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− | ==बहुलावन/वाटी / Bahulavan== | + | ==बहुलावन / वाटी / Bahulavan== |
− | + | द्वादश वन (बारह वनों में) में बहुला नामक वन पंचम वन एंव वनों में से श्रेष्ठ है । जो लोग इस वन में आते है वे मृत्यु पश्चात अग्निलोक को प्राप्त होते है। आजकल यहां वाटी नाम का गांव बसा है बहुला नामक गांव की पौराणिक गाथा इसी वन से सम्बन्धित है । | |
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− | फेचरी पूतना का स्थान है । | + | बहुलावन एक परम सुन्दर और रमणीय वन है । यह स्थान बहुला नामक श्रीहरि की सखी ([[गोपी]]) का निवास स्थल है । 'बहुला श्रीहरे: पत्नी तत्र तिष्ठति सर्वदा' । इसका वर्तमान नाम बाटी है । यह स्थान [[मथुरा]] से पश्चिम में सात मील की दूरी पर [[राधाकुण्ड]] एवं [[वृन्दावन]] के मध्य स्थित है । यहाँ संकर्षण कुण्ड तथा मानसरोवर नामक दो कुण्ड हैं । कभी [[राधा|राधिका]] मान करके इस स्थान के एक कुंज में छिप गई । [[कृष्ण]] ने उनके विरह में कातर होकर सखियों के द्वारा अनुसंधान कर बड़ी कठिनता से उनका मान भंग किया था। जनश्रुति है कि जो लोग जैसी कामना कर उसमें स्नान करते हैं, उनके मनोरथ सफल हो जाते हैं । कुण्ड के तट पर स्थित श्री लक्ष्मी-नारायण मन्दिर, बहुला नामक गाय का स्थान, सुदर्शनचक्र का चिन्ह, श्री कुण्डेश्वर महादेव एंव श्री [[वल्लभाचार्य]] जी की बैठक दर्शनीय है । लोककथा के अनुसार किसी समय बहुला नाम की एक गाय इस सरोवर में पानी पी रही थी, उसी समय एक भयंकर बाघ ने उस पर आक्रमण कर उसे पकड़ लिया । वह अपने भूखे बछड़े को दूध पिलाकर लौट आने का आश्वासन देकर अपने स्वामी ब्राह्मण के घर लौटी । उसने अपने द्वारा बाघ को दिये हुये वचन की बात सुनाकर अपने बछड़े को भरपेट दूध पी लेने के लिए कहा तो बछड़ा भी बिना दूध पिये माता के साथ जाने की हठ करने लगा । ब्राह्मण उन दोनों को घर रखकर बाघ का ग्रास बनने के लिए स्वयं जाने को उद्यत हो गया । अन्तत: ये तीनों बाघ के समीप पहुँचे । तीनों ने अपने-अपने को प्रस्तुत करने पर बाघ का हृदय बदल गया । श्रीकृष्ण की कृपा से वह ब्राह्मण, गाय और बछड़े को लेकर सकुशल घर लौट आया। |
+ | ==श्री राधाकुण्ड–श्रीकृष्णकुण्ड== | ||
+ | बहुलावन के अन्तर्गत ही राधाकुण्ड है । इसलिए बहुलाष्टमी के दिन श्रीराधाकुण्ड में स्नान की विधि है तथा उस दिन स्नान का विशाल मेला लगता है। श्रीराधाकुण्ड गोवर्धन पर्वत की तलहटी में शोभायमान है, कार्तिक माह की कृष्णाष्टमी (इस दोनों कुण्ड की प्रकट तिथि बहुलाष्टमी) के दिन यहाँ स्नान करने वालों श्रद्धालुओं को श्रीराधा–कुञ्जविहारी श्रीहरि की सेवामयी प्रेमाभक्ति प्राप्त होती है । कार्तिक माह की दीपावली के दिन श्रीराधाकुण्ड में श्रीराधाकृष्ण के ऐकान्तिक भक्तों को अखिलब्रह्माण्ड तथा सम्पूर्ण व्रजमण्डल दीख पड़ता है। श्री राधाकुण्ड के पास ही श्री[[श्यामकुण्ड]] भी है। | ||
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+ | भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु वन–भ्रमण के समय यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर विहृल हो गये । श्रीचैतन्यचरितामृत में इसका मनोरम हृदयस्पर्शी वर्णन उपलब्ध होता है– जिस समय श्रीचैतन्य महाप्रभु ने इस बहुलावन में प्रवेश किया उस समय वहाँ पर चरती हुई सुन्दर-सुन्दर गायों ने चरना छोड़कर उन्हें घेर लिया । वे प्रेम में भरकर हुँकार करने लगी तथा उनके अंगों को चाटने लगीं । गऊओं के प्रेम भरे वात्सल्य को देखकर महाप्रभुजी प्रेम की तरंग बहते हुए भावाविष्ट हो गये । कुछ स्वस्थ होने पर उनकी लोरियों को सहलाने लगे । गऊएँ भी उनका संग नहीं छोड़ना चाहती थी । किन्तु चरवाहों ने बड़े कष्ट से उन्हें किसी प्रकार रोका । उस समय महाप्रभु 'कोथाय कृष्ण, कोथाय कृष्ण' कहकर भावाविष्ट हो रोदन कर रहे थे। झुण्ड के झुण्ड हिरण और हिरणियाँ एकत्रित हो गई और निर्भय होकर प्रेम से महाप्रभुजी के अंगों को चाटने लगीं । शुक–सारी, कोयल, पपीहे, पञ्चमस्वर में गाने लगे । मयूर महाप्रभु के आगे–आगे नृत्य करने लगे । वृक्ष और लताएँ पुलकित हो उठीं– अंकुर, नव– किशलय एवं पुष्पों से भरपूर हो गयी । वे प्रेमपूर्वक अपनी टहनीरूपी करपल्लवों से महाप्रभु के चरणों में पुष्प और फलों का उपहार देने लगीं । महाप्रभु वृन्दावन के स्थावर और जंगम सभी के उच्छ्वलित भावों को देखकर और भी अधिक भावविष्ट हो गये । जब महाप्रभु जी भावाविष्ट होकर कृष्ण बोलो ! कृष्ण बोलो ! कहकर उच्चस्वर में रोदन करते, [[ब्रज]] के स्थावन–जंगम सभी प्रतिध्वनि के रूप में उनको दोहराते । महाप्रभुजी कभी कभी हिरण और हिरणियों के गले को पकड़कर बहुत ही कातर स्वर से रोदन करते । वे भी अश्रुपूरित नेत्रों से उनके मुखारविन्द को प्रणयभरी दृष्टि से निहारने लगतीं । कुछ आगे बढ़ने पर महाप्रभुजी ने देखा आमने– सामने वृक्षों को डालियों पर शुक–सारी परस्पर प्रेम–कलह करते हुए श्री राधाकृष्ण युगल का गुणवान कर रहे हैं । गोविन्दलीलामृत के 13 वें सर्ग के 26 श्लोक में शुकवाक्य– | ||
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+ | सौन्दर्यम् ललनालिधैर्यदलनं लीला रमास्तम्भिनी | ||
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+ | तीर्याम् कन्दुकिताद्रि–वर्यममला: पारे –पराद्धं गुणा: । | ||
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+ | शीलं सर्वजनानुरञ्जनमहो यस्यायमस्मत प्रभुर्विश्वं | ||
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+ | विश्वजनीनकीर्तिरवतात् कृष्णे जगन्मोहन: ।। | ||
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+ | गोविन्दलीलामृत के 13 वें सर्ग के 30 श्लोक में सारी वाक्य– | ||
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+ | श्रीराधिकाया: प्रियता स्वरूपता सुशीलता नर्तनगानचातुरी । | ||
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+ | गुणालिसम्पत कविता च राजते जगन्मोहन– चित्तमोहिनी ।। | ||
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+ | वंशीधारी जगन्नारी–चित्तहारी स सारिके । | ||
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+ | विहारी गोपनारीभिर्जीयान्मदनमोहन: ।। | ||
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+ | श्री चैतन्य महाप्रभु शुक–सारी के इस प्रेम–कलह को सुनकर इतने विह्रल हो गये कि वे स्थिर नहीं रह सके, मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े । उनके साथियों उन्हें किसी प्रकार सचेतन कराया । तत्पश्चात वह ब्रज–परिक्रमा को अग्रसर हुये। | ||
+ | ==शकना गाँव== | ||
+ | यह बाटी गाँव से एक मील की दूरी पर स्थित है । यहाँ बलभद्र और दाऊजी के दर्शन हैं । यहां जाने पर गणेशरा ,दतिया एवं फेचरी गांव पड़ते हैं । दतिया से दन्तचक्र मारा गया था । | ||
+ | फेचरी पूतना का स्थान है। | ||
+ | ==तोषगाँव== | ||
+ | यहाँ के तोष नामक गोप नृत्यकला में बड़े निपुण थे । उन्होंने श्रीकृष्ण को नृत्य कला में निपुण किया । उस नृत्य से कृष्ण को बहुत ही सन्तोष हुआ । यहाँ तरस कुण्ड है । जिसके जल को पीकर गऊएँ, ग्वाल–बाल, कृष्ण और बलराम को बड़ा ही सन्तोष होता था। इसलिए भी इस गाँव का नाम तोष गाँव है । | ||
+ | ==जखिन ग्राम== | ||
+ | यह तो ग्राम से दो मील की दूरी पर है। इसका पूर्वनाम दक्षिण ग्राम है । राधिकाजी का वाम्य भाव ही प्रसिद्ध है । श्रीकृष्ण को वही भाव सर्वाधिक सुखकर है । किन्तु राधिकाजी में अखिल नायिकोचित भाव भी विद्यमान हैं । अत: कभी-कभी विशेष स्थिति में यहाँ दक्षिण नायिकोचित भाव को प्रकाश कर किशोरी जी ने श्रीकृष्ण को आनन्दित किया था । इसलिए इस ग्राम का नाम दक्षिण ग्राम हुआ है । किसी समय दाऊजी ने कृष्ण विलास में बाधा देने वाले एक यक्षिणी का बध किया था । इसिलिए इसे जक्षिण या जखिन ग्राम भी कहते हैं । यहाँ बलभद्र कुण्ड तथा बलदेव रेवती का दर्शन है । | ||
+ | ==विहारवन== | ||
+ | यह श्रीराधाकृष्ण युगल की विहारस्थली है । यहाँ पर राधिकाजी ने कृष्ण के नृत्य की परीक्षा ली थी । | ||
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+ | प्रिय को नचवन सिखवत राधा प्यारी ! | ||
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+ | मान गुमान लकुट लिए ठाढ़ी | ||
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+ | मंथरागति जबहि, डरपत कुञ्जबिहारी ।। | ||
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+ | मान–गुमान की छड़ी लेकर राधाप्यारी प्यारे कुञ्जबिहारी को नाचना सिखा रही हैं । किन्तु जब राधाप्यारी के निर्देश के अनुसार क्षिप्र गति से नृत्य में कोई त्रुटि आ पड़ी तो प्यारी जी ने आँखों की प्रखर दृष्टि से उन्हें ताड़न किया । यहाँ विहारकुण्ड है, जिसके निर्मल जल में ग्वालबालों के साथ कृष्ण ने गऊओं को मधुर जल पिलाया तथा जल विहार किया। पास ही अति रमणीय कदम्ब खण्डी है, जिसमें छोटी सी छत्री में भगवान के श्रीचरणों के चिन्ह दर्शनीय है। | ||
+ | ==बसौंती और राल ग्राम== | ||
+ | वर्तमान बसौती का नाम बसती है और राल का वर्तमान नाम राल ग्राम है । जिस समय नन्दबाबा ने सपरिवार गोकुल महावन को छोड़कर छटीकरा में निवास किया, उस समय उनके मित्र वृषभानु महाराज ने यहाँ बसौंती ग्राम में निवास किया । उनके यहाँ वास करने से यहा बसौंती हुआ है । निकट ही राल गाँव है । राल राधाजी की बाल्य लीलास्थली है । तथा बसौंती उनकी आंशिक पौगण्ड लीला स्थली है । बरसाना, जावट और राधाकुण्ड उनकी किशोरलीला की स्थलियाँ हैं । किंन्तु श्रीराधाकुण्ड उनकी परिपूर्णतम लीलाविलास की परमोच्चतम लीला स्थली है यहाँ बलभद्रकुण्ड, बलभद्रमन्दिर तथा पास ही में कदम्ब–खण्डी है । | ||
+ | ==अडींग== | ||
+ | मथुरा से पश्चिम में 9 मील की दूरी पर मुख्य राजमार्ग तथा गोवर्धन से चार मील पूर्व में अडींग स्थित है । सखाओं के साथ श्रीकृष्णने यहाँ सखियों से अड़कर दान लिया था । इसिलिए इसका नाम अडींग है । यहाँ किल्लोल कुण्ड में श्रीकृष्ण–बलराम ने जल कल्लोल जल बिहार किया था । | ||
+ | ==माधुरी कुण्ड== | ||
+ | अडींग से दो मील अग्निकोण में माधुरी खोर है । यह राधाजी की प्रिय सखी माधुरीजी का स्थान है । वाणीकार माधुरीदासजी की यहाँ जन स्थली है । यह स्थान बड़ा ही रमणीय है । | ||
+ | ==मयूर ग्राम== | ||
+ | यह स्थान बहुलावन से दो मील नैऋत कोण में है । यहाँ श्रीकृष्ण अपनी प्रिय गोपियों के साथ मयूरों का नृत्य देखकर स्वयं भी उनके बीच में आनन्द पूर्वक नृत्य करने लगे । मयूरों ने प्रसन्न होकर कृष्ण को अपना एक सुन्दर बहुरंगी पंख न्यौछावर स्वरूप दिया, जिसे कृष्ण ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया । यहाँ मयूर कुण्ड दर्शनीय है । | ||
+ | ==छकना ग्राम== | ||
+ | मयूर गाँव के पास में ही छकना ग्राम है । गोचारण के समय यहाँ की गोपियों ने सखाओं के साथ श्रीकृष्ण बलराम को पेट भरकर छाछ पिलायी थी । |
१२:३१, २२ जुलाई २००९ का अवतरण
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बहुलावन / वाटी / Bahulavan
द्वादश वन (बारह वनों में) में बहुला नामक वन पंचम वन एंव वनों में से श्रेष्ठ है । जो लोग इस वन में आते है वे मृत्यु पश्चात अग्निलोक को प्राप्त होते है। आजकल यहां वाटी नाम का गांव बसा है बहुला नामक गांव की पौराणिक गाथा इसी वन से सम्बन्धित है ।
बहुलावन एक परम सुन्दर और रमणीय वन है । यह स्थान बहुला नामक श्रीहरि की सखी (गोपी) का निवास स्थल है । 'बहुला श्रीहरे: पत्नी तत्र तिष्ठति सर्वदा' । इसका वर्तमान नाम बाटी है । यह स्थान मथुरा से पश्चिम में सात मील की दूरी पर राधाकुण्ड एवं वृन्दावन के मध्य स्थित है । यहाँ संकर्षण कुण्ड तथा मानसरोवर नामक दो कुण्ड हैं । कभी राधिका मान करके इस स्थान के एक कुंज में छिप गई । कृष्ण ने उनके विरह में कातर होकर सखियों के द्वारा अनुसंधान कर बड़ी कठिनता से उनका मान भंग किया था। जनश्रुति है कि जो लोग जैसी कामना कर उसमें स्नान करते हैं, उनके मनोरथ सफल हो जाते हैं । कुण्ड के तट पर स्थित श्री लक्ष्मी-नारायण मन्दिर, बहुला नामक गाय का स्थान, सुदर्शनचक्र का चिन्ह, श्री कुण्डेश्वर महादेव एंव श्री वल्लभाचार्य जी की बैठक दर्शनीय है । लोककथा के अनुसार किसी समय बहुला नाम की एक गाय इस सरोवर में पानी पी रही थी, उसी समय एक भयंकर बाघ ने उस पर आक्रमण कर उसे पकड़ लिया । वह अपने भूखे बछड़े को दूध पिलाकर लौट आने का आश्वासन देकर अपने स्वामी ब्राह्मण के घर लौटी । उसने अपने द्वारा बाघ को दिये हुये वचन की बात सुनाकर अपने बछड़े को भरपेट दूध पी लेने के लिए कहा तो बछड़ा भी बिना दूध पिये माता के साथ जाने की हठ करने लगा । ब्राह्मण उन दोनों को घर रखकर बाघ का ग्रास बनने के लिए स्वयं जाने को उद्यत हो गया । अन्तत: ये तीनों बाघ के समीप पहुँचे । तीनों ने अपने-अपने को प्रस्तुत करने पर बाघ का हृदय बदल गया । श्रीकृष्ण की कृपा से वह ब्राह्मण, गाय और बछड़े को लेकर सकुशल घर लौट आया।
श्री राधाकुण्ड–श्रीकृष्णकुण्ड
बहुलावन के अन्तर्गत ही राधाकुण्ड है । इसलिए बहुलाष्टमी के दिन श्रीराधाकुण्ड में स्नान की विधि है तथा उस दिन स्नान का विशाल मेला लगता है। श्रीराधाकुण्ड गोवर्धन पर्वत की तलहटी में शोभायमान है, कार्तिक माह की कृष्णाष्टमी (इस दोनों कुण्ड की प्रकट तिथि बहुलाष्टमी) के दिन यहाँ स्नान करने वालों श्रद्धालुओं को श्रीराधा–कुञ्जविहारी श्रीहरि की सेवामयी प्रेमाभक्ति प्राप्त होती है । कार्तिक माह की दीपावली के दिन श्रीराधाकुण्ड में श्रीराधाकृष्ण के ऐकान्तिक भक्तों को अखिलब्रह्माण्ड तथा सम्पूर्ण व्रजमण्डल दीख पड़ता है। श्री राधाकुण्ड के पास ही श्रीश्यामकुण्ड भी है।
भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु वन–भ्रमण के समय यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर विहृल हो गये । श्रीचैतन्यचरितामृत में इसका मनोरम हृदयस्पर्शी वर्णन उपलब्ध होता है– जिस समय श्रीचैतन्य महाप्रभु ने इस बहुलावन में प्रवेश किया उस समय वहाँ पर चरती हुई सुन्दर-सुन्दर गायों ने चरना छोड़कर उन्हें घेर लिया । वे प्रेम में भरकर हुँकार करने लगी तथा उनके अंगों को चाटने लगीं । गऊओं के प्रेम भरे वात्सल्य को देखकर महाप्रभुजी प्रेम की तरंग बहते हुए भावाविष्ट हो गये । कुछ स्वस्थ होने पर उनकी लोरियों को सहलाने लगे । गऊएँ भी उनका संग नहीं छोड़ना चाहती थी । किन्तु चरवाहों ने बड़े कष्ट से उन्हें किसी प्रकार रोका । उस समय महाप्रभु 'कोथाय कृष्ण, कोथाय कृष्ण' कहकर भावाविष्ट हो रोदन कर रहे थे। झुण्ड के झुण्ड हिरण और हिरणियाँ एकत्रित हो गई और निर्भय होकर प्रेम से महाप्रभुजी के अंगों को चाटने लगीं । शुक–सारी, कोयल, पपीहे, पञ्चमस्वर में गाने लगे । मयूर महाप्रभु के आगे–आगे नृत्य करने लगे । वृक्ष और लताएँ पुलकित हो उठीं– अंकुर, नव– किशलय एवं पुष्पों से भरपूर हो गयी । वे प्रेमपूर्वक अपनी टहनीरूपी करपल्लवों से महाप्रभु के चरणों में पुष्प और फलों का उपहार देने लगीं । महाप्रभु वृन्दावन के स्थावर और जंगम सभी के उच्छ्वलित भावों को देखकर और भी अधिक भावविष्ट हो गये । जब महाप्रभु जी भावाविष्ट होकर कृष्ण बोलो ! कृष्ण बोलो ! कहकर उच्चस्वर में रोदन करते, ब्रज के स्थावन–जंगम सभी प्रतिध्वनि के रूप में उनको दोहराते । महाप्रभुजी कभी कभी हिरण और हिरणियों के गले को पकड़कर बहुत ही कातर स्वर से रोदन करते । वे भी अश्रुपूरित नेत्रों से उनके मुखारविन्द को प्रणयभरी दृष्टि से निहारने लगतीं । कुछ आगे बढ़ने पर महाप्रभुजी ने देखा आमने– सामने वृक्षों को डालियों पर शुक–सारी परस्पर प्रेम–कलह करते हुए श्री राधाकृष्ण युगल का गुणवान कर रहे हैं । गोविन्दलीलामृत के 13 वें सर्ग के 26 श्लोक में शुकवाक्य–
सौन्दर्यम् ललनालिधैर्यदलनं लीला रमास्तम्भिनी
तीर्याम् कन्दुकिताद्रि–वर्यममला: पारे –पराद्धं गुणा: ।
शीलं सर्वजनानुरञ्जनमहो यस्यायमस्मत प्रभुर्विश्वं
विश्वजनीनकीर्तिरवतात् कृष्णे जगन्मोहन: ।।
गोविन्दलीलामृत के 13 वें सर्ग के 30 श्लोक में सारी वाक्य–
श्रीराधिकाया: प्रियता स्वरूपता सुशीलता नर्तनगानचातुरी ।
गुणालिसम्पत कविता च राजते जगन्मोहन– चित्तमोहिनी ।।
वंशीधारी जगन्नारी–चित्तहारी स सारिके ।
विहारी गोपनारीभिर्जीयान्मदनमोहन: ।।
श्री चैतन्य महाप्रभु शुक–सारी के इस प्रेम–कलह को सुनकर इतने विह्रल हो गये कि वे स्थिर नहीं रह सके, मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े । उनके साथियों उन्हें किसी प्रकार सचेतन कराया । तत्पश्चात वह ब्रज–परिक्रमा को अग्रसर हुये।
शकना गाँव
यह बाटी गाँव से एक मील की दूरी पर स्थित है । यहाँ बलभद्र और दाऊजी के दर्शन हैं । यहां जाने पर गणेशरा ,दतिया एवं फेचरी गांव पड़ते हैं । दतिया से दन्तचक्र मारा गया था । फेचरी पूतना का स्थान है।
तोषगाँव
यहाँ के तोष नामक गोप नृत्यकला में बड़े निपुण थे । उन्होंने श्रीकृष्ण को नृत्य कला में निपुण किया । उस नृत्य से कृष्ण को बहुत ही सन्तोष हुआ । यहाँ तरस कुण्ड है । जिसके जल को पीकर गऊएँ, ग्वाल–बाल, कृष्ण और बलराम को बड़ा ही सन्तोष होता था। इसलिए भी इस गाँव का नाम तोष गाँव है ।
जखिन ग्राम
यह तो ग्राम से दो मील की दूरी पर है। इसका पूर्वनाम दक्षिण ग्राम है । राधिकाजी का वाम्य भाव ही प्रसिद्ध है । श्रीकृष्ण को वही भाव सर्वाधिक सुखकर है । किन्तु राधिकाजी में अखिल नायिकोचित भाव भी विद्यमान हैं । अत: कभी-कभी विशेष स्थिति में यहाँ दक्षिण नायिकोचित भाव को प्रकाश कर किशोरी जी ने श्रीकृष्ण को आनन्दित किया था । इसलिए इस ग्राम का नाम दक्षिण ग्राम हुआ है । किसी समय दाऊजी ने कृष्ण विलास में बाधा देने वाले एक यक्षिणी का बध किया था । इसिलिए इसे जक्षिण या जखिन ग्राम भी कहते हैं । यहाँ बलभद्र कुण्ड तथा बलदेव रेवती का दर्शन है ।
विहारवन
यह श्रीराधाकृष्ण युगल की विहारस्थली है । यहाँ पर राधिकाजी ने कृष्ण के नृत्य की परीक्षा ली थी ।
प्रिय को नचवन सिखवत राधा प्यारी !
मान गुमान लकुट लिए ठाढ़ी
मंथरागति जबहि, डरपत कुञ्जबिहारी ।।
मान–गुमान की छड़ी लेकर राधाप्यारी प्यारे कुञ्जबिहारी को नाचना सिखा रही हैं । किन्तु जब राधाप्यारी के निर्देश के अनुसार क्षिप्र गति से नृत्य में कोई त्रुटि आ पड़ी तो प्यारी जी ने आँखों की प्रखर दृष्टि से उन्हें ताड़न किया । यहाँ विहारकुण्ड है, जिसके निर्मल जल में ग्वालबालों के साथ कृष्ण ने गऊओं को मधुर जल पिलाया तथा जल विहार किया। पास ही अति रमणीय कदम्ब खण्डी है, जिसमें छोटी सी छत्री में भगवान के श्रीचरणों के चिन्ह दर्शनीय है।
बसौंती और राल ग्राम
वर्तमान बसौती का नाम बसती है और राल का वर्तमान नाम राल ग्राम है । जिस समय नन्दबाबा ने सपरिवार गोकुल महावन को छोड़कर छटीकरा में निवास किया, उस समय उनके मित्र वृषभानु महाराज ने यहाँ बसौंती ग्राम में निवास किया । उनके यहाँ वास करने से यहा बसौंती हुआ है । निकट ही राल गाँव है । राल राधाजी की बाल्य लीलास्थली है । तथा बसौंती उनकी आंशिक पौगण्ड लीला स्थली है । बरसाना, जावट और राधाकुण्ड उनकी किशोरलीला की स्थलियाँ हैं । किंन्तु श्रीराधाकुण्ड उनकी परिपूर्णतम लीलाविलास की परमोच्चतम लीला स्थली है यहाँ बलभद्रकुण्ड, बलभद्रमन्दिर तथा पास ही में कदम्ब–खण्डी है ।
अडींग
मथुरा से पश्चिम में 9 मील की दूरी पर मुख्य राजमार्ग तथा गोवर्धन से चार मील पूर्व में अडींग स्थित है । सखाओं के साथ श्रीकृष्णने यहाँ सखियों से अड़कर दान लिया था । इसिलिए इसका नाम अडींग है । यहाँ किल्लोल कुण्ड में श्रीकृष्ण–बलराम ने जल कल्लोल जल बिहार किया था ।
माधुरी कुण्ड
अडींग से दो मील अग्निकोण में माधुरी खोर है । यह राधाजी की प्रिय सखी माधुरीजी का स्थान है । वाणीकार माधुरीदासजी की यहाँ जन स्थली है । यह स्थान बड़ा ही रमणीय है ।
मयूर ग्राम
यह स्थान बहुलावन से दो मील नैऋत कोण में है । यहाँ श्रीकृष्ण अपनी प्रिय गोपियों के साथ मयूरों का नृत्य देखकर स्वयं भी उनके बीच में आनन्द पूर्वक नृत्य करने लगे । मयूरों ने प्रसन्न होकर कृष्ण को अपना एक सुन्दर बहुरंगी पंख न्यौछावर स्वरूप दिया, जिसे कृष्ण ने अपने मस्तक पर धारण कर लिया । यहाँ मयूर कुण्ड दर्शनीय है ।
छकना ग्राम
मयूर गाँव के पास में ही छकना ग्राम है । गोचारण के समय यहाँ की गोपियों ने सखाओं के साथ श्रीकृष्ण बलराम को पेट भरकर छाछ पिलायी थी ।