जैन पुराण साहित्य

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जैन पुराण साहित्य

भारतीय धर्मग्रन्थों में 'पुराण' शब्द का प्रयोग इतिहास के अर्थ में आता है। कितने विद्वानों ने इतिहास और पुराण को पंचम वेद माना है। चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में इतिवृत्त, पुराण, आख्यायिका, उदाहरण, धर्मशास्त्र तथा अर्थशास्त्र का समावेश किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि इतिहास और पुराण दोनों ही विभिन्न हैं। इतिवृत्त का उल्लेख समान होने पर भी दोनों अपनी अपनी विशेषता रखते हैं। इतिहास जहाँ घटनाओं का वर्णन कर निर्वृत हो जाता है वहाँ पुराण उनके परिणाम की ओर पाठक का चित्त आकृष्ट करता है।

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितान्येव पुराणं पंचलक्षणम्॥

जिसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंश-परम्पराओं का वर्णन हो, वह पुराण है। सर्ग, प्रतिसर्ग आदि पुराण के पाँच लक्षण हैं। तात्पर्य यह कि इतिवृत्त केवल घटित घटनाओं का उल्लेख करता है परन्तु पुराण महापुरुषों के घटित घटनाओं का उल्लेख करता हुआ उनसे प्राप्त फलाफल पुण्य-पाप का भी वर्णन करता है तथा व्यक्ति के चरित्र निर्माण की अपेक्षा बीच-बीच में नैतिक और धार्मिक शिक्षाओं का प्रदर्शन भी करता है। इतिवृत्त में जहाँ केवल वर्तमान की घटनाओं का उल्लेख रहता है वहाँ पुराण में नायक के अतीत और अनागत भवों का भी उल्लेख रहता है और वह इसलिये कि जनसाधारण समझ सके कि महापुरुष कैसे बना जा सकता है। अवनत से उन्नत बनने के लिये क्या-क्या त्याग, परोपकार और तपस्याएँ करनी पड़ती हैं। मानव के जीवन-निर्माण में पुराण का बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान है। यही कारण है कि उसमें जनसाधारण की श्रद्धा आज भी यथापूर्व अक्षुण्ण है।

वैदिक परम्परा में पुराणों और उप-पुराणों का जैसा विभाग पाया जाता है वैसा जैन परम्परा में नहीं पाया जाता। परन्तु यहाँ जो भी पुराण-साहित्य विद्यमान है वह अपने ढंग का निराला है। जहाँ अन्य पुराणकार प्राय: इतिवृत्त की यथार्थता को सुरक्षित नहीं रख सके हैं वहाँ जैन पुराणकारों ने यथार्थता को अधिक सुरक्षित रखा है। इसीलिये आज के निष्पक्ष विद्वानों का यह स्पष्ट मत है कि प्राक्कालीन भारतीय संस्कृति को जानने के लिये जैन पुराणों से उनके कथा ग्रन्थ से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह असामान्य है। यहाँ कतिपय दिगम्बर जैन पुराणों और चरित्रों की सूची इस प्रकार है-

क्रमांक - पुराणनाम - कर्ता - रचनाकाल

1.- पद्मपुराण - पद्मचरित - आचार्य रविषेण - 705

2.- महापुराण - आदिपुराण - आचार्य जिनसेन - नौवीं शती

3.- पुराण - गुणभद्र - 10वीं शती

4.- अजित - पुराण - अरुणमणि - 1716

5.- आदिपुराण - (कन्नड़) - कवि पंप --

6.- आदिपुराण - भट्टारक - चन्द्रकीर्ति - 17वीं शती

7.- आदिपुराण - भट्टारक - सकलकीर्ति - 15वीं शती

8.- उत्तरपुराण - भ0 सकलकीर्ति - 15वीं शती

9.- कर्णामृत - पुराण - केशवसेन - 1608

10.- जयकुमार - पुराण - ब्र0 कामराज - 1555

11.- चन्द्रप्रभपुराण - कवि अगासदेव - --

12.- चामुण्ड पुराण - (क0) चामुण्डराय - श0 सं0 980

13.- धर्मनाथ पुराण - (क0) कवि बाहुबली - --

14.- नेमिनाथ पुराण - ब्र0 नेमिदत्त - 1575 के लगभग

15.- पद्मनाभपुराण - भट्टारक शुभचन्द्र - 17वीं शती

16.- पउमचरिउ - (अपभ्रंश) - चतुर्मुख देव --

17.- पउमचरिउ - स्वयंभूदेव --

18.- पद्मपुराण - भ0 सोमतेन -

19.- पद्मपुराण- भ0 धर्मकीर्ति - 1656

20.- पद्मपुराण -(अपभ्रंश) - कवि रइधू - 15-16 शती

21.- पद्मपुराण - भ0 चन्द्रकीर्ति - 17वीं शती

22.- पद्मपुराण - ब्रह्म जिनदास - 13-16 शती

23.- पाण्डव पुराण - भ0 शुभचन्द्र - 1608

24.- पाण्डव पुराण - (अपभ्रंश) - भ0 यशकीर्ति - 1497

25.- पाण्डव पुराण - भ0 श्रीभूषण - 1658

26.- पाण्डव पुराण - वादिचन्द्र - 1658

27.- पार्श्वपुराण - (अपभ्रंश) - पद्मकीर्ति - 989

28.- पार्श्वपुराण - कवि रइधू - 15-16 शती

29.- पार्श्वपुराण - चन्द्रकीर्ति - 1654

30.- पार्श्वपुराण - वादिचन्द्र - 1658

31.- महापुराण - आचार्य मल्लिषेण - 1104

32.- महापुराण - (अपभ्रंश) - महाकवि पुष्पदन्त --

33.- मल्लिनाथपुराण - (क) कवि नागचन्द्र --

34.- पुराणसार - श्रीचन्द्र --

35.- महावीरपुराण (वर्धमान चरित) - असग 910

36.- महावीर पुराण - भ0 सकलकीर्ति - 15वीं शती

37.- मल्लिनाथ पुराण - सकलकीर्ति - 15वीं शती

38.- मुनिसुव्रत पुराण - ब्रह्म कृष्णदास --

39.- मुनिसुव्रत पुराण - भ0 सुरेन्द्रकीर्ति --

40.- वागर्थसंग्रह पुराण - कवि परमेष्ठी - आ0 जिनसेन के महापुराण से प्राक्

41.- शान्तिनाथ पुराण - असग - 910

42.- शान्तिनाथ पुराण - भ0 श्रीभूषण - 1658

43.- श्रीपुराण - भ0 गुणभद्र --

44.- हरिवंशपुराण - पुन्नाट संघीय - जिनसेन - श0 सं0 705

45.- हरिवंशपुराण - (अपभ्रंश) - स्वयंभूदेव -

46.- हरिवंशपुराण - तदैव - चतुर्मुख देव

47.- हरिवंशपुराण - ब्रह्म जिनदास - 15-16 शती

48.- हरिवंशपुराण - तदैव् भ0 - यश:कीर्ति - 1507

49.- हरिवंशपुराण - भ0 श्रुतकीर्ति - 1552

50.- हरिवंशपुराण - महाकवि रइधू - 15-16 शती

51.- हरिवंशपुराण - भ0 धर्मकीर्ति - 1671

52.- हरिवंशपुराण - कवि रामचन्द्र - 1560 के पूर्व

  • इनके अतिरिक्त चरित-ग्रन्थ हैं, जिनकी संख्या पुराणों की संख्या से अधिक है और जिनमें वराङ्गचरित, जिनदत्तचरित, जम्बूस्वामीचरित, जसहर चरिउ, नागकुमार चरिउ, आदि कितने ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ सम्मिलित हैं। इनमें रविषेण का पद्मपुराण, जिनसेन का महापुराण (आदिपुराण), गुणभद्र का उत्तर पुराण और पुन्नाट संघीय जिनसेन का हरिंवशपुराण विश्रुत और सर्वश्रेष्ठ पुराण माने जाते हैं, क्योंकि इनमें पुराण का पूर्ण लक्षण घटित होता है। इनकी रचना पुराण और काव्य दोनों की शैली से की गई है।

आदिपुराण

आचार्य जिनसेन (9वीं शती) द्वारा प्रणीत आदि (प्रथम) तीर्थंकर ऋषभेदेव तथा उनके सुयोग्य एवं विख्यात पुत्र भरत एवं बाहुबली के पुण्य चरित के साथ-साथ भारतीय संस्कृति तथा इतिहास के मूल स्रोतों एवं विकास क्रम को आलोकित करनेवाला अन्यत्र महत्वपूर्ण पुराण ग्रन्थ है। जैन संस्कृति एवं इतिहास के जानने के लिये इसका अध्ययन अनिवार्य है। यह पुराण ग्रन्थ के साथ एक श्रेष्ठ महाकाव्य भी है। विषय प्रतिपादन की दृष्टि से यह धर्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, सिद्धान्तशास्त्र और आर्षग्रन्थ भी माना गया है। मानव सभ्यता की आद्य व्यवस्था का प्रतिपादक होने के कारण इसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। मानव सभ्यता का विकास-क्रम, विभिन्न समूहों में उसका वर्गीकरण, धर्म विशेष के धार्मिक संस्कार आदि अनेक आयामों की इसमें विशद रूप से विवेचना की गई है। संस्कृत एवं विभिन्न भारतीय भाषाओं के परवर्ती कवियों के लिये यह मार्गदर्शक रहा है। उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों में 'तदुक्तं आर्षे' इन महत्त्वपूर्ण शब्दों के साथ उदाहरण देते हुए अपने ग्रन्थों की गरिमा वृद्धिंगत की है। वास्तव में आदिपुराण संस्कृत साहित्य का एक अनुपम ग्रन्थ है। ऐसा कोई विषय नहीं है जिसका इसमें प्रतिपादन न हो। यह पुराण है, महाकाव्य है, धर्मशास्त्र है, राजनीतिशास्त्र है, आचार शास्त्र है और युग की आद्य व्यवस्था को बतलाने वाला महान इतिहास है। आचार्य जिनसेन ने इस ग्रन्थ को 'महापुराण' नाम से रचने का संकल्प किया था। परन्तु असमय में जीवन समाप्त हो जाने से उनका वह संकल्प पूर्ण नहीं हो सका। यह आदिपुराण महापुराण का पूर्व भाग हे। इससे इसका दूसरा नाम 'पूर्वपुराण' भी प्रसिद्ध है। इसकी प्रारम्भ के 42 पर्वों और 43वें पर्व के 3 श्लोकों तक की रचना आयार्य जिनसेन के द्वारा हुई है। उनके द्वारा छोड़ा गया शेषभाग उनके प्रबुद्ध शिष्य आचार्य गुणभद्र के द्वारा रचा गया है, जो 'उत्तर पुराण' नाम से प्रसिद्ध है।

पुराणकथा और कथानायक

  • महापुराण के कथा नायक मुख्यतया प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ हैं और सामान्यतया त्रिषष्टिशलाका पुरुष हैं। 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 बलभद्र और 9 प्रतिनारायण ये 63 शलाका पुरुष कहलाते हैं। इनमें से आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभदेव और उनके पुत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत का ही वर्णन है। अन्य शलाकापुरुषों का वर्णन गुणभद्राचार्य विरचित उत्तरपुराण में है। आचार्य जिनसेन ने जिस रीति से प्रथम तीर्थंकर और भरत चक्रवर्ती का वर्णन किया है, यदि वह जीवित रहते और उसी रीति से अन्य कथानायकों का वर्णन करते तो यह महापुराण संसार के समस्त पुराणों और काव्यों में महान होता।
  • भगवान् वृषभदेव इस अवसर्पिणी (अवनति) काल के 24 तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर हैं। तृतीय काल के अन्त में जब भोगभूमि की व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी और कर्मभूमि की रचना का प्रारम्भ होनेवाला था, उस सन्धि काल में अयोध्या के अन्तिम कुलकर-मनु श्री नाभिराज के घर उनकी पत्नी मरुदेवी से इनका जन्म हुआ। आप जन्म से ही विलक्षण प्रतिभा के धारी थे। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के बाद जब बिना बोये उपजने वाली धान का उपजना भी बन्द हो गया तब लोग भूख-प्यास से व्याकुल हो श्री नाभिराज के पास पहुँचे। नाभिराज शरणागत लोगों को श्री वृषभदेव के पास ले गये। लोगों की करुणदशा देख उनकी अन्तरात्मा द्रवीभूत हो गयी। उन्होंने अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की व्यवस्था जानकर यहाँ भी भरतक्षेत्र में असि, मषी, कृषि, विद्या, वाणिज्य, और शिल्प-इन षट्कर्मों का उपदेश कर उस युग की व्यवस्था को सुखदायक बनाया।
  • पिता नाभिराज के आग्रह से उन्होंने कच्छ एवं महाकच्छ राजाओं की बहनों यशस्वती और सुनन्दा के साथ विवाह किया। उन्हें यशस्वती से भरत आदि सौ पुत्र तथा ब्राह्मी नामक पुत्री की प्राप्ति हुई और सुनन्दा से बाहुबली पुत्र और सुन्दरी नामक पुत्री की उपलब्धि हुई। गार्हस्थ धर्म का निर्वाह किया। जीवन के अन्त में उन्होंने प्रव्रज्या-गृहत्याग कर तपस्या करते हुए कैवल्य प्राप्त किया तथा संसार-सागर से पार करनेवाला पारमार्थिक (मोक्षमार्ग का) उपदेश दिया। तृतीय काल में जब तीन वर्ष आठ माह और 15 दिन बाकी थे, तब कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया।

उत्तरपुराण

  • महापुराण का पूर्वार्द्ध आदिपुराण तथा उत्तरपुराण उत्तर भाग है। उत्तरपुराण में द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर तक 23 तीर्थंकरों, भरत को छोड़कर शेष 11 चक्रवर्तियों, 9 बलभद्रों, 9 नारायणों और 9 प्रतिनारायणों का चरित्र चित्रण है। यह 43 वें पर्व के चौथे श्लोक से लेकर 47वें पर्व तक गुणभद्राचार्य के द्वारा रचित है। गुणभद्राचार्य ने प्रारम्भ में अपने गुरु जिनसेनाचार्य के प्रति जो श्रद्धा-सुमन प्रकट किये हैं वे बड़े मर्मस्पर्शी हैं। आठवें, सोलहवें, बाईसवें, तेईसवें और चौबीसवें तीर्थंकरों को छोड़कर अन्य तीर्थंकरों के चरित्र यद्यपि अत्यन्त संक्षेप में लिखे गये हैं, परन्तु वर्णन शैली की मधुरता से वह संक्षेप भी रुचिकर प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ में न केवल पौराणिक कथानक ही है किन्तु कुछ ऐसे भी स्थल हैं, जिनमें सिद्धान्त की दृष्टि से सम्यग्दर्शनादि का और दार्शनिक दृष्टि से सृष्टि कर्तृत्व आदि विषयों का भी विशेष विवेचन हुआ है।
  • इसकी रचना वङ्कापुर में हुई थी। यह वंकापुर स्व0 पं॰ भुजबली शास्त्री के उल्लेखानुसार पूना, बेंगलूर रेलवे लाइन में हरिहर स्टेशन के समीप वर्ली हावेरी रेलवे जंक्शन से 15 मील पर धारवाड़ ज़िले में है। वहाँ शक संवत् 819 में गुणभद्राचार्य ने इसे पूरा किया था। आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने 67 और उत्तरपुराण में गुणभद्राचार्य ने 16 संस्कृत छन्दों का प्रयोग किया है। 32 अक्षर वाले अनुष्टुप् श्लोक की अपेक्षा आदिपुराण और उत्तरपुराण का ग्रन्थ परिमाण बीस हज़ार के लगभग है। उत्तरपुराण की प्रस्तावना में इसका परिमाण स्पष्ट किया है।
  • शलाकापुरुषों के सिवाय उत्तर पुराण में लोकप्रिय जीवन्धर स्वामी का भी चरित्र दिया गया है। अन्त में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का वर्णन एवं महावीर स्वामी की शिष्य-परम्परा का भी वर्णन विशेष ज्ञातव्य है।
  • उत्तरपुराण के भी सुसम्पादित एवं सानुवाद तीन संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली से प्रकाशित हो चुके हैं। इसके भी संपादक और अनुवादक डा॰ (पं॰) पन्न्लाल साहित्याचार्य सागर है, जो स्वयं इस लेख के लेखक हैं।


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