीव आवेश में यह सब कहे जा रहे थे। पर आचार्यपाद का ध्यान जमा हुआ था उनके पहले वाक्य पर ही। वे उसके परिपेक्ष में श्लोक को फिर से परखते हुए मन ही मन कह रहे थे-"नवयुवक ठीक ही तो कह रहा है। श्लोक में पिशाची मुक्ति की स्पृहा को कहा गया है, न कि मुक्ति को। मेरा मन मुक्ति के प्रसंग मात्र में 'पिशाची' शब्द के प्रयोग से इतना उद्विग्न हो गया था कि 'स्पृहा' की ओर ध्यान ही नहीं गया। जीव की बात काटते हुए वे बोले-"तुम ठीक कहते हो। श्लोक में 'पिशाची' मुक्ति की वासना को ही कहा गया है। भक्तों के लिए मुक्ति की वासना पिशाची के ही समान है।"

प्रतिभाधर तरूण पण्डित की सूक्ष्म दृष्टि की मन ही मन सराहना कहते हुए उन्होंने जमुना स्नान किया। स्नान के पश्चात् फिर गये रूप गोस्वामी कुटी पर। उल्लसित हो उनसे पूछा-"वह जो अल्पवयस्क पण्डित आपके पास बैठे थे, वे कौन थे? उनका परिचय प्राप्त करने के उद्देश्य से ही आपके पास लौटकर आया हूँ-

"अलप-वयस जे छिलेन तोमा-पाशे। ताँर परिचय हेतु आइनू उल्लासे॥"(भ0र0 5/1637)

रूप गोस्वामी ने कहा-"वह मेरा शिष्य और भतीजा है। अभी कुछ ही दिन हुए देश से आया है।"

"बड़ा प्रतिभाशाली और होनहार है वहा" उन्होंने श्लोक के संशोधन के कारण उसके रोष का सब वृतान्त कह सुनाया।

अन्त में कहा-"उसका दोष बिल्कुल नहीं था भूल मेरी ही थी। मेरा ध्यान 'पिशाची' शब्द में इतना उलझ गया था कि 'स्पृहा' का ध्यान ही न आया। अब मेरा अनुरोध है कि आप श्लोक को उसी प्रकार रहने दें। उसमें कोई परिवर्तन न करें।

रूप गोस्वामी की ताड़ना

बल्लभ भट्ट चले गये। रूप गोस्वामी ने मन में एक अभूतपूर्व आलोड़न छोड़ गये। जैसे ही जीव जमुना-स्नान से लौटकर आये, उन्होंने उनकी कड़ी भर्त्सना करते हुए कहा-

"मोरे कृपा करि भट्ट आइला मोर पाशे।

मोर हित लागि ग्रन्थ शुधिव कहिला॥

ए अति अलप वाक्य सहिते नारिला।

ताहे पूर्व देशे शीघ्र करह गमन।

मन स्थिर हइले आसिबा वृन्दावन॥ (भ0र0 5/1641-1643)

-भट्टजी ने बड़ी कृपा की जो मेरे पास आये और मेरे हित के लिए मेरे ग्रन्थ में संशोधन करने को कहा। तुम से उनकी इतनी बात भी सहन न हुई। इसलिए तुम यहाँ रहने योग्य नहीं। शीघ्र चले जाओ यहाँ से। यहाँ आना जब तुम्हारा मन स्थिर हो जाय।"

'प्रेम विलास' में इस विस्फोटक स्थिति का इस प्रकार वर्णन है-

"श्री रूप डाकिया कहे श्रीजीवेर प्रति। अकाले वैराग्य वेश धरिले मूढ़मति॥

क्रोधेर उपरे क्रोध ना इहल तोमार। ते कारणे तोर मुख ना देखिब आर॥"(1)

-रूप गोस्वामी ने जीव को बुलाकर कहा-"अरे मूढ़! तू वैराग्यवेश के योग्य नहीं। तूने अपरिपक्व अवस्था में ही वैराग्य धारण कर लिया। तुझे क्रोध आया। क्रोध के ऊपर क्रोध न आया? जा, यहाँ से वापस चला जा। मैं तेरा मुख भी नहीं देखना चाहता।"

जीव नवमस्तक हो चुपचाप सुनते रहे। अपने अपराध के गुरूत्व का बोध उन्हें होने लगा-"सचमुच क्रोध का त्याग किये बिना सर्वत्यागी वैरागी होना और श्री कृष्ण के चरणों में पूर्ण आत्मसमर्पण होना सम्भव नहीं।"

शोक और अनुताप की अग्नि उनके अन्तर में धूं-धूंकर जलने लगी। गुरू आज्ञा शिरोधार्य कर क्रन्दन करते करते उन्हें प्रणाम कर वे वहाँ से चल दिये।

निर्जन में कृच्छ् साधना

जीव वृन्दावन से बहुत दूर निर्जन वन प्रान्त में एक पर्णकुटी निर्माण कर उसमें रहने लगे। आरम्भ किया कठोर वैराग्यपूर्ण कृच्छ् साधना का जप-ध्यानमय जीवन। संकल्प किया कि जब तक गुरूदेव के मनोभाव के अनुकूल अपने जीवन में आमूल परिवर्तन न कर लेंगे, तब तक उस निर्जन कुटी को छोड़ लोकालय में प्रवेश न करेंगे। वे भिक्षा के लिए भी न जातें दूर ग्राम से आकर यदि कोई कुछ भिक्षा दे जाता तो उसे ले लेते। नहीं तो कई कई दिन तक उपवासी रहते या जमुना जल पीकर ही रह जाते। कभी भिक्षा में प्राप्त गेहूँ का चूर्ण कर उसे पानी में मिलाकर पी जाते-

बहु यत्ने किण्चित् गोधूमचूर्ण लैया। करये भक्षण ताहा जले मिशाइया॥(भक्तिरत्नाकर 5/1652)

इस प्रकार जीवन निर्वाह करते बहुत दिन हो गये। शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया। एक दिन अकस्मात् सनातन गोस्वामी उन्हें खोजते हुए उधर आ निकले। उनकी दशा देख उनका हृदय द्रवित हो गया। वृन्दावन जाकर रूप गोस्वामी से उन्हें बुला लेने का अनुरोध करना चाहां पर सहसा इस सम्बन्ध में कुछ न कहकर उनसे पूछा-

"तुम्हारे भक्तिरसामृतसिन्धु का काम कहाँ तक हो पाया है?"

"काम तो बहुत कुछ हो गया है। पर अब तक कभी का समाप्त हो लेता यदि जीव होता। उसे मैंने किसी अपराध के कारण अपने पास से हटा दिया हैं", रूप गोस्वामी ने उत्तर दिया।

सनातन गोस्वामी ने अवसर पाकर तुरन्त कहा-"मैं सब जानता हूँ। उसे मैं देख कर आया हूँ। अनाहार, अनिद्रा, उपवास और कठोर तपस्या के कारण उसका शरीर इतना जर्जर हो गया है कि उसकी ओर देखा भी नही जाता। बस प्राण किसी प्रकार जाने से रूक रहे हैं। तुमने आजन्म महाप्रभु के जीवे दया नामे रूचि' के सिद्धान्त का पालन किया है। क्या अपने ही जीव को अपनी दया से वंचित रखोगे?"

-रूप गोस्वामी ने गुरूवत् ज्येष्ठ भ्राता का इंगित प्राप्त कर जीव को क्षमा करने का निश्चय किया। उसी समय किसी के हाथ पत्र भेज कर उन्हें अपने पास बुला लिया। जीव का प्रायश्चित तो हो ही चुका था। उनके स्वभाव में मनोवाच्छित परिवर्तन भी हो गया था। गुरूदेव की करूणा प्राप्त कर उन्होंने नया जीवन लाभ किया। वास्तव में देखा जाय तो यह सारी घटना प्रभु की प्रेरणा से ही हुई थी। इसमें दोष किसी का नहीं था। इसके द्वारा प्रभु को भक्त-साधकों को हर प्रकार की कामना वासना यहाँ तक कि मुक्ति तक की वासना से सावधान करना था। साथ ही वल्लभभट्ट के संशोधन, जीव गोस्वामी के क्रोध और रूप गोस्वामी के शासन द्वारा भक्तों के कल्याण के लिए आदर्श स्थापित करना था वल्लभ भट्ट से भूल करबा कर और उसे स्वीकार करवा कर उनके औदार्य का, जीव से संशोधन का प्रतिवाद करवाकर गुरू-मर्यादा की रक्षा करने का, रूप गोस्वामी से संशोधन स्वीकार करवा और जीव को दण्ड दिलवाकर उनके दैन्य का।

इस सम्बन्ध में यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जीव गोस्वामी ने भक्तिरसामृतसिन्धु की अपनी टीका में उक्त श्लोकी व्याख्या करते समय वल्लभाभट्ट के संशोधित पाठकी भी सराहना की है। उन्होंने लिखा है-

"व्याप्नोति हृदयं यावद्भुक्ति-मुक्ति स्पृहाग्रह" इति पाठान्तरन्तु सुश्लिष्टम्।

राधादामोदर की सेवा

सन् 1541 में भक्ति रसामृतसिन्धु की रचना समाप्त हुई। श्रीसतीशचन्द्र मित्र ने लिखा है कि इसके एक वर्ष बाद सन् 1542 में रूप गोस्वामी ने जीव को पृथक रूप से सेवा करने के लिए राधादामोदर की जुगलमूर्ति प्रदान की। भक्तिरत्नाकर में उद्घृत साधन दीपिका के एक श्लोक में इसका उल्लेख इस प्रकार है-

राधादामोदरो देव: श्रीरूपेण प्रतिष्ठित:।

जीवगोस्वामिने दत्त: श्रीरूपेण कृपान्धिना॥(भक्तिरत्नाकर 4/290)

अर्थात् कृपा के सागर श्रीरूप गोस्वामी ने श्री राधा दामोदर देव को प्रकट कर सेवार्थ जीव गोस्वामी को प्रदान किया। भक्तिरत्नाकर में यह भी उल्लेख है कि राधादामोमर ने स्वप्न में रूप गोस्वामी को उन्हें जीव गोस्वामी को समर्पण करने की आज्ञा दी थी। रूप गोस्वामी ने स्वप्न में देखी मूर्ति के समान ही मूर्ति तैयार करवाकर जीव को दी थी। इससे स्पष्ट है कि राधादामोदर स्वयं ही जीव गोस्वामी की प्रेम-सेवा के लोभ से उनके पास आये थे। तभी वे उनसे तरह-तरह के खाद्य माँगते थे और जीव उन्हें खाते देखते थे-

मध्ये मध्ये भक्ष्य द्रव्य मागे श्रीजीवेरे। श्रीजीव देखये प्रभु भु0जे जे प्रकारे॥(भक्तिरत्नाकर 4/293)

एक बार उन्होंने उन्हें बुला कर हंस-हंसकर वंशी बजाते हुए अपने भुवन मोहन रूप के दर्शन दियें उसे देख जीव मूर्च्छित हो गये। चेतना आने पर उनके हृदय में आनन्द समा नहीं रहा था और दोनों नेत्रों से बहती अश्रुधार उनके वक्ष को सिक्त कर रही थी-

एक दिन बाजाय वांशी हाँसिया हाँसिया।

श्रीजीवे कहये-"मोरे देखह आसिया॥"

कैशोर बयस, वेश भुवन मोहन। देखितेइ श्रीजीव हइल अचेतन॥

चेतन पाइया हिया आनन्दे उथले। भासये दीघल टूटी नयनेर जले॥(भक्तिरत्नाकर 4/294-296)

सनातन गोस्वामी को श्रीकृष्ण ने जो गोवर्द्धनशिला प्रदान की थी, वह भी उनके अप्राकटय के पश्चात् जीव गोस्वामी राधादामोदर के मन्दिर में ले आये थे। वह शिला आज भी वहाँ वर्तमान है। कुछ दिन बाद राधादामोदर के मूल विग्रह को औरंगजेब के भय से जयपुर ले जाया गया, जहाँ वे अब है। राधादामोदर के मन्दिर में उनकी जगह एक प्रतिभू विग्रह की स्थापना हुई, जिनकी सेवा श्रृंगारवट के दक्षिण पूर्व रूप गोस्वामी की भजन कुटी के निकट राधादामोदर के वर्तमान मन्दिर में अब होती है।

इस मन्दिर का निर्माण हुआ सन् 1558 के बाद जब रूप गोस्वामी अप्रकट हो चुके थे। यह सूचना वृन्दावन शोध संस्थान में सुरक्षित एक दस्तावेज की नकल से मिलती है, जिसके अनुसार जीव गोस्वामी ने इस मन्दिर के लिए जमीन 1558 में आलिषा चौधरी नाम के एक व्यक्ति से खरीदी थी। मन्दिर के एक प्रकोष्ठ में जीव गोस्वामी ने बड़े कष्ट से संग्रह किये हुए बहुमूल्य प्राचीन ग्रन्थों का एक भण्डार रख छोड़ा था, जिसका दुर्भाग्य से चिह्न भी अब वहाँ नहीं है। इस ग्रन्थ भण्डार का प्रमाण स्वयं जीव गोस्वामी का संकल्प पत्र (Will) है, जो शोध संस्थान वृन्दावन में सुरक्षित है। उसमें इसका विशेष रूप से वर्णन है। यह संकल्प पत्र भी उस भण्डार से ही प्राप्त हुआ था।

व्रजमण्डल का अधिनायकत्व

12/13 वर्ष वाद वृन्दावन के आकाश पर छा गयी दुर्दैव की कालिमा। सनातन गोस्वामी नित्यलीला में प्रवेश कर गये। रघुनाथभट्ट और रूप गोस्वामी ने शीघ्र अनुगमन किया। काशी के भारत विख्यात सन्यासी प्रकाशानन्द सरस्वती, जो महाप्रभु की कृपा लाभ करने के पश्चात् प्रबोधानन्द सरस्वती के नाम से वृन्दावन में वास कर रहे थे, पहले ही अन्तर्धान हो चुके थे। महाप्रभु के प्रधान परिकरों में जो बच रहे उनमें जीव को छोड़ और सब-लोकनाथ गोस्वामी, गोपालभट्ट गोस्वामी, रघुनाथदास गोस्वामी और चैतन्यचरितामृत के रचयिता कृष्णदास कविराज आदि बहुत वृद्ध हो जाने के कारण लोकान्तर यात्रा की प्रतीक्षा कर रहे थे।

ऐसे में महाप्रभु द्वारा प्रचारित भक्ति-धर्म की जिस विजय पताका को रूप सनातन ने फहराया था, उसे ऊँचा बनाये रखने का भार आ पड़ा जीव गोस्वामी पर। उन्होंने सब प्रकार से इसके योग्य अपने को सिद्ध किया। उनके पाण्डित्य की ख्याति पहले ही चारों ओर फैल चुकी थी। जो दिग्विजयी पण्डित आते वृन्दावन शास्त्रविद् वैष्णवों के साथ तर्क-वितर्क करने उन्हें वैष्णव-समाज के मुखपात्र श्रीजीव गोस्वामी के सम्मुख जाना पड़ता। उन्हें उनके साधन बल और असाधारण पाण्डित्य के कारण निस्प्रभ होना पड़ता।

बहुत से भक्त और जिज्ञासु आते भक्ति-धर्म में दीक्षा ग्रहण करने या भक्ति-शास्त्र की शिक्षा ग्रहण करने। सबकी जीव गोस्वामी के चरणों में आत्म समर्पण करना होता। सबको वहाँ आश्रय मिलता। बहुत से लेखकों और टीकाकारों की जीव गोस्वामी का मुखापेक्षी होना पड़ता। साधनतत्व की मीमांसा हो या किसी शास्त्र की व्याख्या, जीव गोस्वामी के अनुमोदन बिना उसे वैष्णव-समाज में मान्यता प्राप्त करना असम्भव होता। इसलिए रूप सनातन के अन्तर्धान के पश्चात् जीव गोस्वामी का व्रज मण्डल के अधिनायक के रूप में उभर आना स्वाभाविक था।

जीव और अकबर बादशाह

ग्राउस ने लिखा है कि अकबर बादशाह ने गौड़ीय गोस्वामियों से आकृष्ट हो सन् 1573 में वृन्दावन में उनसे भेंट की।[३] सनातन गोस्वामी के चरित्र (पृ0 103) में हमने ग्राउस के लेखको उद्घृत किया है। कुछ लोगों का मत है कि अकबर बादशाह की भेंट सनातन गोस्वामी से हुई[४] कुछ का मत है कि उनकी भेंट जीव गोस्वामी से हुई।[५] हम कह चुके है कि सनातन गोस्वामी से अकबर बादशाह की भेंट का होना सम्भव नहीं था, क्योंकि उनका अन्तर्धान हो चुका था 1573 से बहुत पहले ही। 1573 से पूर्व रूप और रघुनाथ भट्ट का भी अन्तर्धान हो चुका था। उस समय गौड़ीय गोस्वामियों में वृन्दावन वर्तमान थे-लोकनाथ, भूगर्भ, जीव और कृष्णदास कविराज आदि । अकबर को इन्हीं का आकर्षण हो सकता था। पर जीव गोस्वामी का उस समय व्रजमण्डल के अधिनायक के रूप में ख्याति फैल चुकी थी। इसलिए गोस्वामियों के प्रतिनिधि-स्वरूप श्रीजीव से ही उनकी भेंट की बात यथार्थ जान पड़ती है।

जीव गोस्वामी के प्रति अकबर की श्रद्धा का प्रमाण वृन्दावन शोध संस्थान में सुरक्षित वह फरमान भी है, जिसके द्वारा उन्होंने जीव गोस्वामी नाम गोविन्ददेव की सेवा के लिए 130 बीघा जमीन भेंट की थी। अकबर बादशाह के जीव गोस्वामी के प्रति आदरभाव और औदार्यपूर्ण व्यवहार के कारण ही आज भी वृन्दावन में जितनी भू सम्पत्ति गोविन्देदेव की है उतनी और किसी ठाकुर की नहीं है। गोविन्ददेव वृन्दावन के राजा कहलाते हैं।

जीव और मीराबाई

जीव गोस्वामी के साथ मीराबाई के साक्षात् की कथा प्रसिद्ध है। प्रियादास ने भक्तमाल की टीका में इसका उल्लेख इस प्रकार किया है-

वृन्दावन आई, जीव गुसाईजी से मिली झिली,

तिया मुख देखिवे पन लै छुटायौ है।

मीराबाई आई जीव गोस्वामी के दर्शन करने। जीव गोस्वामी के किसी शिष्य ने उनसे कहा-"वे स्त्री का मुख नहीं देखते।"

मीराबाई ने उत्तर दिया-"मैं तो जानती थी कि वृन्दावन में गिरिधर लाला ही एकमात्र पुरूष है, और सब स्त्री हैं। मैं नहीं जानती थी कि यहाँ जीव गोस्वामी भी एक पुरूष है, जो स्त्रियों का मुख नही देखते।"

जीव गोस्वामी ने जब कुटिया के भीतर से ही यह सुना तो प्रसन्न हो बाहर निकल आये और मीराबाई से मिले।

जीव और माँ जाह्नवा

भक्तिरत्नाकर में जीव के साथ श्रीनित्यानन्द प्रभु की पत्नी माँ जाह्नवा के साक्षात्कार का भी उल्लेख है। जाह्नवा का वृन्दावन गमन खेतरी उत्सव के पश्चात् सन् 1576-77 के आस पास माना जाता है। वे जब वृन्दावन गयी तो जीव गोस्वामी ने उन्हें घूम-घूमकर व्रजमण्डल के दर्शन कराये। उनकी आज्ञा से वृहद्भागवतामृतादि रूप-सनातन के कुछ ग्रन्थ भी पढ़कर सुनाये, जिन्हें सुन वे इतना भावविह्नल हो गयीं कि उन्हें अपने आपको सम्हालना दुष्कर हो गया-

सुनिते गोसाईर ग्रन्थ उत्कन्ठित मन। श्रीजीव गोस्वामी कराइलेन श्रवण॥

वृह्रदागवतामृतादिक श्रवणेते। हइला विह्वल प्रेमे नारे स्थिर हैते॥(भक्तिरत्नाकर 11/201-202)

ग्रन्थ रचना

जीव गोस्वामी जैसे तीक्ष्ण बुद्धि सम्पन्न और मेधावी थे, वैसे ही सुयोग्य और भारत विख्यात पण्डितों से शास्त्राध्ययन करने का उन्हें सुअवसर प्राप्त हुआ था। सनातन और रूप का पाण्डित्य, कवित्व और भक्ति-शास्त्रों का सम्यक् ज्ञान उन्हें पैतृक सम्पत्ति के समान उनसे उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था। ग्रन्थ रचना-काल में उनकी सहायता करते समय भक्ति के क्षेत्र में उनके शीर्ष स्थानीय ग्रन्थों का हार्द उन्हें हस्तामलकवत् उपलब्ध हुआ था। उनका जो कार्य बाकी रह गया था उसे पूरा करने के लिए वे सब प्रकार से उपयुक्त थे। उनका सारा जीवन बीत गया था कृष्ण-लीला, रसतत्व वैष्णव-आचार और भक्तिपथ में विधि-निषेध सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना द्वारा वैष्णवमत की प्रतिष्ठा करने में। पर वैष्णवमत की प्रतिष्ठा दृढ़ रूप से उसकी दार्शनिक भित्ति सुदृढ़ किये बिना नहीं हो सकती थी। इस कार्य के लिए उनके पास अवकाश न रहा। इसलिए उन्होंने यह कार्य सौंपा जीव गोस्वामी को। उन्होंने षट्संदर्भ की रचना कर जिस दक्षता से इसे सम्पन्न किया, उससे वैष्णव धर्म जितना सम्पन्न और सुदृढ़ हुआ, उतना पहले कभी नहीं हुआ था।

सन्दर्भों के अतिरिक्त उन्होंने और भी अनेक ग्रन्थों की रचना की, अनेकों का संकलन किया, अनेकों की व्याख्या की। उन सबका न तो मुद्रण हुआ है, न सब उपलब्ध है। कुछ के प्राचीन ग्रन्थों में नाम मात्र देखने को मिलते है। जीव गोस्वामी के शिष्य कृष्णदास अधिकारी उनके ग्रन्थों की एक तालिका छोड़ गये है। जिसके आधार पर नरहरि चक्रवर्ती ने भक्तिरत्नाकर (1/833-842) में एक तालिका प्रस्तुत की है। कृष्णदास ने अपनी तालिका के अन्त में 'इत्यादि' शब्द जोड़ दिया है, जिससे स्पष्ट है कि उस तालिका के अतिरिक्त और भी ग्रन्थ है, जिनका उसमें नाम नहीं है। दो महत्वपूर्ण ग्रन्थ, जिन्हें हम जानते है, उसमें छोड़ दिये गये है। वे हैं 'लघुतोषणी' और 'सर्वसम्वादिनी'।

सतीशचन्द्र मित्र ने उपरोक्त तालिका के आधार पर जीव गोस्वामी के ग्रन्थों को इस प्रकार श्रेणी-विभक्त किया है-

व्याकरण ग्रन्थ

(1) हरिनामामृत व्याकरण,

(2) सूत्र-मालिका,

(3) धातुसंग्रह।

संग्रह और स्तव-ग्रन्थ

(1) कृष्णार्च्चादीपिका,

(2) गोपाल विरूदावली,

(3) श्रीमाधव-महोत्सव,

(4) श्रीसंकल्प-कल्पवृक्ष,

(5) भावार्थचम्पू,

(6) रसामृत शेष,

(7) पद्मपुराणोक्त श्रीकृष्ण पद चिह्न और

(8) श्रीराधिका कर-पद्म-चिह्न।

लीला ग्रन्थ

श्रीगोपालचम्पू (पूर्व और उत्तर भाग)।

टीका ग्रन्थ

(1) ब्रह्मसंहिता की टीका,

(2) गोपालतापनी उपनिषद् की टीका,

(3) भक्तिरसामृतसिन्धु की ('दुर्गम संगमनी') टीका,

(4) उज्ज्वल नीलमणि की (लोचन-रोचनी) टीका,

(5) योगसारस्तबकी टीका एवं

(6) अग्निपुराणोक्त श्रीगायत्री-विवृत्ति व भाष्य।

सन्दर्भ व विचार ग्रन्थ

(1) तत्व-सन्दर्भ,

(2) भगवत-सन्दर्भ

(3) परमात्म-सन्दर्भ,

(4) श्रीकृष्ण-सन्दर्भ,

(5) भक्ति-सन्दर्भ और

(6) प्रीति-सन्दर्भ।

सर्वसम्वादिनी को पृथक ग्रन्थ न मानकर प्रथम चार ग्रन्थों की अनुव्याख्या या प्रपूर्ति मानना चाहिए। हम यहाँ जीव गोस्वामी के मुख्य-मुख्य ग्रन्थों का कुछ परिचय देने की चेष्टा करेंगे।

हरिनामामृत व्याकरण

यह एक अद्भुत ग्रन्थ है। इसका पाठ करते समय पाठकों को हरिनामामृत पान करने का अवसर मिलता है। इसके मंगलाचरण श्लोक में जीव गोस्वामी ने लिखा है कि जिस प्रकार श्री कृष्ण की उपासना करने वाले भक्त हरिनाम की माला की सहायता से नाम जप करते हैं, उसी प्रकार मैंने इस व्याकरण में सूत्रों की सहायता से भगवन नाम का उच्चारण या स्मरण होता है। सकेत, परिहास, पादपूरण या अनायास हरिनाम लेने से भी समस्त पापों का नाश होता है। इसलिए इस व्याकरण का अन्य व्याकरणों की अपेक्षा विशेष महत्व है। 'सूत्रमालिका' और 'धातुसंग्रह' स्वतन्त्र ग्रन्थ न होकर हरिनामामृत व्याकरण के ही दो अध्याय हैं।

षट्-सन्दर्भ

षट् सन्दर्भ के अन्तर्गत पृथक-पृथक छय सन्दर्भ हैं- तत्व, भगवत्, परमार्थ, श्रीकृष्ण, भक्ति और प्रीति। इसलिए इसे षट्-सन्दर्भ कहते हैं। यह सभी सन्दर्भ श्रीमद्भागवत की तत्वव्याख्या स्वरूप हैं, इसलिए इन्हें 'भागवत-सन्दर्भ' कहते हैं।

ग्रन्थ के मंगलाचरर में जीव गोस्वामी की उक्ति है-"भगवान का तत्व प्रकाशित करने के लिए रूप सनातन ने मुझे इस ग्रन्थ की रचना में प्रवृत्त किया है। वृद्ध वैष्णादि द्वारा रचित ग्रन्थों का उनके किसी दाक्षिणात्य भट्ट बन्धुने सार संकलन कर एक ग्रन्थ प्रणयन किया है, जो कहीं-कहीं खण्डित है, कहीं क्रमानुसार है और कहीं बिना किसी क्रम के । उसी ग्रन्थ की पर्यालोचना कर क्षुद्र जीव ने उसे क्रमानुसार लिखा है।"

वृद्धवैष्णवों से जीव गोस्वामी का अभिप्राय श्रीमन्मध्वाचार्य; श्रीधर स्वामी आदि प्राचीन वैष्णवाचार्यों से है और दाक्षिणात्य भट्ट बन्धु से उनका अभिप्राय श्रीपाद गोपालभट्ट गोस्वामी से है, जैसा कि बलदेव विद्याभूषण ने तत्व-सन्दर्भ की टीका में कहा है। इससे स्पष्ट है कि मूल रूप से इस ग्रन्थ का प्रणयन किया श्रीगोपालभट्ट गोस्वामी ने। उसे पूर्ण कर क्रमबद्ध किया और उसकी पर्यालोचना कर उसे अन्तिम रूप दिया श्रीजीव गोस्वामी ने। श्रीजीव ने प्रत्येक सन्दर्भ के आरम्भ में यह लिखकर इस बात को दोहराया है-

तस्याद्यं ग्रन्थालेख्यं क्रान्तव्युत्क्रान्त खण्डितम्।

पर्यालाच्यात पर्यायं कृत्वा लिखित जीवक:॥

जीव गोस्वामी द्वारा मंगलाचरण में गोपालभट्ट गोस्वामी का नाम न लिखे जाने और केवल रूप सनातन के बन्धु दाक्षिणात्य भट्ट लिखकर उनका संकेत किये जाने का कारण यह हो सकता है कि उन्होंने दैन्यवश अपना नाम लिखने के लिए जीव गोस्वामी को उसी प्रकार निषेध कर दिया हो, जिस प्रकार उन्होंने चैतन्य-चरितामृत के लेखक को अपने सम्बन्ध में कुछ भी लिखने का निषेध किया था।

तत्व-सन्दर्भ इस सम्बन्ध में जीव गोस्वामी ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमानादि, जितने भी प्रमाण हैं, उनमें से केवल शब्द प्रमाण को ग्रहण किया है, बाकी सबको दोषयुक्त ठहराया है। शब्द प्रमाण में भी श्रीमद्भागवत का श्रेष्ठत्वं सिद्ध किया है। उसे ब्रह्मसूत्र का व्यासदेव द्वारा स्वरचित भाष्य माना है। इसलिए उन्होंने ब्रह्मसूत्र के भाष्य की पृथकरूप से रचना का प्रयोजन अस्वीकार करते हुए भागवत सन्दर्भ की श्रीमद्भागत्के की भाष्यरूप में रचना की है।

भागवत सन्दर्भ

इस सन्दर्भ में परब्रह्म के स्वरूप का वर्णन किया गया है। परब्रह्म अद्वय है, अर्थात् स्वजातीय, विजातीय और स्वगत भेदरहित है। जीव और जगत् उसी की शक्ति का परिणाम है। उसकी अनन्त शक्तियाँ हैं, जिनमें तीन प्रधान हैं-चित्-शक्ति या स्वरूप-शक्ति, जीव-शक्ति और माया शक्ति। चित्-शक्ति का प्रकाश है उसके धाम, परिकर और लीलादि, जीव-शक्ति का प्रकाश है जीव, और माया-शक्ति का प्रकाश है जगत्।

ब्रह्म की स्वरूप

शक्ति के विकास-क्रम के अनुसार उसके अनन्त रूप हैं, जिनमें तीन मुख्य हैं-ब्रह्म, परमात्मा और भगवान। ब्रह्म में स्वरूप-शक्ति का न्यूनतम विकास है, केवल उतना ही, जितना सत्तामात्र की रक्षा के लिए आवश्यक है। इसलिए उसे केवल सतरूप कहते हैं। उसमें ऐसा कोई विशेषत्व नहीं, जो अनुभव में आ सके। इसलिए उसे निर्विशेष कहते हैं। परमात्मा में स्वरूप-शक्ति का विकास ब्रह्म की अपेक्षा अधिक है। इसलिए वह मूर्त है। श्रुतियाँ उसे अगुष्ठ-प्रमाण कहती हैं। वह अन्तर्यामी रूप से सब जीवों के अन्त:करण में विद्यमान है।

भगवान् में स्वरूप शक्ति का पूर्णतम विकास है। ऐश्वर्य, माधुर्य और सौन्दर्य की उनमें पूर्ण अभिव्यक्ति है। वे रस स्वरूप हैं। उनके भी वासुदेव, राम, नारायण, नृसिंह आदि अनेक रूप हैं, जिनमें उनके ऐश्वर्य, माधुर्यदि के विकासक्रम का तारतम्य है। पर उनका श्रीकृष्ण रूप ही सर्वक्षेष्ठ है। वे स्वयं, भगवान् हैं। अन्य भगवद्-स्वरूप उनके अंश और कला हैं।

परमात्म-सन्दर्भ

इसमें परमात्मा के जीव और प्रकृति के साथ सम्बन्ध की आलोचना की गयी है। परमात्मा परब्रह्म का वह अंश है, जिसके द्वारा वह अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड की सृष्टि आदि का कार्य करता है और उनमें व्याप्त रहकर उनका संचालन करता हैं परमात्मा का सम्बन्ध केवल जीव शक्ति और माया-शक्ति से है। जीव शक्ति को तटस्था-शक्ति के। जीव इसी शक्ति का परिणाम है। वे उसी प्रकार भगवान् के अंश हैं, जिस प्रकार स्फुलिंग अग्नि के।

माया

शक्ति को बहिरंगा शक्ति कहते हैं। इसकी परब्रह्म के स्वरूप में स्थिति नहीं है। अचेतन और अन्धकारमय है। इसका भगवान् से उसी प्रकार सम्बन्ध है, जिस प्रकार का धूम्र का अग्नि से। जगत् इसी का परिणाम है। जीव और जगत् का ब्रह्म से अचिंत्य-भेदाभेद का सम्बन्ध है।

श्रीकृष्ण-सन्दर्भ- इस सन्दर्भ में जीव गोस्वामी ने श्रीमद् भागवत के 'एते चांशकला पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयं' श्लोक के अनुसार सिद्ध किया है कि कृष्ण अवतार नहीं अवतारी हैं अन्य सभी अवतार उनके अंश है। कृष्ण के धाम, परिकर, लीलादि का भी उन्होंने इसमें विस्तार से वर्णन किया है। भगवद्धाम मायातीत है। पर जब भगवान् भूमण्डल पर अवतीर्ण होते हैं, तब पहले उनके धाम का अवतरण होता है। इस प्रकार भगवद्धाम के दो प्रकाश है-प्रकट प्रकाश और अप्रकट प्रकाश। अप्रकट प्रकाश भी दो प्रकार का है-गोलोक अर्थात् वैकुण्ठ के ऊपर स्थित अप्रकट प्रकाश और पृथ्वी पर स्थित अप्रकट प्रकाश। गोलोक के अन्तर्मण्डल को वृन्दावन कहते हैं।

भगवान् की लीला भी दो प्रकार की हैं-प्रकट लीला और अप्रकट लीला। जब लीला ब्रह्माण्ड में गोचरीभूत नहीं होती, तब उसे अप्रकटलीला कहते हैं। जब भगवान् की इच्छा से लीला ब्रह्माण्ड में गोचरीभूत होती है, तब उसी लीला को प्रकट लीला कहते है। प्रकट लीला में प्राकृत जगत् के जीवों के समान श्रीकृष्ण का जन्म होता है। जन्म के पश्चात् शैशव, वाल्य, कौमार, पोगण्ड और कैशोरावस्था का क्रम चलता है। अप्रकट लीला में कृष्ण नित्य-किशोर है। इसलिए बहुत सी मधुरलीलाएं, जिसका रसास्वादन श्रीकृष्ण को प्रकट लीला में होता है, अप्रकटलीला में सम्भव नहीं है। भगवान् के परिकर दो प्रकार के है- नित्य सिद्ध और साधन-सिद्ध। नित्य सिद्ध परिकर भगवान् या उनकी चिच्छक्ति के ही प्रकाश विशेष हैं उनका सेवाभाव स्वयं सिद्ध है। श्रीकृष्ण के परिकर हैं नन्द-यशोदा, वसुदेव–देवकी, व्रज की गोपियाँ, द्वारका की महिषियाँ, व्रज के गोप और द्वारका-मथुरा के यादवगण। नन्द-यशोदा का श्रीकृष्ण के प्रति वात्सल्यभाव अनादिकाल से स्वयं-सिद्ध है, जन्मजात नहीं। इसी प्रकार अन्य परिकारों का अपना-अपना भाव भी अनादिकाल से स्वयं-सिद्ध है।

व्रज के गोप और द्वारका-मथुरा के यादवगण श्रीकृष्ण के आविर्भाव विशेष है। व्रज की गोपियाँ और द्वारका-मथुरा की महिषियाँ स्वरूप-शक्ति की वृत्ति विशेष हैं। स्वरूप-शक्ति की तीन वृत्तियाँ है- संधिनी, संवित और ह्लादिनी, जो क्रमश: भगवान् के सत्, चित् और आनन्द अंशो से सम्बन्धित है। संधिनी से संवित और संवित से ह्लादिनी श्रेष्ठ है। ह्लादिनी की ही वृत्ति है भक्ति और भक्ति की परमधनीभूत मूर्ति हैं राधा।

श्रीकृष्ण रसस्वरूप हैं। रस आस्वाद्यं है। जो आस्वाद्य है वही मधुर है। इसलिए रस स्वरूप श्रीकृष्ण माधुर्य स्वरूप हैं। माधुर्य ही उनकी भगवत्ता का सार है। उनका ऐश्वर्य उनके माधुर्य से पूर्णत: आच्छादित है। श्रीकृष्ण का माधुर्य असीम है, राधा का प्रेम असीम है। असीम होते हुए भी कृष्ण का माधुर्य राधा के प्रेम से औ राधा का प्रेम कृष्ण के माधुर्य से उच्छवसित होता है। इसीलिए श्रीकृष्ण का माधुर्य असीम होते हुए भी निरन्तर वर्धमान होने के कारण नित्य नवीन है। रस स्वरूप श्रीकृष्ण सर्वोत्कृष्ट भक्ति रस का आस्वादन करने के लिए सब प्रकार से स्वतन्त्र होते हुए भी भक्तों के अधीन हैं।

भक्ति-सन्दर्भ

इसमें भक्ति के स्वरूप, प्रकार, अंग और गोपानादि का वर्णन किया गया है। भक्ति है ईश्वर में परानुरक्ति। यह जीव की अपनी शक्ति नहीं, भगवान् की ह्लादिनी शक्ति की वृत्ति है। गुणातीत ह्लादिनी शक्ति की वृत्ति होने के कारण यह निर्गुण हैं, प्रपञ्चातीत है, भगवान् इसे जीव के चित्त में निक्षिप्त कर उसे आनन्दित करते हैं और स्वयं भी आनन्दित होते हैं।[६] भक्त्यानन्द भगवान् के स्वरूपानन्द से भी श्रेष्ठ है।

भक्ति कर्म, ज्ञान और योग से श्रेष्ठ है। भक्ति की प्रारम्भिक अवस्था में ज्ञान और योग सहायक हैं, क्योंकि वे सांसारिक विषयों की कामना से मुक्त हैं। भक्ति की उच्चतर अवस्था में वे बाधक हैं, क्योंकि मुक्ति की कामना से वे मुक्त नहीं हैं, पर किसी भी अवस्था में वे भक्ति का आवश्यक अंग नहीं है। कर्म, ज्ञान और योग फल की प्राप्ति के लिए भक्ति की अपेक्षा रखते है। भक्ति किसी अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रखती। यह परम स्वतन्त्रता है।

वर्णाश्रम-धर्म भक्ति का अंग नहीं है। इससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है, मुक्ति की नहीं। निष्काम-कर्म से मुक्ति की प्राप्ति होती है, श्रीकृष्ण की प्रेम सेवा की नहीं। कर्म के सम्यक् त्याग में भी भक्ति का आकार ही है, प्राण नहीं। भक्ति का प्राण है आत्यन्ति की श्रद्धा और श्रीकृष्ण की प्रेम सेवा की बलवती लालसा।

भगवत्-साक्षात्कार भक्ति से ही होता है, अन्य किसी साधन से नहीं। यदि हृदय में भक्ति न हो और साक्षात्कार हो तो वह साक्षात्कार भी असाक्षात्कार के समान है। उससे भगवान् के माधुर्य का आस्वादन नहीं होता, उसी प्रकार जिस प्रकार पित्त दूषित जिह्ना से मिसरी के मिठास का आस्वादन नहीं होता-

"निरूपाधि प्रीत्यास्पदतास्वभावस्य प्रियत्वधर्मानुभवं बिना तु साक्षात्कारोऽप्यासाक्षात्कार एव। माधुर्य बिना दुष्ट जिह्नया खण्डस्येव (भ0स0 187)।

भक्ति साधन भी है, साध्य भी। साधन-भक्ति साध्य-भक्ति की अपरिपक्वावस्था है। साधन-भक्ति के चौसठ अंग है, जिनका पर्यवसान नवधा-भक्ति में होता है। नवधा-भक्ति के अंग है-श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्म-निवेदन। इनमें भी नाम कीर्तन सर्वप्रधान है। नाम कीर्तन के बगैर भक्ति का कोई भी अंग पूर्ण नहीं है।

भक्ति दो प्रकार की है-वैधी और रागानुगा। वैधी-भक्ति के साधक भजन में प्रवृत्त होते हैं शास्त्र-विधि के भय से और सांसारिक दुखों से परित्राण पाने के उद्देश्य से। रागमार्ग् के साधक भजन में प्रवृत्त होते है। श्रीकृष्ण में राग, प्रीति या आसक्ति के कारण उनकी सेवा के लोभ से।

रागानुगा-भक्ति रागात्मिका भक्ति की अनुगता है। रागात्मिका भक्ति के आश्रय हैं नन्द-यशोदा-राधा-ललितादि, जो श्रीकृष्ण की स्वरूप-शक्ति के मूर्त विग्रह हैं और अनादिकाल से व्रजधाम में व्रज-परिकरों के रूप में विराजमान हैं। व्रज में श्रीकृष्ण के परिकर चार प्रकार के हैं-दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर। दास्य, सख्य वात्सल्यभाव के परिकरों की कृष्ण-सेवा उनके सम्बन्ध के अनुरूप होती है। इसलिए वह सम्बन्ध रूपा कहलाती है। परन्तु व्रजसुन्दरियों की रागात्मिका-भक्ति सम्बन्ध की कोई अपेक्षा नहीं रखती। वह एकमात्र श्रीकृष्ण-प्रीति की कामना की अपेक्षा रखती है। इसलिए वह कामरूपा कहलाती है। रागात्मिका-भक्ति के समान रागानुगा भक्ति भी दो प्रकार की है- सम्बन्धानुगा और कामानुगा। कामानुगाओं की कामानुगा भक्ति भी दो प्रकार की है-सम्भोगेच्छामयी और तत्तद्भावेच्छामयी। सम्भोगेच्छामयी भक्ति में श्रीकृष्ण के साथ सम्भोग की इच्छा रहती है। सम्भोग की इच्छा रखने वाले भक्तों को व्रज में व्रजेन्द्रनन्दन की सेवा नहीं मिलती, क्योंकि व्रज में स्वसुख वासना है ही नहीं। उन्हें द्वारका की प्राप्ति होती है। साधन दो प्रकार का है-अन्तर और बाह्य। अन्तर-साधन का सम्बन्ध मन से है, बाह्य-साधन का देह ओर बाह्म इन्द्रियों से। रागानुगा श्रवण अन्तर-साधन प्रधान है। लीला-स्मरण इसका मुख्य अंग है। पर श्रवण कीर्तनादि बाह्म-साधन इसमें उपेक्षनीय नहीं है। बाह्य-साधन से अन्तर साधन की पुष्टि होती है। बाह्य-साधन से यथावस्थित पा0चभौतिक देह से। अन्तर साधन होता है। अन्तश्चिन्तित सिद्ध देह से। प्रीति-सन्दर्भ- प्रति सन्दर्भ में परमपुरूषार्थ का निरूपण किया गया है। परमतम पुरूषार्थ है। भगवत् प्रीति। प्रीति शब्द सुख और प्रियता दोनों का व्यञ्जक है। प्रियता में सुख का धर्म विद्यमान है, पर सुख को प्रियता नहीं कहा जा सकता। सुख का तात्पर्य एकमात्र अपने उल्लास से है, प्रियता का तात्पर्य प्रीति के विषय या प्रियजन के उल्लास के कारण अपने हृदय में जो उल्लास होता है उससे है। सुख के मूल मे किसी का आनुकूल्य या सुख विधान करने की स्पृहा नहीं रहती, इसलिए सुख का विषय नहीं होता। प्रियता के मूल में प्रियजन का सुख-विधान करने की स्पृहा रहती है, इसलिए उसका विषय होता है। भगवत् प्रीति की प्रथम अवस्था में देहादि की आसक्ति जाती रहती है। भगवत् प्रीति के पूर्णाविर्भाव में भगवान् में परमावेश और परमानन्द पूर्णता की उत्पत्ति होती है। भक्त के चित्त में आविर्भूता प्रीति उसके चित्त में संस्कार-विशेष उत्पन्न कर उसे क्रमश: रति, प्रेम प्रणय, मान, स्नेह, राग, अनुराग और महाभाव के स्तर तक ले जाती है। रति में उल्लास की अधिकता होती है। रति के उत्पन्न होने पर केवल भगवान् में ही प्रयोजन-बुद्धि होती है। भगवान् के अतिरिक्त और सभी पदार्थ तुच्छ प्रतीत होने लगते है। प्रेम में कृष्ण के प्रति ममता अधिक होती है। प्रेम उत्पन्न होने पर यदि प्रीति भंग होने का कारण भी उपस्थित हो तो उसके स्वरूप में किसी प्रकार की कमी नहीं आती। ममता किस प्रकार प्रीति को समृद्ध करती है इसका उदाहरण देते हुए मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है कि ममतायुक्त पालतू मुर्गे को विल्ली के खा जाने से उसके मालिक को जितना दुख होता है, उतना ममता शून्य चूहे को चटक पक्षी के खा जाने से नहीं होता। प्रेम लक्षणा-भक्ति में ममता के आधिक्य के कारण ममता को ही भक्ति कहा गया है। प्रणय में विश्वास की , विश्रंभ की प्रचुरता होती है। प्रणय में सम्भ्रम के लिए स्थान नहीं रहता, क्योंकि इसमें अपने मन, प्राण, बुद्धि, देह परिच्छदादि के प्रियके मन, प्राण, बुद्धि, देह, परिच्छदादि से अभिन्न होने की बुद्धि होती है। मान में प्रियतातिशय के कारण प्रणय कौटिल्याभासयुक्त वैचित्री धारण करता है। मान उपस्थित होने पर भक्त के प्रणय कोप से भगवान् भी प्रेममय भय को प्राप्त होते है-"यस्मिन जाते श्रीभगवानपि तत्प्रणयकोपात् प्रेममयं भयं भजते।" स्नेह में चित्त अत्यन्त द्रवित होता है। स्नेह के उदय होने पर भगवान् के सम्बन्धाभास में ही महावाष्पादि विकार, प्रिय-दर्शनादि से अतृप्ति और प्रियतम के अनन्त सामर्थ्यवान होते हुए भी किसी के द्वारा उनके अनिष्ट की आशंका का जन्म होता है। राग में स्नेह अतिशय अभिलाषात्मक होता है। राग उत्पन्न होने पर प्रियतम का क्षणिक विरह अत्यन्त असह्य होता है। प्रियतम के संयोग में परम दुख भी सुख रूप में प्रतीत होता है और वियोग में परमसुख भी दुख रूप में प्रतीत होता है। अनुराग की अवस्था में राग प्रिय का नवीन नवीन रूप में अनुभव कराता है और स्वयं भी नवीन-नवीन होता है। अनुराग के उदय होने पर परस्पर का अत्यन्त वशीभाव, प्रेमवैचित्य(1) कृष्ण सम्बन्धी अप्राणी में भी जन्म लेने की लालसा और विच्छेद में अतिशय स्फूर्ति का अनुभव होता है। महाभाव में अनुराग असमोर्द्ध उन्मादक चमत्कारित्व को प्राप्त होता (1) प्रिय व्यक्ति के निकट होने पर भी अतिशय प्रेम के कारण प्रिय से विच्छेद के भय से जो आर्ति उत्पन्न होती है, उसे प्रेम-वैचित्य कहते हैं। है। इस अवस्था में श्रीकृष्ण के संयोग में पलक का पड़ना भी असह्य हो जाता है और कल्प के बराबर समय क्षणभर जैसा प्रतीत होता है, वियोग में एक क्षण भी कल्प जैसा लगता है। योग-वियोग दोनों अवस्थाओं में महाउद्दीप्त (1) सात्वि भाव उत्पन्न होते है(2)। प्रीति भगवत् स्वभाव-विशेष की सहायता से प्रीतिमान व्यक्ति में अनुग्राह्याभिमान, अनुग्राहकाभिमान, मित्राभिमान या प्रियाभिमान उत्पन्न करती है। अनुग्राह्याभिमान – विशिष्ट, भक्त भगवान् में ममताहीन होते हैं या ममतावान्। ममताहीन भगवान् को ब्रह्म या परमात्मा के रूप में जानते है। इनकी प्राप्ति ज्ञान-भक्ति कहलाती है। इन्हें शान्त भक्त कहते है। अनुग्राह्याभिमान- विशिष्ट ममतावान् भक्त भगवान् को अपना प्रभु मानते है। इनकी रति दास्य-रति कहलाती है। अनुग्राहकाभिमान- विशिष्ट भक्तों का भगवान् में पुत्रादि-भाव होता है। इनकी रति वात्सल्य-रति कहलाती है। मित्राभिमान भक्त भगवान् को अपना मित्र या सखा मानते है। इनकी रति सख्य रति कहलाती है। प्रियाभिमानि भक्तों में भगवान् के प्रति कान्ताभाव होता है। इनकी रति को मधुरा रति कहते है। शानत, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर पञ्चविध रति को स्थायीभाव कहते हैं। विभाव, अनुभाव सात्विक और व्याभिचारीभाव के सम्मिलन से इनकी रस में परिणति होती है। इसलिए शान्त, दास्य, सख्य,वात्सल्य, मधुर-भेद से रस पञ्चविध है। इसके अतिरिक्त हास्यादि भेद से रस के सात और प्रकार है। शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर-रस उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। मधुर-रस सबसे श्रेष्ठ है। मधुर व उज्ज्वल रस में कान्तरूप से स्फूर्तिमान श्रीकृष्ण विषयालम्बन है, उनकी प्रेयसी वर्ग आश्रयालम्बन हैं। कृष्ण-प्रेयसी स्वकीया परकीया भेद से दो प्रकार की हैं। रूक्मिणी आदि स्वीयाकान्ता हैं। श्रीराधादि परमस्वीया होते हुए भी प्रकटलीला में परकीयारूप में प्रतीयमान है। स्वकीया प्रेयसियों में विवाह विधि की अपेक्षा के कारण अनुराग होते हुए भी उतना प्रबल नहीं है, जितना परकीया कान्ताओं में। व्रज-सुन्दरियाँ प्रकटलीला में विवाह-विधि, इहलोक, परलोक और वेदधर्मादि की अपेक्षा न कर केवल श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनुराग के वशीभूत हो उन्हें आत्मसमर्पण करती हैं(3)। (1) अश्रु-कम्पादि आठ प्रकार के सात्विकभाव जब परमोत्कर्ष को प्राप्त हो एक साथ उदय होते हैं, तो उसे सुदीप्त या महाउद्दीप्त सात्विकभाव कहते हैं। (2) प्रीति सन्दर्भ, 84 । (3) प्रीति सन्दर्भ 84। व्रजसुन्दरियों का परकीयात्व प्राकृत जगत् के अधर्ममय, घृणित परकीयात्व के समान नहीं है। व्रजसुन्दरीगण श्रीकृष्ण की नित्यप्रेयसी हैं। उनका प्रबलतम अनुराग आस्वादन करने के लिए श्रीकृष्ण अपनी अघटन-घटना-पटीयसी योगमाया शक्ति द्वारा प्रकटलीला में उनकी परकीया नायिका के रूप में प्रतीत कराते हैं। प्रकटलीला में अन्य गोपों के सहित उनका विवाह मायिक होता है। जब वे श्रीकृष्ण के निकट रासादि में जाती है, तब योगमाया के प्रभाव से उनकी योगमाया-कल्पित मूर्ति घर पर रह जाती है। प्राकृत जगत् की व्यभिचारिणी रमणी परपुरूष का संग अपने सुख के लिये करती है। व्रजसुन्दरियों में स्वमुख-वासना का लेश भी नहीं है। श्रीकृष्ण के साथ व्रजसुन्दरियों का सम्बन्ध वैध-अवैध किसी भी जागतिक सम्बन्ध के अनुरूप नहीं है। वह शुद्ध अनुरागमय है। उनके चित और इन्द्रियाँ कृष्णनुराग से विभावित हैं। उनकी सारी चेष्टाएं उस अनुराग की अभिव्यक्ति मात्र हैं और श्रीकृष्ण के सुख के लिए हैं। उनका श्रीकृष्ण के साथ अनुराग-सिद्ध दाम्पत्य है। उज्ज्वल रस में नायक नायिका का सम्भोग काममय नहीं है। कामक्रीड़ा से उनका बाह्य साम्य मात्र है। उसमें आलिंगन, चुम्बनादि की जो बाह्य चेष्टाए हैं वे नृत्यादि की तरह प्रीति के अनुभाव और उसका बाह्य प्रकाश मात्र है। सर्वसम्बादिनी- यह भागवत सन्दर्भ के अन्तर्गत प्रथम चार सन्दर्भो की अनुव्याख्या या टीका है। इसे भागवत-सन्दर्भ की प्रपूर्ति कहा गया है, क्योंकि भागवत सन्दर्भ में दार्शनिक सिद्धान्त और शास्त्र-प्रमाण से सम्बन्धित, जो जो स्थल असम्पूर्ण या अस्पष्ट रह गये, उनकी जीव गोस्वामी ने बहुत से नये शास्त्र-प्रमाण और सिद्धान्त-विचार द्वारा इसमें सम्पूर्ति की है। उसमें उन्होंने वेद, वेदान्त, न्याय, मीमांसा, सांख्य, पातञ्जल, स्मृति, तन्त्र, पुराण, निरूक्त, व्याकरण प्रभृति सर्वशास्त्रों का मन्थन कर सर्वसम्वादपूर्ण, अति सारगर्भ वैष्णव-सिद्धान्त-समूह समाविष्ट कर रखा है। सम्भवत: इसीलिए इसका नाम सर्वसम्वादिनी रखा है। यह ग्रन्थ मूलग्रन्थ भागवत सन्दर्भ से भी अधिक महत्व का है। संक्षेपवैष्णवतोषणी- सनातन गोस्वामी की श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध पर लिखी वैष्णवतोषणी टीका से यह संक्षिप्तिकृत है। इसके पृथक रूप से लिखे जाने के वाद सनातन गोस्वामी की टीका का नाम हुआ वृहद्वैष्णतवोषणी और इसका नाम हुआ लघुवैष्णवतोषणी या संक्षिप्त-वैष्णवतोषणी। इसके उपसंहार में दिये गये श्लोक के अनुसार इसकी रचना 1582 ई0 में समाप्त की गयी। क्रम-सन्दर्भ- यह जीव गोस्वामी द्वारा की गयी समग्र श्रीमद्भागवत की टीका है। सर्वसम्वादिनी में क्रम-सन्दर्भ का उल्लेख है। और वैष्णवतोषणी में सर्वसम्वादिनी का। इससे प्रमाणित है कि क्रम-सन्दर्भ की रचना वैष्णवतोषणी के पूर्व अर्थात् सन् 1582 से पूर्व हुई। गोपालचम्पू- गोपालचम्पू जीव गोस्वामी के शेष जीवन की विशेष कृति और भागवत-सन्दर्भ के समान उनके जीवन का प्रमुख कीर्तिस्तम्भ है। यह पूर्व और उत्तर दो विशाल खण्डों में विभक्त है। पूर्व खण्ड में श्रीमद्भागवत के आधार पर श्रीकृष्ण की बाल्यलीला का और उत्तर खण्ड में मथुरा और द्वारका लीला का वर्णन है। चम्पू-काव्य के अनुसार इसमें गद्य औ पद्य दोनों का प्रयोग किया गया है। यद्यपि इसका मूल आधार है श्रीमद्भागवत में वर्णित वृन्दावन-मथुरा-द्वारका लीला, इसमें उन लीलाओं के विस्तृत वर्णन के साथ-साथ अनेक नई लीलाओं का भी वर्णन है, जिनका श्रीमद्भागवत में परीक्षित को सुनाई गयी सात दिन की कथा में समावेश सम्भव नहीं था। इसमें श्रीकृष्ण की प्रकट और अप्रकट लीलाओं का सुन्दर सम्मिश्रण है। इसकी एक असाधारण विशेषता यह है कि यह लीला ही नहीं, कवित्त और दार्शनिक सिद्धान्त की दृष्टि से भी परिपूर्ण है। श्रीकृष्णदास कविराज ने चैतन्य-चरितामृत में इसके सम्बन्ध में लिखा है- श्रीगोपालचम्पू नामे ग्रन्थ महाशूर। नित्यलीला स्थापना जाहे ब्रजरसपूर॥ (चै0च0 2/1/39) अर्थात् श्रीगोपालचम्पू नामक ग्रन्थ महासूर है। भाषा, काव्य, सिद्धान्त आदि की दृष्टि से यह महागम्भीर और सबको पराजित करने वाला है। इसमें अप्रकट प्रकाश का वर्णन होते हुए भी व्रजरस, अर्थात् भौम वृन्दावन को प्रधानता की स्थापना की गयी है। भौम वृन्दावन की प्रकटलीला के सर्वोत्कर्षमयी होने का कारण है योगमाया द्वारा श्रीकृष्ण की स्वरूपशक्ति, उनकी परम स्वीया कान्तागण की परकीया-अभिमानिनी रूप में प्रतीति करा श्रीकृष्ण को परमास्वाद्य परकीया-रस का आस्वादन कराना। यह रस परमोज्ज्वल और सर्वथा अनवद्य है। इस रूप में इसका प्रतिपादन श्रीमद्भागवत में रासलीला के उपसंहार में परीक्षित-शुक सम्वाद में स्पष्टरूप से किया गया है। जीवगोस्वामी ने इस ग्रन्थ में परकीया-रस का ही प्रतिपादन किया है। पर उत्तर चम्पू के पैंतीस वें पूरण में उन्होंने श्रीराधा-माधव-विवाह-प्रसंग का वर्णन किया है। इसके कारण कुछ लोगों की धारणा है कि उन्होंने प्रकटलीला में परकीयत्व का स्वकीयात्व में पर्यवसान किया है और स्वकीया का सिद्धान्त ही उनका हार्द है। पर यह भ्रान्ति छत्तीसवें पूरण में राधा-माधव की कुछ उक्तियों से दूर हो जाती है, जिनसे स्पष्ट है कि परकीया लीला में ही रस की सम्यक् पुष्टि होती है। ग्रन्थ में इसकी रचनाकाल के सम्बन्ध में जो उल्लेख है उसके अनुसार पूर्वचम्पू की रचना समाप्त हुई सन् 1588 में और उत्तर चम्पूकी सन् 1590 में। माधव-महोत्सव- इस ग्रन्थ में श्रीराधा के वृन्दावन में राज्याभिषेक की कहानी कही गयी है। पद्मपुराण पाताल खण्ड में "वृन्दावनाधिपत्यञ्ज तत्तं तस्यै" और मत्स्यपुराण में "राधा वृन्दावने वने" वाक्यों में राधाभिषेक का इंगित किया गया है। वृहद्गौतमीय तन्त्र में भी राधा को वृन्दावनधीश्वरी का पद दिया गया है। श्रीजीव ने इन वाक्यों को सूत्र रूप में ग्रहणकर रूप गोस्वामी के आदेश से इस काव्य की रचना की है। शब्द- विन्यास अलंकार-छटा, छन्द वैचित्री, भाव प्रस्त्रवण और रसमयता आदि सभी दृष्टि से यह ग्रन्थ अद्वितीय है। यद्यपि जीव गोस्वामी ने इसे 'काव्य खण्ड' कहा है, विद्वानों ने इसमें महाकाव्य के सभी गुण देखकर इसे 'महाकाव्य की संज्ञा देने में संकोच नहीं किया है। जीव गोस्वामी ने स्वयं इसका रचनाकाल शकाब्द 1477 अर्थात् सन् 1555 लिखा है। ग्रन्थ-प्रचार अब राशि-राशि गौड़ीय-वैष्णव ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी। भक्तिरस और सिद्धान्त सम्बन्धी प्रचुर-ग्रन्थों की रचना श्रीरूप और श्रीसनातन पहले ही कर चुके थे। दार्शनिक-सिद्धान्त सम्बन्धी जिन ग्रन्थों की अभी भी कमी थी। स्वरूप दामोदर और मुरारी गुप्त ने महाप्रभु के चरित्र से सम्बन्धित घटनाओं को सूत्ररूप में लिख रखा था। यह ग्रन्थ स्वरूप दामोदर औ मुरारी गुप्त के कड़चा के नाम से प्रसिद्ध थे। पर यह संस्कृत में थे और इतने संक्षिप्त थे कि सर्वसाधारण की इनके द्वारा तृप्ति होना सम्भव नहीं था। महाप्रभु के अंतरंग भक्त श्रीनरहरि सरकार ठाकुर ने भाषा में उनके एक सरस चरित्र की आवश्यकता का विशेषरूप से अनुभव किया था और उसके लिखे जाने की भविष्यवाणी इन शब्दों में शब्दों में की थी- गौरलीला दरशने, इच्छा बड़ हय मने, भाषाय लिखिया सब राखि। मुञी अति अधम, लिखिते ना जानि क्रम, केमन करिया ताहा लिखि॥ ए ग्रन्थ लिखिबे जे, एखनो जन्मे नाइ से, जन्मिते विलम्ब आछे बहु। भाषाय रचना हैले, बुझिबे लोक सकले, कबे वा0छा पुराबेन पहुँ॥ -गौरलीला के दर्शन कर इच्छा होती है कि उसे भाषा में लिख रखूँ। पर मैं अधम। लिखने का क्रम मुझे आता नहीं, लिखूँ कैसे? जो लिखेगा, उसका जन्म अभी नहीं हुआ, उसके प्रकट होने में विलम्ब है। जब भाषा में इस ग्रन्थ की रचना हो जाएगी, तब सब लोग उसे समझ सकेंगे। हा, नाथा! कब मेरी यह वांछा पूर्ण होगी?" नरहरि सरकार की वांछा की पूर्ति का समय भी अब आ गया। श्रीवृन्दावनदास ने "चैतन्य-मंगल" नाम के ग्रन्थ की रचना की। इसका बंगला भाषा में आदि चरित-ग्रन्थ के रूप में सम्मान हुआ। कृष्ण-लीला पर जिस प्रकार श्रीमद्भागवत सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है, उसी प्रकार चैतन्य-लीला पर यह एक श्रेष्ठ ग्रन्थ के रूप में पूजा जाने लगा। इसीलिए श्रीजीवादि वृन्दावन के प्रमुख गोस्वामीगणों ने इसका नाम बदल कर रखा "चैतन्य-भागवत"। इसी समय (सन् 1575 में) लोचनदास ने "चैतन्य-मंगल" नाम का एक और ग्रन्थ लिखा। उसका उतना आदर नहीं हुआ, जितना चैतन्य-भागवत का। पर चैतन्य-भागवत में चैतन्य महाप्रभु की अन्त्य-लीला का वर्णन नहीं था। यह कमी भक्तों को असह्य हुई। उन्होंने मिलकर कृष्णदास कविराज गोस्वामी से चैतन्य महाप्रभु की शेष लीला वर्णन करने का आग्रह किया। कृष्ण दास उस समय बहुत वृद्ध थे और सब तरह से इस कार्य के लिए उपयुक्त होते हुए भी शरीर से लाचार थे। पर वे सभी वैष्णवों के प्रेमपूर्ण आग्रह की अवहेलना न कर सके। श्रीजीव गोस्वामी, श्रीगोपालभट्ट गोस्वामी, श्रीलोकनाथ गोस्वामी और श्रीभूगर्भ गोस्वामी का आशीर्वाद ले वे इस पुनीत कार्य में जुट गये। कई वर्ष के लगातार परिश्रम के पश्चात् सन् 1581 में उन्होंने चैतन्य-चरितामृत ग्रन्थ समाप्त किया। इस ग्रन्थ को बंगला साहित्य में वही स्थान प्राप्त हैं, जो हिन्दी में रामचरितमानस को। गौड़ीय गोस्वामीगण ने वेद, वेदान्त, श्रुति, स्मृति, पुराणादि शास्त्रों के विशाल समुद्र का मन्थन कर जिस अमृत का निष्कासन किया था, उसका कलश अब पूरा भर चुका था। आवश्यकता थी पिपासुजनों में उसके वितरण की। यह कार्य इतना आसान नहीं था। यह ऐसे लोगों के द्वारा ही हो सकता था, जो स्वयं शास्त्रों के मर्मज्ञ हों, असाधारण भक्ति भाव-सम्पन्न हों, और जो महाप्रभु का प्रियकार्य जान इसे अपना जीवन समर्पित कर सकें। महाप्रभु की इच्छा से ऐसे तीन महापुरूषों का आगमन वृन्दावन में पहले ही हो चुका था। ये थे श्रीनिवासचार्य प्रभु, ठाकुर नरोत्तमदास व श्रीश्यामानन्द, जो रूप-सनातन के अप्राकटय के कुछ ही दिन बाद वृन्दावन आये थे। इन्हें श्रीचैतन्य महाप्रभु, श्रीनित्यानन्द प्रभु और श्रीअद्वैताचार्य का परवर्ती अवतार कहा जाता है। प्रेमविलास में पद है- नित्यानन्द छिल जेइ नरोत्तम हइला सेइ, श्रीचैतन्य हइल श्रीनिवास। श्रीअद्वैत जारे कय श्यामानन्द तिहों हय, ऐसे हइला तिनेर प्रकाश॥ (प्रेमविलारू, 20वां विलास) श्रीनिवास बंगाल के काटोया नगर निकट चाकन्दी ग्राम के श्रीचैतन्यदास के पुत्र थे। महाप्रभु के आशीर्वाद से उनकी पत्नी श्रीलक्ष्मीप्रिया के गर्भ से उनका जन्म हुआ था (सन् 1518)। महाप्रभु के ही समान उनकी चम्पकगौर अंगकान्ति और भुवनमोहन मूर्ति थी और उन्हीं के समान उनका कृष्ण प्रेम था। 14/15 वर्ष की आयु में वे नीलाचल गये महाप्रभु के दर्शन करने। मार्ग में ही थे, जब महाप्रभु का अन्तर्धान हो गया। शोकोन्मत्त और मृतप्राय अवस्था में उन्होंने नीलाचल में महाप्रभु के अभिन्न कलेवर गदाधर पण्डित की शरण ली। गदाधर पण्डित के पास श्रीमद्भागवत का अध्ययन करना चाहा। पर गदाधर पण्डित के पास जो भागवत ग्रन्थ था, उसके अक्षर उनके अश्रुजल से मिट चुके थे। उनकी आज्ञा से श्रीनिवास भागवत की दूसरी प्रति लेने श्रीखण्ड गये। ग्रन्थ लेकर लौटते समय उन्हें पथ में सम्वाद मिला कि गदाधर पण्डित अप्रकट हो गये। रोते रोते लौट पड़े। नवद्वीप गये नित्यानन्दप्रभु और अद्वैताचार्यप्रभु के दर्शन करने। वे भी उनके नवद्वीप पहुँचने के पूर्व नित्यधाम को जा चुके थे। उन्होंने नवद्वीप में चैतन्यमहाप्रभु की पत्नी विष्णुप्रिया, शान्तिपुर में अद्वैताचार्य की पत्नी सीता देवी और खड़दह में नित्यानछ की पत्नी जाह्नवा ठाकुरानी के दर्शन किये। सबने अपने प्रबोध वाक्यों से उन्हें सान्त्वना दी और वृन्दावन जाने की अनुमति। प्रेमविह्नल अवस्था में उन्मत्त की तरह पदयात्रा करते हुए वे वृन्दावन के लिए चल पड़े, वहाँ सनातन और रूपादि के दर्शन की हृदय में साध लेकर। पर उनकी साध क्या पूरी होनी थी? सनातन और रूप भी उनके वृन्दावन पहुँचने के पूर्व अप्रकट हो चुके थे, जैसे इन सबने श्रीनिवास को दर्शन न देकर और उनके प्रेमपयोधि में बार-बार उफान लाकर उसे चरम सीमा तक पहुँचा देने की ठान रखी हो। उन्होंने जब से नीलाचल की यात्रा आरम्भ की उनके अश्रु बहते ही रहे, जैसे उनका देह विधाता ने अश्रुओं का ही बनाया हो। रोते-रोते उन्होंने वृन्दावन जाकर जीव गोस्वामी का आश्रय लिया। जीव गोस्वामी ने उन्हें गोपालभट्ट गोस्वामी से दीक्षित करवाकर धन्य किया। कुछ दिन बाद राजकुमार नरोत्तम आये। ये उत्तरी बंगाल के गरानहाटी परगना के कायस्थ जमीदार राजाकृष्णनन्द राय के एकमात्र उत्तराधिकारी थे। कृष्ण प्रेम में पागल हो घर से निकल आये थे। वृन्दावन में ये जीव गोस्वामी का आश्रय लेकर लोकनाथ गोस्वामी की तनमन से सेवा करने लगे। अपनी सेवा से उन्हें प्रसन्न कर उनके एकमात्र शिष्य हुए। श्यामानन्द भी इसी समय आये। ये उड़ीसा के अन्तर्गत धारेन्दाबाहादुरपुर ग्राम के सद्गोप जाति के एक दरिद्र व्यक्ति के पुत्र थे। बाल्याकाल से ही बड़े कृष्ण-भक्त थे और इनका जीवन बड़े दुख में बीता था। इसलिए इनका नाम पड़ गया था दुखी कृष्णदास। जीव गोस्वामी ने दीक्षा देकर इनका नाम रखा श्यामानन्द। यह तीनों जीव गोस्वामी के निकट शास्त्राध्ययन करने लगे। उन्होंने ही श्रीनिवास को 'आचार्य' की उपाधि दी और उन्हीं के कारण नरोत्तम 'ठाकुर महाशय' के नाम से पुकारे जाने लगे। तीनों एक ही भाव के भावुक युवक होने के कारण ऐसे धुलमिल गये, जैसे वे एक ही आत्मा के तीन प्रकाश हों। तीनों बहुत दिन तक कभी वृन्दावन में, कभी नन्दग्राम, जावट, बरसानादि में कृष्णलीला का अभिनय कर ब्रजवासियों को लीलारस का आस्वादन कराते रहे और स्वयं उसका आस्वादन कर अन्मत्त होते रहें उसी क्रीड़ाकौतुक के बीच एकदिन जब सब भक्तवृन्दा गोविन्ददेव के मन्दिर में भागवत कथा सुनने के लिए एकत्र थे, गोस्वामीगण ने इन तीनों को बुला गौड़ देश में जाकर गौड़ीय ग्रन्थों और उनमें वर्णित विशुद्ध भागवत धर्म का प्रचार करने का आदेश किया। उसी समय गोविन्ददेव के गले से पुष्पमाला टूट कर नीचे गिर पड़ी, जैसे गोविन्ददेव के गले से पुष्पमाला टूटकर नीचे गिर पड़ी, जैसे गोविन्द देव ने भी तत्काल गोस्वामियों के आदेश की पुष्टि कर दी। गोविन्ददेव की जय-जयकार होने लगी। हर्ष और उल्लास से उस वातारण में सबकी दृष्टि इन तीनों में वरिष्ठ श्रीनिवासाचार्य के ऊपर केन्द्रित थी। वे उत्सुकता से उनकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहे थे। श्रीनिवासाचार्य बड़े धर्मसंकट में पड़ गये। वे न व्रज छोड़ सकते थे, न गुरूजनों और गोविन्ददेव की आज्ञा का उल्लंघन कर सकते थे। अन्त में उन्हें स्वीकृति देनी पड़ी। इस योजना के पीछे हाथ श्रीजीव गोस्वामी का था। वे अपना मनोरथ सफल होते देख बहुत प्रसन्न हुए और इन तीनों को ग्रन्थराशि के साथ गौड़ भेजने की व्यवस्था करने लगे। उन्होंने अपने भक्तों की सहायता से राजधानी से राजपत्र मँगवाया, जिसमें इन लोगों के ग्रन्थों के साथ वृन्दावन से झाड़िखण्ड होकर जाजपुर जाने की राजाज्ञा थी। दो बैलगाड़ियों की व्यवस्था की, एक श्रीनिवास, नरोत्तम और श्यामानन्द के लिए और एक ग्रन्थों के लिए। दस अस्त्रधारी प्रहरियों की व्यवस्था की उनके साथ जाने के लिए। रूप, सनातन, जीव आदि के ग्रन्थ यत्नपूर्वक बांध-बांधकर एक बड़े काष्ठके बक्स में रखे गये। तीन महाजनों से मार्ग व्यय के लिए आवश्यक धनराशि स्वीकार की गयी। जाने के लिए तिथि निश्चय की गयी अग्रहण मास की शुक्ला पंचवी। उस दिन गोविन्ददेव के मन्दिर के सामने दोनों बैलगाड़ियाँ आकर खड़ी हुई। ग्रन्थों का सन्दूक एक गाड़ीपर यत्नपूर्वक चढ़ाया गया। दूसरी पर श्रीनिवास, नरोत्तम और श्यामानन्द को बैठना था। पर उन्हें विदा करने आये थे श्रीजीव, गोपालभट्ट, लोकनाथ, भूगर्भ, राधव पण्डित, यादवाचार्य, परमानन्द भट्टाचार्य, मधु पण्डित, कृष्णदास कविराज, द्विज हरिदास, पंडुरीकाक्ष प्रभृति। व्रजवासियों की भीड़ भी उन्हें विदा करने गोविन्ददेव के मन्दिर पर उमड़ पड़ी थी। इनमें से बहुतों को उनके साथ पैदल मथुरा तक जाना था। इसलिए श्रीनिवास, नरोत्तम और श्यामानन्द भी गोविन्ददेव को दण्डवत् प्रणाम कर पैदल ही मथुरा की ओर चल पड़े। हरिनाम की मंगलध्वनि के साथ शोभा यात्रा मथुरा पहुँची। दूसरे दिन श्रीजीव आदि को दण्डवत् कर तीनों ने उनसे विदा ली। श्रीजीव, गोपालभट्ट, लोकनाथ आदि ने एक एक कर आलिंगन के साथ अपने प्रेमाश्रुओं से अभिषकित करते हुए आशीर्वाद देकर उन्हें विदा किया। वे राजपथ से चलते-चलते आगरा होते हुए इटावा पहुँचे। इटावा में राजपथ छोड़कर झाड़िखण्ड के वनपथ से विष्णुपुर राज्य की सीमापर पहुँचे। विष्णुपुर के राजा वीर हाम्वीर की अद्भुत प्रकृति थी। धर्मपरायण और कथा-कीर्तन के प्रेमी होते हुए भी वे लुटेरे थे। अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करते थे, पर देश की सीमा के बाहर लूट-पाट मचाया करते थे। प्रेमविलास में वर्णन है कि वे दिन में पुराण पाइ करते और रात में चोरी-डकैती- "दिवाय पुराण पाठ, राते चुरि डकैति। पुत्र सम पाले प्रजा, देशेर ना करे क्षति॥" उन्हें सम्वाद मिला कि उनके राज्य की उत्तर-पश्चिम सीमा से कुछ सशस्त्र प्रहरियों के साथ एक रत्नभरी गाड़ी जा रही है। उन्होंने उसी समय सैनिकों को आदेश दिया-"दो सौ सिपाही जाकर उसे लूट लो। पर देखो किसी को जान से न मारना- दुइ रात लोक लइया करह गमन। प्राने नाहि मारिबा आनिबे सब धन॥" (प्रे0 वि0 13) दूसरे दिन संध्या समय श्रीनिवासादि भक्तगण गोपालपुर ग्राम पहुँच कर विश्राम कर रहे थे। रात्रि पर्यन्त कृष्ण कथा कहते कहते वे सो पड़े। उसी समय सिपाही आकर सन्दूक उठा ले गये। प्रहरी दो सौ सशस्त्र सिपाहियों के सामने कुछ न कर सके। श्रीनिवास, नरोत्तम और श्यामानन्द रोते-रोते पागल हो गये। ग्रन्थों में तो उनके प्राण ही बस रहे थे। ग्रन्थों के लूटे जाने पर वे जैसे प्राणहारा हो गये। श्रीनिवास ने पत्र लिखकर यह दु:सम्वाद जीव गोस्वामी को भिजवाया। पत्र पढ़ते ही उनके दुख की सीमा न रही। लोकनाथ, गोपालभट्ट आदि पर भी विषाद की कालिमा छा गयीं पर सबसे अधिक मर्माहत हुए राधाकुण्डवासी कृष्णदास कविराज। उन्होंने प्राण विसर्जन कर देने का संकल्प किया। एक दिन राधाकुण्ड के तीर पर बैठे रोते-रोते उसमें कूछ पड़े। भक्तों ने उन्हें निकाल कर किसी प्रकार उनके प्राण की रक्षा की।(1) जीव गोस्वामी मन ही मन सोचने लगे कि लुटेरे उन ग्रन्थों का क्या करेंगे। निश्चय ही यह घटना प्रभु की किसी लीलाविशेष की पूर्व सूचना है, जिसका रहस्य पीछे खुलने को है। वे कालान्तर में कोई नयी सूचना प्राप्त करने की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगे। (1) नित्यानन्ददास के प्रेम-विलास' में उल्लेख है कि राधाकुण्ड में कूदने के साथ ही कृष्णदास कविराज के प्राण निकल गये। यदुनन्दनदास के 'कर्णनाद' नामक ग्रन्थ में उल्लेख है कि उस समय उनकी मृत्यु नहीं हुईं। कर्णानन्द ग्रन्थ की रचना हुई ग्रन्थों की लूट के 26 वर्ष बाद सन् 1607 में। प्रेमविलास की रचना हुई उससे 7 वर्ष पूर्व सन् 1600 में। इसलिए कुछ लोग मानते हैं कि प्रेमविलास का मत ही ठीक है। पर वृन्दावन शोध-संस्थान को जो जीव गोस्वामी की संकल्पपत्री पससद्ध प्राप्त हुई है उस पर तारीख पड़ी है सम्वत् 1663 (सन् 1606)। उसकी पीठ पर जो परपिष्टलिपि है उस पर तारीख है सम्वत् 1665 (सन् 1608)। उस पर श्रीकृष्णदास कविराज के साक्षी रूप में हस्ताक्षर हैं। इससे श्रीकृष्णदास कविराज का सन् 1608 तक प्रकट रहना सिद्ध है। इधर श्रीनिवासाचार्य ने अपने दोनों साथियों से कहा-"तुम्हें दोनों को गोस्वामीगण ने वैष्णव-धर्म के प्रचार का कार्य सौपा है, मुझे मुख्य रूप से ग्रन्थों के प्रचार का। इसलिए तुम दोनों गौड़ जाकर अपना कार्य आरम्भ करो। मैं यहाँ रूक कर ग्रन्थों की खोज करूँगा। यदि ग्रन्थ न मिले तो प्राण त्याग दूँगा।" नरोत्तम और श्यामानन्द बड़ी विषम स्थिति में पड़ गये। वे न तो प्राण से भी अधिक प्रिय अपने वरिष्ठ साथी को छोड़कर जा सकते थे, न उसकी और वृन्दावन के गोस्वामीगण की आज्ञा का उल्लंघन कर सकते थे। अन्त में महाप्रभु की इच्छा जान उन्होंने उनके प्रिय कार्य के लिए गौड़ जाने का निश्चय किया। श्रीनिवासाचार्य प्रभु को वही छोड़ उन्होंने उनके चरणों में प्रणाम कर रोते रोते गौड़ के लिए प्रस्थान किया। श्रीनिवासाचार्य सर्वस्व लुट जाने के पश्चात् एक उन्मत्त व्यक्ति की तरह घूम-फिरकर ग्रन्थ-रत्नों की खोज करने लगे। देउली ग्राम के कृष्णवल्लभ नाम के एक ब्राह्मण से उन्हें पता चला कि बीरहाम्बीर के राजमहल में नित्य सन्ध्या समय श्रीमद्भागवत पुराण का पाठ होता है। इससे उन्हें उस पथ का संकेत मिला, जिस पर चलकर ग्रन्थों की खोज खबर पाने की कुछ सम्भावना हो सकती थी। वे कृष्णवल्लभ के साथ राजमहल गये पाठ सुनने। रासपञ्चाध्यायी का पाठ चल रहा था। पाठक उलटी-सीधी व्याख्या कर रहे थे। श्रीनिवासाचार्य से किसी एक अंश की व्याख्या का प्रतिवाद किये बिना न रहा गया। उनके मुख से सही व्याख्या सुन सब चमत्कृत रह गये। तब राजा वीर हाम्बीर ने उनसे पाठ करने का आग्रह किया सुयोग पा दूसरे दिन से श्रीनिवासाचार्य पाठ करने लगे। श्रीनिवासाचार्य के मुख से रासपञ्चाध्यायी की असाधारण पांडित्यपूर्ण रस मयी व्याख्या सुन राजा समेत सब दस्यु सरदारों का पाषाण से भी अधिक कठोर हृदय पिघल गया। सभास्थल उनके नेत्रजल से परिपूर्ण हो गया। उन्होंने श्रीमद्भागवत की ऐसी रसमयी व्याख्या पहले कभी नहीं सुनी थी। पाठ के पश्चात् वीरहाम्बीर की श्रीनिवासाचार्य से जो बात हुई, उससे ग्रन्थों की चोरो का रहस्य खुल गया। वीरहाम्बीर ने श्रीनिवासाचार्य को ग्रन्थ ही नहीं लौटाए, अपने आपको भी उनके चरणों में समर्पित कर दिया। वे और उनकी प्रजा के अनेक लोग उनसे दीक्षा ग्रहण कर धन्य हुए।(1) विष्णुपुर में भक्ति की गंगा वह निकली। जगह-जगह मन्दिरों का निर्माण हुआ। घर-घर में कृष्ण पूजा और चैतन्य-पूजा का विस्तार हुआ। घर घर में गौड़ीय ग्रन्थों का पाठ होने लगा, विष्णुपुर गौड़ीय वैष्णव धर्म के प्रचार का प्रमुख (1) दीक्षा के पश्चात् श्रीनिवासाचार्य ने वीरहाम्वीर का नाम रखा 'हरिचरणदास'। पीछे जीव गोस्वामी ने उनका नाम रखा 'चैतन्यदास'। वीरहाम्वीर के पुराण-पाठक ने भी श्रीनिवासाचार्य से दीक्षा ली और उनका नाम हुआ 'व्यासाचार्य'। केन्द्र बन गया। श्रीसतीशन्द्र मित्र ने लिखा है कि आज भी विष्णुपुर में चैतन्य-चरितामृत आदि ग्रन्थों की जितनी प्राचीन लिपियाँ मिलती हैं, उतनी अन्यत्र कहीं नहीं मिलती।(1) श्रीनिवासाचार्य ने ग्रन्थों के उद्धार की कहानी जीव गोस्वामी को लिख भेजी। पत्र के साथ वीर हाम्बीर ने ठाकुर सेवा के हेतु एक बैलगाड़ी में फलमूलादि नाना प्रकार की खाद्य सामग्री भेजी। पत्र प्राप्त कर जीव गोस्वामी के हृदय में आनन्द न समा सका। उन्होंने ग्रन्थों की चोरी में प्रभु के किसी गूढ़ उद्देश्य की जो कल्पना की थी, उसके रहस्य का उद्घाटन हो गया। एक कौपीनधारी वैष्णव के द्वारा ग्रन्थों के प्रचार का कार्य बिना वीरहाम्मीर जैसे भक्तिमान राजा के अर्थ और शक्ति की सहायता के सम्भव नहीं था। इसीलिए प्रभु ने यह लीला रची थी। अब प्रचार कार्य सुविधापूर्वक चलते रहने के लिए सब व्यवस्था अपने आप हो गयी। श्रीनिवास राजगुरू रूप से सम्मानित हो ग्रन्थ लेकर गौड़ देश में याजिग्राम पहुँचे। राजगुरू रूप से उन्हें अर्थ की कोई कमी नहीं थी। उनकी अध्यक्षता में खेतरी में एक विराट् उत्सव मनाया गया। बंगाल, बिहार, उड़ीसा और मनीपुर तक के भक्तों ने उसमें योगदान किया। इसके पश्चात् संगठित और सुव्यवस्थित रूप से सारा काम चलने लगा। श्रीनिवास, नरोत्तम और श्यामानन्द ने गाँव-गाँव में प्रचार कर गौड़ से लेकर नीलाचल तक और पूर्व में मनीपुर तक सारे प्रदेश को नवधर्म का प्रचार कर भक्तिसिक्त कर दिया। गौड़, आसाम और मणिपुर कों नरोत्तम ने विशेषरूप से अपने प्रचार का क्षेत्र बनाया और उड़ीसा में श्यामानन्द प्रचार का संचालन करते रहे वृन्दावन से श्रीजीव। उनके साथ पत्र-व्यवहार बराबर होता रहा। जिन नये-नये ग्रन्थों का प्रणयन होता, उन्हंी वे गौड़ भेजते रहते। जिन ग्रन्थों की गौड़ में रचना होती, उन्हें स्वीकृति के लिए उनके पास भेजा जाता। उनकी स्वीकृति प्राप्त करने पर या उनके आदेशानुसार ग्रन्थों के संशोधित होने पर ही उनका प्रचार किया जाता। जो भी उत्सव, अनुष्ठान आदि होते, उनकी सूचना उन्हें भेजी जाती। किसी विशेष परिस्थिति में मार्ग-दर्शन के लिए उनसे प्रार्थना की जाती। वृन्दावन की दूरी और अपनी व्यस्तता के कारण श्रीनिवास, नरोत्तम और श्यामानन्द का बार-बार वृन्दावन जाना सम्भव नहीं था। फिर भी श्रीनिवासाचार्य दो बार और श्यामानन्द एक बार और वृन्दावन जा सके। तिरोभाव महाप्रभु का शेष कार्य, जो रूप सनातन जीव गोस्वामी के लिए छोड़ गये थे, अब पूरा हो चुका। उसके साथ ही जीव गोस्वामी का जीवन काल भी पूरा हुआ। सन् 1608 के पौष मास की शुक्ला तृतीया के दिन उनका तिरोभाव हुआ। राधादामोदर के मन्दिर के प्रांगण में उनकी समाधि (1) सप्त गोस्वामी, पृष्ठ 254 । रखी गयी (1) जब तक भारत के वैष्णव-धर्म की विजयपता का फहराती रहेगी, जब तक सर्व सिद्धान्त सार, सर्वशास्त्र-शिरोमणि श्रीमद्भागवत के भक्ति सिद्धान्त और दर्शन की आलोचना होती रहेगी, तब तक विश्व के आकाश पर श्रीजीव गोस्वामी की उज्ज्वल कीर्ति छायी रहेगी। (1) डा0 सुशीलकुमार देने History of Sanskrit Poetics (p. 256) में, नगेन्द्रनाथ बसु ने विश्वकोष (पृ0 109) में और हरिलाला चट्टोपाध्याय ने वैष्णव इतिहास (पृ0 63) में जीव गोस्वामी का तिरोभाव सन् 1618 में लिखा है। श्रीसतीशचन्द्र मित्र ने सप्त-गोस्वामी ग्रन्थ (पृ0 258) में उनका तिरोभाव सन् 1590 में लिखा है। पर वृन्दावन शोध-संस्थान में सुरक्षित जीव स्वामी की 'संकल्पपत्री' (Will) की परशिष्ट लिपि (Post script verso) जो अन्त समय में संकल्पपत्र में जोड़े गये अंश (Codicil) के रूप में है, सन् 1608 की है। इससे स्पष्ट है कि उनका तिरोभाव सन् 1608 में हुआ।


टीका-टिप्पणी

  1. सप्त गोस्वामी, पृ0 204 ।
  2. (1) श्रीसतीशचन्द्र मित्र और शंकरराय आदि कुछ लोगों का मत है कि यह वल्लभ भट्ट विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के श्रीपाद वल्लभाचार्य थे (दे. सप्त-गोस्वामी पृ. 214; भारतेर-साधक, खण्ड 5, पृ. 165)। ऐतिहासिक दृष्टि से श्रीपाद वल्लभाचार्य का जीव गोस्वामी से मिलन सम्भव जान पड़ता है। पर इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। श्रीपादवल्लभाचार्य का अन्तर्धान हुआ सन् 1531 (सम्वत् 1587) में, मतान्तर से सन् 1533 में (Dasgupta: History of Indian Philosophy, Vol. IV, Cambridge, 1949, p-372) जीव गोस्वामी संसार त्यागकर नवद्वीप होते हुए काशी पहुँचे सन् 1528 में। दो वर्ष श्री मधुसूदन वाचस्पति से वेदान्त अध्ययन कर वृन्दावन आगमन का समय बिल्कुल निश्चित नहीं है। यदि उन्होंने गृह-त्याग एक-दो वर्ष बाद किया, या काशी में वेदान्त-अध्ययन के लिए दो वर्ष से अधिक रहे, तो उनका वृन्दावन-आगमन श्रीपादवल्लभाचार्य के अन्तर्धान के पश्चात् ही हो सकता है।
  3. District Memoirs of Mathura, 3rd Ed.( p. 241)
  4. हरिदास: गौड़ीय वैरूष्णव साहित्य, परिशिष्ट, पृ0 90
  5. सप्तगोस्वामी, पृ0 179
  6. "भक्तिर्हि भक्तकोटि प्रविष्टतदाद्रीभावयितृतच्छक्ति विशेष इति विवृतं विवरिष्यते च"-भगवान की जो शक्ति में प्रविष्ट होकर आद्रिभाव उत्पन्न करती है, वही भक्ति नाम से पहले पुकारी गयी है। (भ0स0 180)