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जैन आचार-मीमांसा

जैन धर्म के अनुसार आध्यात्मिक विकास की पूर्णता हेतु श्रावक या गृहस्थधर्म (श्रावकाचार) पूर्वार्ध है और श्रमण या मुनिधर्म (श्रमणाचार) उत्तरार्ध। श्रमणधर्म की नींव गृहस्थ धर्म पर मजबूत होती है। यहाँ गृहस्थ धर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका इसलिए भी है क्योंकि श्रावकाचार की भूमिका में एक सामान्य गृहस्थ त्याग और भोग-इन दोनों को समन्वयात्मक दृष्टि में रखकर आध्यात्मिक विकास में अग्रसर होता है। अत: प्रस्तुत प्रसंग में सर्वप्रथम श्रावकाचार का स्वरूप विवेचन आवश्यक है। यद्यपि श्रावक अर्थात एक सद् गृहस्थ के आचार का कितना महत्त्व है? यह श्रावकाचार विषयक शताधिक बड़े-बड़े प्राचीन और अर्वाचीन ग्रन्थों की उपलब्धि से ही पता चल जाता है। इसी दृष्टि से अति संक्षेप में यहाँ श्रावकाचार अर्थात श्रावकों की सामान्य आचार पद्धति प्रस्तुत है-

श्रावकाचार:श्रावकों की आचार-पद्धति

जैन परम्परा में आचार के स्तर पर श्रावक और साधु-ये दो श्रेणियाँ हैं। श्रावक गृहस्थ होता है, उसे जीवन के संघर्ष में हर प्रकार का कार्य करना पड़ता है। जीविकोपार्जन के साथ ही आत्मोत्थान एवं समाजोत्थान के कार्य करने पड़ते हैं। अत: उसे ऐसे ही आचारगत नियमों आदि के पालन का विधान किया गया, जो व्यवहार्य हों क्योंकि सिद्धान्तों की वास्तविकता क्रियात्मक जीवन में ही चरितार्थ हो सकती है। इसलिए श्रावकोचित आचार-विचार के प्रतिपादन और परिपालन का विधान श्रावकाचार की विशेषता है। श्रावकाचार आदर्श जीवन के उत्तरोत्तर विकास की जीवन शैली प्रदान करता है। श्रावकाचार के परिपालन हेत साधु वर्ग सदा से श्रावकों का प्रेरणास्त्रोत रहा है। वस्तुत: साधु राग-द्वेष से परे समाज का संरक्षक होता है, वह समाज हित में श्रावकों को छोटे-छोटे स्वार्थों के त्याग करने एवं समता भाव की शिक्षा देता है।

संस्कार और उनका महत्त्व

संस्कार शब्द का प्रयोग शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण, सौजन्य पूर्णता, व्याकरण सम्बन्धी शुद्धि, धार्मिक कृत्य, संस्करण या परिष्करण की क्रिया, प्रभावशीलता, प्रत्यास्मरण का कारण, स्मरणशक्ति पर पड़ने वाला प्रभाव अभिमंत्रण आदि अनेक अर्थों में होता है। सामान्यत: संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है अर्थात संस्कार वे क्रियाएं एवं विधियाँ हैं जो व्यक्ति को किसी कार्य को करने की आधिकारिक योग्यता प्रदान करती हैं। शुचिता का सन्निवेश मन का परिष्कार, धर्मार्थ-सदाचरण, शुद्धि-सन्निधान आदि ऐसी योग्यताऐं हैं जो शास्त्रविहित क्रियाओं के करने से प्राप्त होती हैं। संस्कार शब्द उन अनेक धार्मिक क्रिया-कलापों को भी व्याप्त कर लेता है जो शुद्धि, प्रायश्चित्त, व्रत आदि के अन्तर्गत आते हैं।

संस्कारों की संख्या

दिगम्बर परम्परा के पुराणों में संस्कार के लिए 'क्रिया' शब्द का प्रयोग किया गया है। यह सत्य है कि संस्कार शब्द सामान्यतया धार्मिक विधि-विधान या क्रिया का ही सूचक है। दिगम्बर जैन परम्परा के आचार्य जिनसेन कृत 'आदिपुराण' में विविध संस्कारों का उल्लेख करते हुए इन्हें तीन भागों में विभाजित किया गया है। उसके अनुसार

  1. गर्भान्वय क्रियाएँ-53,
  2. दीक्षान्वय क्रियाएँ-48, और
  3. कर्त्रन्वय क्रियाएँ-7 हैं।

इस प्रकार इसमें कुल मिलाकर 108 संस्कारों तक की चर्चा है। श्वेताम्बर जैन परम्परा के वर्धमानसूरिकृत 'आचारदिनकर' में संस्कारों की चर्चा करते हुए उनकी संख्या 40 बताई गई है, जिनमें से 16 संस्कार गृहस्थों के, 16 संस्कार यतियों के एवं 8 सामान्य संस्कार हैं।

आदिपुराण और उसमें प्रतिपादित संस्कार

संस्कार, वर्ण व्यवस्था आदि का विवेचन आचार्य जिनसेन ने महापुराण के प्रथम भाग अर्थात आदिपुराण में विस्तार से किया है। वस्तुत: महापुराण के मुख्य दो खण्ड हैं-

  1. आदिपुराण और
  2. उत्तरपुराण।

सम्पूर्ण आदिपुराण के 47 पर्वों में से 42 पर्व पूर्ण तथा 43वें पर्व के तीन श्लोक तक आठवीं-नवीं शती के भगवज्जिनसेनाचार्य द्वारा रचित हैं और इसके अवशिष्ट पाँच पर्व तथा उत्तरपुराण की रचना जिनसेनाचार्य के बाद उनके प्रमुख शिष्य गुणभद्राचार्य के द्वारा की गई। एक गृहस्थ श्रावक को समाज की मुख्य धारा से अलग हुए बिना नैतिक, आदर्श और संस्कारित जीवन जीने के लिए आचार्य जिनसेन ने संस्कार पद्धति मुख्यत: तीन भागों में विभक्त की-

  1. गर्भान्वय क्रिया,
  2. दीक्षान्वय क्रिया,
  3. क्रियान्वय क्रिया।

गर्भान्वय क्रिया

इसमें श्रावक या गृहस्थ की 53 क्रियाओं, संस्कारों का वर्णन है। वह इस प्रकार है :

  1. आधान क्रिया (संस्कार),
  2. प्रीति क्रिया,
  3. सुप्रीति,
  4. धृति,
  5. मोद,
  6. प्रियोद्भव जातकर्म,
  7. नामकर्म या नामकरण,
  8. बहिर्यान,
  9. निषद्या,
  10. अन्नप्राशन,
  11. व्युष्टि (वर्षगांठ),
  12. केशवाय,
  13. लिपिसंख्यान,
  14. उपनीति (यज्ञोपवीत),
  15. व्रतावरण,
  16. विवाह,
  17. वर्णलाभ,
  18. कुलचर्या,
  19. गृहीशिता,
  20. प्रशान्ति,
  21. गृहत्याग,
  22. दीक्षाग्रहण,
  23. जिनरूपता,
  24. मौनाध्ययन,
  25. तीर्थकृद्भावना,
  26. गणोपग्रहण,
  27. स्वगुरुस्थानावाप्ति,
  28. निसंगत्वात्मभावना,
  29. योगनिर्वाणसम्प्राप्ति,
  30. योगनिर्वाणसाधन,
  31. इन्द्रोपपाद,
  32. इन्द्राभिषेक,
  33. इन्द्रविधिदान,
  34. सुखोदय,
  35. इन्द्रत्याग,
  36. अवतार,
  37. हिरण्योत्कृष्टजन्मग्रहण,
  38. मन्दराभिषेक,
  39. गुरुपूजन,
  40. यौवराज्यक्रिया,
  41. स्वराज्यप्राप्ति,
  42. दिशांजय,
  43. चक्राभिषेक,
  44. साम्राज्य,
  45. निष्क्रान्त,
  46. योगसम्मह,
  47. आर्हन्त्य क्रिया,
  48. विहारक्रिया,
  49. योगत्याग,
  50. अग्रनिर्वृत्ति, तीन अन्य क्रिया (संस्कार) इस प्रकार गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त 53 क्रियाओं (संस्कारों) का कथन किया गया है।

दीक्षान्वय क्रिया

वह इस प्रकार है-

  1. अवतार,
  2. वृत्तलाभ,
  3. स्थानलाभ,
  4. गणग्रह,
  5. पूजाराध्य,
  6. पुण्ययज्ञ,
  7. दृढ़चर्या,
  8. उपयोगिता,
  9. उपनीति,
  10. व्रतचर्या,
  11. व्रतावतरण,
  12. पाणिग्रहण
  13. वर्णलाभ,
  14. कुलचर्या,
  15. गृहीशिता,
  16. प्रशान्तता,
  17. गृहत्याग,
  18. दीक्षाद्य,
  19. जिनरूपत्व,
  20. दीक्षान्वय।

क्रियान्वय क्रिया

सज्जाति: सद्गृहस्थत्वं, पारिव्रज्यं सुरेन्द्रता।
साम्राज्यं पदमार्हन्त्यं, निर्वाणं चेति सप्तकम्॥

  1. सज्जातित्व (सत्कुलत्व)
  2. सद्गृहस्थता,
  3. पारिव्रज्य,
  4. सुरेन्द्रपदत्व,
  5. साम्राज्यपद,
  6. अर्हन्तपद,
  7. निर्वाणपदप्राप्ति-ये सात क्रियान्वय क्रियाएँ हैं।
  • धार्मिक एवं संस्कारित जीवन पद्धति के निर्माण में इन समस्त क्रियाओं का महत्व है। इन क्रियाओं (संस्कारों) में देव-शास्त्र-गुरु की पूजा भक्ति का यथायोग्य-विधान है।

प्रमुख सोलह संस्कारों का स्वरूप और विधि

जिन संस्कारों से सुसंस्कृत मानव द्विज (संस्कारित श्रावक) कहा जाता है, वे संस्कार सोलह होते हैं<balloon title="षोडशसंस्कार : सं0 एवं प्र0 जिनवाणी कार्यालय, कलकत्ता संस्कारप्रकरण। सं0 नरेन्द्र-कुमार जैन" style=color:blue>*</balloon>-

  1. आधान संस्कार,
  2. प्रीति संस्कार,
  3. सुप्रीति संस्कार,
  4. धृति,
  5. मोद,
  6. जातकर्म,
  7. नामकरण,
  8. वहिर्यान,
  9. निषद्या,
  10. अन्नप्राशन,
  11. व्युष्टि,
  12. केशवाय अथवा चौलकर्म,
  13. लिपिसंख्यान,
  14. उपनीत,
  15. व्रताचरण,
  16. विवाह संस्कार।

आधान संस्कार

पाणिग्रहण (विवाह) के बाद सौभाग्यवती नारियाँ उस स्त्री तथा उसके पति को मण्डप में लाकर वेदी के निकट बैठातीं हैं। शुद्ध वस्त्र धारण कर संस्कार विधि इस प्रकार की जाती है- सर्वप्रथम मंगलाचरण, मंगलाष्टक का पाठ, पुन: हस्तशुद्धि, भूमिशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, पात्रशुद्धि, मन्त्रस्नान, साकल्यशुद्धि, समिधाशुद्धि, होमकुण्ड शुद्धि, पुण्याहवाचन के कलश की स्थापना, दीपक प्रज्वलन, तिलककरण, रक्षासूत्रबन्धन, संकल्प करना, यन्त्र का अभिषेक, आन्तिधारा, गन्धोदक, वन्दन, इसके पूर्व अर्घसमर्पण, पूजन के प्रारम्भ में स्थापना, स्वस्तिवचान, इसके बाद देव-शास्त्र-गुरुपूजा, एवं सिद्धयन्त्र का पूजन करना चाहिए। अनन्तर शास्त्रोक्त विधिपूर्वक पति और धर्मपत्नी द्वारा विश्वशान्तिप्रदायक हवन पूर्वक यह क्रिया सम्पन्न की जाती है।

प्रीति-संस्कार

प्रीति संस्कार गर्भाधान के तीसरे माह में किया जाता है। प्रथम ही गर्भिणी स्त्री को तैल, उबटन आदि लगाकर स्नानपूर्वक वस्त्र-आभूषणों से अलंकृत करें तथा शरीर पर चन्दन आदि का प्रयोग करें। इसके बाद प्रथम संस्कार की तरह हवन क्रिया करें। प्रतिष्ठाचार्य कलश के जल से दम्पति का सिंचन करें। पश्चात त्रैलोक्यनाथो भव, त्रैकाल्यज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव, इन तीनों मन्त्रों को पढ़कर दम्पति पर पुष्प (पीले चावल छिड़के) शान्ति पाठ-विसर्जन पाठ पढ़कर थाली में भी ये पुष्प क्षेपण करें। 'ओं कं ठं व्ह: प: असिआउसा गर्भार्भकं प्रमोदेन परिरक्षत स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर पति गन्धोदक से गर्भिणी के शरीर का सिंचन करें, स्त्री अपने उदर पर गन्धोदक लगा सकती है।

सुप्रीति क्रिया-संस्कार

इसे सुप्रीति अथवा पुंसवन संस्कार क्रिया भी कहते हैं। यह संस्कार गर्भ के पाँचवें माह में किया जाता है। इसमें भी प्रीतिक्रिया के समान सौभाग्यवती स्त्रियाँ उस गर्भिणी को स्नान के बाद वस्त्राभूषणों से तथा चन्दन आदि से सुसज्जित कर मंगलकलश लेकर वेदी के समीप लाएं और स्वस्तिक पर मंगलकलश रखकर, लाल-वस्त्राच्छादित पाटे पर दम्पति को बैठा दें। इस समय घर पर सिन्दूर तथा अँजन (काजल) भी अवश्य लगाना चाहिए। प्रथम क्रिया की तरह यथाविधि दर्शन, पूजन एवं हवन इसमें भी किया जाता है।

धृति संस्कार

'धृति' को 'सीमन्तोन्नयन' अथवा सीमान्त क्रिया भी कहते हैं। इसको सातवें माह के शुभ दिन, नक्षत्र, योग, मुहूर्त आदि में करना चाहिए। इसमें प्रथम संस्कार समान सब विधि कर लेना चाहिए। पश्चात यन्त्र-पूजन एवं हवन करना चाहिए। इसके बाद सौभाग्यवती नारियाँ गर्भिणी के केशों में तीन माँग निकालें।

मोद क्रिया

मोद प्रमोद या हर्ष-ये एक ही अर्थ वाले शब्द हैं। इस संस्कार में हर्षवर्धक ही सब कार्य किये जाते हैं। अत: इसको 'मोद' कहते हैं। गर्भ से नौवे माह में यह मोद क्रिया की जाती है। प्रथम संस्कार की तरह सब क्रिया करते हुए सिद्धयन्त्र पूजन और हवन करना चाहिए। अनन्तर प्रतिष्ठा-आचार्य गर्भिणी के मस्तक पर णमोकार मन्त्र पढ़ते हुए ओं श्री आदि बीजाक्षर लिखना चाहिए। पीले चावलों (पुष्पों) की वर्षा मन्त्रपूर्वक करनी चाहिए। वस्त्र-आभूषण धारण कराने के साथ हस्त में कंकण सूत्र का बन्धन करना चाहिए। शान्ति-विसर्जन पाठ पढ़ते हुए पुष्पों की वर्षा करना जरूरी है। पश्चात गर्भिणी को सरस भोजन करना चाहिए तथा आमन्त्रित सामाजिक बन्धुओं का यथायोग्य आदर-सत्कार करें।

जात (जन्म) कर्म

पुत्र अथवा पुत्री का जन्म होते ही पिता अथवा कुटुम्ब के व्यक्तियों को उचित है कि वे श्रीजिनेन्द्र मन्दिर में तथा अपने दरवाजे पर मधुर वाद्य-बाजे बजवाएँ। भिक्षुक जनों को दान तथा पशु-पक्षियों को दाना आदि दें। बन्धु वर्गों को वस्त्र-आभूषण, श्रीफल आदि शुभ वस्तुओं को प्रदान करें। पश्चात 'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रौं ह्रूँ ह्र: नानानुजानुप्रजो भव भव अ सि आ उ सा स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर, पुत्र का मुख देखकर, घी, दूध और मिश्री मिलाकर, सोने की चमची अथवा सोने के किसी बर्तन से उसे पाँच बार पिलाएँ। पश्चात नाल कटवाकर उसे किसी शुद्धभूमि में मोती, रत्न अथवा पीले चावलों के साथ प्रक्षिप्त करा देना चाहिए।

नामकरण संस्कार

पुत्रोत्पत्ति के बारहवें, सोलहवें, बीसवें या बत्तीसवें दिन नामकरण करना चाहिए। किसी कारण बत्तीसवें दिन तक भी नामकरण न हो सके तो जन्मदिन से वर्ष पर्यन्त इच्छानुकूल या राशि आदि के आधार पर शुभ नामकरण कर सकते हैं। पूर्व के संस्कारों के समान मण्डप, वेदी, कुण्ड आदि सामग्री तैयार करना चाहिए। पुत्र सहित दम्पती को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर वेदी के सामने बैठाना चाहिए। पुत्र माँ की गोद में रहे। धर्मपत्नी पति की दाहिनी ओर बैठे। मंगलकलश भी कुण्डों के पूर्व दिशा में दम्पती के सन्मुख रखे।

बहिर्यान संस्कार

बहिर्यान का अर्थ बालक को घर से बाहर ले जाने का शुभारम्भ। यह संस्कार दूसरे, तीसरे अथवा चतुर्थ महीने में करना चाहिए। प्रथम बार घर से बाहर निकालने पर सर्वप्रथम समारोह पूर्वक बालक को मंदिर को जाकर जिनेन्द्रदेव का प्रथम दर्शन कराना चाहिए। अर्थात जन्म से दूसरे, तीसरे अथवा चौथे महीने में बच्चे को घर से बाहर निकालकर प्रथम ही किसी चैत्यालय अथवा मन्दिर में ले जाकर श्री जिनेन्द्रदेव के दर्शन श्रीफल के साथ मंगलाष्टक पाठ आदि पढ़ते हुए करना चाहिए। फिर यहीं केशर से बच्चे के ललाट में तिलक लगाना आवश्यक है। यह क्रिया योग्य मुहूर्त अथवा शुक्लपक्ष एवं शुभ नक्षत्र में सम्पन्न होनी चाहिए।

निषद्या संस्कार

जन्म से पाँचवें मास में निषद्या वा उपवेशन विधि करना चाहिए। निषद्या वा उपवेशन का अर्थ है बिठाना अर्थात पाँचवें मास में बालक को बिठाना चाहिए। प्रथम ही भूमि-शुद्धि, पूजन और हवन कर पंचबालयति तीर्थंकरों का पूजन करें। वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर – इन पाँच बालब्रह्मचारी तीर्थंकरों को कुमार या बालयति कहते हैं। अनन्तर चावल, गेहूँ, उड़द, मूँद, तिल, जवा- इनसे रंगावली चौक (रंगोली) बनाकर उस पर एक वस्त्र बिछा दें। बालक को स्नान कराकर वस्त्रालंकारों से विभूषित करें। पश्चात् 'ओं ह्रीं अहं अ सि आ उ सा नम: बालकं उपवेशयामि स्वाहा'- यह मन्त्र पढ़कर उस रंगावली पर बिछे वस्त्र पर उस बालक को पूर्व दिशा की ओर मुखकर पासन बिठाना चाहिए। अनन्तर बालक की आरती उतारकर प्रमुख जनों, विद्वानों आदि सभी का उसे आशीर्वाद प्रदान करावें।

अन्नप्राशन विधि या संस्कार अन्नप्राशन का अर्थ है कि बालक को अन्न खिलाना। इसमें बालक को अन्न खिलाने का शुभारम्भ उस अन्न द्वारा बालक की पुष्टि होने के लिए यह संस्कार किया जाता है। यह संस्कार सातवें, आठवें अथवा नौवें मास में करना चाहिए।

व्युष्टि संस्कार

व्युष्टि का अर्थ वर्ष-वृद्धि अर्थात प्रत्येक जन्म दिन के बाद उसमें एक-एक वर्ष की वृद्धि है। जिस दिन बालक का वर्ष पूर्ण हो उस दिन यह संस्कार करना चाहिए। इस संस्कार में कोई विशेष क्रिया नहीं है, केवल जन्मोत्सव मनाना है। यहाँ पर पूर्व के समान श्रीजिनेन्द्र देव की पूजा करें एवं हवन करें। नीचे लिखे मन्त्र को पढ़कर उस बालक पर पीले चावल (पुष्प) की वर्षा करें। मन्त्र- 'उपनयन जन्मवर्षवर्धनभागी भव, वैवाहनिष्ठवर्षवर्धनभागी भव, मुनीन्द्रवर्षवर्धनभागी भव, महाराज्यवर्षवर्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्धनभागी भव, आर्हन्त्यराज्यवर्षवर्धनभागी भव'। अनन्तर यथाशक्ति औषधि, शास्त्र, अभय और आहार- ये चार प्रकार के दान सुपात्रों को देकर इष्टजन तथा बन्धु-वर्गों को भोजनादि द्वारा सन्तुष्ट करना चाहिए।

चौलकर्म अथवा केशवाय संस्कार

यह संस्कार पहले, तीसरे, पाँचवें अथवा सातवें वर्ष में करना उचित है। परन्तु यदि बालक की माता गर्भवती हो तो मुण्डन करना सर्वथा अनुचित है। माता के गर्भवती होने पर यदि मुण्डन किया जाएगा तो गर्भ पर अथवा उस बालक पर कोई विपत्ति सम्भव है। यदि बालक के पाँच वर्ष पूर्ण हो गये हों तो फिर माता का गर्भ पर किसी प्रकार का दोष नहीं कर सकता अर्थात सातवें वर्ष में यदि माता गर्भवती भी हो तथापि बालक का विधिपूर्वक मुण्डन करा देना ही उचित है।

लिपिसंख्यान (विद्यारम्भ) संस्कार

लिपि संख्यान संस्कार अर्थात बालक को अक्षराभ्यास कराना। शास्त्रारम्भ यज्ञोपवीत के बाद होता है। लिपिसंख्यान संस्कार पाँचवें वर्ष में करना चाहिए। ग्रन्थकारों का मत है- 'प्राप्ते तु पंचमे वर्षें, विद्यारम्भं समाचरेत्।' अर्थात पाँचवें वर्ष में विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिए।

ततोऽस्य पंचमे वर्षे, प्रथमाक्षरदर्शने।
ज्ञेय: क्रियाविधिर्नाम्ना, लिपिसंख्यानसंग्रह:॥
यथाविभवमत्रापि, ज्ञेय: पूजापरिच्छद:।
उपाध्याय पदे चास्य, मतोऽधीती गृहव्रती॥

अर्थात लिपिसंख्यान (विद्यारम्भ) संस्कार पाँचवें वर्ष में करना चाहिए। इस संस्कार में शुभ मुहूर्त अत्यावश्यक है। योग, वार, नक्षत्र-ये सब ही शुभ अर्थात विद्यावृद्धिकर होने चाहिए। उपाध्याय (गुरु) को इस विषय का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।

उपनीति संस्कार

इस उपनीति संस्कार को उपनयन एवं यज्ञोपवीत भी कहते हैं। इसका विधान है कि यह संस्कार ब्राह्मणों को गर्भ से आठवें वर्ष में, क्षत्रियों को ग्यारहवें वर्ष में और वैश्यों को बारहवें वर्ष में करना चाहिए। यदि किसी कारण नियत समय तक उपनयन विधान न हो सका तो ब्राह्मणों की सोलह वर्ष तक, क्षत्रियों को बाईस वर्ष तक और वैश्यों को चौबीस वर्ष तक यज्ञोपवीत संस्कार कर लेना उचित हे। पूजा-प्रतिष्ठा, जप, हवन आदि करने के लिए इस संस्कार को आवश्यक बतलाया है।

व्रताचरण संस्कार

यज्ञोपवीत के पश्चात् विद्याध्ययन करने का समय है, विद्याध्ययन करते समय कटिलिंग (कमर का चिह्न), ऊरुलिंग (जंघा का चिह्न), उरोलिंग (हृदयस्थल का चिह्न) और शिरोलिंग (शिर का चिह्न) धारण करना चाहिए।

  1. कटिलिंग – इस विद्यार्थी का कटिलिंग त्रिगुणित मौजीबन्धन है जो कि पूर्वोक्त रत्नत्रय का विशुद्ध अंग और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का चिह्न है।
  2. ऊरुलिंग- इस शिष्य का ऊरुलिंग धुली हुई सफेद धोती तथा लँगोट है जो कि जैनधर्मी जनों के पवित्र विशाल कुल को सूचित करती है।
  3. उरोलिंग- इस विद्यार्थी के हृदय का चिह्न सात सूत्रों से बनाया हुआ यज्ञोपवीत है। यह यज्ञोपवीत सात परमस्थानों का सूचक है।
  4. शिरोलिंग- विद्यार्थी का शिरोलिंग शिर का मुण्डन कर शिखा (चोटी) सुरक्षित करना है। जो कि मन वचन काय की शुद्धता का सूचक है।

यज्ञोपवीत धारण करने के पश्चात नमस्कार मन्त्र को नौ बार पढ़कर इस विद्यार्थी को प्रथम ही उपासकाचार (श्रावकाचार) गुरुमुख से पढ़ना चाहिए। गुरुमुख से पढ़ने का अभिप्राय यह है कि श्रावणों की बहुत-सी ऐसी क्रियाएँ हैं जो अनेक शास्त्रों से मन्थन करने से निकलती हैं, गुरुमुख से वे सहज ही प्राप्त हो सकते हैं।

विवाह संस्कार विवाह संस्कार सोलह संस्कारों में अन्तिम एवं महत्वपूर्ण संस्कार है। सुयोग्य वर एवं कन्या के जीवन पर्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध सहयोग और दो हृदयों के अखण्ड मिलन या संगठन को विवाह कहते हैं। विवाह, विवहन, उद्वह, उद्वहन, पाणिग्रहण, पाणिपीडन- ये सब ही एकार्थवाची शब्द हैं। 'विवहनं विवाह:' ऐसा व्याकरण से शब्द सिद्ध होता है।

  • विवाह के पाँच अंग-

वाग्दानं च प्रदानं च, वरणं पाणिपीडनम्।
सप्तपदीति पंचांगो, विवाह: परिकीर्तित:॥

  1. वाग्दान (सगाई करना),
  2. प्रदान (विधिपूर्वक कन्यादान),
  3. वरण (माला द्वारा परस्पर स्वीकारना),
  4. पाणिग्रहण (कन्या एवं वर का हाथ मिलाकर, उन हाथों पर जलधारा छोड़ना),
  5. सप्तपदी (देवपूजन के साथ सात प्रदक्षिणा (फेरा) करना)- ये विवाह के पाँच अंग आचार्यों ने कहे हैं।