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पाणिनि ने व्यवहार में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं के नाम सिद्ध करने के लिए सूत्रों का निर्माण किया है। इन वस्तुओं का सम्बन्ध शास्त्रों से न होकर लोक–संस्कृति से है। उदाहरणार्थ– जितना अनाज एक खेत में बोया जाता है, उतने से उसका नामकरण पाणिनि ने किया है। प्रास्थिक, द्रौणिक तथा खारीक आदि शब्द इसी नियम से बनते हैं।<balloon title="तस्य वापः 5.1.45" style=color:blue>*</balloon> अष्टाध्यायी में उस समय प्रचलित ऐसे मुहावरे का प्रयोग है जो संस्कृत को लोकभाषा सिद्ध करते हैं। विविध प्रयोग इसे स्पष्ट सिद्ध करते हैं। शय्योत्थानं धावति–सेज से सीधे उठकर दौड़ता है।<balloon title="3.4.52" style=color:blue>*</balloon> अर्थात् शीघ्रता के कारण वह अन्य आवश्यक कार्यों की परवाह किए बिना दौड़ता है।
 
पाणिनि ने व्यवहार में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं के नाम सिद्ध करने के लिए सूत्रों का निर्माण किया है। इन वस्तुओं का सम्बन्ध शास्त्रों से न होकर लोक–संस्कृति से है। उदाहरणार्थ– जितना अनाज एक खेत में बोया जाता है, उतने से उसका नामकरण पाणिनि ने किया है। प्रास्थिक, द्रौणिक तथा खारीक आदि शब्द इसी नियम से बनते हैं।<balloon title="तस्य वापः 5.1.45" style=color:blue>*</balloon> अष्टाध्यायी में उस समय प्रचलित ऐसे मुहावरे का प्रयोग है जो संस्कृत को लोकभाषा सिद्ध करते हैं। विविध प्रयोग इसे स्पष्ट सिद्ध करते हैं। शय्योत्थानं धावति–सेज से सीधे उठकर दौड़ता है।<balloon title="3.4.52" style=color:blue>*</balloon> अर्थात् शीघ्रता के कारण वह अन्य आवश्यक कार्यों की परवाह किए बिना दौड़ता है।
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==ग्रन्थ==
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पाणिनि ने पूर्वाचार्यों के द्वारा निर्दिष्ट प्रभूत संज्ञाओं का प्रयोग अपने ग्रन्थ में किया है, परन्तु लाघव के निमित्त उन्होंने अनेक स्वोपज्ञ संज्ञाएं उद्भवित की हैं जैसे 'घु' संज्ञा– दाधाघ्वदाप्<balloon title="1.1.20" style=color:blue>*</balloon>, 'घ' संज्ञा– तरतमपौ घः<balloon title="1.1.22" style=color:blue>*</balloon>, वृद्ध संज्ञा – वृद्धो यूना<balloon title="1.2.65" style=color:blue>*</balloon> गोत्र संज्ञा – अपत्यं पौत्रपुभृति गोत्रम्।<balloon title="4.1.162" style=color:blue>*</balloon>
  
  

०८:१६, ११ मार्च २०१० का अवतरण

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पाणिनि / Panini

पाणिनि (500 ई पू) संस्कृत व्याकरण शास्त्र के सबसे बड़े प्रतिष्ठाता और नियामक आचार्य थे। इनका जन्म पंजाब के शालातुला में हुआ था जो आधुनिक पेशावर (पाकिस्तान) के क़रीब तत्कालीन उत्तर पश्चिम भारत के गांधार में हुआ था। इनका जीवनकाल 520-460 ईसा पूर्व माना जाता है। इनके व्याकरण को अष्टाध्यायी कहते हैं। इन्होंने भाषा के शुद्ध प्रयोगों की सीमा का निर्धारण किया, जो प्रयोग अष्टाधायायी की कसौटी पर खरे नहीं उतरे उन्हें विद्वानों ने 'अपणिनीय' कहकर अशुद्ध घोषित कर दिया। संस्कृत भाषा को व्याकरण सम्मत रूप देने में पाणिनि का योगदान अतुलनीय माना जाता है।
अष्टाध्यायी मात्र व्याकरण ग्रंथ नहीं है। इसमें प्रकारांतर से तत्कालीन भारतीय समाज का पूरा चित्र मिलता है। उस समय के भूगोल, सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा और राजनीतिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, ख़ान-पान, रहन-सहन आदि के प्रसंग स्थान-स्थान पर अंकित हैं।

व्याकरण शास्त्र

पाणिनि ने अपने समय की संस्कृत भाषा की सूक्ष्म छानबीन की थी। इस छानबीन के आधार पर उन्होंने जिस व्याकरण शास्त्र का प्रवचन किया, वह न केवल तत्कालीन संस्कृत भाषा का नियामक शास्त्र बना, अपितु उसने आगामी संस्कृत रचनाओं को भी प्रभावित किया। पाणिनि से पूर्व भी व्याकरण शास्त्र के अन्य आचार्यों ने इस विशाल संस्कृत भाषा को नियमों में बांधने का प्रयास किया था, परन्तु पाणिनि का शास्त्र विस्तार और गाम्भीर्य की दृष्टि से इन सभी में सिरमौर सिद्ध हुआ। पाणिनि ने अपनी गहन अन्तर्दृष्टि, समन्वयात्मक दृष्टिकोण, एकाग्रता, कुशलता, दृढ़ परिश्रम और विपुल सामग्री की सहायता से जिस अनूठे व्याकरण शास्त्र का उपदेश दिया, उसे देखकर बड़े से बड़े विद्वान आश्चर्य चकित होकर कहने लगे – 'पाणिनीयं महत्सुविरचितम्' – पाणिनि का शास्त्र महान और सुविरचित है; 'महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य' उनकी दृष्टि अत्यन्त पैनी है; 'शोभना खलु पाणिनेः सूत्रस्य कृतिः' उनकी रचना अति सुन्दर है; 'पाणिनिशब्दो लोके प्रकाशते' सारे लोक में पाणिनि का नाम छा गया है, इत्यादि। भाष्यकार ने पाणिनि को प्रमाणभूत आचार्य, माङ्गलिक आचार्य, सृहृद्, भगवान आदि विशेषणों से सम्बोधित किया है। उनके अनुसार पाणिनि के सूत्र में एक भी शब्द अनर्थक नहीं हो सकता, और पाणिनीय शास्त्र में ऐसा कुछ नहीं है जो निरर्थक हो। उन्होंने जो सूत्र बनाए हैं, वे बहुत ही सोच विचार कर बनाए गए हैं। उन्होंने सुहृद् के रूप में व्याकरण शास्त्र का अन्वाख्यान किया है। रचना के समय उनकी दृष्टि भविष्य की ओर थी और वह दूरतर की बात सोचते थे। इस प्रकार उनकी प्रतिष्ठा बच्चे बच्चे तक फैल गई और विद्यार्थियों में उन्हीं का व्याकरण सर्वाधिक प्रिय हुआ।

अष्टाध्यायी अथवा पाणिनीयाष्टक

पाणिनि का व्याकरण शब्दानुशासन के नाम से विद्वानों में प्रसिद्ध है, परन्तु आठ अध्यायों में विभक्त होने के कारण यही शब्दानुशासन लोक में अष्टाध्यायी अथवा पाणिनीयाष्टक के रूप में जाना जाता है। पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी से संस्कृत भाषा को अमरता प्रदान की। उनकी व्याकरण की रीति से संस्कृत भाषा के सभी अङ्ग आलौकित हो उठे। सर्वशास्त्रोपकारक के रूप में पाणिनीय अष्टाध्यायी की सहायता से हमें कहीं भी अपना मार्ग ढूँढ़ने में कठिनाई नहीं होती है। संसार की अनेक भाषाएं नियमित व्याकरण के अभाव में या तो लुप्त हो गईं हैं, या इतनी दुरूह हैं कि उन्हें समझना ही दुष्कर हैं। किन्तु संस्कृत भाषा के गद्य और पद्य दोनों पाणिनि शास्त्र से नियमित होने के कारण सदा ही सुबोध बने रहे हैं। आज भी हम पाणिनीय अष्टाध्यायी की सहायता से संस्कृत के प्राचीनतम साहित्य से लेकर नवीनतम रचनाओं का रसास्वाद कर सकते हैं।

अपने व्याकरण को पूर्व एंव सर्वग्राही बनाने के लिए पाणिनि ने देशाटन कर भारत के विभिन्न जनपदों की भाषा, उनके रीति–व्यवहार, वेशभूषा, उद्योग–धन्धे तथा उनके व्यक्ति और जाति–वाचक नामों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया। अतः उनका व्याकरण न केवल शब्दानुशासन की दृष्टि से परिपूर्ण है, अपितु वह तत्कालीन सभ्यता और संस्कृति का विश्वसनीय और प्रामाणिक इतिहास भी है। पणिनीय व्याकरण इतना सुव्यवस्थित, वैज्ञानिक, लाघवपूर्ण और सर्वाङ्गपूर्ण सिद्ध हुआ कि उनके सामने समस्त व्याकरण गौण हो गए। यहाँ तक कि धीरे धीरे प्रादेशिक व्याकरणों का प्रचलन बन्द हो गया और कालान्तर में वे नष्टप्राय हो गए। पाणिनीय अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों में से प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं और कुल मिलाकर लगभग चार हजार सूत्र हैं। अष्टाध्यायी की सूत्र संख्या के विषय में विद्वानों में थोड़ा विवाद है। कुछ विद्वान इसके सूत्रों की संख्या 3981 मानते हैं। इनमें यदि 14 प्रत्याहार–सूत्र जोड़ दें तो यह संख्या 3995 हो जाती है। अष्टाध्यायी को वेदाङ्ग मानने वालों की परम्परा में प्रचलित मौखिक पाठ में यह संख्या 3983 है। काशिका और सिद्धान्त–कौमुदी के परम्परागत पाठ के अनुसार 3983 संख्या ही दी हुई है।

अध्याय

व्याकरणीय प्रक्रिया की दृष्टि से अष्टाध्यायी को मुख्य रूप से तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक, वाक्यों के पदों का संकलन (1–2 अध्याय); दो, पदों का प्रकृति–प्रत्यय में विभाग (3–5 अध्याय); तीन, प्रकृति–प्रत्ययों के साथ आगम आदेशादि का संयोजन कर परिनिष्ठित पदों का निर्माण (6–8 अध्याय)। अष्टाध्यायी के प्रथम दो अध्यायों में पदों के सुबन्त, तिङन्त भेदों और वाक्यों में उनके परस्पर सम्बन्ध पर विचार किया गया है। तृतीय अध्याय में धातुओं से शब्द–सिद्धि का विवेचन तथा चतुर्थ और पञ्चम अध्याय में प्रातिपदिकों एवं शब्द सिद्धि का विचार है। षष्ठ एवं सप्तम अध्यायों में सुबन्त एवं तिङन्त शब्दों की प्रकृति–प्रत्ययात्मक सिद्धि एवं स्वरों का विवेचन है, तथा अष्टम अध्याय में सन्निहित पदों के शीघ्रोच्चारण से वर्णों या स्वरों पर पड़ने वाले प्रभाव की चर्चा है। यदि प्रतिपाद्य विषयों की दृष्टि से विचार किया जाए तो संज्ञा और परिभाषा, स्वरों और व्यंजनों के प्रकार, धातुसिद्ध क्रियापद, कारक, विभक्ति, एकशेष समास, कृदन्त, सुबन्त, तद्धित, आगम और आदेश, स्वर विचार, दित्व और सन्धि – ये अष्टाध्यायी के प्रतिपाद्य विषय हैं।

अष्टाध्यायी संहिता

पाणिनि ने सम्पूर्ण अष्टाध्यायी संहिता पाठ में रची थी। महाभाष्य में लिखा है<balloon title="1.1.50" style=color:blue>*</balloon> 'उभयथा हि तुल्या संहिता स्थानेऽन्तरतम उरण् रपरः इति।' इस प्रकार के प्रमाणों से स्पष्ट है कि पाणिनि ने अष्टाध्यायी संहिता पाठ में रची थी। यद्यपि पाणिनि ने प्रवचन काल में सूत्रों का विच्छेद अवश्य किया होगा (क्योंकि उसके बिना सूत्रार्थ का प्रवचन सम्भव नहीं), तथापि पतञ्जलि ने उनके संहिता पाठ को ही प्रामाणिक माना है। पाणिनीय व्याकरण में कई स्थानों पर प्राचीन व्याकरणों के श्लोकांशों की स्पष्ट झलक उपलब्ध होती है। जैसे ‘तदस्मै दीयते युक्तं श्राणामांसौदनाट्टठिन।’ ये अनुष्टुप् के दो चरण थे। इसमें पाणिनि ने यंक्तं का नियुक्तं पढ़कर दो सूत्रों का प्रवचन किया है। आचार्य युधिष्ठिर मीमांसक जी के अनुसार यद्यपि पाणिनि ने अपने शास्त्र के प्रवचन में सम्पूर्ण प्राचीन वाङ्मय का उपयोग किया है, तो भी पाणिनि का प्रधान उपजीव्य आपिशल व्याकरण है।

सूत्र

अष्टाध्यायी के प्रत्येक पाद की विभिन्न संज्ञाएँ उस–उस पाद के प्रथम सूत्र के आधार पर रखी गईं हैं।

  • गाङ्कुटादिपादः<balloon title="1.2" style=color:blue>*</balloon>
  • भूपादः<balloon title="1.3" style=color:blue>*</balloon>
  • द्विगुपादः<balloon title="2.4" style=color:blue>*</balloon>
  • सम्बन्धपादः<balloon title="3.4" style=color:blue>*</balloon>
  • अङ्गपादः<balloon title="6.4" style=color:blue>*</balloon>

पाणिनि की अष्टाध्यायी के अनुशीलन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे जिस संस्कृत भाषा का व्याकरण लिख रहे थे, वह लोकभाषा थी। सैंकड़ों ऐसे सूत्र हैं जिनका उपयोग व्यवहार–गम्य शब्दों की सिद्धि के निमित्त ही होता है, किसी शास्त्रीय शब्द के लिए नहीं। उदाहरणार्थ – प्लुतविधान की युक्तिमत्ता – प्लुतविधान के निमित्त अनेक सूत्र हैं।

  1. दूर से बुलाने के लिए प्रयुक्त वाक्य के टि की प्लुत संज्ञा होती है – सक्तून् पिब देवदत्त 3 यहाँ दत्त का अन्तिम अकार प्लुत हुआ है।
  2. देवदत्त को दूर से पुकारना होगा तो देवदत्त में तीन स्थानों में क्रमशः प्लुत होगा – देवदत्त देवदत्त, देवदत्त 3।<balloon title="8.2" style=color:blue>*</balloon>

पाणिनि ने व्यवहार में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं के नाम सिद्ध करने के लिए सूत्रों का निर्माण किया है। इन वस्तुओं का सम्बन्ध शास्त्रों से न होकर लोक–संस्कृति से है। उदाहरणार्थ– जितना अनाज एक खेत में बोया जाता है, उतने से उसका नामकरण पाणिनि ने किया है। प्रास्थिक, द्रौणिक तथा खारीक आदि शब्द इसी नियम से बनते हैं।<balloon title="तस्य वापः 5.1.45" style=color:blue>*</balloon> अष्टाध्यायी में उस समय प्रचलित ऐसे मुहावरे का प्रयोग है जो संस्कृत को लोकभाषा सिद्ध करते हैं। विविध प्रयोग इसे स्पष्ट सिद्ध करते हैं। शय्योत्थानं धावति–सेज से सीधे उठकर दौड़ता है।<balloon title="3.4.52" style=color:blue>*</balloon> अर्थात् शीघ्रता के कारण वह अन्य आवश्यक कार्यों की परवाह किए बिना दौड़ता है।

ग्रन्थ

पाणिनि ने पूर्वाचार्यों के द्वारा निर्दिष्ट प्रभूत संज्ञाओं का प्रयोग अपने ग्रन्थ में किया है, परन्तु लाघव के निमित्त उन्होंने अनेक स्वोपज्ञ संज्ञाएं उद्भवित की हैं जैसे 'घु' संज्ञा– दाधाघ्वदाप्<balloon title="1.1.20" style=color:blue>*</balloon>, 'घ' संज्ञा– तरतमपौ घः<balloon title="1.1.22" style=color:blue>*</balloon>, वृद्ध संज्ञा – वृद्धो यूना<balloon title="1.2.65" style=color:blue>*</balloon> गोत्र संज्ञा – अपत्यं पौत्रपुभृति गोत्रम्।<balloon title="4.1.162" style=color:blue>*</balloon>