पृथु

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पृथु / Prathu

  • वेणु जब मृत्यु के मुख से चला गया, तो पृथ्वी बिना राजा की हो गई, क्योंकि वेणु का कोई उत्तराधिकारि नहीं था। जिस प्रकार पति की मृत्यु के पश्चात स्त्री निराश्रित हो जाती है, उसी प्रकार राजा के बिना पृथ्वी निराश्रित हो गई। चारों ओर आतंक पैदा हो गया। पृथ्वी पर चारों ओर डाकुओं, आंतकवादियों और परपीड़िकों का प्राबल्य हो गया।
  • पृथ्वी पर फैले हुए भय और आंतक को देखकर ॠषिगण अत्यंत दुखी हुए। वे आतंक, भय और पीड़ा को दूर करने का उपाय सोचने लगे। प्रभात के पश्चात का समय था। सूर्य की किरणों में उष्णता आ गई थी। ॠषि और मुनिगण सरस्वती नदी में स्नान के पश्चात तट पर बैठे हुए गंभीर मुद्रा में सोच-विचार कर रहे थे— राजा के बिना पृथ्वी का पालन कैसे होगा? पृथ्वी के पालन-पोषण के लिए राजा का होना अत्यावश्यक है।
  • ॠषियों ने आपस में विचार करके एक दिव्य पुरुष और एक नारी को अपनी योग शक्ति से प्रकट किया। ॠषियों ने दिव्य पुरुष का नाम पृथु और नारी का नाम अर्चि रखा। ॠषियों ने पृथु को राजसिंहासन पर बिठाकर उनका अभिषेक किया। पृथु अर्चि से विवाह करके राजा के रूप में प्रजा का पालन करने लगे।
  • पृथु बड़े धर्मात्मा और बड़े पुण्यात्मा थे। वे थे तो मानव, किंतु परमात्मा के अंश थे। उनके अंग-अंग में दैवीय ज्योति थी। वे शौर्य के प्रतीक थे। वे जब धनुष-बाण लेकर रथ पर बैठते तो उनके तेज और प्रताप को देखकर इन्द्र भी भयभीत हो उठता था।
  • प्रभात के पश्चात का समय था। महाराज पृथु पूजा के पश्चात आसन से उठे ही थे कि उसके कानों में आर्त्त पुकार पड़ी, 'रक्षा कीजिए महाराज, हमें भूख की ज्वाला में जलने से बचाइए।'
  • महाराज पृथु ने बाहर निकलकर देखा, अनेक स्त्री- पुरुष खड़े आर्त्त वाणी में महाराज को पुकार रहे थे। महाराज पृथु ने एकत्र पुरुषों की ओर देखते हुए कहा, 'क्या बात है प्रजाजनों, आपको कौन सा दुख है? किस शत्रु ने आपको पीड़ा पहुंचाई है?'
  • एकत्र स्त्री-प्रुरुषों ने निवेदन किया,' महाराज, पृथ्वी ने अपने सारे अन्न और अपनी सारी औषधियां अपने भीतर छुपा रखी हैं। बीमार होने पर हमें औषधियां भी नहीं मिलतीं। हम और हमारे पशु अन्न और जल के बिना दम तोड़ते जा रहे हैं। हमारी रक्षा कीजिए।'
  • प्रजा की दुख भरी कथा सुनकर पृथु का ह्रदय व्याकुल हो उठा। उन्होंने स्नेहमयी वाणी में प्रजाजनों को आश्वस्त करते हुए कहा, 'प्रिय, प्रजाजनों, अपने-अपने घर जाइए। मेरी सांसों के रहते आपको कष्ट नहीं होने पाएगा। आप देखेंगे कि पृथ्वी शीघ्र ही अपने अन्न और औषधियों का भंडार खोल देगी।'
  • महाराज पृथु ने प्रजाजनों को आश्वस्त करने के पश्चात अपना धनुष-बाण उठा लिया। उन्होंने धनुष पर बाण रखकर पृथ्वी की ओर संधान किया। इससे पृथ्वी व्याकुल हो उठी। वह गाय के रूप में पृथु के सामने प्रकट हुई।
  • पृथ्वी रूपी गाय महाराज पृथु के रौद्र रूप को देखकर व्याकुल हो उठी। वह भयभीत होकर भाग निकली। महाराज पृथु ने धनुष पर बाण चढ़ाए हुए उसका पीछा किया। पृथ्वी रूपी गाय भय से कांपती हुई तीनों लोकों में गई, किंतु तीनों लोकों में उसे ऐसा कोई नहीं मिला जो अपनी शरण में लेकर उसे अभयता प्रदान कर सके, क्योंकि उन दिनों तीनों लोकों से महाराज पृथु का प्रताप और उनका तेज छाया हुआ था।
  • जब तीनों लोकों में कोई भी प्रथ्वी रूपी को अपनी शरण में नहीं ले सका, तो विवश होकर वह खड़ी हो गई। उस्ने अत्यधिक विनीत वाणी में पृथु से पूछा, 'महाराज, आख़िर आप मेरा पीछा क्यों कर रहे हैं? मै जानना चाहती हूं कि आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं?'
  • महाराज पृथु ने उत्तर दिया, 'पृथ्वी, तुमने अपने अनाज और अपनी औषधियों को अपने भीतर छिपाकर पाप किया है। अन्न और औषधियों को बाहर निकाल दो। नहीं तो मै तुम्हें बुरी तरह से आहत कर दूंगा।'
  • पृथ्वी रुपी गाय ने निवेदन किया,'महाराज, मैं अन्न और औषधियों को अपने भीतर छिपा ना लेती तो क्या करती। मेरे तरह-तरह के अन्न खाकर और अमृत के समान सुस्वादु जल पीकर मनुष्य पाखंडी, अधर्मी और अतिचारी बनता जा रहा था। मनुष्य को दंड देने के लिए ही मैंने ऐसा किया है। यदि आप चाहते हैं, मैं अपने अन्न और औषधियों का भंडार खोल दूं, तो बछड़े का प्रबंध करके मुझे दुहने का प्रयत्न कीजिए।'
  • पृथ्वी के नम्रता भरे वचनों को सुनकर महाराज पृथु का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने स्वयंभुव मनु को बछड़ा बनाकर पृथ्वी रूपी गाय को दुह लिया। उसके दुहने से पुनः खेतों में अन्न पैदा होने लगा। पीने के लिए शीतल जल मिलने लगा और रोगियों को औषधियां भी मिलने लगीं।
  • महाराज पृथु के पश्चात ॠषियों, विद्वानों, ब्राह्मणों और दैत्यों ने भी अपने-अपने ढंग से पृथ्वी रूपी गाय को दुहा। फलतः तरह-तरह की वस्तुएं प्राप्त हुईं, और प्राणियों का काम-काज सुंदरता के साथ चलने लगा, उनके जीवन का निर्वाह होने लगा।
  • जब पृथ्वीलोक तरह-तरह के धन-धान्यों से भर गया, तो चारों ओर पृथु के यश का गान करने ही लगे , देवता और दैत्य भी पृथु के यश का गान करने लगे।
  • महाराज पृथु जब तीनों लोकों में सर्वपूज्य हो गए, तो उन्होंने अश्वमेध यज्ञ करने का विचार किया। उन्होंने एक-एक करके निन्यानवे अश्वमेध यज्ञ किए। जब वे सौवां यज्ञ करने लगे, तो देवराज इन्द्र के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो उठी, उन्होंने सोचा, यदि सौवां यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो गया, तो कहीं पृथु मेरे इन्द्रलोक पर अपना अधिकार न स्थापित कर लें। अतः इन्द्र ने सौवें यज्ञ में बाधा डालने का निश्चय किया।
  • महाराज पृथु ने अपने कुमार की संरक्षता में सौवें यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया। घोड़ा पृथ्वी के देश-देशों में भ्रमण करने लगा। पृथु कुमार बड़ी संलग्नता के साथ घोड़े की देखरेख कर थे। फिए भी अवसर पाकर इन्द्र ने घोड़े को चुरा लिया। घोड़े के चुराए जाने पर पृथु कुमार चिंतित हो उठे। वे इधर-उधर घोड़े की खोज करने लगे। सहसा उन्हें एक मनुष्य के साथ घोड़ा दिखाई पड़ा। वह मनुष्य कोई और नहीं, स्वयं इन्द्र था, जो वेश बदले हुए था।
  • पृथु कुमार ने उस मनुष्य को युद्ध करने के लिए ललकारा, किंतु वह मनुष्य युद्ध करने की स्थान पर घोड़े छोड़कर भाग चला। पृथुकुमार घोड़े को लेकर राजधानी की ओर चले किंतु इन्द्र ने बीच में ही घोड़े को चुरा लिया। पृथुकुमार ने इन्द्र को युद्ध करने के लिए ललकारा, किंतु इन्द्र युद्ध न करके पुनः अदृश्य हो गया।
  • पृथु कुमार घोड़े को लेकर राजधानी लौट गए। उन्होंने इन्द्र के द्वारा दो बार घोड़े को चुराए जाने की घटना अपने पिता से कह सुनाई। पृथु इन्द्र पर कुपित हो उठे। उन्होंने इन्द्रलोक पर आक्रमण करके इन्द्र को मार डालने का निश्चय किया।
  • पृथु के इस निश्चय से तीनों लोकों में हलचल मच गई। आख़िर, आकाशवाणी हुई,'महाराज पृथु, आप इन्द्र को मार डालने का अपना निश्चय छोड़ दें। इन्द्र कोई अन्य नहीं, श्रीहरि का ही अंश है। आप सौवां यज्ञ करें। आप के सौ यज्ञ करने पर जो फल मिलता, वह फल निन्यानवे यज्ञ से ही प्राप्त होगा।'
  • महाराज पृथु ने आकाशवाणी सुनकर सौवें यज्ञ को पूर्ण करने का प्रयत्न छोड़ दिया।
  • पृथु ने पृथ्वी का दोहन किया। भूमि समान की गयी। कृषि का प्रारम्भ हुआ। मनुष्य ने तरू एवं गुफ़ाओं का स्वेच्छा-निवास छोड़ दिया। समाज बना। नगर, ग्राम, खेट, खर्वट आदि बसाये गये। इस प्रकार पृथु ने प्रजा की व्यवस्था की।
  • पृथु ने धरा को पुत्री माना। तब से यह भूमि पृथ्वी कही जाती है। वे ही प्रथम नरेश थे। मनुष्य को नगर, ग्रामादि में बसाकर वर्तमान संस्कृति एवं सभ्यता को उन्होंने ही जन्म दिया था। जीवन भोग के लिये नहीं, आराधना के लिये है। उन आदि शासक का मानव के लिये यही आदेश है। जब तक मानव उनके आदेश पर चला, सुख एवं शान्ति उसे नित्य प्राप्त रहीं, आदेश भंग करके वह पीड़ा एवं संघर्ष, चिन्ता में उलझ गया।
  • वे बहुत दिनों तक राज्य करते रहे, प्रजा को सुख प्रदान करते रहे। तत्पश्चात अपने पुत्र को राज्य देकर वे वन में चले गए, वहीं उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया और बैकुंठधाम चले गए। उनके दिव्य अंश की गाथा युग-युगों तक धरती पर कही और सुनी जाएगी।