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तप: सिद्धि प्रदायैव नमो बिल्ववनाय च ।
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जनार्दन नमस्तुभ्यं बिल्वेशाय नमोस्तु ते ।। (भविष्योत्तर पुराण)
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<ref>तपस्या-सिद्धि प्रदानकारी हे बिल्ववन ! आपको नमस्कार है । हे जनार्दन ! हे बिल्ववन के स्वामी ! आपको नमस्कार है । </ref>
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श्री[[कृष्ण]] की प्रकट-लीला के समय इस वन में बेल के पेड़ों की प्रचुरता रहने के कारण इसे बेलवन कहते हैं । श्रीकृष्ण सखाओं के साथ गोचारण करते हुए इस परम मनोहर बेलवन में विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ करते तथा पके हुए फलों का आस्वादन करते हैं । यहाँ श्रीलक्ष्मीजी का मन्दिर है ।
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श्री[[कृष्ण]] की प्रकट-लीला के समय इस वन में बेल के पेड़ों की प्रचुरता रहने के कारण इसे बेलवन कहते हैं। श्रीकृष्ण सखाओं के साथ गोचारण करते हुए इस परम मनोहर बेलवन में विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ करते तथा पके हुए फलों का आस्वादन करते हैं। यहाँ श्रीलक्ष्मी जी का मन्दिर है।
 
==प्रसंग==
 
==प्रसंग==
एक समय नारद जी के मुख से ब्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्ण की मधुर [[रासलीला]] और [[गोपी|गोपियों]] के सौभाग्य का वर्णन सुनकर श्रीलक्ष्मीजी के हृदय में रासलीला दर्शन की प्रबल उत्कण्ठा हुई । अनन्य प्रेम की स्वरूपभूता विशुद्ध प्रेम वाली गोपियों के अतिरिक्त और किसी का भी रास में प्रवेश करने का अधिकार नहीं है । वह प्रवेश केवल महाभाव-स्वरूपा कृष्णकान्ता शिरोमणि राधिका और उनकी स्वरूपभूता गोपियों की कृपा से ही सुलभ है । अत: यहीं पर उन्होंने कठोर तपस्या की, फिर भी उन्हें रासलीला में प्रवेश संभव नहीं हो सका । वे आज भी रास में प्रवेश के लिए यहाँ तपस्या कर रही हैं ।
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एक समय [[नारद]] जी के मुख से ब्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्ण की मधुर [[रासलीला]] और [[गोपी|गोपियों]] के सौभाग्य का वर्णन सुनकर श्री[[लक्ष्मी]] जी के हृदय में रासलीला दर्शन की प्रबल उत्कण्ठा हुई। अनन्य प्रेम की स्वरूपभूता विशुद्ध प्रेम वाली गोपियों के अतिरिक्त और किसी का भी रास में प्रवेश करने का अधिकार नहीं है। वह प्रवेश केवल महाभाव-स्वरूपा कृष्ण कान्ता शिरोमणि [[राधा|राधिका]] और उनकी स्वरूपभूता गोपियों की कृपा से ही सुलभ है। अत: यहीं पर उन्होंने कठोर तपस्या की, फिर भी उन्हें रासलीला में प्रवेश संभव नहीं हो सका। वे आज भी रास में प्रवेश के लिए यहाँ तपस्या कर रही हैं।
 
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श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में इसका वर्णन किया गया है । कालीयनाग की पत्नियाँ श्रीकृष्ण की स्तुति करती हुई कह रही हैं-' भगवत ! हम समझ नहीं पातीं कि यह इसकी (कालीयनाग की) किस साधना का फल है, जो यह आपके श्रीचरणों की धूलि पाने का अधिकारी हुआ है । आपके श्रीचरणों की रज इतनी दुर्लभ है कि उसके लिए आपकी अर्द्धाग्ङिनी श्रीलक्ष्मीजी को भी बहुत दिनों तक समस्त भोगों का त्याग करके तथा नियमों का पालन करते हुए तपस्या करनी पड़ी थी फिर भी वह दुर्लभ श्रीचरणरज प्राप्त नहीं कर सकीं ।'<ref> कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे
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यद्वाञ्छया श्रीर्ललनाऽऽचरत्तपो  
 
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विहाय कामान् सुचिरं धृतव्रता ।। श्रीमद्भागवत /10/16/36 </ref>
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यहाँ पास में ही कृष्णकुण्ड और श्रीवल्लभाचार्यजी की बैठक भी है ।
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यहाँ पास में ही कृष्ण कुण्ड और श्री[[वल्लभाचार्य]]जी की बैठक भी है।
  
रामकृष्ण सखा सह ए बिल्ववनेते ।
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पक्का बिल्वफल भुञ्जे महाकौतुकेते ।।
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१२:५८, २ नवम्बर २०१३ के समय का अवतरण

बेलवन / Belvan

तप: सिद्धि प्रदायैव नमो बिल्ववनाय च।

जनार्दन नमस्तुभ्यं बिल्वेशाय नमोस्तु ते।। (भविष्योत्तर पुराण) [१] श्रीकृष्ण की प्रकट-लीला के समय इस वन में बेल के पेड़ों की प्रचुरता रहने के कारण इसे बेलवन कहते हैं। श्रीकृष्ण सखाओं के साथ गोचारण करते हुए इस परम मनोहर बेलवन में विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ करते तथा पके हुए फलों का आस्वादन करते हैं। यहाँ श्रीलक्ष्मी जी का मन्दिर है।

प्रसंग

एक समय नारद जी के मुख से ब्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्ण की मधुर रासलीला और गोपियों के सौभाग्य का वर्णन सुनकर श्रीलक्ष्मी जी के हृदय में रासलीला दर्शन की प्रबल उत्कण्ठा हुई। अनन्य प्रेम की स्वरूपभूता विशुद्ध प्रेम वाली गोपियों के अतिरिक्त और किसी का भी रास में प्रवेश करने का अधिकार नहीं है। वह प्रवेश केवल महाभाव-स्वरूपा कृष्ण कान्ता शिरोमणि राधिका और उनकी स्वरूपभूता गोपियों की कृपा से ही सुलभ है। अत: यहीं पर उन्होंने कठोर तपस्या की, फिर भी उन्हें रासलीला में प्रवेश संभव नहीं हो सका। वे आज भी रास में प्रवेश के लिए यहाँ तपस्या कर रही हैं।


श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में इसका वर्णन किया गया है। कालिय नाग की पत्नियाँ श्रीकृष्ण की स्तुति करती हुई कह रही हैं-' भगवत! हम समझ नहीं पातीं कि यह इसकी (कालीयनाग की) किस साधना का फल है, जो यह आपके श्रीचरणों की धूलि पाने का अधिकारी हुआ है। आपके श्रीचरणों की रज इतनी दुर्लभ है कि उसके लिए आपकी अर्द्धाग्ङिनी श्रीलक्ष्मीजी को भी बहुत दिनों तक समस्त भोगों का त्याग करके तथा नियमों का पालन करते हुए तपस्या करनी पड़ी थी फिर भी वह दुर्लभ श्रीचरणरज प्राप्त नहीं कर सकीं।'[२]

यहाँ पास में ही कृष्ण कुण्ड और श्रीवल्लभाचार्यजी की बैठक भी है।

रामकृष्ण सखा सह ए बिल्ववनेते।

पक्का बिल्वफल भुञ्जे महाकौतुकेते।।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तपस्या-सिद्धि प्रदानकारी हे बिल्ववन! आपको नमस्कार है। हे जनार्दन! हे बिल्ववन के स्वामी! आपको नमस्कार है।
  2. कस्यानुभावोऽस्य न देव विद्महे तवाङिघ्ररेणुस्पर्शाधिकार: यद्वाञ्छया श्रीर्ललनाऽऽचरत्तपो विहाय कामान् सुचिरं धृतव्रता।। श्रीमद्भागवत /10/16/36

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