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==नवरात्रि / शारदीय नवरात्र / Navratri==
 
आश्विन शु0 1 से नवमी तक नवरात्रि का त्यौहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है । नवरात्रि में देवी माँ के व्रत रखे जाते हैं । स्थान–स्थान पर देवी माँ की मूर्तियाँ बनाकर उनकी विशेष पूजा की जाती हैं । घरों में भी अनेक स्थानों पर कलश स्थापना कर[[दुर्गा]] सप्तशती पाठ आदि होते हैं । [[नरीसेमरी]] में देवी माँ की जोत के लिए श्रृद्धालु आते हैं और पूरे नवरात्रि के दिनों में भारी मेला रहता है ।
 
==प्रथम शैलपुत्री==
 
शारदीय नवरात्र  आरम्भ होने पर इस दिन कलश स्थापना के साथ ही माँ दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है। पहले दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती है। पर्वतराज [[हिमालय]] के यहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा था। भगवती का वाहन वृषभ, दाहिने हाथ में त्रिशूल, और बायें हाथ में कमल सुशोभित है। अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति [[दक्ष]] की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम [[सती]] था। इनका विवाह भगवान [[शंकर]]जी से हुआ था। एक बार वह अपने पिता के यज्ञ में गईं तो वहाँ अपने पति भगवान शंकर के अपमान को सह न सकीं। उन्होंने वहीं अपने शरीर को योगाग्नि में भस्म कर दिया। अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं। इस जन्म में भी शैलपुत्री देवी [[शिव]]जी की ही अर्द्धांगिनी बनीं। नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री का महत्व और शक्तियाँ अनन्त हैं। नवरात्र पूजन में प्रथम दिन इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस दिन उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योगसाधना का आरम्भ होता है। इस स्वरूप का आज के दिन पूजन किया जाता है। आवाहन, स्थापन और विसर्जन ये तीनों आज प्रात:काल ही होंगे। किसी एकान्त स्थान पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ गेंहू बोये जाते हैं। उस पर कलश स्थापित किया जाता है। कलश पर मूर्ति की स्थापना होती है। मूर्ति किसी भी धातु या मिट्टी की हो सकती है। कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके युग्म पार्श्व में त्रिशूल बनायें। शैलपुत्री के पूजन करने से 'मूलाधार चक्र' जाग्रत होता है। जिससे अनेक प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं।
 
 
 
'''ध्यान'''
 
 
 
वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।<br/ >
 
वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥<br/ >
 
पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥<br/ >
 
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥<br/ >
 
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।<br/ >
 
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥<br/ >
 
 
 
'''स्तोत्र पाठ'''
 
 
 
प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्।<br/ >
 
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥<br/ >
 
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।<br/ >
 
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥<br/ >
 
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह: विनाशिन।<br/ >
 
मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥<br/ >
 
 
 
'''कवच'''
 
 
 
ओमकार: में शिर: पातु मूलाधार निवासिनी।<br/ >
 
हींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥<br/ >
 
श्रींकार पातु वदने लावाण्या महेश्वरी ।<br/ >
 
हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।<br/ >
 
फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥<br/ >
 
==सती की कथा==
 
शैलपुत्री के पूजन से मूलाधार चक्र जाग्रत होता है। [[मार्केण्डेय पुराण]] के अनुसार यहीं नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। अपने पूर्व जन्म में प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुईं थी। तब इनका नाम 'सती' था। इनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सभी देवताओं को यज्ञ भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया लेकिन शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञ में निमंत्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहां जाने की लिए मन विकल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकर जी को बतायी। उन्होंने कहा प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रूष्ट हैं, अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है उनके यज्ञ भाग भी उन्हें समर्पित किये हैं, किन्तु हमें नहीं बुलाया है। ऐसी परिस्थिति में तुम्हारा वहां जाना श्रेयस्कर नहीं होगा। शंकर जी के इस उपदेश से सती को बोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, माता और बहनों से मिलने की व्यग्रता और उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकर ने उन्हें वहां जाने की आज्ञा दे दी। सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बात नहीं कर रहा है। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास का भाव था। परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को संताप हुआ। उन्होंने यह भी देखा कि वहां चतुर्दिक भगवान शंकर के प्रति तिरस्कार का भाव भरा था। दक्ष ने उनके पति शंकरजी के प्रति कुछ अपमानजनक  वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से भर उठा। उन्हें लगा भगवान शंकर की बात न मान यहां आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।  वह अपने पति का अपमान सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान उस दारूण दु:खद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध होकर अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णत: विध्वंस करा दिया। सती ने अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रुप में जन्म लिया। इस बार वह शैलपुत्री के नाम से विख्यात हुईं। पार्वती, हेमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद् की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हेमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व भंजन किया था।
 
==द्वितीयं ब्रह्मचारिणी==
 
माँ दुर्गा की नवशक्तियों का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। यहाँ ब्रह्म शब्द का अर्थ तपस्या है। ब्रह्मचारिणी अर्थात तप की चारिणी–तप का आचरण करने वाली। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल है। अपने पूर्व जन्म में जब ये [[हिमालय]] के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं, तब [[नारद]] के उपदेश से इन्होंने भगवान [[शंकर]]जी को प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या की थी। इसी दुष्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। माँ दुर्गा का यह दूसरा स्वरूप भक्तों व सिद्धों को अनन्त फल देने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार व संयम की वृद्धि होती है। जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्त्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता। माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में होता है। इस चक्र में अवस्थित मनवाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।
 
==तृतीय चंद्रघंटा==
 
माँ दुर्गा की तृतीय शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। नवरात्रि विग्रह के तीसरे दिन इन का पूजन किया जाता है। माँ का यह स्वरूप शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके माथे पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी लिए इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। इनका शरीर स्वर्ण के समान उज्जवल है, इनके दस हाथ हैं। दसों हाथों में खड्ग, बाण आदि शस्त्र सुशोभित रहते हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युध्द के लिए उद्यत रहने वाली है। इनके घंटे की भयानक चडंध्वनि से दानव, अत्याचारी, दैत्य, राक्षस डरते रहते हैं। नवरात्रि की तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्व है। इस दिन साधक का मन मणिपुर चक्र में प्रविष्ट होता है। मां चंद्रघंटा की कृपा से साधक को अलौकिक दर्शन होते हैं, दिव्य सुगन्ध और विविध दिव्य ध्वनियाँ सुनायी देती हैं। माँ चंद्रघंटा की कृपा से साधक की समस्त बाधायें हट जाती हैं।
 
 
 
'''ध्यान'''
 
 
 
वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्।<br/ >
 
सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥<br/ >
 
मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।<br/ >
 
खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥<br/ >
 
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।<br/ >
 
मंजीर हार केयूर,किंकिणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम॥<br/ >
 
प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुगं कुचाम्।<br/ >
 
कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥<br/ >
 
 
 
'''स्तोत्र पाठ'''
 
 
 
आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्।<br/ >
 
अणिमादि सिध्दिदात्री चंद्रघटा प्रणमाभ्यम्॥<br/ >
 
चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टं मंत्र स्वरूपणीम्।<br/ >
 
धनदात्री, आनन्ददात्री चन्द्रघंटे प्रणमाभ्यहम्॥<br/ >
 
नानारूपधारिणी इच्छानयी ऐश्वर्यदायनीम्।<br/ >
 
सौभाग्यारोग्यदायिनी चंद्रघंटप्रणमाभ्यहम्॥<br/ >
 
 
 
'''कवच'''
 
 
 
रहस्यं श्रुणु वक्ष्यामि शैवेशी कमलानने।<br/ >
 
श्री चन्द्रघन्टास्य कवचं सर्वसिध्दिदायकम्॥<br/ >
 
बिना न्यासं बिना विनियोगं बिना शापोध्दा बिना होमं।<br/ >
 
स्नानं शौचादि नास्ति श्रध्दामात्रेण सिध्दिदाम॥<br/ >
 
कुशिष्याम कुटिलाय वंचकाय निन्दकाय च न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचितम्॥<br/ >
 
भगवती चन्द्रघन्टा का ध्यान, स्तोत्र और कवच  का पाठ करने से मणिपुर चक्र जाग्रत हो जाता है और सांसारिक परेशानियों से मुक्ति मिल जाती है।
 
==चतुर्थ कूष्माण्डा==
 
माँ दुर्गा के चौथे स्वरूप का नाम कूष्माण्डा है। अपनी मन्द हंसी से अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारंण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से जाना जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्ड
 
कूम्हडे को कहा जाता है, कूम्हडे की बलि इन्हें प्रिय है, इस कारण से भी इन्हें कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है। जब सृष्टि नहीं थी और चारों ओर
 
अंधकार ही अंधकार था तब इन्होनें ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी। यह सृष्टि की आदिस्वरूपा हैं और आदिशक्ति भी। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। सूर्यलोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। नवरात्र के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की पूजा की जाती है। साधक इस दिन अनाहत चक्र में अवस्थित होता है। अतः इस दिन पवित्र मन से माँ के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजन करना चाहिए। माँ कूष्माण्डा देवी की पूजा से भक्त के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। माँ की भक्ति से आयु, यश, बल और स्वास्थ्य की वृध्दि होती है। इनकी आठ भुजायें हैं इसीलिए इन्हें अष्टभुजा कहा जाता है। इनके सात हाथों में कमण्डल, धनुष,बाण, कमल पुष्प, अमृतपूर्ण कलश,चक्र तथा गदा है। आठ्वें हाथ में सभी सिध्दियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। कूष्माण्डा देवी अल्पसेवा और अल्पभक्ति से ही प्रसन्न हो जाती हैं। यदि साधक सच्चे मन से इनका शरणागत बन जाये तो उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो जाती है।
 
 
 
'''ध्यान'''
 
 
 
वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।<br/ >
 
सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्वनीम्॥<br/ >
 
भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।<br/ >
 
कमण्डलु, चाप, बाण, पदमसुधाकलश, चक्र, गदा, जपवटीधराम्॥<br/ >
 
पटाम्बर परिधानां कमनीयां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।<br/ >
 
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल, मण्डिताम्॥<br/ >
 
प्रफुल्ल वदनांचारू चिबुकां कांत कपोलां तुंग कुचाम्।<br/ >
 
कोमलांगी स्मेरमुखी श्रीकंटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥<br/ >
 
 
 
'''स्तोत्र पाठ'''
 
 
 
दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दरिद्रादि विनाशनीम्।<br/ >
 
जयंदा धनदा कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥<br/ >
 
जगतमाता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।<br/ >
 
चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥<br/ >
 
त्रैलोक्यसुन्दरी त्वंहिदुःख शोक निवारिणीम्।<br/ >
 
परमानन्दमयी, कूष्माण्डे प्रणमाभ्यहम्॥<br/ >
 
 
 
'''कवच'''
 
 
 
हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।<br/ >
 
हसलकरीं नेत्रेच, हसरौश्च ललाटकम्॥<br/ >
 
कौमारी पातु सर्वगात्रे, वाराही उत्तरे तथा,पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।<br/ >
 
दिगिव्दिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजं सर्वदावतु॥<br/ > 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
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{{साँचा:पर्व और त्यौहार}}
 
[[category:कोश]]
 
[[category:पर्व और त्यौहार]]
 

०३:१४, १३ मार्च २०१० के समय का अवतरण

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