तुलसीदास

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गोस्वामी तुलसीदास

गोस्वामी तुलसीदास [१४९७ (१५३२?) - १६२३] एक महान कवि थे । उनका जन्म राजापुर, (वर्तमान बाँदा जिला) उत्तर-प्रदेश में हुआ था । अपने जीवनकाल में तुलसीदासजी ने १२ ग्रन्थ लिखे और उन्हें संस्कृत विद्वान् होने के साथ ही हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ट कवियों में एक माना जाता है । तुलसीदासजी को महर्षि वाल्मीकि का भी अवतार माना जाता है जो मूल आदि काव्य रामायण के रचयिता थे। श्रीरामजी को समर्पित ग्रन्थ श्री राम चरित मानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारांतर से अवधी भाषांतर था जिसे समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। विनय पत्रिका तुलसीदासकृत एक अन्य महत्त्वपूर्ण काव्य है।

भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहनेवाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे अयोध्या ( उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक जिला है।) ले गये और वहाँ संवत्‌ १५६१ माघ शुकला पञ्चमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया । बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये । इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी । एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था । वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह काशी चले आये । काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक वेद-वेदांग का अध्ययन किया । इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत्‌ हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये । वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है । उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध् किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे ।

जब पट खोला गया तो उसपर लिखा हुआ पाया गया- 'सत्यं शिवं सुन्दरम्‌' और नीचे भगवान्‌ शंकर की सही थी । उस समय उपस्थित लोगोंने 'सत्यं शिवं सुन्दरम्‌' की आवाज भी कानोंसे सुनी । इधर पण्डितोंने जब यह बात सुनी तो उनके मनमें ईर्ष्या उत्पन्न हुई । वे दल बाँधकर तुलसीदासजीकी निन्दा करने लगे और उस पुस्तकको नष्ट कर देनेका प्रयत्न करने लगे । उन्होने पुस्तक चुरानेके लिये दो चोर भेजे । चोरोंने जाकर देखा कि तुलसीदासजीकी कुटीके आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं । वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्णके थे। उनके दर्शनसे चोरोंकी बुद्धि शुद्ध हो गयी । उन्होंने उसी समयसे चोरी करना छोड़ दिया और भजनमें लग गये। तुलसीदासजीने अपने लिये भगवान्‌को कष्ट हुआ जान कुटीका सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी । इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी । उसीके आधारपर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं । पुस्तकका प्रचार दिनोंदिन बढ़ने लगा । इधर पण्डितोंने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वतीजी को उस पुस्तकको देखनेकी प्रेरणा की । श्रीमधुसूदन सरस्वतीजीने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उसपर यह सम्मति लिख दी- आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः। कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

अपने दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएं कीं - रामललानहछू, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, जानकी-मंगल, रामचरितमानस, सतसई, पार्वती-मंगल, गीतावली, विनय-पत्रिका, कृष्ण-गीतावली, बरवै रामायण, दोहावली और कवितावली (बाहुक सहित) । इनमें से रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में यह आर्षवाणी सही घटित होती है - पश्य देवस्य काव्यं, न ममार न जीर्यति ।