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तमाल वृक्षों सघन वन से परिमण्डित, श्रीराधाकृष्ण के मिलन और रसमयी क्रीड़ाओं का स्थान है, एक समय रसिक बिहारी श्रीकृष्ण सखियों के साथ राधाजी से इसी तमालकुञ्ज में मिले। तमालवृक्षों से लिपटी हुई ऊपर तक फैली नाना प्रकार की लताएँ वल्लरियाँ बड़ी सुहावनी लग रही थीं। श्रीकृष्ण ने प्रियाजी को इंगित कर पूछा- 'यह लता तमाल वृक्ष से लिपटी हुईं क्या कह रही हैं? 'राधिका ने मुस्कराकर  उत्तर दिया- 'स्वाभाविक रूप से इस लता ने तमाल वृक्ष का अवलम्बन कर उसे अपनी बेलो, पत्तों और पुष्पों से आच्छादित कर रखा है, यह वृक्ष का सौभाग्य है कि वृक्ष में फल और पुष्प नही रहने पर भी लताएँ अपने पल्लवों और पुष्पों से इस वृक्ष का का सौन्दर्य अधिक बढ़ा रही है। ' इसी समय पवन के एक झोंके ने लता को झकझोर दिया। यह देखकर किशोर-किशोरी दोनों युगल भाव में विभोर हो गये। यह तमालवन इस स्मृति को संजोए हुए अभी भी वर्तमान है।  
 
तमाल वृक्षों सघन वन से परिमण्डित, श्रीराधाकृष्ण के मिलन और रसमयी क्रीड़ाओं का स्थान है, एक समय रसिक बिहारी श्रीकृष्ण सखियों के साथ राधाजी से इसी तमालकुञ्ज में मिले। तमालवृक्षों से लिपटी हुई ऊपर तक फैली नाना प्रकार की लताएँ वल्लरियाँ बड़ी सुहावनी लग रही थीं। श्रीकृष्ण ने प्रियाजी को इंगित कर पूछा- 'यह लता तमाल वृक्ष से लिपटी हुईं क्या कह रही हैं? 'राधिका ने मुस्कराकर  उत्तर दिया- 'स्वाभाविक रूप से इस लता ने तमाल वृक्ष का अवलम्बन कर उसे अपनी बेलो, पत्तों और पुष्पों से आच्छादित कर रखा है, यह वृक्ष का सौभाग्य है कि वृक्ष में फल और पुष्प नही रहने पर भी लताएँ अपने पल्लवों और पुष्पों से इस वृक्ष का का सौन्दर्य अधिक बढ़ा रही है। ' इसी समय पवन के एक झोंके ने लता को झकझोर दिया। यह देखकर किशोर-किशोरी दोनों युगल भाव में विभोर हो गये। यह तमालवन इस स्मृति को संजोए हुए अभी भी वर्तमान है।  
 
==आटस==
 
==आटस==
कृष्ण की परमानन्दमय मधुर-लीलाओं का दर्शन और आस्वादन करने के पूर्ण अधिकारी तो ब्रजवासी ही हैं। फिर भी चतुर्मुख ब्रह्मा, महादेव शंकर, देवर्षि नारद तथा बहुत से ऋषि-महर्षि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिए ब्रजभूमि की बहुत-सी लीला स्थलियों में निवास कर रहे हैं। [[अष्टावक्र]] मुनि की आराधना का यह स्थल आटस गाँव के नाम से प्रसिद्ध है। अष्टावक्र शब्द से अपभ्रंश होकर आटस नाम हुआ है। यह जनाई गाँव से चार मील तथा वृन्दावन से छह मील की दूरी है।
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कृष्ण की परमानन्दमय मधुर-लीलाओं का दर्शन और आस्वादन करने के पूर्ण अधिकारी तो ब्रजवासी ही हैं। फिर भी चतुर्मुख ब्रह्मा, [[महादेव]] [[शिव|शंकर]], देवर्षि नारद तथा बहुत से ऋषि-महर्षि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिए ब्रजभूमि की बहुत-सी लीला स्थलियों में निवास कर रहे हैं। [[अष्टावक्र]] मुनि की आराधना का यह स्थल आटस गाँव के नाम से प्रसिद्ध है। अष्टावक्र शब्द से अपभ्रंश होकर आटस नाम हुआ है। यह जनाई गाँव से चार मील तथा वृन्दावन से छह मील की दूरी है।
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==देवीआटस==
 
==देवीआटस==
 
आटस से एक मील दूरी पर यह गाँव स्थित है। यहा गाँव यशोदा के गर्भ से एक साथ उत्पन्न कृष्ण की अनुजा एकांशा देवी का स्थान है। [[वसुदेव]] जी इन्हें [[गोकुल]] से अपने साथ [[कंस]] कारागार में लाये थे। [[देवकी]] के सन्तान होने का समाचार पाकर कंस कारागार में देवकी की गोद से एकांशा को छीनकर पृथ्वी पर पटक देने  के लिए जब उसे हाथों से आकाश की तरफ उठाया तो देवी अष्टभुजा दुर्गारूप धारणकर कंस का तिरस्कार कर आकाश में अन्तर्धान हो कर इस स्थान में प्रकट हुई। वज्रनाभजी ने इस लीला की स्मृति में यह गाँव बसाया था।  
 
आटस से एक मील दूरी पर यह गाँव स्थित है। यहा गाँव यशोदा के गर्भ से एक साथ उत्पन्न कृष्ण की अनुजा एकांशा देवी का स्थान है। [[वसुदेव]] जी इन्हें [[गोकुल]] से अपने साथ [[कंस]] कारागार में लाये थे। [[देवकी]] के सन्तान होने का समाचार पाकर कंस कारागार में देवकी की गोद से एकांशा को छीनकर पृथ्वी पर पटक देने  के लिए जब उसे हाथों से आकाश की तरफ उठाया तो देवी अष्टभुजा दुर्गारूप धारणकर कंस का तिरस्कार कर आकाश में अन्तर्धान हो कर इस स्थान में प्रकट हुई। वज्रनाभजी ने इस लीला की स्मृति में यह गाँव बसाया था।  

०९:५४, १६ दिसम्बर २००९ का अवतरण


बिहारवन / Viharavan

रामघाट से डेढ़ मील दक्षिण-पश्चिम में बिहारवन है। यहाँ बिहारी जी का दर्शन और बिहारकुण्ड है। यहाँ पर ब्रजबिहारी कृष्ण ने राधिका के सहित गोपियों के साथ रासविहार किया एवं अन्यान्य नाना प्रकार के क्रीड़ा-विलास किये थे। श्री यमुना के पास ही यह एक रमणीय स्थल है। ब्रज के अधिकांश वनों के कट जाने पर भी अभी तक बिहारवन का कुछ अंश सुरक्षित है। अभी भी इसमें हजारों मयूर 'के-का' रव करते हैं, वर्षा के दिनों में पंख फैलाकर नृत्य करते हैं, कोयलें कुहकती हैं। इसमें अभी भी सुन्दर-सुन्दर कृञ्ज, कदम्बखण्डी तथा नाना प्रकार की लताएँ वर्तमान हैं। इनका दर्शन करने से कृष्णलीला की मधुर स्मृतियाँ जग उठती हैं। यहाँ की गोशाला में बड़ी सुन्दर-सुन्दर गऊएँ, फुदकते हुए बछड़े और मत्त साँड़ श्रीकृष्ण की गोचारण लीला की मधुर स्मृति जागृत करते हैं।

अक्षयवट

इसे भाण्डीरवट भी कहते हैं। यह रामघाट से दो मील दक्षिण में स्थित है। वटवृक्ष की छाया में श्रीकृष्ण-बलराम सखाओं के साथ विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ विशेषत: मल्लयुद्ध करते थे, तथा यहाँ पर बलदेवजी ने प्रलम्बासुर का वध किया था।

प्रसंग

किसी समय गोचारण करते हुए श्रीकृष्ण-बलराम गऊओं को हरे-भरे मैदान में चरने के लिए छोड़कर सखाओं के साथ दलों में विभक्त: होकर खेल रहे थे। एक दल के अध्यक्ष कृष्ण तथा दूसरे दल के बलदेव जी बने। इस खेल में यह शर्त थी कि जो दल पराजित होगा वह जीतने वाले दल के सदस्यों को अपने कंधों पर बैठाकर भाण्डीरवट से नियत स्थान की दूरी तक लेकर जायेगा तथा वहाँ से लौटकर भाण्डीरवट तक लायेगा। कंस द्वारा प्रेरित प्रलम्बासुर भी सुन्दर सखा का रूप धारणकर कृष्ण के दल में प्रविष्ट हो गया। कृष्ण ने भी जान-बूझकर नये सखा को प्रोत्साहन देकर अपने दल में रखा। खेल में श्रीकृष्ण श्रीदाम के द्वारा और प्रलम्बासुर श्रीबलराम के द्वारा पराजित हुए। शर्त के अनुसार श्रीकृष्ण श्रीदाम को और प्रलम्बासुर बलराम को कंधे पर बैठाकर नियत स्थान की तरफ भागने लगे। कृष्ण अपने गन्तव्य स्थान की ओर चल रहे थे किन्तु दुष्ट प्रलम्बासुर बलदेव को कंधे पर बैठाकर नियत-स्थान की ओर भागने लगा कुछ ही देर में उसने अपना विकराल राक्षस का रूप धारण कर लिया। वह कंस के आदेशानुसार पहले बलदेव जी का वध कर बाद में कृष्ण का भी वध करना चाहता था। बलदेव प्रभु पहले तो कुछ किंकर्तव्य विमूढ़-से दीखे, किन्तु कृष्ण का इशारा पाकर अपने मुष्टि का के आघात से असुर का मस्तक विदीर्ण कर दिया। वह रूधिर वमन करता हुआ पृथ्वी पर लौटने लगा सखाओं के साथ कृष्ण वहाँ उपस्थित हुए तथा बलराम को आलिंगन करते हुए उनके बल और धैर्य की प्रशंसा करने लगे।

दूसरा प्रसंग

एक दिन सखियां के साथ राधिका श्रीकृष्ण के विलास कर रहीं थीं। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- 'प्राणवल्लभ! आप बड़ी डीगें हाँकते हैं कि मल्लविद्या-विशारदों को भी मैंने परास्त किया है, इतना होने पर भी आप श्रीदाम से कैसे पराजित हो गये। श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- यह सम्पूर्ण रूप से मिथ्या है सम्पूर्ण विश्व में मुझे कोई भी नहीं जीत सकता। मैं कभी भी श्रीदाम से नहीं हारा। यह सुनकर राधिकाजी ने कहा- यदि ऐसी बात है तो हम गोपियाँ आपसे मल्लयुद्ध करने के लिए प्रस्तुत हैं। यदि आप हमें पराजित कर देंगे तो हम समझेंगी कि आप यथार्थ में सर्वश्रेष्ठ मल्ल हैं। फिर गोपियों ने मल्लवेश धारण किया। राधिका के साथ कृष्ण का मल्लयुद्ध हुआ, जिसमें कृष्ण सहज ही परास्त हो गये। सखियों ने ताली बजाकर राधिका का अभिनन्दन किया। मल्लयुद्ध और श्रीकृष्ण तथा सखाओं के कसरत करने का स्थान होने के कारण अक्षयवट के पास के गाँव का नाम काश्रट हो गया। काश्रट शब्द का अर्थ है- कसरत करना या कुश्ती करना। प्राचीन वटवृक्ष के अन्तर्हित होने पर उसके स्थान पर और नया वटवृक्ष लगाया गया। भाण्डीरवन स्थित भाण्डीरवट दूसरी लीला-स्थली है, जो यमुना के दूसरे तट पर अवस्थित है ।

आगियारा गाँव

काश्रट गाँव से दो मील दक्षिण-पश्चिम में आगियारा गाँव है। इसका नामान्तर आरा या आगियारा गाँव है। कृष्ण के गोचारण स्थली में मुञ्जाटवी के मध्य यह स्थान स्थित है।

प्रसंग

सखाओं के साथ श्रीकृष्ण भाण्डीरवट की छाया में खेल रहे थे। पास ही गऊएँ यमुना जल पानकर हरी-भरी घासों से पूर्ण मैदान में चर रहीं थीं। चरते-चरते वे कुछ दूर मुञ्जाटवी में पहुँचीं। गर्मी के दिन थे। चिलचिलाती हुई धूप पड़ रही थीं। मुञ्ज के पौधे सूख गये थे। नीचे बालू तप रही थीं। कृष्ण को पीछे छोड़कर जल तथा छाया विहीन इस मुञ्जवन में गऊओं ने प्रवेश किया। सघन मुञ्जों के कारण वे मार्ग भी भूल गईं। प्यास और गर्मी के मारे गऊएँ छटपटाने लगीं। सखा लोग भी कृष्ण और बलराम को छोड़कर गऊओं को ढूँढ़ते हुए वहीं पहुँचे। इनकी अवस्था भी गऊओं जैसी हुई। वे भी गर्मी और प्यास से छटपटाने लगे। इसी बीच दुष्ट कंस के अनुचरों ने मुञ्जवन में आग लगा दी। आग हवा के साथ क्षण-भर में चारों ओर फैल गई। आग की लपटों ने गऊओं और ग्वाल-बालों को घेर लिया। वे बचने का और कोई उपाय न देख कृष्ण और बलदेव को पुकारने लगे। उनकी पुकार सुनकर कृष्ण और बलदेव वहाँ झट उपस्थित हुए। श्रीकृष्ण ने सखाओं को एक क्षण के लिए आँख बंद करने के लिए कहा। उनके आँख बंद करते ही श्रीकृष्ण ने पलक झपकते ही उस भीषण दावाग्नि को पान कर लिया। सखाओं ने आँख खोलते ही देखा कि वे सभी भाण्डीरवट की सुशीतल छाया में कृष्ण बलदेव के निकट खड़े हैं तथा पास में गऊएँ भी आराम से बैठीं हुईं जुगाली कर रहीं हैं। कृष्ण के शरणागत होने पर संसार रूपी दावाग्नि से प्रपीड़ित जीव का उससे सहज ही उद्धार हो जाता है। यह लीला यहीं पर हुई थीं। मुञ्जाटवी का दूसरा नाम ईषिकाटवी भी है। यमुना के उस पार भाण्डीर गाँव है। यह भाण्डीर गाँव ही मुञ्जाटवी है।

तपोवन

यह स्थान अक्षयवट की पूर्व दिशा में एक मील दूर यमुना के तट पर अवस्थित है। गोप कन्याओ ने 'श्रीकृष्ण ही हमारे पति हों' इस कामना से आराधना की थीं कहते हैं ये गोप कन्याएँ वे है जो पूर्व जन्म में दण्डकारण्य में श्रीकृष्ण को पाने की लालसा से तपस्या में रत थे तथा श्री रामचन्द्र जी की कृपा से द्वापर में गोपीगर्भ से जन्मे थे। इनमें जनकपुर की राजकन्याएँ भी सम्मिलित थीं, जो सीता की भाँति श्रीरामचन्द्र जी से विवाह करना चाहती थीं। वे भी श्रीरामचन्द्र जी की कृपा से द्वापरयुग के अंत में ब्रज में गोपकन्याओं के रूप में जन्मी थीं। इन्हीं गोप कुमारियों की श्रीकृष्ण प्राप्ति के लिए आराधना स्थल है यह तपोवन। ब्रज की श्रीललिता विशाखा आदि नित्यसिद्धा गोपियाँ अन्तरग्ङस्वरूप शक्ति राधिका जी की कायव्यूह स्वरूपा है। उन्हें तप करने की कोई भी आवश्यकता नहीं।

गोपीघाट

यहाँ उपरोक्त गोपियाँ यमुना में स्नान करती थीं। इसलिए इसका नाम गोपी घाट है।

चीरघाट

यह लीलास्थली अक्षयवट से दो मील पश्चिम में स्थित है। गोप कुमारियों ने 'श्रीकृष्ण पति के रूप में प्राप्त हों',[१] इस आशय से एक मास तक नियमित रूप से नियम व्रतादि का पालन करते हुए कात्यायनी देवी की पूजा की थीं।[२] व्रत के अंत में कुछ प्रिय सखाओं के साथ श्रीकृष्ण ने गोपियों के वस्त्र-हरण किये तथा उन्हें उनकी अभिलाषा पूर्ण होने का वरदान दिया था। यमुना के तट पर यहाँ कात्यायनी देवी का मन्दिर है। गाँव का वर्तमान नाम सियारो है।

नन्दघाट

यह स्थान गोपी घाट से दो मील दक्षिण और अक्षयवट से एक मील दक्षिण पूर्व में स्थित है।

प्रसंग

एक बार महाराज नन्द ने एकादशी का व्रत किया और द्वादशी लगने पर रात्रि की बेला में ही वे इसी घाट पर स्नान कर रहे थे। यह आसुरिक बेला थी इसलिए वरूण के दूत उन्हें पकड़कर वरूण देव के सामने ले गये। यमुनाजी में महाराज नन्द के अदृश्य हाने का समाचार पाकर ब्रजवासी लोग बड़े दुखी हुए। ब्रजवासियों का क्रन्दन देखकर श्रीकृष्ण, बलरामजी को उनकी देख-रेख करने के लिए वहीं छोड़कर स्वयं वरूणलोक में गये। वहाँ वरूणदेव ने कृष्ण को देखकर नाना-प्रकार से उनकी स्तव-स्तुति की और उपहारस्वरूप नाना प्रकार के मणि-मुक्ता रत्नालंकार आदि भेंटकर अपने इस कृत्य के लिए क्षमा याचना की। श्रीकृष्ण पिता श्रीनन्द महाराजजी को लेकर इसी स्थान पर पुन: ब्रजवासियों से मिले।

दूसरा प्रसंग

एक समय जीव गोस्वामी ने किसी दिग्विजयी पण्डित को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था। वह दिग्विजयी पण्डित श्री रूप गोस्वामी के ग्रन्थों का संशोधन करना चाहता था। बालक जीव गोस्वामी इसे सह नहीं सके। वृन्दावन में यमुना घाट पर पराजित होने पर दिग्विजयी पण्डित बालक की विद्धत्ता की भूरी प्रशंसा करता हुआ व श्री रूपगोस्वामी से परिचय पूछा। श्री रूपगोस्वमी ने नम्रता के साथ उत्तर दिया- यह मेरे भाई का पुत्र तथा मेरा शिष्य है। श्री रूप गोस्वामी समझ गये कि जीव ने इसके साथ शास्त्रार्थ किया है। दिग्विजयी पण्डित के चले जाने के बाद श्रीलरूपगोस्वामी ने कहा- जीव! तुम इतनी-सी बात भी सहन नहीं कर सकते? अभी भी तुम्हारे अन्दर प्रतिष्ठा की लालसा है। अत: तुम अभी यहाँ से चले जाओ। श्री जीवगोस्वामी, श्री रूपगोस्वामी के कठोर शासन वाक्य को सुनकर बड़े दुखी हुए। वे वृन्दावन से नन्दघाट के निकट यमुना के किनारे सघन निर्जन वन में किसी प्रकार बड़े कष्ट से रहने लगे । वे यमुना के तट पर मगरों की माँद में रहते। कभी-कभी आटा में जल मिलाकर वैसे ही पी लेते, तो कभी उपवास रहते। इस प्रकार श्रीगुरूदेव के विरह में तड़फते हुए जीवन यापन करने लगे। कुछ ही दिनों में शरीर सूखकर काँटा हो गया। उन्हीं दिनों श्री सनातन गोस्वामी ब्रज परिक्रमा के बहाने नन्दघाट पर उपस्थित हुए। वहाँ ब्रजवासियों के मुख से एक किशोर गौड़ीय बाल के साधु की कठोर आराधना एवं उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा सुनकर वे जीव गोस्वामी के पास पहुँचे तथा सांत्वना देकर उसे अपने साथ वृन्दावन ले आये। अपनी भजन कुटी में जीव को छोड़कर वे अकेले ही रूप गोस्वामी के पास पहुँचे। श्री रूप गोस्वामी उस समय जीवों पर दया के सम्बन्ध में उपस्थित वैष्णवों के सामने व्याख्या कर रहे थे। श्री सनातन गोस्वामी ने उस व्याख्या के बीच में ही श्री रूप गोस्वामी से पूछा- तुम दूसरों को तो जीव पर दया करने का उपदेश दे रहे हो किन्तु स्वयं जीव पर दया क्यों नही करते? श्री रूप गोस्वामी ने बड़े भाई और गुरू श्री सनातन गोस्वामी की पहेली का रहस्य जानकर श्री जीव को अपने पास बुलाकर उनकी चिकित्सा कराई तथा पुन: अपनी सेवा में नियुक्त कर उन्हें अपने पास रख लिया। नन्दघाट में रहते हुए श्रीजीव गोस्वामी ने अपने षट्सन्दर्भ रूप प्रसिद्ध ग्रन्थ का प्रणयन किया था। यहाँ पर अभी भी श्रीजीव गोस्वामी का स्थान जीव गोस्वामी की गुफा के रूप में प्रसिद्ध है।

भैया भयगाँव

श्रीनन्द महाराज वरूण के दूतों को देखकर यहाँ भयभीत हो गये थे। इसलिए वज्रनाभ ने इस गाँव का नाम भयगाँव रखा। भयगाँव नन्दघाट से संलग्न है।

गांग्रली

चीरघाट से दो मील दक्षिण और कुछ पूर्व दिशा में तथा भयगाँव से दो मील उत्तर में गांग्रली अवस्थित है।

बसई गाँव या वत्सवन

नन्द घाटी से चार मील दक्षिण-पश्चिम में यह स्थान स्थित है। ब्रह्माजी ने यहाँ बछड़ों और ग्वाल-बालों का हरण किया था। इसलिए इस स्थान का नाम वत्सवन या बच्छवन है। गाँव का वर्तमान नाम बसई गाँव है। यहाँ श्रीवत्स विहारी जी का मन्दिर, ग्वाल मण्डलीजी का स्थान, ग्वालकुण्ड, हरि बोल तीर्थ और श्रीवल्लभाचार्यजी की बैठक दर्शनीय स्थल हैं।

प्रसंग

एक समय श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ में यमुना तट पर बछड़ों को चरा रहे थे। बछड़े चरते-चरते इस वन में पहुँच गये। इधर कृष्ण सखाओं के साथ यमुना तट की कोमल बालुका में नाना प्रकार की कीड़ाएँ करने लगे उधर बछड़े चरते-चरते जब इस वन में पहुँचे तो चतुर्मुख ब्रह्मा जी ने, जो इससे पूर्व अघासुर की आत्मा को कृष्ण के चरणों में प्रवेश कर मुक्त होते देख बड़े आश्चर्यचकित हुए थे, भगवान् श्रीकृष्ण की कुछ और भी मधुर लीलाओं का दर्शन करने की इच्छा से उन बछड़ों को एक गुफा में छिपा दिया। बछड़ों को न देखकर कृष्ण और ग्वाल-बाल बड़े चिन्तित हुए। कृष्ण सखाओं को वहीं छोड़कर बछड़ों को खोजने के लिए चल पड़े। जब बछड़े नही मिले, तब कृष्ण पुन: यमुना तट पर पहुँचे, जहाँ सखाओं को छोड़कर गये थे। इधर ब्रह्मा जी ने कृष्ण की अनुपस्थिति में सखाओं को भी कहीं छिपा दिया। षडैश्वर्यपूर्ण सर्वशक्तिमान श्रीकृष्ण ब्रह्माजी की करतूत समझ गये। इसलिए वे साथ-ही-साथ अपने-आप सारे बछड़े, ग्वाल बाल, उनकी लकुटियाँ, वस्त्र, वेणु, श्रृंग आदि का रूप धारण कर पूर्ववत क्रीड़ा करने लगे। यह क्रम एक वर्ष तक चलता रहा। यहाँ तक कि बलदेव जी भी इस रहस्य को नहीं जान सके। वर्ष पूरा होने पर बलदेव जी ने कुछ अलौकिक बातों को देखकर भाँप लिया कि स्वयं कृष्ण ही ये सारे बछड़े, ग्वाल-बाल बनकर लीला कर रहे हैं। उसी समय ब्रह्मा जी यह देखकर चकित हो गये कि गुफा में बंद ग्वाल-बाल और बछड़े ज्यों के त्यों शयन अवस्था में हैं। इधर कृष्ण बछड़ों और ग्वाल-बालों के साथ पूर्ववत लीला कर रहे हैं। ऐसा देखकर वे भौंचक्के से रह गये। श्रीकृष्ण ने योगमाया का पर्दा हटा दिया। ब्रह्मा जी श्रीकृष्ण की स्वयं भगवत्ता एवं उनकी आश्चर्यमयी लीला देखकर उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम कर स्तव-स्तुति करने लगे।[३] उन्होंने ब्रज गोकुल में जन्म पाने के लिए तथा ब्रजरज से अभिसिक्त होने के लिए प्रार्थना की । इसीलिए इस वन का नाम वत्सवन है ।

उनाई अथवा जनाई गाँव

यह स्थान बाजना से डेढ़ मील दक्षिण में स्थित है। यहाँ श्रीकृष्ण सखाओं के साथ बैठकर भोजन लीला कर रहे थे, जिससे ब्रह्मा को मोह उत्पन्न हुआ। अंत में कृष्ण ने अनुग्रह कर ब्रह्माजी का मोह दूर किया और अपने को जना दिया। उस समय ब्रह्मा ने इस विश्व को कृष्णमय देखा(जाना) इसलिए इस स्थान का नाम जनाई गाँव है।

बालहारा

यहाँ ब्रह्माजी ने ग्वालबालों का हरण किया था। अतएव इस स्थान का नाम बालहारा है।

परखम

यह स्थान जनाई गाँव से एक मील पश्चिम में है। यहाँ ब्रह्माजी ने कृष्ण की परीक्षा ली थी। अतएव इस स्थान का नाम परखम पड़ा है। सखाओं के साथ बैठकर कृष्ण को उनका उच्छिष्ट भोजन करते देखकर उनकी भगवत्ता की परीक्षा के लिए ब्रह्माजी की इच्छा हुई। परीक्षा की इच्छा के लिए इस स्थान का नाम परखम हुआ।

सेई

परखम से डेढ़ मील दक्षिण-पूर्व तथा पसौली से चार मील दूरी पर यह स्थान स्थित है। कृष्ण की माया से मोहित ब्रह्माजी ने गोप-बालकों और बछड़ों का हरणकर किसी गुप्त स्थान में रख दिया था। किन्तु एक वर्ष बाद कृष्ण के निकट आने पर उन्होंने गोप बालकों कृष्ण के साथ पहले की भाँति गोचारण करते देखा। उस समय वे विचार करने लगे कि कन्दरा में रखे हुए गोप बालक और बछड़े सेई (वही हैं) या नहीं। फिर सोये हुए ग्वालबालों को देखा। वे सन्देह ग्रस्त हो गये कि क्या सेई(वही हैं)। बार-बार सेई कहने से इस स्थान का नाम सेई अथवा ग्वालबाल और बछड़ों के सहित पूर्ववत् कृष्ण को देखकर निश्चित किया कि सेई ये वही स्वयं-भगवान कृष्ण हैं।

चौमा

यहाँ ब्रह्माजी ने भयभीत होकर अनुताप करते हुए अपने चार मुखों से श्रीकृष्ण की स्तुति की थी। इसलिए इस स्थान का नाम चौमुँहा हुआ। यह स्थान परखम से एक मील पश्चिम तथा मथुरा से चार कोस पश्चिम में मथुरा दिल्ली मार्ग पर स्थित है। चौमुँहा से एक मील दूर अझई नाम गाँव है। यहाँ प्राचीन ब्रह्माजी का दर्शन है। यह बहुत ही रमणीय स्थान है चौमुँहा का वर्तमान नाम चौमा (चार मुखोंवाला)है।

पसौली

सपौली, अघवन और सर्पस्थली इसके नामान्तर है। अजगर सर्प रूपधारी अघासुर को श्रीकृष्ण ने यहाँ मारकर उसका उद्धार किया था। परखम से दो मील दूर उत्तर-पश्चिम में यह स्थान स्थित है।<balloon title="चौमुँहा ग्रामे ब्रह्माआंसि कृष्णपाशे। करये कृष्ण स्तुति अशेष विशेषे।। भक्तिरत्नाकर " style="color:blue">*</balloon>

प्रसंग

एक समय श्रीकृष्ण ग्वाल बालकों के साथ बछड़े चराते-चराते इस वन में पहुँचे। पूतना का भाई अघ(पाप) की प्रतिमूर्ति अघासुर अपनी बहन की मृत्यु का बदला लेने के लिए वहाँ पहुँचा। भयानक विशालकाय अजगर का रूप धारणकर मार्ग में लेट गया। उसका एक जबड़ा जमीन पर तथा दूसरा आकाश को छू रहा था। उसका मुख एक गुफा के समान तथा जिह्वा उसमें घुसने के मार्ग के समान दीख रही थीं। ग्वालबाल, बछड़ों को लेकर खेल-ही-खेल में उसके मुख में प्रवेश कर गये। किन्तु उसने अपना मुख बंद नहीं किया; क्योंकि वह विशेष रूप से कृष्ण को निगलना चाहता था, किन्तु कृष्ण कुछ पीछे रह गये थे। श्रीकृष्ण ने ग्वालबालों को दूर से संकेत किया कि इसमें प्रवेश न करें। किन्तु ग्वालबाल श्रीकृष्ण के बल पर निशंक होकर उसमें प्रवेश कर ही गये। श्रीकृष्ण भी सखाओं को बचाने के लिए पीछे से उसके मुख में प्रवेश कर गये। ऐसा देखकर अघासुर ने अपना मुख बंद कर लिया। श्रीकृष्ण अपने शरीर को बढ़ाकर उसके गले ऐसे अटक गये, जिससे उसका कण्ठ अवरूद्ध हो गया और श्वास रूक गया। थोड़ी देर में ही उसका ब्रह्मा रन्ध्र फट गया और उसमें से एक ज्योति निकलकर आकाश में स्थित हो गई। इधर श्रीकृष्ण गोपबालक और बछड़ों को अपनी अमृतयी दृष्टि से जीवन प्रदान कर जैसे ही अघासुर के मुख से निकले, त्यों-हि ब्रह्माजी और देवताओं के देखते-देखते वह ज्योति कृष्ण के चरणों में प्रवेश कर गई। अघासुर का उद्धार कर कृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन लौट आये। वही स्थली सर्पस्थली, सँपोली, पसौली या अधवन के नाम से जानी जाती है।

जैंत

अघासुर का वध हो जाने के बाद आकाश में स्थित देवताओं ने 'भगवान् श्रीकृष्ण की जय हो! जय हो!'[४] की ध्वनि से आकाश और आस-पास के वन प्रदेश को गुञ्जा दिया। ग्वालबालों ने भी आनन्द से उनके स्वर में स्वर मिलाकर 'जय हो! जय हो! ' की ध्वनि से आकाश मण्डल को परिव्याप्त कर दिया। इस प्रकार श्रीकृष्ण की अघासुर पर विजयगाथा की स्मृति को अपने अंक में धारणकर यह स्थली जैंत नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ के एक तालाब में सर्प की मूर्ति है। उसे इस प्रकार कला से निर्मित किया गया है कि कुण्ड में पानी चाहे जितना भी बढ़े-घटे वह सर्प मूर्ति सदैव पानी के ऊपर में ही दिखाई देती है। छटीकरा से यह स्थान तीन मील दूर है।

सेयानो

इसका वर्तमान नाम सिहोना है। अघासुर वध का समाचार जब वृद्ध ब्रजवासियों को मिला तो वृद्ध-वृद्ध गोप और गोपियाँ कृष्ण की प्रशंसा करते हुए बार-बार कहने लगें 'कृष्ण सेयानो होय गयो है, सेयानो होय गयो है । ' इस सेयानो का तात्पर्य बुद्धिमान और बलवान से है। महाराज वज्रनाभ ने सेयानो है, इस शब्द के अनुसार इस स्थान का नाम सेयानो गाँव रख दिया। अझई से दो मील दूर यह स्थान स्थित है। यहाँ सनक, सनन्द, सनत, सनातन-इन चार कुमारों के श्रीविग्रह दर्शनीय हैं।

तरौली

यह गाँव बसोली से दो मील उत्तर-पश्चिम में तथा श्यामरी गाँव से एक मील पूर्व कुछ उत्तर दिशा में तथा बरोली से एक मील पूर्व में स्थित है। बरौली-तरोली और बरौली गाँव पास-पास हैं। ये कृष्णलीला के स्थान हैं। यहाँ से जाने के समय आगे पीठर गाँव पड़ता है।

तमालवन तथा कृष्णकुण्ड टीला

तमाल वृक्षों सघन वन से परिमण्डित, श्रीराधाकृष्ण के मिलन और रसमयी क्रीड़ाओं का स्थान है, एक समय रसिक बिहारी श्रीकृष्ण सखियों के साथ राधाजी से इसी तमालकुञ्ज में मिले। तमालवृक्षों से लिपटी हुई ऊपर तक फैली नाना प्रकार की लताएँ वल्लरियाँ बड़ी सुहावनी लग रही थीं। श्रीकृष्ण ने प्रियाजी को इंगित कर पूछा- 'यह लता तमाल वृक्ष से लिपटी हुईं क्या कह रही हैं? 'राधिका ने मुस्कराकर उत्तर दिया- 'स्वाभाविक रूप से इस लता ने तमाल वृक्ष का अवलम्बन कर उसे अपनी बेलो, पत्तों और पुष्पों से आच्छादित कर रखा है, यह वृक्ष का सौभाग्य है कि वृक्ष में फल और पुष्प नही रहने पर भी लताएँ अपने पल्लवों और पुष्पों से इस वृक्ष का का सौन्दर्य अधिक बढ़ा रही है। ' इसी समय पवन के एक झोंके ने लता को झकझोर दिया। यह देखकर किशोर-किशोरी दोनों युगल भाव में विभोर हो गये। यह तमालवन इस स्मृति को संजोए हुए अभी भी वर्तमान है।

आटस

कृष्ण की परमानन्दमय मधुर-लीलाओं का दर्शन और आस्वादन करने के पूर्ण अधिकारी तो ब्रजवासी ही हैं। फिर भी चतुर्मुख ब्रह्मा, महादेव शंकर, देवर्षि नारद तथा बहुत से ऋषि-महर्षि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिए ब्रजभूमि की बहुत-सी लीला स्थलियों में निवास कर रहे हैं। अष्टावक्र मुनि की आराधना का यह स्थल आटस गाँव के नाम से प्रसिद्ध है। अष्टावक्र शब्द से अपभ्रंश होकर आटस नाम हुआ है। यह जनाई गाँव से चार मील तथा वृन्दावन से छह मील की दूरी है।

देवीआटस

आटस से एक मील दूरी पर यह गाँव स्थित है। यहा गाँव यशोदा के गर्भ से एक साथ उत्पन्न कृष्ण की अनुजा एकांशा देवी का स्थान है। वसुदेव जी इन्हें गोकुल से अपने साथ कंस कारागार में लाये थे। देवकी के सन्तान होने का समाचार पाकर कंस कारागार में देवकी की गोद से एकांशा को छीनकर पृथ्वी पर पटक देने के लिए जब उसे हाथों से आकाश की तरफ उठाया तो देवी अष्टभुजा दुर्गारूप धारणकर कंस का तिरस्कार कर आकाश में अन्तर्धान हो कर इस स्थान में प्रकट हुई। वज्रनाभजी ने इस लीला की स्मृति में यह गाँव बसाया था।

मघेरा

जब कृष्ण और बलदेव अक्रूर के साथ रथ पर बैठकर ब्रज से मथुरा जा रहे थे, उस समय ब्रजवासी लोग उनके विरह में व्याकुल होकर मार्ग की ओर देख रहे थे, तथा रथ के चले जाने पर उसकी धूल को देखते रहे। धूल के शान्त हो जाने पर भी उस मार्ग की ओर देखते रहे। मग हेरा अथवा मार्ग की ओर देखने से महाराज वज्रनाभ ने इस लीला की स्मृति के लिए इस गाँव का नाम मघेरा रखा था।

छूनराक

सौभरी ऋषि का यहीं पर आश्रम था। यह स्थान वृन्दावन स्थित कालीयह्नद के समीप ही एक मील पश्चिम में अवस्थित है।

शकरोया

देवराज इन्द्र श्रीकृष्ण और ब्रजवासियों के चरणों में अपराध करने के कारण अपराधी थे । उन्होंने अपने अपराध को क्षमा कराने के लिए इस स्थान पर श्रीकृष्ण की आराधना की थी। इसलिए इन्द्र की आराधना का यह स्थल शकरोया नाम से प्रसिद्ध है। देवराज इन्द्र का एक नाम शक्र भी है। शक्र से शकरोया नाम पड़ा है।

बराहर

इस स्थान पर गोचारण के समय श्रीकृष्ण ने सखाओं के साथ वराह रूप के आवेश में क्रीड़ा की थी। इस गाँव का वर्तमान नाम बरारा है। यह हाजरा गाँव से एक मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित है।<balloon title="एई बराहर ग्रामे वराहरूपे ते। खेलाईला कृष्णप्रिया सखार सहिते।। (भक्तरत्नाकर)" style="color:blue">*</balloon>

हारासली

यहाँ श्रीकृष्ण की रासलीला स्थली है। पास ही सुरूखुरू गाँव है। सेईसे डेढ़ मील उत्तर-पूर्व में माई-बसाई नामक दो गाँव हैं। माई के उत्तर-पूर्व में बसाई गाँव है।

टीका-टिप्पणी

  1. कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि। नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरू ते नम:॥ श्रीमद्भागवत 10/22/04
  2. एवं मासं व्रतं चेरू: कुमार्य: कृष्णचेतस:। भद्रकालीं समानर्चुर्भूयान्नन्दसुत: पति:।। श्रीमद्भागवत 10/22/05
  3. नौमीड्य तेऽभ्रवषे तडिदम्बराय गुञ्जावतंसपरिपिच्छलसन्मुखाय । वन्यस्रजे कवलवेत्रविषाणवेणु लक्ष्मश्रिये मृदुपदेपशुपाग्ङजाय ।। श्रीमद्भागवत 10/14/01
  4. ततोऽतिदृष्टा: स्वकृतोऽकृतार्हणं,पुष्पै सुरा अप्सरसश्च नर्तनै: । गीतै: सुगा वाद्यधराश्च वाद्यकै: स्तवैश्च विप्रा जयनि: स्वनैर्गणा:। श्रीमद्भागवत10/12/34


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