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फ़ाह्यान (337-422 ई पू) एक चीनी बौद्ध भिक्षु था जो [[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] के राज्य काल में [[मथुरा]] आया था । फ़ाह्यान ने नेपाल,  भारत श्री लंका की यात्राएँ कीं और बौद्ध धर्म संबंधी साहित्य इकट्ठा किया ।  फ़ाह्यान ने पुस्तक भी लिखीं । वह [[गौतम बुद्ध]] के जन्म स्थान लुंबनी ( नेपाल)  भी गया । उसकी प्रसिद्ध पुस्तक का विवरण निम्न है :
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फ़ाह्यान (337-422 ई पू) एक चीनी बौद्ध भिक्षु था जो [[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] के राज्य काल में [[मथुरा]] आया था । फ़ाह्यान ने नेपाल,  भारत श्री लंका की यात्राएँ कीं और बौद्ध धर्म संबंधी साहित्य इकट्ठा किया । एक प्रसिद्ध चीनी बौद्धयात्री था जो विनयपिटक की प्रामाणिक प्रति की खोज में भारत आया और 401 ई0 से 410 ई0 तक यहां रहा। उसने [[तक्षशिला]], पुरूषपुर (पेशावर) होते हुए तीन वर्ष तक उत्तर भारत की यात्रा की और दो वर्ष ताम्रलिपि (पश्चिमी बंगाल का आधुनिक तमलुक) मंश बिताए। उसने अपनी भारत यात्रा के वर्णन में गंगाघाटी के मैदान को 'मध्यदेश' बताया है।
Fa Xian (ca. 337 – ca. 422) was a Chinese Buddhist monk who traveled to Nepal, India, and Sri Lanka to acquire Buddhist scriptures between 399 and 412 . His journey is described in his work A Record of Buddhistic Kingdoms, Being an Account by the Chinese Monk Fa-Hien of his Travels in India and Ceylon in Search of the Buddhist Books of Discipline. He is most known for his pilgrimage to Lumbini, the birthplace of Lord Buddha.
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His work is a travel book, filled with accounts of early Buddhism, and the geography and history of numerous countries along the Silk Roads at the turn of the 5th century CE.
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फाहियान के वर्णन से ज्ञात होता है कि उन दिनों देश में बड़ा अमन-चैन था।  लोग बेरोक-टोक आते-जाते थे। फांसी की सजा नहीं दी जाती थी।  हां, गंभीर अपराध करने पर अंग-भंग की सजा मिलती थी। आम जनता वैभव संपन्न थी।  यात्रियों और रोगियों के लिए बड़ा अच्छा प्रबंध था।  किसी प्राणी की हत्या नहीं की जाती थी।  कोई शराब नहीं पीता था। फाहियान ने तीन वर्ष [[पाटलिपुत्र]] में रहकर [[संस्कृत]] भाषा सीखी और [[बौद्ध]] ग्रंथों का अध्ययन किया। अंत में वह 410 ई0 में ताम्रलिप्ति से जलयान में बैठा और श्रीलंका तथा जावा होता हुआ 414 ई0 में चीन वापस पहुंचा।
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फ़ाह्यान ने पुस्तक भी लिखीं । वह [[गौतम बुद्ध]] के जन्म स्थान लुंबनी ( नेपाल)  भी गया । उसकी प्रसिद्ध पुस्तक का विवरण निम्न है :----
  
 
सोलहवां पर्व
 
सोलहवां पर्व

१६:२९, १८ जून २००९ का अवतरण

फ़ाह्यान / Fahiyan (Fa Xian ओर Fa-Hien) (337-422 ई पू लगभग)

फ़ाह्यान (337-422 ई पू) एक चीनी बौद्ध भिक्षु था जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्य काल में मथुरा आया था । फ़ाह्यान ने नेपाल, भारत श्री लंका की यात्राएँ कीं और बौद्ध धर्म संबंधी साहित्य इकट्ठा किया । एक प्रसिद्ध चीनी बौद्धयात्री था जो विनयपिटक की प्रामाणिक प्रति की खोज में भारत आया और 401 ई0 से 410 ई0 तक यहां रहा। उसने तक्षशिला, पुरूषपुर (पेशावर) होते हुए तीन वर्ष तक उत्तर भारत की यात्रा की और दो वर्ष ताम्रलिपि (पश्चिमी बंगाल का आधुनिक तमलुक) मंश बिताए। उसने अपनी भारत यात्रा के वर्णन में गंगाघाटी के मैदान को 'मध्यदेश' बताया है।


फाहियान के वर्णन से ज्ञात होता है कि उन दिनों देश में बड़ा अमन-चैन था। लोग बेरोक-टोक आते-जाते थे। फांसी की सजा नहीं दी जाती थी। हां, गंभीर अपराध करने पर अंग-भंग की सजा मिलती थी। आम जनता वैभव संपन्न थी। यात्रियों और रोगियों के लिए बड़ा अच्छा प्रबंध था। किसी प्राणी की हत्या नहीं की जाती थी। कोई शराब नहीं पीता था। फाहियान ने तीन वर्ष पाटलिपुत्र में रहकर संस्कृत भाषा सीखी और बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया। अंत में वह 410 ई0 में ताम्रलिप्ति से जलयान में बैठा और श्रीलंका तथा जावा होता हुआ 414 ई0 में चीन वापस पहुंचा।


फ़ाह्यान ने पुस्तक भी लिखीं । वह गौतम बुद्ध के जन्म स्थान लुंबनी ( नेपाल) भी गया । उसकी प्रसिद्ध पुस्तक का विवरण निम्न है :----

सोलहवां पर्व

मथुरा

यहां से दक्षिण पूर्व दिशा में अस्सी योजन चले । मार्ग में लगातार बहुत से विहार मिले जिनमें लाखों श्रमण मिले । सब स्थान में होते हुए एक जनपद में पहुंचे । जनपद का नाम मताऊला (मथुरा) था । पूना नदी के किनारे किनारे चले । नदी के दहिने बाएं बीस विहार थे जिनमे तीन सहस्र से अधिक भिक्षु थे । बौद्ध धर्म का अच्छा प्रचार अब तक है । मरुभूमि से पश्चिम हिंदुस्तान के सभी जनपदों में जनपदों के अधिपति बौद्ध धर्मानुयायी मिले । भिक्षु संघ को भिक्षा कराते समय वे अपने मुकुट उतार डालते हैं । अपने बंधुओं और आमात्यों सहित अपने हाथों से भोजन परसते हैं । परस कर प्रधान के आगे आसन बिछवा कर बैठ जाते हैं । संघ के सामने खाट पर बैठने का साहस नहीं करते । तथागत के समय जो प्रथा राजाओं में भिक्षा कराने की थी वही अब तक चली आती है । यहां से दक्षिण मध्य देश कहलाता है । यहां शीत और उष्ण सम है । प्रजा प्रभूत और सुखी है । व्यवहार की लिखा पढ़ी और पंच पंचायत कुछ नहीं है । लोग राजा की भूमि जोतते हैं और उपज का अंश देते हैं । जहां चाहें जाएं, जहां चाहें रहें, राजा न प्राणदंड देता है और न शारीरिक दंड देता है । अपराधी को अवस्थानुसार उत्तम साहस व मध्यम साहस का अर्थदंड दिया जाता है । बार दस्यु कर्म करने पर दक्षिण करच्छेद किया जाता है राजा के प्रतिहार और सहचर वेतन-भोगी हैं । सारे देश में कोई अधिवासी न जीव हिंसा करता है, न मद्य पीता है और न लहसुन प्याज खाता है; सिवाय चांडाल के । दस्यु को चांडाल कहते हैं । वे नगर के बारह रहते हैं और नगर में जब पैठते हैं तो सूचना के लिए लकड़ी बजाते चलते हैं, कि लोग जान जाएं और बचा कर चलें, कहीं उनसे छू न जाएं । जनपद में सूअर और मुर्गी नहीं पालते, न जीवित पशु बेचते हैं, न कही सूनागार और मद्य की दुकानें हैं । क्रय विक्रय में कौड़ियों का व्यवहार है । केवल चांडाल मछली मारते, मृगया करते और मांस बेचते हैं । बुद्धदेव के बोधि लाभ करने पर सब जनपदों के राजा और सेठों ने भिक्षुओं के लिए विहार बनवाए । खेत, घर, वन, आराम वहां की प्रजा और पशु को दान कर दिया । दानपत्र ताम्रपत्र पर खुदे हैं । प्राचीन राजाओं के समय से चले आते हैं, किसी ने आज तक विफल नहीं किया, अब तक तैसे ही हैं । विहार में संघ को खान पान मिलता है, वस्त्र मिलता है, आए गए को वर्षा में आवास मिलता है । श्रमणों का कृत्य शुभ कर्मों से धर्मोपार्जन करना, सूत्र का पाठ करना और ध्यान लगाना है । आगंतुक (अतिथि) भिक्षु आते हैं तो रहनेवाले (स्थायी) भिक्षु उन्हें आगे बढ़कर लेते हैं । उनके वस्त्र और भिक्षापात्र स्वयं ले लेने पर उनसे पूछते हैं कि कितने दिनों से प्रव्रज्या ग्रहण की है फिर उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार आवास देते हैं ओर यथानियम उनसे व्यवहार करते हैं । भिक्षु संघ के स्थान पर सारिपुत्र, महा मौद्गलायन और महाकश्यप के स्तूप बने रहते हैं और वहीं अभिधर्म, विनय और सूत्र के स्तूप बने रहते हैं ओर वहीं अभिधर्म, विनय और सूत्र के स्तूप भी होते हैं । वर्षा से एक मास पीछे उपासक लोग भिक्षुओं को दान देने के लिए परस्पर स्पर्द्धा करते हैं । सब ओर से लोग साधुओं को विकाल के लिए 'पेय' भेजते हैं । भिक्षु संघ के संघ आते हैं, धर्मोपदेश करते हैं, फिर सारिपुत्र के स्तूप की पूजा माला और गंध से करते हैं । रात भर दीपमालिका होती है ओर गीत वाद्य कराया जाता है । सारिपुत्र कुलीन ब्राह्मण थे । तथागत से प्रव्रज्या के लिए प्रार्थना की । महामोद्गलायन और महाकश्यप ने भी यही किया था । भिक्षुनी प्राय: आनंद के स्तूप की पूजा करती हैं । उन्होंने ही तथागत से स्त्रियों को प्रव्रज्या देने की प्रार्थना की थी । श्रामणेर राहुल की पूजा करते हैं । अभिधर्म के अभ्यासी अभिधर्म की विनय के अनुयायी विनय की पूजा करते हैं । प्रतिवर्ष पूजा एक बार होती है । हर एक के लिए दिन नियत है । महायान के अनुयायी प्रज्ञापारमिता, मंजुश्र ओर अवलोकितेश्वर की पूजा करते हैं । जब भिक्षु वार्षिकी अग्रहार पा जाते हैं तब सेठ और ब्राह्मण लोग वस्त्र ओर अन्य उपस्कार बांटते हैं । भिक्षु उन्हें लेकर यथाभाग विभक्त करते हैं । बुद्धदेव के बोधि प्राप्त काल से ही यह रीति, आचार व्यवहार और नियम अविच्छिन्न लगातार चले आते हैं । हियंतु उतरने के स्थान से दक्षिण हिंदुस्तान तक और दक्षिण समुद्र तक चालीस पचास हजार ली तक चौरस (भूमि) है, इसमें कहीं पर्वत झरने नहीं हैं, नदी का ही जल है।