नृत्य-नाट्य कला

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नृत्य एवं नाट्य कलाएँ / Dance and Drama

ब्रज की आदि कालीन नृत्य एवं नाट्य कलाओं के प्रेरणा-स्त्रोत श्री कृष्ण थे। नृत्य का उत्कृष्ट रूप नृत्य-नाट्य है, जो वस्तुत: गायन, वादन, नृत्य एवं नाट्य कलाओं का संगम हैं। श्रीकृष्ण ने ब्रज की गोप-बालाओं के साथ जो नृत्य-नाट्य किया था, उसे 'रास' कहा गया है। आधुनिक विद्वानों का मत हैं, 'रास' शब्द कृष्ण-काल में प्रचलित नहीं था ; उसका प्रचलन बहुत बाद में हुआ। 'रास' शब्द के सर्वाधिक प्रचार का श्रेय श्रीमद्भागवत की 'रास-पंचाध्यायी' को है, जिसकी रचना गुप्त काल से पहिले की नहीं मानी जाती है। कुछ विद्वान 'रास' का पूर्व रूप 'हल्लीसक' मानते है। 'रास' और 'हल्लीसक' पृथक्-पृथक् परंपराएँ थी। जो बाद में एक-दूसरे से संबंद्ध हो गई थीं। इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य-नाट्य का आरंभिक नाम 'हल्लीसक' नहीं था। उसके लिए सदा से 'रास' शब्द ही लोक में प्रचलित रहा है। ऐसा ज्ञात होता है 'रास' की पहिले मौखिक परंपरा थी, जो प्रचुर काल तक विद्यमान रही थी। उसी मौखिक और लोक प्रचलित शब्द को 'भागवत' कार ने साहित्य में अमर-कर दिया था।

कृष्णोत्तर काल से मौर्य-पूर्व काल तक की स्थिति

श्रीकृष्ण द्वारा प्रचलित तथाकथित 'रास' आरंभ में ब्रज का एक लोक-नृत्य अथवा लोक नृत्य-नाट्य था, जो पुरातन ब्रजवासियों के मनोविनोद का साधन था। जब कृष्णोपासना का प्रचार हुआ, तब 'रास' को भी धार्मिक महत्व प्राप्त हो गया था। उस समय लोक के साथ धर्म के क्षेत्र में भी रास का प्रवेश हो गया था। कृष्णोपासक भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मो ने 'रास' की धार्मिक महत्व को स्वीकार किया था, और श्रीमद्भागवत ने उसके गौरव को बढ़ाया था।


प्राचीन ब्रज में बुद्ध एवं महावीर द्वारा प्रवर्तित बौद्ध तथा जैन धर्मो का प्रचार हुआ, तब भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मों का प्रभाव कुछ कम हो गया था। फलत: कृष्णोपासना तथा 'रास' के धार्मिक महत्व में भी कमी आ गई थी। उसका एक बड़ा कारण यह था कि बौद्ध और जैन धर्म वैराग्य एंव निवृत्ति प्रधान थे; जिनकी धार्मिक मान्यता में कृष्णोपासना एवं 'रास' के लिए कोई समुचित स्थान नहीं था। बौद्ध-जैन धर्मों को कुछ समय पश्चात ही अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना पड़ा था। तब उनके द्वारा नृत्य-नाट्य के धार्मिक स्वरूप को प्रश्रय प्रदान किया गया। उस परिवर्तन का प्रभाव प्राचीन ब्रज में दिखलाई देने लगा था। फलत: पौराणिक हिंदू धर्मों के मंदिर-देवालयों की भाँति बौद्ध-जैन धर्मो के उपासनालयों एवं पूजा-गृहों में भी नृत्य-नाट्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। इसका प्रमाण तत्कालीन साहित्यिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक उल्लेखों और स्थापत्य की कलाकृतियों में मिलता है। जहाँ तक 'रास' का संबंध हैं, उसकी स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ कलाकृतियों में उसके रूप का आभास होता है।

नृत्यनाट्य का महान ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र'

इस ग्रंथ के रचयिता महामुनि भरत माने गये हैं, जो विक्रम-पूर्व की छठी शती के लगभग हुए थे। किंतु यह ग्रंथ आजकल जिस रूप में उपलब्ध हैं, वह न तो भरत के काल का हैं, और न उनकी मूल रचना ही है। महामुनि ने विक्रम-पूर्व की छठी शती में इस ग्रंथ का जो मूल स्वरूप निश्चित किया था, उसे परवर्ती नाटयाचार्यों ने समय-समय पर पर्याप्त परिवर्धित कर दिया था। इसके अत: साक्ष्य से ही ज्ञात होता है कि इस ग्रंथ का विस्तार कोहलादि आचार्यों द्वारा किया गया था।


वर्तमान नाट्य-शास्त्र में भरत मुनि के कृतित्व के साथ ही साथ उनके पश्चात की कई शताब्दियों का भी ज्ञान-भंडार सुरक्षित हैं। इस प्रकार यह एक संग्रह-ग्रंथ जैसा हैं, जिसे विक्रम पूर्व की द्वितीय शती से लेकर विक्रम-पश्चात की प्रथम शती तक के किसी काल में संकलित किया गया था। इसे यह रूप किसने और कब प्रदान किया, इसके संबंध में बड़ा मतभेद हैं। भरतमुनि के मूल ग्रंथ के कारण उनका नाम नाट्य-संसार में इतना प्रसिद्ध हुआ कि नाट्य कर्म करने वाले कलाकारों का एक वर्ग ही 'भरत' कहलाने लगा था। उसके कारण भरत व्यक्तिवाची न होकर जातिवाची नाम हो गया था, जो 'नट' का पर्याय था। 'नाट्य शास्त्र' का संकलयिता भी कोई भरत जाति का नाट्याचार्य था, जो आदि भरत से निश्चत ही भिन्न था। प्रस्तुत नाट्य शास्त्र यद्यपि संकलन ग्रंथ है, तथापि इसमें आदि भरत का कृतित्व भी किसी न किसी रूप में समाविष्ट हैं; इसलिए लोक में यह महामुनि भरत की रचना के नाम से ही प्रसिद्ध है। ऐसा अनुमान होता है, 'नाट्य शास्त्र' का वर्तमान रूप शुंग काल में अथवा उसके निकट के किसी युग में निश्चित किया गया होगा। यद्यपि इस ग्रंथ का प्रमुख प्रतिपाद्य 'नाट्य' है; तथापि इसमें आनुषंगिक रूप से नृत्य, गान, वाद्य, काव्य आदि कलाओं का भी सैद्वांतिक विवेजन किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ के प्रस्तुतीकरण के समय उक्त सभी कलाओं का पर्याप्त विकास हो चुका था।


इस ग्रंथ के कई संस्करण मिलते हैं, जिनमें पाठ और अध्यायों की संख्या में अंतर है। किसी संस्करण में 36 अध्याय हैं, और किसी में 37 अथवा और अधिक हैं। ग्रंथ के आरंभ में नाट्योत्पत्ति और मंडप-विधान का उल्लेख है। फिर नृत्य, रस, भावादि के वर्णन के साथ अभिनय का विशद विवेचन किया गया है। उसके साथ-साथ छंद, अंलकार नाट्य के दश रूप, वृत्ति, नायक-नायिकाभेद और गान-वाद्यादि विषयों का भी उल्लेख है।

नाट्य मंडप

नाट्य कला के आवश्यक उपादानों में 'नाट्य मंडप' अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इनमें ही प्रेक्षकों के समक्ष नाट्याभिनय का प्रदर्शन किया जाता है। 'नाट्य शास्त्र' के प्रथम अध्याय में नाट्योत्पत्ति का उल्लेख करने के उपरांत द्वितीय अध्याय में 'मंडप विधान' के नाम से इसी विषय का कथन किया गया है, जो इसकी महत्ता का परिचायक है। इससे संबंधित सभी बातों का उल्लेख ऐसे विस्तार से किया है, जिससे सिद्ध होता है कि प्राचीन काल में भारत के नाट्य मंडप वैज्ञानिक विधि से निर्मित किये जाने लगे और वे सर्वांगपूर्ण होते थे। उस काल के नाट्य मंडपों को नाट्य शाला, रंग शाला अथवा प्रेक्षागृह भी कहा जाता था।


आकार-प्रकार की दृष्टि से भरत मुनि ने नाट्य मंडपों के तीन वर्ग बतलाये हैं, जिन्हे ज्येष्ठ (विकृष्ठ), मध्यम (चतुरस्त) और अतर (त्रयस्त) कहा है। उनका माप क्रमश: 108,64, और 32 हाथ का बतलाया गया है। उनमें से मध्यम आकार के मंडप को व्यवहारोपयोगी माना है। भरत मुनि ने नाट्य मंडपों को पहाड़ी गुफ़ा की तरह के और द्विभूमिक (दो खंडों के) बनाने का निर्देश दिया है।(2,87) 64) हाथ के माप वाले मध्यमाकार के नाट्य मंडप भी द्विभूमिक बनाये जाते थे। उनका पूर्वी खंड प्रेक्षागृह के रूप में प्रेक्षकों के लिए और पश्चिमी खंड रंगमंच के रूप में अभिनय के लिए होता था। पश्चिमी खंड के दो भाग किये जाते थे। आगे के भाग में 'रंग शीर्ष' और पीछे के भाग में 'नेपथ्य गृह' की व्यवस्था की जाती थी (2,33-35)। उन दोनों के बीच में 'जवनिका' अर्थात् पर्दे की व्यवस्था की जाती थी। नेपथ्य गृह का धरातल आगे के रंगमंच से कुछ ऊँचा होता था। प्रेक्षकों के बैठने के भाग प्रेक्षागृह को 'प्रेक्षक निवेशनम्' भी कहते थे। उसे सीढ़ीदार बनाया जाता था, ताकि आगे-पीछे बैठने वाली सभी प्रेक्षक नाट्याभिनय को अच्छी तरह से देख सकें। चूँकि इस प्रकार के आयोजन समाज-सापेक्ष होते थे, अत: उनके प्रेक्षकों को 'सामाजिक' भी कहा जाता था।


नाट्य मंडपों को राज-भवनों में, मंदिर-देवालयों में और सार्वजनिक स्थानों में बनाया जाता था। राज-भवनों के नाट्य मंडप केवल राज-भवन और दरबार से संबंधित व्यक्तियों के लिए होते थे, किंतु मंदिरों ओर सार्वजनिक स्थानों के मंडप सब के उपयोग में आते थे। उत्सव त्योहारों और विशिष्ट अवसरों पर नाट्ययाभिनय के सुंदर प्रदर्शन किये जाते थे, जिन्हे बहुत बड़ी संख्या में नर-नारी देखते थे।