"मथुरा" के अवतरणों में अंतर

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
पंक्ति १: पंक्ति १:
{|style="background-color:#F7F7EE;" cellpadding="10" cellspacing="5"
 
||'''[[ब्रज]]''' || '''मथुरा''' || '''[[वृन्दावन]]'''
 
|}
 
 
{|style="background-color:#F7F7EE;" cellpadding="10" cellspacing="5"
 
{|style="background-color:#F7F7EE;" cellpadding="10" cellspacing="5"
 
||'''[[ब्रज]]''' || '''मथुरा''' || '''[[वृन्दावन]]'''
 
||'''[[ब्रज]]''' || '''मथुरा''' || '''[[वृन्दावन]]'''

१३:२६, ९ मई २००९ का अवतरण

ब्रज मथुरा वृन्दावन

मथुरा का सामान्य परिचय

मथुरा, भगवान कृष्ण की जन्मस्थली और भारत की परम प्राचीन तथा जगद्-विख्यात नगरी है । शूरसेन देश की यहाँ राजधानी थी । पौराणिक साहित्य में मथुरा को अनेक नामों से संबोधित किया गया है जैसे- शूरसेन नगरी, मधुपुरी, मधुनगरी, मधुरा आदि । भारतवर्ष का वह भाग जो हिमालय और विंध्याचल के बीच में पड़ता है, प्राचीनकाल में आर्यावर्त कहलाता था । यहां पर पनपी हुई भारतीय संस्कृति को जिन धाराओं ने सींचा वे गंगा और यमुना की धाराएं थीं । इन्हीं दोनों नदियों के किनारे भारतीय संस्कृति के कई केन्द्र बने और विकसित हुए । वाराणसी, प्रयाग, कौशाम्बी, हस्तिनापुर, कन्नौज आदि कितने ही ऐसे स्थान हैं, परन्तु यह तालिका तब तक पूर्ण नहीं हो सकती जब तक इसमें मथुरा का समावेश न किया जाय । यह आगरा और दिल्ली से क्रमश: 58 कि.मी उत्तर-पश्चिम एवं 145 कि मी दक्षिण-पश्चिम में यमुना के किनारे राष्ट्रीय राजमार्ग 2 पर स्थित है । वाल्मीकि रामायण में मथुरा को मधुपुर या मधुदानव का नगर कहा गया है तथा यहाँ लवणासुर की राजधानी बताई गई है-[१]इस नगरी को इस प्रसंग में मधुदैत्य द्वारा बसाई, बताया गया है । लवणासुर, जिसको शत्रुध्न ने युद्ध में हराकर मारा था इसी मधुदानव का पुत्र था ।[२] इससे मधुपुरी या मथुरा का रामायण-काल में बसाया जाना सूचित होता है । रामायण में इस नगरी की समृद्धि का वर्णन है । [३] इस नगरी को लवणासुर ने भी सजाया संवारा था ।[४]( दानव, दैत्य, राक्षस आदि जैसे संबोधन विभिन्न काल में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, कभी जाति या क़बीले के लिए, कभी आर्य अनार्य संदर्भ में तो कभी दुष्ट प्रकृति के व्यक्तियों के लिए । ) । प्राचीनकाल से अब तक इस नगर का अस्तित्व अखण्डित रूप से चला आ रहा है । शूरसेन जनपद के नामकरण के संबंध में विद्वानों के अनेक मत हैं किन्तु कोई भी सर्वमान्य नहीं है । शत्रुघ्न के पुत्र का नाम शूरसेन था । जब सीताहरण के बाद सुग्रीव ने वानरों को सीता की खोज में उत्तर दिशा में भेजा तो शतबलि और वानरों से कहा- 'उत्तर में म्लेच्छ' पुलिन्द, शूरसेन, प्रस्थल , भरत ( इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर के आसपास के प्रान्त ), कुरु ( दक्षिण कुरु- कुरुक्षेत्र के आसपास की भूमि ), मद्र, काम्बोज, यवन, शकों के देशों एवं नगरों में भली भाँति अनुसन्धान करके दरद देश में और हिमालय पर्वत पर ढूँढ़ो । [५] इससे स्पष्ट है कि शत्रुघ्न के पुत्र से पहले ही 'शूरसेन' जनपद नाम अस्तित्व में था । हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन के सौ पुत्रों में से एक का नाम शूरसेन था और उस के नाम पर यह शूरसेन राज्य का नामकरण होने की संम्भावना भी है, किन्तु हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन का मथुरा से कोई सीधा संबंध होना स्पष्ट नहीं है । महाभारत के समय में मथुरा शूरसेन देश की प्रख्यात नगरी थी । लवणासुर के वधोपरांत शत्रुध्न ने इस नगरी को पुन: बसाया था । उन्होंने मधुवन के जंगलों को कटवा कर उसके स्थान पर नई नगरी बसाई थी । यहीं कृष्ण का जन्म, यहां के अधिपति कंस के कारागार में हुआ तथा उन्होंने बचपन ही में अत्याचारी कंस का वध करके देश को उसके अभिशाप से छुटकारा दिलवाया । कंस की मृत्यु के बाद श्री कृष्ण मथुरा ही में बस गए किंतु जरासंध के आक्रमणों से बचने के लिए उन्होंने मथुरा छोड़ कर द्वारकापुरी बसाई [६] दशम सर्ग, 58 में मथुरा पर कालयवन के आक्रमण का वृतांत है । इसने तीन करोड़ म्लेच्छों को लेकर मथुरा को घेर लिया था ।[७] हरिवंश पुराण 1,54 में भी मथुरा के विलास-वैभव का मनोहर चित्र है ।[८] विष्णु पुराण में भी मथुरा का उल्लेख है, [९] विष्णु-पुराण 4,5,101 में शत्रुध्न द्वारा पुरानी मथुरा के स्थान पर ही नई नगरी के बसाए जाने का उल्लेख है । [१०] इस समय तक मधुरा नाम का रूपांतर मथुरा प्रचलित हो गया था । कालिदास ने रघुवंश 6,48 में इंदुमती के स्वंयवर के प्रसंग में शूरसेना धिप सुषेण की राजधानी मथुरा में वर्णित की है ।[११] इसके साथ ही गोवर्धन का भी उल्लेख है । मल्लिनाथ ने 'मथुरा` की टीका करते हुए लिखा है` -'कालिंदीतीरे मथुरा लवणासुरवधकाले शत्रुध्नेन निर्मास्यतेति वक्ष्यति` । प्राचीन ग्रंथों-हिंदू, बौद्ध, जैन एवं यूनानी साहित्य में इस जनपद का शूरसेन नाम अनेक स्थानों पर मिलता है । प्राचीन ग्रंथों में मथुरा का मेथोरा[१२] , मदुरा [१३] , मत-औ-लौ [१४] , मो-तु-लो [१५] तथा सौरीपुर [१६] (सौर्यपुर) नामों का भी उल्लेख मिलता है । इन उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि शूरसेन जनपद की संज्ञा ईसवी सन् के आरम्भ तक जारी रही [१७] और शक-कुषाणों के प्रभुत्व के साथ ही इस जनपद की संज्ञा राजधानी के नाम पर `मथुरा' हो गई । इस परिवर्तन का मुख्य कारण था कि यह नगर शक-कुषाणकालीन समय में इतनी प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुका था कि लोग जनपद के नाम को भी मथुरा नाम से पुकारने लगे और कालांतर में जनपद का शूरसेन नाम जनसाधारण के स्मृतिपटल से विस्मृत हो गया ।


प्राचीन शूरसेन जनपद का विस्तार दक्षिण में चंबल नदी से लेकर उत्तर में वर्तमान मथुरा नगर से 75 कि. मी. उत्तर में स्थित कुरु राज्य की सीमा तक था । उसकी सीमा पश्चिम में मत्स्य और पूर्व में पांचाल जनपद से मिलती थी । मथुरा नगर को महाकाव्यों एवं पुराणों में 'मथुरा' एवं `मधुपुरी' नामों से संबोधित किया गया है । [१८] विद्वानों ने `मधुपुरी' की पहचान मथुरा के 6 मील पश्चिम में स्थित वर्तमान 'महोली' से की है । [१९] प्राचीन काल में यमुना नदी मथुरा के पास से गुजरती थी, आज भी इसकी स्थिति यही है । प्लिनी [२०] ने यमुना को जोमेनस कहा है जो मेथोरा और क्लीसोबोरा [२१] के मध्य बहती थी । पुराणों में मथुरा के गौरवमय इतिहास का विषद विवरण मिलता है । अनेक धर्मों से संबंधित होने के कारण मथुरा में बसने और रहने का महत्त्व क्रमश: बढ़ता रहा । ऐसी मान्यता थी कि यहाँ रहने से पाप रहित हो जाते हैं तथा इसमें रहने करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है । [२२] वराहपुराण में कहा गया है कि इस नगरी में जो लोग शुध्द विचार से निवास करते हैं, वे मानव के रूप में साक्षात् देवता हैं । [२३] श्राद्ध कर्म का विशेष फल मथुरा में प्राप्त होता है । मथुरा में श्राद्ध करने वालों के पूर्वजों को आध्यात्मिक मुक्ति मिलती है । [२४] उत्तनिपाद के पुत्र ध्रुव ने मथुरा में तपस्या कर के नक्षत्रों में स्थान प्राप्त किया था । [२५] पुराणों में मथुरा की महिमा का वर्णन है । पृथ्वी के यह पूछने पर कि मथुरा जैसे तीर्थ की महिमा क्या है ? महावराह ने कहा था- "मुझे इस वसुंधरा में पाताल अथवा अंतरिक्ष से भी मथुरा अधिक प्रिय है ।[२६] वराहपुराण में भी मथुरा के संदर्भ में उल्लेख मिलता है, यहाँ की भौगोलिक स्थिति का वर्णन मिलता है । [२७] यहाँ मथुरा की माप बीस योजन बतायी गयी है । [२८] इस मंडल में मथुरा, गोकुल, वृंदावन, गोवर्धन आदि नगर, ग्राम एवं मंदिर, तड़ाग, कुंड, वन एवं अनगणित तीर्थों के होने का विवरण मिलता है । इनका विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है । गंगा के समान ही यमुना के गौरवमय महत्त्व का भी विशद विवरण किया गया है । पुराणों में वर्णित राजाओं के शासन एवं उनके वंशों का भी वर्णन प्राप्त होता है । ब्रह्मपुराण में वृष्णियों एवं अंधकों के स्थान मथुरा पर, राक्षसों के आक्रमण का भी विवरण मिलता है । [२९] वृष्णियों एवं अंधकों ने डर कर मथुरा को छोड़ दिया था और उन्होंने अपनी राजधानी द्वारावती ( ? ) में प्रतिष्ठित की थी ।[३०] मगध नरेश जरासंध ने 23 अक्षौहिणी सेना से इस नगरी को घेर लिया था ।[३१] अपने महाप्रस्थान के समय युधिष्ठिर ने मथुरा के सिंहासन पर वज्रनाभ को आसीन किया । [३२] सात नाग-नरेश गुप्तवंश के उत्कर्ष के पूर्व यहाँ पर राज्य कर रहे थे ।[३३] उग्रसेन और कंस मथुरा के शासक थे जिस पर अंधकों के उत्तराधिकारी राज्य करते थे । [३४] पार्जिटर के वर्णन के अनुसार सुदामा के शासन के कुछ समय पहले शूरसेन और मथुरा के राज्य पर राम के भाई शत्रुध्न की विजय के कारण कुछ वशिष्ठों ( ? )को दूसरी जगह पर जाना पड़ा था ।[३५] कालान्तर में शत्रुध्न के पुत्रों को मथुरा से सात्वत भीम ने निकाला तथा उसने तथा उसके पुत्रों ने यहाँ पर राज्य किया । [३६] शूरसेन ने जो शत्रुध्न का पुत्र था, उसने यमुना के पश्चिम में बसे हुए सात्वत यादवों पर आक्रमण किया और वहाँ के शासक माधव लवण का वध करके मथुरा नगरी को अपनी राजधानी घोषित किया ।[३७] मथुरा की स्थापना श्रावण महीने में होने के कारण ही संभवत: इस माह में उत्सव आदि करने की परंपरा है । पुरातन काल में ही यह नगरी इतनी वैभवशाली थी कि मथुरा नगरी को देवनिर्मिता कहा जाने लगा था । [३८] मथुरा के महाभारत काल के राजवंश को यदु अथवा यदुवंशीय कहा जाता है । यादव वंश में मुख्यत: दो वंश हैं । जिन्हें-वीतिहोत्र एवं सात्वत के नाम से जाना जाता है । सात्वत वर्ग भी कई शाखाओं में बँटा हुआ था । जिनमें वृष्णि, अंधक, देवावृद्ध तथा महाभोज प्रमुख थे । [३९] यदु और यदुवंश का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है । इस वंश का संबंध तुर्वश, द्रुह, अनु एवं पुरु से था (ऋग्वेद, 1/108/8) । ऋग्वेद (तत्रैव, 1/36; 18;5/45/1) से ज्ञात होता है कि यदु तुर्वश किसी दूरस्थ प्रदेश से यहाँ आए थे । वैदिक साहित्य में सात्वतों का भी नाम आता है । [४०] शतपथ ब्राह्मण में आता है कि एक बार भरतवंशी शासकों ने सात्वतों से उनके यज्ञ का घोड़ा छीन लिया था । भरतवंशी शासकों द्वारा सरस्वती, यमुना और गंगा के तट पर यज्ञ किए जाने के वर्णन से राज्य की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान हो जाता है । [४१] सात्वतों का राज्य भी समीपवर्ती क्षेत्रों में ही रहा होगा । इस प्रकार महाभारत एवं पुराणों में वर्णित सात्वतों का मथुरा से संबंध स्पष्टतया ज्ञात हो जाता है ।


मथुरा के विषय में बौद्ध साहित्य में अनेक उल्लेख हैं । 600 ई० पू० में मथुरा में अवंतिपुत्र (अवंतिपुत्तो) नाम के राजा का राज्य था । बौद्ध अनुश्रुति (अंगुत्तरनिकाय) के अनुसार उसके शासन काल में स्वयं गौतम बुद्ध मथुरा आए थे । बुद्ध उस समय इस नगरी के लिए अधिक आकर्षित नहीं हुए क्‍योंकि उस समय यहां वैदिक मत सुदृढ़ रूप से स्थापित था (दे० श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी-मथुरा परिचय, प ० 46) । चंद्रगुप्त मौर्य के काल में मथुरा मौर्य-शासन के अंतर्गत था । मेगेस्थनीज (जो कि एक ग्रीक राजदूत था) ने सूरसेनाई- मथोरा और क्लीसोबोरा नामक नगरियों का वर्णन किया है और इन नगरों को कृष्ण की उपासना का मुख्य केन्द्र वर्णित किया है । मथुरा में बौद्धधर्म का प्रचार अशोक के समय में अधिक हुआ । मथुरा और बौद्ध धर्म का घनिष्ठ संबंध था । जो बुद्ध के जीवन-काल से कुषाण-काल तक अक्षु्ण रहा । 'अंगुत्तरनिकाय' के अनुसार भगवान बुद्ध एक बार मथुरा आये थे और यहाँ उपदेश भी दिया था । [४२] 'वेरंजक-ब्राह्मण-सुत्त' में भगवान् बुद्ध के द्वारा मथुरा से वेरंजा तक यात्रा किए जाने का वर्णन मिलता है । [४३] पालि विवरण से यह ज्ञात होता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के बारहवें वर्ष में ही बुद्ध ने मथुरा नगर की यात्रा की थी । [४४] मथुरा से लौटकर बुद्ध वेरंजा आये फिर उन्होंने श्रावस्ती की यात्रा की ।[४५] भगवान बुद्ध के शिष्य महाकाच्यायन मथुरा में बौद्ध धर्म का प्रचार करने आए थे । इस नगर में अशोक के गुरु उपगुप्त [४६], ध्रुव (स्कंद पुराण, काशी खंड, अध्याय 20), एवं प्रख्यात गणिका वासवदत्ता [४७] भी निवास करती थी । मथुरा राज्य का देश के दूसरे भागों से व्यापारिक संबंध था । मथुरा उत्तरापथ और दक्षिणापथ दोनों भागों से जुड़ा हुआ था । [४८] राजगृह से तक्षशिला जाने वाले उस समय के व्यापारिक मार्ग में यह नगर स्थित था । [४९] मथुरा से एक मार्ग वेरंजा, सोरेय्य, कणकुंज होते हुए पयागतिथ्थ जाता था वहाँ से वह गंगा पार कर बनारस पहुँच जाता था । [५०] श्रावस्ती और मथुरा सड़क मार्ग द्वारा संबद्ध थे (अंगुत्तरनिकाय, भाग 2, पृ 57) । मथुरा का व्यापार पाटलीपुत्र द्वारा जलमार्ग से होता था । वे वस्तुओं का आदान-प्रदान करते थे । उस समय ऐसा लगता था जैसे दोनों पुरियों के बीच नावों का पुल बना हो । [५१] भारत के अन्य प्रमुख व्यापारिक नगरों, इंद्रप्रस्थ, कौशांबी, श्रावस्ती तथा वैशाली आदि से भी यहाँ के व्यापारियों के वाणिज्यक संबंध थे । [५२] बौद्ध ग्रंथों में शूरसेन के शासक अवंतिपुत्र की चर्चा है, जो उज्जयिनी के राजवंश से संबंधित था । इस शासक ने बुद्ध के एक शिष्य महाकाच्यायन से ब्राह्मण धर्म पर वाद-विवाद भी किया था ।[संदर्भ देखें] भगवान् बुद्ध शूरसेन जनपद में एक बार मथुरा गए थे, जहाँ आनंद ने उन्हें उरुमुंड पर्वत पर स्थित गहरे नीले रंग का एक हरा-भरा वन दिखलाया था (दिव्यावदान, पृ 348-349) । मिलिंदपन्हों (मिलिंदपन्हो (ट्रेंकनर संस्करण), पृ 331) में इसका वर्णन भारत के प्रसिद्ध स्थानों में हुआ है । इसी ग्रंथ में प्रसिद्ध नगरों एवम् उनके निवासियों के नाम के एक प्रसंग में माधुरका (मथुरा के निवासी का भी उल्लेख मिलता है, (मिलिंदपन्हों (ट्रेंकनर संस्करण), पृ 324) जिससे ज्ञात होता है कि राजा मिलिंद (मिनांडर) के समय (150 ई0 पू0) मथुरा नगर पालि परंपरा में एक प्रतिष्ठित नगर के रूप में विख्यात हो चुका था ।



टीका-टिप्पणी

  1. `एवं भवतु काकुत्स्थ क्रियतां मम शासनम्, राज्ये त्वामभिषेक्ष्यामि मधोस्तु नगरे शुभे । नगरं यमुनाजुष्टं तथा जनपदाञ्शुभान् यो हि वंश समुत्पाद्य पार्थिवस्य निवेशने` उत्तर. 62,16-18 ।
  2. `तं पुत्रं दुर्विनीतं तु दृष्ट्वा कोधसमन्वित:, मधु: स शोकमापेदे न चैनं किंचिदब्रवीत्`-उत्तर. 61,18।
  3. `अर्ध चंद्रप्रतीकाशा यमुनातीरशोभिता, शोभिता गृह-मुख्यैश्च चत्वरापणवीथिकै:, चातुर्वर्ण्य समायुक्ता नानावाणिज्यशोभिता` उत्तर. 70,11 ।
  4. यच्चतेनपुरा शुभ्रं लवणेन कृतं महत्, तच्छोभयति शुत्रध्नो नानावर्णोपशोभिताम् । आरामैश्व विहारैश्च शोभमानं समन्तत: शोभितां शोभनीयैश्च तथान्यैर्दैवमानुषै:` उत्तर. 70-12-13 । उत्तर० 70,5 (`इयं मधुपुरी रम्या मधुरा देव-निर्मिता`) में इस नगरी को मथुरा नाम से अभिहित किया गया है ।
  5. बाल्मिकी रामायाण,किष्किन्धाकाण्ड़,त्रिचत्वारिंशः सर्गः। तत्र म्लेच्छान् पुलिन्दांश्र्च शूरसेनां स्तथैव च । प्रस्थलान् भरतांश्र्चैव कुरुंश्र्च सह मद्रकैः॥ 11 काम्बोजयवनांश्र्चैव शकानां पत्तनानि च। अन्वीक्ष्य दरदांश्चैव हिमवन्तं विचिन्वथ ॥ 12
  6. `वयं चैव महाराज, जरासंधभयात् तदा, मथुरां संपरित्यज्य यता द्वारावतीं पुरीम्` महा. सभा. 14,67 । श्रीमद्भागवत 10,41,20-21-22-23 में कंस के समय की मथुरा का सुंदर वर्णन है ।
  7. `रूरोध मथुरामेत्य तिस भिम्र्लेच्छकोटिभि:
  8. `सा पुरी परमोदारा साट्टप्रकारतोरणा स्फीता राष्‍ट्रसमाकीर्णा समृद्धबलवाहना । उद्यानवन संपन्ना सुसीमासुप्रतिष्ठिता, प्रांशुप्राकारवसना परिखाकुल मेखला` ।
  9. `संप्राप्तश्र्चापि सायाह्ने सोऽक्रूरो मथुरां पुरीम` 5,19,9 ।
  10. `शत्रुध्नेनाप्यमितबलपराक्रमो मधुपुत्रो लवणो नाम राक्षसोभिहतो मथुरा च निवेशिता`
  11.  'यस्यावरोधस्तनचंदनानां प्रक्षालनाद्वारिविहारकाले, कलिंदकन्या मथुरां गतापि गंगोर्मिसंसक्तजलेव भाति`
  12. विष्णु पुराण, 1/12/43 मेक्रिण्डिल, ऐंश्‍येंटइंडिया एज डिस्क्राइब्ड बाई टालेमी (कलकत्ता, 1927), पृ 98
  13. `मदुरा य सूरसेणा' देखें-इंडियन एण्टिक्वेरी, संख्या 20, पृ 375
  14. जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स आफ फाह्यान , द्वितीय संस्करण, 1972), पृ 42
  15. थामस वाट्र्स, आन युवॉन् च्वाग्स टे्रवेल्स इन इंडिया , दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1961 ई) भाग 1, पृ 301>
  16.  हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, भाग 45, पृ 112
  17. मनुस्मृति, भाग 2, श्लोक 18 और 20
  18. रामायण, उत्तरकांड, सर्ग 62, पंक्ति 17
  19. कृष्णदत्त वाजपेयी, मथुरा, पृ 2
  20. प्लिनी, नेचुरल हिस्ट्री, भाग 6, पृ 19; तुलनीय ए, कनिंघम, दि ऐंश्‍येंटज्योग्राफी आफ इंडिया, (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1963), पृ 315
  21. `कनिंघम ने क्लीसोबेरा की पहचान केशवुर या कटरा केशवदेव के मुहल्ले से की है। यूनानी लेखकों के समय में यमुना की मुख्य धारा या उसकी बड़ी शाखा वर्तमान कटरा या केशव देव के पूर्वी दीवार के समीप से बहती रही होगी ओर उसके दूसरी तरफ मथुरा नगर रहा होगा। देखें, ए, कनिंघम, दि ऐंश्‍येंटज्योग्राफी ऑफ इंडिया, इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1963 ई , पृ 315 ।
  22. ये वसंति महाभागे मथुरायामितरे जना: । तेऽपि यांति परमां सिद्धिं मत्प्रसादन्न संशय:। वराहपुराण, पृ 852, श्लोक 20
  23. मथुरायां महापुर्या ये वसंति शुचिव्रता:। बलिभिक्षाप्रदातारो देवास्ते नरविग्रहा: ।। तत्रैव, श्लोक 22
  24. मथुराममंडमम् प्राप्य श्राद्धं कृत्वा यथाविधि। तृप्ति प्रयांति पितरो यावस्थित्यग्रजन्मन:।। तत्रैव, श्लोक 19
  25. पद्मपुराण, पृ 600, श्लोक 53
  26. बराहपुराण, अध्याय 152
  27. गोवर्द्धनो गिरिवरो यमुना च महानदी । तयोर्मध्ये पुरोरम्या मथुरा लोकविश्रुता ।। बराहपुराण, अध्याय 165, श्लोक 23
  28. `शितिर्योजनानातं मथुरां मत्र मंडलम् ।' तत्रैव, अध्याय 158, श्लोक1
  29. ब्रह्मपुराण, अध्याय 14 श्लोक 54
  30. हरिवंश पुराण, अध्याय 37
  31. हरिवंश पुराण, अध्याय 195, श्लोक 3
  32. स्कंदपुराण, विष्णु खंड, भागवत माहात्म्य, अध्याय 1
  33. वायुपुराण, अध्याय 99; विमलचरण लाहा, इंडोलाजिकल स्टडीज, भाग 2, पृ 32
  34. एफ इ पार्जिटर, ऐंश्‍येंट इंडियन हिस्टारिकल टे्रडिशन पृ 171
  35. एफ इ पार्जिटर, ऐंश्‍येंट इंडियन हिस्टारिकल टे्रडिशन, पृ 171
  36. एफ इ पार्जिटर, ऐंश्‍येंट इंडियन हिस्टारिकल टे्रडिशन, पृ2.11
  37. विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, (उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, लखनऊ, प्रथम संस्करण, 1972 ई.) पृ 183
  38. इयम् मधुपुरी रम्या मधुरा देवनिर्मिता निवेशं प्राप्नयाच्छीध्रमेश मे स्तु वर: पर:।। वाल्मीकि रामायण, उत्तराकांड, सर्ग 70, पंक्ति 5-6
  39. एफ ई पार्जिटर, ऐंश्‍येंटइंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन, तुलनीय, हेमचंद्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनैतिक इतिहास , पृ 107
  40. शतानीक: सामंतासु मेध्यम् सत्राजिता हयम् ,आदत्त यज्ञंकाशीनम् भरत: सत्वतामिव ।। -शतपथ ब्राह्मण, 13/5/4/21
  41. शतपथ ब्राह्मण, अध्याय 13/5/4/11; तुल हेमचंद्र राय चौधरी, प्राचीन भारत का राजनैतिक इतिहास, पृ 108
  42. अंगुत्तनिकाय, भाग 2, पृ 57; तत्रैव, भाग 3,पृ 257
  43. भरत सिंह उपापध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ 109
  44. `दिव्यावदान, पृ 348 में उल्लिखित है कि भगवान बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण काल से कुछ पहले ही मथुरा की यात्रा की थी-"भगवान्......परिनिर्वाणकालसमये..........मथुरामनुप्राप्त:। पालि परंपरा से इसका मेल बैठाना कठिन है।
  45. उल्लेखनीय है कि वेरंजा उत्तरापथ मार्ग पर पड़ने वाला बुद्धकाल में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था, जो मथुरा और सोरेय्य के मध्य स्थित था।
  46. वी ए स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया (चतुर्थ संस्करण), पृ 199
  47. `मथुरायां वासवदत्ता नाम गणिकां।' दिव्यावदान (कावेल एवं नीलवाला संस्करण), पृ 352
  48. आर सी शर्मा, बुद्धिस्ट् आर्ट आफ मथुरा, पृ 5
  49. भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धिकालीन भारतीय भूगोल, पृ 440
  50. मोती चंद्र, सार्थवाह, (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1953) 16
  51. यावच्च मथुरां यावच्च पाटलिपुत्रं अंतराय नौसङ् कमोवस्थापित:'।
  52. जी पी मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ् पालि प्रापर नेम्स, भाग 2, पृ 930