पौराणिक इतिहास

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पौराणिक इतिहास : आदिम काल (कृष्ण पूर्व काल) . कृष्ण काल

आर्य और उनका प्रारंभिक निवास

आर्य और उनका प्रारंभिक निवास (वैदिक संस्कृति) :- जिसे `सप्त सिंघव' देश कहा गया है, वह भाग भारतवर्ष का उत्तर पश्चिमी भाग था । मान्यताओं के अनुसार यही सृष्टि का आरंभिक स्थल और आर्यों का आदि देश है । सप्त सिंघव देश का फैलाव कश्मीर, पाकिस्तान और पंजाब के अधिकांश भाग में था । आर्य, उत्तरी ध्रुव, मध्य एशिया अथवा किसी अन्य स्थान से भारत आये हों, भारतीय मान्यता में पूर्ण रूप से स्वीकार्य नहीं है । भारत में ही नहीं विश्व भर में संख्या 'सात' का आश्चर्यजनक मह्त्व है जैसे सात सुर, सात रंग, सप्त-ॠषि, सात सागर, आदि इसी तरह सात नदियों के कारण सप्त सिंघव देश के नामकरण हुआ था । वे नदियाँ हैं,

नई संभावनाओं से यह विचार और दृढ़ होता है कि प्राचीन सप्त सिंधव और निकटवर्ती प्रदेश ब्रह्मावर्त में वेदों का उदय और वैदिक संस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ होगा । वेदों में सिंधु और सरस्वती नदियों का बहुदा उल्लेख और गुणगान है । इन्हीं नदियों के मध्य का भू-भाग वैदिक संस्कृति का प्रदेश है । वहाँ आर्यों एवं अनार्यों की संश्लिष्ण संस्कृति रही थी । वह संस्कृति सिंधु घाटी स्थित मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से लेकर दक्षिण-पूर्व में मेरठ ज़िले के अलमगीरपुर तक तथा दक्षिण -पश्चिम में सुदूर गुजरात -काठियावाड़ के रंगपुर-लोथल तक फैली थी ।

सरस्वती के निकट ही दृषद्वती नदी बहती थी । मनु ने सरस्वती और दृषद्वती नदियों के दोआब को `ब्रह्मावर्त ।' प्रदेश की संज्ञा दी है । ब्रह्मावर्त का निकटवर्ती भू-भाग `ब्रह्मर्षि प्रदेश' कहलाता था । उसके अंतर्गत कुरु, मत्स्य, पंचाल और शूरसेन जनपदों की स्थिति मानी गई है । मनुस्मृति [2-17,16, 20] में जनपदों के निवासियों के आचार-विचार समस्त पृथ्वी के नर-नारियों के लिए आदर्श बतलाये गये हैं । वैदिक संस्कृति का प्रादुर्भाव चाहे सप्त सिंधव प्रदेश में हुआ, किंतु वह ब्रह्मावर्त और ब्रह्मर्षि प्रदेशों में विकसित हुई थी । सिंधु, सरस्वती और दृषद्वती से लेकर यमुना नदी तक के विशाल पावन प्रदेश ने वैदिक संस्कृति के प्रादुर्भाव और विकास में महत्वपूर्ण योग दिया था । इस प्रकार शूरसेन जनपद, जो मथुरा मंडल अथवा ब्रजमंडल का प्राचीन नाम है, वैदिक संस्कृति के विकास का अन्यतम पुरातन प्रदेश रहा है ।

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शूरसेन जनपद

प्राचीन मथुरा के आस-पास जो राज्य कायम हुआ, उसका पुराना नाम `शूरसेन' मिलता है । यह नाम किस व्यक्ति विशेष के कारण पड़ा? यह विचारणीय है । पुराणों की वंश-परंपरा-सूचियों को देखने से पता चलता है कि शूर या शूरसेन नाम के कई व्यक्ति प्राचीन काल में हुए । इनमें उल्लेखनीय ये है--हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्र शूरसेन, भीम सात्‍वत के पुत्र अंधक के परनाती शूर राजाधिदेव, श्रीराम के छोटे भाई शत्रुघ्न के पुत्र शूरसेन तथा श्रीकृष्ण के पितामह शूर । श्रीकृष्ण के पितामह का नाम शूर था, न कि शूरसेन (हरिवंश, विष्णु आदि पुराणों में तथा परवर्ती संस्कृत साहित्य में श्री कृष्ण के लिये 'शौरि' नाम मिलता है ।) । इनके नाम से जनपद की संज्ञा का आविर्भाव मानने में कठिनाई प्रतीत होती है।<balloon title="खिए कनिंघम-एनश्यिंट जिओग्राफी, पृ0 427" style="color:blue">*</balloon>

यदुवंशी

यदुवंश के एक प्राचीन राजा का नाम कार्तवीर्य अर्जुन या सहस्रार्जुन था । वह बड़ा वीर और प्रतापी राजा था । उसने रावण जैसे प्रसिद्ध योद्धा से भी संघर्ष किया था । उसके राज्य का विस्तार नर्मदा नदी से हिमालय तक था, जिसमें यमुना तट का प्रदेश भी सम्मिलित था । उसके वंशज कालांतर में हैहयवंशी कहलाये जिनकी राजधानी माहिष्मती थी । सहस्रार्जुन के 100 पुत्र थे, जिनमें एक का नाम शूरसेन भी था । लिंग पुराण' में लिखा है, उसी शूरसेन के नाम पर इस प्रदेश का नाम `शूरसेन' प्रसिद्ध हुआ था किन्तु मथुरा से इसका संबंध सीधे जोड़ने में कठिनाई है ।

शत्रुघ्न कम से कम बारह वर्ष तक मथुरा नगरी एवं उसके आस-पास के प्रदेश के शासक रहे । [१] वाल्मीकि रामायण में ही लिखा गया है कि इस प्रदेश का शूरसेन नाम शत्रुघ्न तथा उनके पुत्रों का इससे संबंध होने से पहिले ही प्रसिद्ध हो चुका था । सुग्रीव ने सीता जी की खोज के लिए वानर सेना को जिन प्रदेशों में जाने के लिए कहा था, उनमें 'शूरसेन' का भी नामोल्लेख हुआ है । वाल्मीकि-रामायण में इस संबंध में संकेत पाया जाता है ।

हरिवंश पुराण

हरिवंश पुराण में शत्रुघ्न के बाद उनके पुत्र शूरसेन का भी उल्लेख है, जिन्होंने मथुरा प्रदेश पर अपना आधिपत्य बनाये रखा । शत्रुघ्न-पुत्र शूरसेन तथा श्रीकृष्ण के पितामह शूर के समय में लगभग चार सौ वर्षों का अंतर आता है, जब कि जनपद का शूरसेन नाम पिछले शूर से बहुत पूर्व आरूढ़ हो गया जान पड़ता है । शत्रुघ्न ने मथुरा नगरी की स्थापना अवश्य की थी किंतु इस प्रदेश का शूरसेन नाम उनसे पहले ही पड़ चुका था । जनपद का शूरसेन नाम प्राचीन हिंदू, बौद्ध, एवं जैन साहित्य में तथा यूनानी लेखकों के वर्णनों में मिलता है । यह नाम किस शूरसेन राजा के नाम पर प्रसिद्ध हुआ, यह विचारणीय है ।

मनुस्मृति

मनुस्मृति में शूरसेन को 'ब्रह्मर्षिदेश' के अन्तर्गत माना है । [२] प्राचीनकाल में ब्रह्मावर्त तथा ब्रह्मर्षिदेश को बहुत पवित्र समझा जाता था । और यहाँ के निवासियों का आचार-विचार श्रेष्ठ एवं आदर्शरूप माना जाता था (मनुस्मृति, 2, 18 तथा 20) । ऐसा प्रतीत होता है, कि शूरसेन जनपद की वह संज्ञा लगभग ईस्वी सन् के आरंभ तक जारी रही । जब इस समय से यहाँ विदेशी शक-क्षत्रपों तथा कुषाणों का प्रभुत्व हुआ, संभवत: तभी से जनपद की संज्ञा उसकी राजधानी के नाम पर 'मथुरा' हो गई । तत्कालीन तथा उसके बाद के जो अभिलेख मिले है उनमें मथुरा नाम ही मिलता है, शूरसेन नहीं है । साहित्यिक ग्रंथों में भी अब शूरसेन के स्थान पर मथुरा नाम मिलने लगता है । इस परिवर्तन का मुख्य कारण हो सकता है कि शक-कुषाण कालीन मथुरा नगर इतनी प्रसिद्धि प्राप्त कर गया था, कि लोग जनपद या प्रदेश के नाम को भी मथुरा नाम से पुकारने लगें होगें और धीरे-धीरे जनपद का शूरसेन नाम जन-साधारण के स्मृति-पटल पर से उतर गया होगा ।

आदि- प्राचीन राजवंश

पौराणिक तथा अन्य साहित्य में जो विवरण मिलते है उन के आधार पर शूरसेन जनपद पर जिन राजवंशों ने प्राचीन काल में राज्य किया, उनमें सबसे प्राचीन सूर्यवंश मिलता है । सूर्यवंश के प्रथम राजा वैवस्वत के इस वंश की परपंरा चली । मनु के बड़े पुत्र इक्ष्वाकु थे, जिन्होंने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया । मनु के कई पुत्रों ने भारत के विभिन्न भागों पर राज्य किया । अयोध्या का राजवंश मानव या सूर्य वंश का प्रधान वंश हुआ और इसमें अनेक प्रतापी शासक हुए । नाभाग, मनु के दूसरे पुत्र का नाम था । नाभाग तथा इनके वंशजों का यमुना तट पर राज्य करने का वर्णन मिलता है । नाभाग तथा उनके उत्तराधिकारियों ने कितने प्रदेश पर और किस समय तक राज्य किया यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं ।


पुराणों के अनुसार आदिम मनु स्वायंभुव का निवास स्थल सरस्वती नदी के तट पर था ।<balloon title="मनुस्मृति, पृष्ठ 2-16" style="color:blue">*</balloon> महाभारत (शल्य पर्व) में सरस्वती नामक सात नदियों का उल्लेख किया गया है । एक सरस्वती नदी यमुना के साथ बहती हुई गंगा से मिल जाती थी । ब्रजमंडल की पुरातन अनुश्रुति के अनुसार एक सरस्वती नदी प्रचीन हरियाणा राज्य से ब्रज में आती थी और मथुरा के निकट अंबिका वन में बह कर गोकर्णेश्वर महादेव के समीपवर्ती उस स्थल पर यमुना नदी में मिलती थी, जिसे `सरस्वती संगम घाट' कहा जाता है । सरस्वती नदी और उसके समीप के अंबिका वन का उल्लेख पुराणों में हुआ है । उस सरस्वती नदी की प्राचीन धारा भी अब नियमित रूप से प्रवाहित नहीं होती है । उसके स्थान पर सरस्वती नामक एक बरसाती नाला है, जो अंबिका वन के वर्तमान स्थल महाविद्या के जंगल में बह कर जाता हुआ यमुना से मिलता है। साथ ही सरस्वती कुण्ड भी है। यह नाला मंदिर, कुण्ड और घाट उस प्राचीन नदी की धारा की विद्यमान के प्रमाण हैं । इनसे ब्रज की परंपरा प्रागैतिहासिक कालीन स्वायंभुव मनु से जुड़ जाती है ।


अय सबसे पुरानी क़ौम दुनिया की सलाम

ॠषियों ने बताये तुझे वह राज़े-दवाम

कहते हैं जिन्हें रुहे-रवाने-तहज़ीब

मुज़्मर जिनमें है जिन्दगी के पैग़ाम

-फ़िराक गोरखपुरी

मथुरा के स्वामी घाट का पुराना नाम संयमन घाट है । इसे भी स्वायंभुव मनु का तप स्थान कहा जाता है । स्वायंभुव मनु के दो पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद हुए, जिनकी संतान ही पृथ्वी के समस्त मानव हैं । उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव थे । भागवत चतुर्थ स्कंध के अनुसार ध्रुव अपनी विमाता से अपमानित होकर बाल्यावस्था में ही घर से निकल पड़े थे । उन्होंने नारद मुनि के उपदेश से प्राचीन ब्रज के मधुवन में तपस्या कर सिद्धि प्राप्त की थी । उस काल का मधुवन पुण्यारण्य अथवा तपोभूमि मात्र था । उसमें कोई नगर या ग्राम होने का उल्लेख नहीं मिलता है । वर्तमान काल का मधुवन ( महोली ) मथुरा तहसील का एक गाँव है, जो मथुरा के दक्षिण-पश्चिम की ओर लगभग 7 किलोमीटर पर है । इसमें ध्रुव स्थल,ध्रुव और विष्णु के चरण-चिन्ह हैं, ब्रज में स्थित मधुवन इस देश के प्रागैतिहासिक काल की अनुश्रुति से संबंधित होने के कारण अपना अनुपम महत्व रखता है ।


मनु की पुत्री इला और बुध से पुरूरवा का जन्म हुआ और चन्द्रवंश चला । चन्द्रवंश बहुत बढ़ा और उत्तर तथा मध्य भारत के विभिन्न प्रदेशों में इसकी शाखाएँ स्थापित हुई । पुरूरवा ने 'प्रतिष्ठानपुर' [३] में अपनी राजधानी स्थापित की । पुरूरवा-उर्वशी से कई पुत्र हुए । सबसे बड़े आयु को गद्दी का अधिकारी मिला । दूसरे पुत्र अमावसु ने कन्नौज ( कान्यकुब्ज ) में राज्य की स्थापना की । अमावसु का पुत्र नहुष आयु के बाद अधिकारी हुआ । नहुष का लड़का ययाति भारत का पहला चक्रवर्ती सम्राट बना ।<balloon title="पुराणो के अनुसार ययाति का रथ सर्वत्र घूमता था-( दे0 हरिवंश 1,30,4-5,15; महाभारत 2,14 आदि )" style="color:blue">*</balloon>


ययाति ने अपने राज्य का विस्तार किया । ययाति के दो पत्नियाँ थी, देवयानी और शर्मिष्ठा । पहली के यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र हुए और दूसरी से द्रह्यु, पुरू तथा अनु हुए । पुराणों में उल्लेख है कि ययाति अपने बड़े लड़के यदु से रुष्ट हो गया था और उसे शाप दिया था कि यदु या उसके लड़कों को राजपद प्राप्त करने का सौभाग्य न प्राप्त होगा(हरिवंश पुराण, 1,30,29) । ययाति सबसे छोटे बेटे पुरू को बहुत अधिक चाहता था और उसी को उसने राज्य देने का विचार प्रकट किया । परन्तु राजा के सभासदों ने ज्येष्ठ पुत्र के रहते हुए इस कार्य का विरोध किया (महाभारत, 1,85,32) ।


यदु ने पुरू पक्ष का समर्थन किया और स्वयं राज्य लेने से इंकार कर दिया । इस पर पुरू को राजा घोषित किया गया और वह प्रतिष्ठान की मुख्य शाखा का शासक हुआ । उसके वंशज पौरव कहलाये । अन्य चारों भाइयों को जो प्रदेश दिये गये उनका विवरण इस प्रकार है- यदु को चर्मरावती अथवा चर्मण्वती ( चंबल ), बेत्रवती ( बेतवा ) और शुक्तिमती ( केन ) का तटवर्ती प्रदेश मिला । तुर्वसु को प्रतिष्ठान के दक्षिण-पूर्व का भू-भाग मिला और द्रुह्य को उत्तर-पश्चिम का । गंगा-यमुना दो-आब का उत्तरी भाग तथा उसके पूर्व का कुछ प्रदेश जिसकी सीमा अयोध्या राज्य से मिलती थी अनु के हिस्से में आया ।

दुह्यु का अधिकार

शूरसेन के नाम से प्रसिद्ध जनपद पर दुह्यु का अधिकार हुआ था । संभवत: भोजगण शूरसेन के प्रथम शासक कहे जा सकते हैं । यदुवंशियों के शासन में दशार्ण, अवंती, विदर्भ और माहिष्मती के प्रसिद्ध दक्षिणी राज्य थे । यदुवंश के शशविंदु ने दुह्यु वंशी भोजों को पराजित कर उनके राज्य को अपने अधिकार में लिया इस प्रकार शूरसेन प्रदेश भी यदुवंशियों के शासन में आ गया । मधु शशविंदु के उपरांत यादवों का विख्यात राजा था । मधु अत्यंत प्रतापी, प्रजा-पालक और धार्मिक नरेश था । उसका शासन शूरसेन से आनर्त (उत्तरी गुजरात) तक के भू-भाग पर था ।

यादवों के वंश का आरंभ

यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, दु्ह्मु से भोज तथा अनु से म्लेच्छ जातियों का आर्विभाव होने का उल्लेख महाभारत में है ।<balloon title="दोस्तु यादवा जातास्तुर्वसोर्यवना: स्मृता: । द्रुह्मो: सुतास्तु वै भोजा अनोस्तु म्लेच्छजातय:॥(महाभा0 1, 85, 34)" style="color:blue">*</balloon> यदु अपने सब भाइयों में पराक्रमी था । यदु के वंशज `यादव` नाम से प्रसिद्ध हुए । यादवों ने कुछ समय पश्चात अपने केन्द्र दशार्ण, अवन्ती, विदर्भ और माहिष्मती [४] मथुरा और द्वारिका भीम सास्वत के समय में यादव- शक्ति के मुख्य केन्द्र बन गये । शाल्व देश ( वर्तमान आबू तथा उसके पड़ोस का प्रदेश ) भी यादवों के राज्य में रहा, जिसकी राजधानी पर्णाश नदी ( आधुनिक बनारस ) के किनारे पर 'मार्तिकावत' में बनायी गई । दूसरे राजाओं से यादवों की तनातनी रही । क्षत्रवृद्ध ( पुरूरवा का पौत्र , आयु का पुत्र ) ने काशी में एक राज्य की स्थापना की ।

हैहयवंशी यादव

हैहयवंशी यादवों जो दक्षिण के थे तथा काशी एवं अयोध्या के राजघराने बहुत समय तक युद्ध में लगे रहे । हैहय वंशियों ने , सूर्यवंशी राजा सगर के साथ युद्ध बनाये रखा । कार्तवीर्य अर्जुन, हैहयों वंश का सब से प्रतापी राजा कृतवीर्य का पुत्र था,जिसका राज्य का विस्तार हिमालय की तलहटी से नर्मदा तक था । हैहय वंशियों की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिये राजा प्रतर्दन के बेटे वत्स ने प्रयाग के समीप `वत्स राज्य` की स्थापना की । इस राज्य की शक्ति बाद में बहुत बढ़ गई, जिससे दक्षिण की ओर से होने वाले आक्रमणों का वेग कम पड़ गया ।

अयोध्या नरेश मांधाता

सहस्रजित ने उसने द्रुह्मु लोगों को हराकर उन्हें उत्तर-पश्चिम की ओर पंजाब में भगा दिया, जहाँ उन्होंने कालांतर में गांधार राज्य की स्थापना की । यदु के दूसरे पुत्र सहस्रजित से हैहयवंश का आरंभ हुआ । शशबिंदु ने पुरूओं को भी पराजित कर उन्हें उत्तर-पश्चिम की ओर जाने के लिये विवश किया । इन विजयों में शशबिंदु को अपने समकालीन अयोध्या नरेश मांधाता से बड़ी सहायता मिली । मांधाता इक्ष्वाकु वंश में प्रसिद्ध राजा हुआ । शशबिंदु ने अपनी पुत्री बिंदुमती का विवाह मान्धाता के साथ कर दिया

मांधाता ने कान्यकुब्ज प्रदेश को जीता और आनदों को भी पराजय दी । शशबिंदु से लेकर भीम सात्वत तक यादवों की मुख्य शाखा के जिन राजाओं के नाम मिलते है वे ये हैं--पृथुश्रवस, अंतर, सुयज्वा, उशनस, शिनेयु, मरूत्त, कम्बलवहिंस्, रूक्म-कवच, परावृत, ज्यामध, विदर्भ, कृथ भीम, कुंति, श्रृष्ट, निर्वृति,विदूरथ, दशार्ह, व्योमन, जीमूत, विकृति, भीमरथ, रथवर, दशरथ, एकदशरथ, शकुनि, करम्भ, देवरात, देवक्षेत्र, देवन, मधु पुरूवश, पुरूद्वंत, जंतु या अम्शु, सत्वंत और भीम सात्वत । उक्त सूची में यदु और मधु के बीच में होने वाले राजाओं में से किस-किस ने यमुना-तटवर्ती प्रदेश पर (जो बाद में शूरसेन कहलाया) राज्य किया, यह बताना कठिन है । पुराण आदि में इस संबंध में निश्चित कथन नहीं मिलते ।

दुष्यन्त-शकुंतला

दुष्यन्त-शकुंतला के पुत्र भरत -राजा दुष्यन्त, पुरूवंश की संभवत: तेंतालीसवीं पीढ़ी थे, जिन्होंने शकुंतला के साथ विवाह किया । दुष्यन्त-शकुंतला के पुत्र भरत महान शासक हुए । उनके वंशज भरतवंशी कहलाए । इस वंश ने गंगा-यमुना दोआब के उत्तरी भाग पर राज्य बढाया । यह प्रदेश कालांतर में भरतवंशी राजा भ्रम्यश्च के पाँच बेटों के नाम पर `पंचाल` कहलाया । मुद्गल भी भ्रम्यश्च के एक पुत्र का नाम था, जिनके पुत्र वध्रयाश्व तत्रा पौत्र दिवोदास के समय पंचाल राज्य विस्तृत था । इस वंश के क्रमश: शासक दिवोदास के बाद मित्रायु, मैत्रेय, सोम, श्रृंजय और च्यवन हुए । च्यवन तथा उनके बेटे सुदास के समय में पंचाल राज्य की बहुत उन्नति हुई ।

सुदास

सुदास ने उत्तर-पश्चिम की ओर अपने राज्य का विस्तार किया । इनका राज्य अयोध्या की सीमा तक था । सुदास ने हस्तिनापुर के समकालीन पौरव राजा संवरण को हराया । इस पर संवरण ने अन्य राजाओं से मदद ली और सुदास के विरुध्द एक बड़ा दल तैयार किया । इस सेना में पुरूवों के अलावा द्रुह्मु, मत्स्य, तुर्वेसु, शिवि, अलिन, पक्ध, भलनस, विषाणी और यदु थे ।<balloon title="ऋग्वेद (7, 18; 19; 9, 61, 2) में भी इस दासराज्ञ युद्ध का उल्लेख मिलता है ।" style="color:blue">*</balloon> विपक्ष में केवल राजा सुदास था । सुदास ने परूष्णी नदी (रावी) के तट पर इस सेना को हराकर महान वीर होने का परिचय दिया । सवंरण को मजबूर होकर सिंधु नदी के किनारे एक किले में शरण ली । कुछ समय पश्चात संवरण ने अपने राज्य को दोबारा जीत लिया । उसका बेटा कुरु महान राजा था । कुरु ने दक्षिण पंचाल को भी जीत लिया तथा अपने साम्राज्य का विस्तार प्रयाग( इलाहाबाद) तक कर लिया ।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भविष्यति पुरी रम्या शूरसेना न संशय: [रामा0, उत्तर0, 70, 6] तथा-स पुरा दिव्यसंकाशो वर्षे द्वादशमें शुभे । निविष्ट: शूरसेनानां विषयंश्चाकुतोभय:॥[70, 1]
  2. कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पंचाला: शूरसेनका: । एप ब्रह्मर्षिदेशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तर:॥(मनु0 2, 19) शूरसेन जनपद का विस्तार दक्षिण में चम्बल नदी से उत्तर में मथुरा के लगभग 50 मील उत्तर तक था । पश्चिम में इसकी सीमा मत्स्य जनपद से और पूर्व में दक्षिण पंचाल राज्य की सीमाओं से मिलती थी (देखिए पार्जीटर-मार्कण्डेय पुराण, पृ0 351-52,)
  3. प्रतिष्ठान के संबंध मे विद्वानों के विभिन्न मत हैं । कुछ लोग इसे प्रयाग के सामने वर्तमान झूसी और उसके पास का पीहन गांव मानते हैं । अन्य लोगों के मत से गोदावरी के किनारे वर्तमान पैंठन नामक स्थान प्रतिष्ठानपुर था । तीसरे मत के अनुसार प्रतिष्ठान उत्तर के पर्वतीय प्रदेश में यमुना तट पर था । चिंतामणि विनायक वैद्य का अनुमान है कि पुरूरवा उत्तराखंड का पहाड़ी राजा था और वहीं उसका उर्वशी अप्सरा से संयोग हुआ । उसके पुत्र ययाति ने पर्वत के नीचे उतरकर सरस्वती के किनारे ( वर्तमान अंबाला के आस-पास ) अपना केंद्र बनाया ( वैद्य-दि सोलर एंड लूनर क्षत्रिय रेसेज ऑफ इण्डिया, पृ0 47-48 )
  4. महाभारत 5, 110; हरिवंश पुराण 91, 4967 ।, मत्स्य पुराण 44, 66, 70; ब्रह्मांड0 3, 71, 128; ब्रह्म0 15, 54 हरिवंश, 38, 2023, ऐतरेय ब्राह्मण 8, 14, 3; महाभारत, 5, 157; हरिवंश, 92 5096; 99, 4596 आदि ।

सम्बंधित लिंक

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