नहुष

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नहुष ( Nahusha )

त्रिशिरा का वध करने के कारण इन्द्र को ब्रह्महत्या का दोष लगा और वे इस महादोष के कारण स्वर्ग छोड़कर किसी अज्ञात स्थान में जा छुपे । इन्द्रासन खाली न रहने पाये इसलिये देवताओं ने मिलकर पृथ्वी के धर्मात्मा राजा नहुष को इन्द्र के पद पर आसीन कर दिया । "नहुष अब समस्त देवता, ऋषि और गन्धर्वों से शक्‍ति प्राप्त कर स्वर्ग का भोग करने लगे । अकस्मात् एक दिन उनकी द‍ृष्टि इन्द्र की साध्वी पत्‍नी शची पर पड़ी । शची को देखते ही वे कामान्ध हो उठे और उसे प्राप्त करने का हर सम्भव प्रयत्‍न करने लगे । जब शची को नहुष की बुरी नीयत का आभास हुआ तो वह भयभीत होकर देव-गुरु वृहस्पति के शरण में जा पहुँची और नहुष की कामेच्छा के विषय में बताते हुये कहा, "हे गुरुदेव! अब आप ही मेरे सतीत्व की रक्षा करें ।" गुरु वृहस्पति ने सान्त्वना दी, "हे इन्द्राणी ! तुम चिन्ता न करो । यहाँ मेरे पास रह कर तुम सभी प्रकार से सुरक्षित हो ।" इस प्रकार शची गुरुदेव के पास रहने लगी और वृहस्पति इन्द्र की खोज करवाने लगे । "अन्त में अग्निदेव ने एक कमल की नाल में सूक्ष्मरूप धारण करके छुपे हुये इन्द्र को खोज निकाला और उन्हें देवगुरु वृहस्पति के पास ले आये । इन्द्र पर लगे ब्रह्महत्या के दोष के निवारणार्थ देव-गुरु वृहस्पति ने उनसे अश्‍वमेघ यज्ञ करवाया । उस यज्ञ से इन्द्र पर लगा ब्रह्महत्या का दोष चार भागों मे बँट गया । एक भाग वृक्ष को दिया गया जिसने गोंद का रूप धारण कर लिया । दूसरे भाग को नदियों को दिया गया जिसने फेन का रूप धारण कर लिया । तीसरे भाग को पृथ्वी को दिया गया जिसने पर्वतों का रूप धारण कर लिया और चौथा भाग स्त्रियों को प्राप्त हुआ जिससे वे रजस्वला होने लगीं । "इस प्रकार इन्द्र का ब्रह्महत्या के दोष का निवारण हो जाने पर वे पुनः शक्‍ति सम्पन्न हो गये किन्तु इन्द्रासन पर नहुष के होने के कारण उनकी पूर्ण शक्‍ति वापस न मिल पाई । इसलिये उन्होंने अपनी पत्‍नी शची से कहा कि तुम नहुष को आज रात में मिलने का संकेत दे दो किन्तु यह कहना कि वह तुमसे मिलने के लिये सप्तर्षियों की पालकी पर बैठ कर आये । शची के संकेत के अनुसार रात्रि में नहुष सप्तर्षियों की पालकी पर बैठ कर शची से मिलने के लिये जाने लगा । सप्तर्षियों को धीरे-धीरे चलते देख कर उसने 'सर्प-सर्प' (शीघ्र चलो) कह कर अगस्त्य मुनि को एक लात मारी । इस पर अगस्त्य मुनि ने क्रोधित होकर उसे शाप दे दिया कि मूर्ख ! तेरा धर्म नष्ट हो और तू दस हजार वर्षों तक सर्प योनि में पड़ा रहे । ऋषि के शाप देते ही नहुष सर्प बन कर पृथ्वी पर गिर पड़ा और देवराज इन्द्र को उनका इन्द्रासन पुनः प्राप्त हो गया ।"