ब्रह्मा

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ब्रह्मा / Brahma

सर्वश्रेष्ठ पौराणिक त्रिदेवों में ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की गणना होती है। इनमें ब्रह्मा का नाम पहले आता है, क्योंकि वे विश्व के आद्य सृष्टा, प्रजापति, पितामह तथा हिरण्यगर्भ हैं। पुराणों में जो ब्रह्मा का रूप वर्णित मिलता है वह वैदिक प्रजापति के रूप का विकास है। प्रजापति की समस्त वैदिक गाथाएँ ब्रह्मा पर आरोपित कर ली गयी हैं। प्रजापति और उनकी दुहिता की कथा पुराणों में ब्रह्मा और सरस्वती के रूप में वर्णित हुई है। पुराणों के अनुसार क्षीरसागर में शेषशायी विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा की स्वयं उत्पत्ति हुई, इसलिए ये 'स्वयंभू' कहलाते हैं। घोर तपस्या के पश्चात इन्होंने ब्रह्माण्ड की सृष्टि की थी। वास्तव में सृष्टि ही ब्रह्मा का मुख्य कार्य है। सावित्री इनकी पत्नी, सरस्वती पुत्री और हंस वाहन है। ब्राह्म पुराणों में ब्रह्मा का स्वरूप विष्णु के सदृश ही निरूपित किया गया है। ये ज्ञानस्वरूप, परमेश्वर, अज, महान् तथा सम्पूर्ण प्राणियों के जन्मदाता और अन्तरात्मा बतलाये गये हैं। कार्य, कारण और चल, अचल सभी इनके अन्तर्गत हैं। समस्त कला और विद्या इन्होंने ही प्रकट की हैं। ये त्रिगुणात्मिका माया से अतीत ब्रह्म हैं। ये हिरण्यगर्भ हैं और सारा ब्रह्माण्ड इन्हीं से निकला है। यद्यपि ब्राह्म पुराणों में त्रिमूर्ति के अन्तर्गत ये अग्रगण्य और प्रथम बने रहे, किन्तु धार्मिक सम्प्रदायों की दृष्टि से इनका स्थान विष्णु , शिव, शक्ति , गणेश, सूर्य आदि से गौण हो गया, इनका कोई पृथक् सम्प्रदाय नहीं बन पाया। ब्रह्मा के मन्दिर भी थोड़े ही हैं। सबसे प्रसिद्ध ब्रह्मा का तीर्थ अजमेर के पास पुष्कर है। वृद्ध पिता की तरह देवपरिवार में इनका स्थान उपेक्षित होता गया। वैष्णव और शैव पुराणों में ब्रह्मा को गौण प्रदर्शित करने के बहुधा प्रयत्न पाये जाते हैं। विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति स्वयं विष्णु के सामने इनकी गौणता की द्योतक है। मार्कण्डेय पुराण के मधु-कैटभवध प्रसंग में विष्णु का उत्कर्ष और ब्रह्मा की विपन्नता दिखायी गयी है। ब्रह्मा की पूजामूर्ति के निर्माण का वर्णन मत्स्यपुराण [१] में पाया जाता है।

सम्बंधित कथा

सावित्री, गायत्री, श्रद्धा, मेधा और सरस्वती ब्रह्मा की कन्याएं हैं। इनमें से एक कन्या त्रिभुवन सुंदरी थी। ब्रह्मा स्वयं ही निर्माण करके उस पर आसक्त हो गये। वह मृगी के रूप में भाग गयी । ब्रह्मा ने मृग का रूप धारण करके उसका पीछा किया। शिव ने धर्मसंकट में देख मृगवधिक का रूप धारण करके ब्रह्मा को रोका। ब्रह्मा ने वह कन्या विवस्वत मनु को दे दी। पांचों कन्याएं डरकर महानदी गंगा में जा मिलीं। [२]


एक बार ब्रह्मा और विष्णु में विवाद छिड़ गया कि दोनों में से कौन बड़ा है। महादेव की ज्योतिर्मयी मूर्ति दोनों मध्य प्रकट हुई, साथ ही आकाशवाणी हुई कि जो उस मूर्ति का अंत देखेगा, वही श्रेष्ठ माना जायेगा। विष्णु नीचे की चरम सीमा तथा ब्रह्मा ऊपर की अंतिम सीमा देखने के लिए बढ़े। विष्णु तो शीघ्र लौट आये। ब्रह्मा बहुत दूर तक शिव की मूर्ति का अंत देखने गये। उन्होंने लौटते समय सोचा कि अपने मुंह से झूठ नहीं बोलना चाहिए, अत: गधे का एक मुंह (जो कि ब्रह्मा का पांचवां मुंह कहलाता है) बनाकर उससे बोले- "हे विष्णु! मैं तो शिव की सीमा देख आया।" तत्काल शिव और विष्णु के ज्योतिर्मय स्वरूप एक रूप हो गये। ब्रह्मा की झूठी वाणी, वाणी नामक नदी के रूप में प्रकट हुई। उन दोनों को आराधना से प्रसन्न करके वह नदी सरस्वती नदी के नाम से गंगा से जा मिली और तब वह शापमुक्त हुई। [३] सृष्टि के पूर्व में संपूर्ण विश्व जलप्लावित था। श्रीनारायण शेषशैय्या पर निद्रालीन थे। उनके शरीर में संपूर्ण प्राणी सूक्ष्म रूप से विद्यमान थे। केवल कालशक्ति ही जागृत थी क्योंकि उसका कार्य जगाना था। कालशक्ति ने जब जीवों के कर्मों के लिए उन्हें प्रेरित किया तब उनका ध्यान लिंगशरीर आदि सूक्ष्म तत्व पर गया- वही कमल के रूप में उनकी नाभि से निकला। उस पर ब्रह्मा स्वयं प्रकट हुए। अत: स्वयंभू कहलाये। ब्रह्मा विचारमग्न हो गये कि वे कौन हैं, कहां से आये, कहां हैं, अत: कमल की नाल से होकर विष्णु की नाभि के निकट तक चक्कर लगाकर भी वे विष्णु को नहीं देख पाये। योगाभ्यास से ज्ञान प्राप्त होने पर उन्होंने शेषशायी विष्णु के दर्शन किये। विष्णु की प्रेरणा से उन्होंने तप करके, भगवत ज्ञान अनुष्ठान करके, सब लोकों को अपने अंत:करण में स्पष्ट रूप से देखा। तदनंतर विष्णु अंतर्धान हो गये और ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की। सरस्वती उनके मुंह से उत्पन्न पुत्री थी, उसके प्रति काम-विमोहित हो, वे समागम के इच्छुक थे। प्रजापतियों की रोक-टोक से लज्जित होकर उन्होंने उस शरीर का त्याग कर दूसरा शरीर धारण किया। त्यक्त शरीर अंधकार अथवा कुहरे के रूप में दिशाओं में व्याप्त हो गया। उन्होंने अपने चार मुंह से चार वेदों को प्रकट किया। ब्रह्मा को 'क' कहते हैं- उन्हीं से विभक्त होने के कारण शरीर को काम कहते हैं। उन दोनों विभागों से स्त्री-पुरूष एक-एक जोड़ा प्रकट हुआ। पुरूष मनु तथा स्त्री शतरूपा कहलायी। उन दोनों की आवश्यकता इसलिए पड़ी कि प्रजापतियों की सृष्टि का सुचारू विस्तार नहीं हो रहा था। [४] भगवान बुद्ध बोधिसत्त्व प्राप्त करके भी चिंताग्रस्त थे। वे सोचते थे कि उनके धर्मोपदेश को कोई मानेगा कि नहीं। प्रजापति ब्रह्मा ने यह ताड़ लिया। अत: वे 'ब्रह्मलोक' से अंतर्धान होकर भगवान के सामने प्रकट हुए तथा उन्हें धर्मोपदेश के लिए प्रेरित किया। [५]

टीका-टिप्पणी

  1. मत्स्यपुराण(249.40-44)
  2. ब्रह्म पुराण, 102।–
  3. ब्रह्म पुराण, 135।–
  4. श्रीमद् भागवत, तृतीय स्कंध, 8-10,12
  5. बुध्द चरित, 1।4।-