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११:४७, ३० अप्रैल २०१० का अवतरण
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मथुरा / Mathura
परिचय |
मथुरा भौगोलिक संदर्भ
मथुरा यमुना नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है । समुद्र तल से ऊँचाई 187 मीटर है । जलवायु-ग्रीष्म 220 से 450 से0, शीत 400 से 320 से0 औसत वर्षा 66 से.मी. जून से सितम्बर तक । मथुरा जनपद उत्तर प्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित है । इसके पूर्व में जनपद एटा, उत्तर में जनपद अलीगढ़, दक्षिण–पूर्व में जनपद आगरा, दक्षिण–पश्चिम में राजस्थान एवं पश्चिम–उत्तर में हरियाणा राज्य स्थित हैं । मथुरा, आगरा मण्डल का उत्तर–पश्चिमी ज़िला है । यह Lat. 27° 41'N और Long. 77° 41'E के मध्य स्थित है । मथुरा जनपद में चार तहसीलें –माँट, छाता, महावन और मथुरा तथा 10 विकास खण्ड हैं – नन्दगाँव, छाता, चौमुहाँ, गोवर्धन, मथुरा , फ़रह, नौहझील, मांट, राया और बल्देव हैं । जनपद का भौगोलिक क्षेत्रफल 3329.4 वर्ग कि.मी. है । जनपद की प्रमुख नदी यमुना है , जो उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हुई जनपद की कुल चार तहसीलों मांट, मथुरा, महावन और छाता में से होकर बहती है । यमुना का पूर्वी भाग पर्याप्त उपजाऊ है तथा पश्चिमी भाग अपेक्षाकृत कम उपजाऊ है । इस जनपद की प्रमुख नदी यमुना है, इसकी दो सहायक नदियाँ "करवन" तथा "पथवाहा" हैं । यमुना नदी वर्ष भर बहती है तथा जनपद की प्रत्येक तहसील को छूती हुई बहती है । यह प्रत्येक वर्ष अपना मार्ग बदलती रहती है , जिसके परिणाम स्वरूप हजारों हैक्टेयर क्षेत्रफल बाढ़ से प्रभावित हो जाता है । यमुना नदी के किनारे की भूमि खादर है । जनपद की वायु शुद्ध एवं स्वास्थ्यवर्धक है । गर्मियों में अधिक गर्मी और सर्दियों में अधिक सर्दी पड़ना यहाँ की विशेषता है । वर्षा के अलावा वर्ष भर शेष समय मौसम सामान्यत: शुष्क रहता है । मई व जून के महीनों में तेज गर्म पश्चिमी हवायें (लू) चलती हैं । जनपद में अधिकांश वर्षा जुलाई व अगस्त माह में होती है । जनपद के पश्चिमी भाग में आजकल बाढ़ का आना सामान्य हो गया है , जिससे काफी क्षेत्र जलमग्न हो जाता है ।
मथुरा संदर्भ
शूरसेन देश की मुख्य नगरी मथुरा के विषय में आज तक कोई वैदिक संकेत नहीं प्राप्त हो सका है। किन्तु ई॰पू॰ पाँचवीं शताब्दी से इसका अस्तित्व सिद्ध हो चुका है। अंगुत्तरनिकाय<balloon title="(1।167, एकं समयं आयस्मा महाकच्छानो मधुरायं विहरति गुन्दावने)" style="color:blue">*</balloon> एवं मज्झिम॰<balloon title="मज्झिम॰(2।84)" style="color:blue">*</balloon> में आया है कि बुद्ध के एक महान शिष्य महाकाच्यायन ने मथुरा में अपने गुरु के सिद्धान्तों की शिक्षा दी। मेगस्थनीज सम्भवत: मथुरा को जानता था और इसके साथ हरेक्लीज के सम्बन्ध से भी परिचित था। 'माथुर'<balloon title="(मथुरा का निवासी, या वहाँ उत्पन्न हुआ या मथुरा से आया हुआ)" style="color:blue">*</balloon> शब्द जैमिनि के पूर्व मीमांसासूत्र में भी आया है। यद्यपि पाणिनि के सूत्रों में स्पष्ट रूप से 'मथुरा' शब्द नहीं आया है, किन्तु वरणादि-गण<balloon title="(पाणिनि, 4।2।82)" style="color:blue">*</balloon> में इसका प्रयोग मिलता है। किन्तु पाणिनि को वासुदेव, अर्जुन<balloon title="पाणिनि(4।3।98)" style="color:blue">*</balloon>, यादवों के अन्धक-वृष्णि लोग, सम्भवत: गोविन्द भी<balloon title="(3।1।138 एवं वार्तिक 'गविच विन्दे: संज्ञायाम्')" style="color:blue">*</balloon> ज्ञात थे।
पतंजलि के महाभाष्य में मथुरा शब्द कई बार आया है।<balloon title="पतंजलि महाभाष्य(जिल्द 1,पृ॰ 18, 19 एवं 192, 244, जिल्द 3, पृ॰ 299 आदि)" style="color:blue">*</balloon> कई स्थानों पर वासुदेव द्वारा कंस के नाश का उल्लेख नाटकीय संकेतों, चित्रों एवं गाथाओं के रूप में आया है। उत्तराध्ययनसूत्र में मथुरा को सौर्यपुर कहा गया है, किन्तु महाभाष्य में उल्लिखित सौर्य नगर मथुरा ही है, ऐसा कहना सन्देहात्मक है। आदिपर्व<balloon title="महाभारत आदिपर्व(221।46)" style="color:blue">*</balloon> में आया है कि मथुरा अति सुन्दर गायों के लिए उन दिनों प्रसिद्ध थी। जब जरासन्ध के वीर सेनापति हंस एवं डिम्भक यमुना में डूब गये, और जब जरासन्ध दु:खित होकर मगध चला गया तो कृष्ण कहते हैं, 'अब हम पुन: प्रसन्न होकर मथुरा में रह सकेंगे'।<balloon title="महाभारत(सभापर्व 14।41-45)" style="color:blue">*</balloon> अन्त में जरासन्ध के लगातार आक्रमणों से तंग आकर कृष्ण ने यादवों को द्वारका में ले जाकर बसाया।<balloon title="महाभारत(सभापर्व 14।49-50 एवं 67)।" style="color:blue">*</balloon>
वराह पुराण<balloon title="वराह पुराण (152।8 एवं 11)" style="color:blue">*</balloon> में आया है- विष्णु कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो- मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता। पद्म पुराण में आया है- 'माथुरक नाम विष्णु को अत्यन्त प्रिय है'<balloon title="पद्म पुराण(4।69।12)।" style="color:blue">*</balloon> हरिवंश पुराण<balloon title="हरिवंश पुराण(विष्णुपर्व, 57।2-3)" style="color:blue">*</balloon> ने मथुरा का सुन्दर वर्णन किया है, एक श्लोक यों है- 'मथुरा मध्य-देश का ककुद (अर्थात् अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थल) है, यह लक्ष्मी का निवास-स्थल है, या पृथिवी का श्रृंग है। इसके समान कोई अन्य नहीं है और यह प्रभूत धन-धान्य से पूर्ण है।'<balloon title="तस्मान्माथुरक नाम विष्णोरेकान्तवल्लभम्। पद्म पुराण (4।69।12); मध्यदेशस्य ककुदं धाम लक्ष्म्याश्च केवलम्। श्रृंगं पृथिव्या: स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत्॥ हरिवंश पुराण (विष्णुपर्व, 57 । 2-3)।" style="color:blue">*</balloon> |
ब्रह्म पुराण (14।54-56) में आया है कि कृष्ण की सम्मति से वृष्णियों एवं अन्धकों ने काल यवन के भय से मथुरा का त्याग कर दिया। वायु पुराण<balloon title="वायु पुराण(88।185)" style="color:blue">*</balloon> का कथन है कि राम के भाई शत्रुघ्न ने मधु के पुत्र लवण को मार डाला और मधुवन में समुद्धिशाली नगर बनाया। घट-जातक<balloon title="(फाँस्बोल, जिल्द 4, पृ॰ 79-89, संख्या 454)" style="color:blue">*</balloon> में मथुरा को उत्तर मथुरा कहा गया है(दक्षिण के पाण्डवों की नगरी भी मधुरा के नाम से प्रसिद्ध थी), वहाँ कंस एवं वासुदेव की गाथा भी आयी है जो महाभारत एवं पुराणों की गाथा से भिन्न है। रघुवंश<balloon title="रघुवंश(15।28)" style="color:blue">*</balloon> में इसे मधुरा नाम से शत्रुघ्न द्वारा स्थापित कहा गया है। ह्वेनसाँग के अनुसार मथुरा में अशोकराज द्वारा तीन स्तूप बनवाये गये थे, पाँच देवमन्दिर थे और बीस संघाराम थे, जिनमें 2000 बौद्ध रहते थे।<balloon title="(बुद्धिस्ट रिकर्डस आव वेस्टर्न वर्ल्ड, वील, जिल्द 1,पृ॰ 179)" style="color:blue">*</balloon> जेम्स ऐलन<balloon title="(कैटलोग आव क्वाएंस आव ऐंश्येण्ट इण्डिया, 1936)" style="color:blue">*</balloon> का कथन है कि मथुरा के हिन्दू राजाओं के सिक्के ई॰पू॰ द्वितीय शताब्दी के आरम्भ से प्रथम शताब्दी के मध्य भाग तक के हैं।<balloon title="(और देखिए कैम्ब्रिज हिस्ट्री आव इण्डिया, जिल्द 1,पृ॰ 538)" style="color:blue">*</balloon> एफ्॰ एस्॰ ग्राउस की पुस्तक 'मथुरा'<balloon title="मथुरा(सन् 1880 द्वितीय संस्करण)" style="color:blue">*</balloon> भी दृष्टव्य है। मथुरा के इतिहास एवं प्राचीनता के विषय में शिलालेख भी प्रकाश डालते हैं।<balloon title="मथुराडा॰ बी॰ सी॰ लो कालेख 'मथुरा इन ऐश्येण्ट इण्डिया',जे॰ ए॰ एस॰ आव बंगाल (जिल्द 13, 1947, पृ॰ 21-30)।" style="color:blue">*</balloon> खारवेल के प्रसिद्ध अभिलेख में कलिंगराज (खारवेल) की उस विजय का वर्णन हैं, जिसमें मधुरा की ओर यवनराज दिमित का भाग जाना उल्लिखित है। कनिष्क, हुविष्क एवं अन्य कुषाण राजाओं के शिलालेख भी पाये जाते हैं, यथा-महाराज राजाधिराज कनिक्ख<balloon title="(पंवत् 8, एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द 17, पृ॰ 10)" style="color:blue">*</balloon> का नाग-प्रतिमा का शिलालेख; सं॰ 14 का स्तम्भतल लेख;<balloon title="सामान्य रूप से कनिष्क की तिथि 78 ई॰ मानी गयी है। देखिए जे॰ बी॰ ओ॰ आर॰ एस॰ (जिल्द 23,1937, पृ॰ 113-117, डा॰ ए॰ बनर्जी-शास्त्री)।" style="color:blue">*</balloon> हुविष्क (सं॰ 33) के राज्यकाल का बोधिसत्व की प्रतिमा के आधार वाला शिलालेख<balloon title="(एपिग्रै॰ इण्डि॰, जिल्द 8, पृ॰ 181-182);" style="color:blue">*</balloon> वासु<balloon title="(सं॰ 74, वही, जिल्द 9, पृ॰ 241)" style="color:blue">*</balloon> का शिलालेख; शोडास <balloon title="(वही, पृ॰ 246)" style="color:blue">*</balloon> के काल का शिलालेख एवं मथुरा तथा उसके आस-पास के सात ब्राह्मी लेख।<balloon title="(वही, जिल्द 24, पृ॰ 184-210)।" style="color:blue">*</balloon>
एक अन्य मनोरंजक शिलालेख भी है, जिसमें नन्दिबल एवं मथुरा के अभिनेता (शैलालक) के पुत्रों द्वारा नागेन्द्र दधिकर्ण के मन्दिर में प्रदत्त एक प्रस्तर-खण्ड का उल्लेख है।<balloon title="(वही, जिल्द 1,पृ॰ 390)।" style="color:blue">*</balloon> विष्णु पुराण<balloon title="विष्णु पुराण(6।8।31)" style="color:blue">*</balloon> से प्रकट होता है कि इसके प्रणयन के पूर्व मथुरा में हरि की एक प्रतिमा प्रतिष्ठापित हुई थी। वायु पुराण ने भविष्यवाणी के रूप में कहा है कि मथुरा, प्रयाग, साकेत एवं मगध में गुप्तों के पूर्व सात नाग राजा राज्य करेंगे। [१] अलबरूनी के भारत<balloon title="अलबरूनी, भारत(जिल्द 2, पृ0 147)" style="color:blue">*</balloon> में आया है कि माहुरा में ब्राह्मणों की भीड़ है।
चित्र वीथिका
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उपर्युक्त ऐतिहासिक विवेचन से प्रकट होता है कि ईसा के 5 या 6 शताब्दियों पूर्व मथुरा एक समृद्धिशाली पुरी थी, जहाँ महाकाव्य-कालीन हिन्दू धर्म प्रचलित था, जहाँ आगे चलकर बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म का प्राधान्य हुआ, जहाँ पुन: नागों एवं गुप्तों में हिन्दू धर्म जागरित हुआ, सातवीं शताब्दी में (जब ह्वेनसाँग यहाँ आया था) जहाँ बौद्ध धर्म एवं हिन्दू धर्म एक-समान पूजित थे और जहाँ पुन: 11वीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद प्रधानता को प्राप्त हो गया।
अग्नि पुराण<balloon title="अग्नि पुराण(11।8-9)" style="color:blue">*</balloon> में एक विचित्र बात यह लिखी है कि राम की आज्ञा से भरत ने मथुरा पुरी में शैलूष के तीन कोटि पुत्रों को मार डाला। [२] लगभग दो सहस्त्राब्दियों से अधिक काल तक मथुरा कृष्ण-पूजा एवं भागवत धर्म का केन्द्र रही है। वराह पुराण में मथुरा की महत्ता एवं इसके उपतीर्थों के विषय में लगभग एक सहस्त्र श्लोक पाये जाते हैं<balloon title="वराह पुराण(अध्याय 152-178)। बृहन्नारदीय॰ (अध्याय 79-80)" style="color:blue">*</balloon>, भागवत<balloon title="भागवत॰ (10)" style="color:blue">*</balloon> एवं विष्णु पुराण<balloon title="विष्णु पुराण(5-6)" style="color:blue">*</balloon> में कृष्ण, राधा, मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन एवं कृष्णलीला के विषय में बहुत-कुछ लिखा गया है।
पद्म पुराण<balloon title="पद्म पुराण(आदिखण्ड, 21।46-47)" style="color:blue">*</balloon> का कथन है कि यमुना जब मथुरा से मिल जाती है तो मोक्ष देती है; यमुना मथुरा में पुण्यफल उत्पन्न करती है और जब यह मथुरा से मिल जाती है तो विष्णु की भक्ति देती है। वराह पुराण<balloon title="वराह पुराण (152।8 एवं 11)" style="color:blue">*</balloon> में आया है- विष्णु कहते हैं कि इस पृथिवी या अन्तरिक्ष या पाताल लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जो मथुरा के समान मुझे प्यारा हो- मथुरा मेरा प्रसिद्ध क्षेत्र है और मुक्तिदायक है, इससे बढ़कर मुझे कोई अन्य स्थल नहीं लगता। पद्म पुराण में आया है- 'माथुरक नाम विष्णु को अत्यन्त प्रिय है'<balloon title="पद्म पुराण(4।69।12)।" style="color:blue">*</balloon> हरिवंश पुराण<balloon title="हरिवंश पुराण(विष्णुपर्व, 57।2-3)" style="color:blue">*</balloon> ने मथुरा का सुन्दर वर्णन किया है, एक श्लोक यों है- 'मथुरा मध्य-देश का ककुद (अर्थात् अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थल) है, यह लक्ष्मी का निवास-स्थल है, या पृथिवी का श्रृंग है। इसके समान कोई अन्य नहीं है और यह प्रभूत धन-धान्य से पूर्ण है।'<balloon title="तस्मान्माथुरक नाम विष्णोरेकान्तवल्लभम्। पद्म पुराण (4।69।12); मध्यदेशस्य ककुदं धाम लक्ष्म्याश्च केवलम्। श्रृंगं पृथिव्या: स्वालक्ष्यं प्रभूतधनधान्यवत्॥ हरिवंश पुराण (विष्णुपर्व, 57 । 2-3)।" style="color:blue">*</balloon>
मथुरा मण्डल
मथुरा का मण्डल 20 योजनों तक विस्तृत था और इसमें मथुरा पुरी बीच में स्थित थी।<balloon title="विंशतिर्योजनानां तु माथुरं परिमण्डलम्। तन्मध्ये मथुरा नाम पुरी सर्वोत्तमोत्तमा॥ नारदीय पुराण उत्तर, 79 । 20-21" style="color:blue">*</balloon> वराह पुराण एवं नारदीय पुराण(उत्तरार्ध, अध्याय 79-80) ने मथुरा एवं इसके आसपास के तीर्थों का उल्लेख किया है। वराह पुराण<balloon title="वराह पुराण(अध्याय 153 एवं 161। 6-10)" style="color:blue">*</balloon> एवं नारदीय पुराण<balloon title="नारदीय पुराण(उत्तरार्ध, 79।10-18)" style="color:blue">*</balloon> ने मथुरा के पास के 12 वनों की चर्चा की है, यथा- मधुवन, तालवन, कुमुदवन, काम्यवन, बहुलावन, भद्रवन, खदिरवन, महावन, लौहजंघवन, बिल्व, भांडीरवन एवं वृन्दावन। 24 उपवन भी<balloon title="(ग्राउसकृत मथुरा, पृ॰ 76)" style="color:blue">*</balloon> थे जिन्हें पुराणों ने नहीं, प्रत्युत पश्चात्कालीन ग्रन्थों ने वर्णित किया है।
वृन्दावन यमुना के किनारे मथुरा के उत्तर-पश्चिम में था और विस्तार में पाँच योजन था (विष्णु पुराण 5।6।28-40, नारदीय पुराण, उत्तरार्ध 80।6,8 एवं 77)।<balloon title="पद्म॰ (पाताल, 75।8-14) ने कृष्ण, गोपियों एवं कालिन्दी की गूढ़ व्याख्या उपस्थित की है। गोप-पत्नियाँ योगिनी हैं, कालिन्दी सुषुम्ना है, कृष्ण सर्वव्यापक हैं, आदि।" style="color:blue">*</balloon> यही कृष्ण की लीला-भूमि थी। पद्म पुराण (4।69।9) ने इसे पृथ्वी पर वैकुण्ठ माना है। मत्स्य॰ (13।38) ने राधा को वृन्दावन में देवी दाक्षायणी माना है। कालिदास के काल में यह प्रसिद्ध था। रघुवंश (6) में नीप कुल के एवं शूरसेन के राजा सुषेण का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वृन्दावन कुबेर की वाटिका चित्ररथ से किसी प्रकार सुन्दरता में कम नहीं है। इसके उपरान्त गोवर्धन की महत्ता है, जिसे कृष्ण ने अपनी कनिष्ठा अंगुली पर इन्द्र द्वारा भेजी गयी वर्षा से गोप-गोपियों एवं उनके पशुओं को बचाने के लिए उठाया था।<balloon title="विष्णुपुराण (5।11।15-24)" style="color:blue">*</balloon>
वराहपुराण (164।1) में आया है कि गोवर्धन मथुरा से पश्चिम लगभग दो योजन हैं। यह कुछ सीमा तक ठीक है, क्योंकि आजकल वृन्दावन से यह 18 मील है। कूर्म पुराण (1।14।18) का कथन है कि प्राचीन राजा पृथु ने यहाँ तप किया था। हरिवंश एवं पुराणों की चर्चाएँ कभी-कभी ऊटपटाँग एवं एक-दूसरे के विरोध में पड़ जाती हैं। उदाहरणार्थ, हरिवंश (विष्णुपर्व 13।3) में तालवन गोवर्धन से उत्तर यमुना पर कहा गया है, किन्तु वास्तव में यह गोवर्धन से दक्षिण-पूर्व में है। कालिदास (रघुवंश 6।51) ने गोवर्धन की गुफ़ाओं (या गुहाओं कन्दराओं) का उल्लेख किया है। गोकुल व्रज या महावन है जहाँ कृष्ण बचपन में नन्द-गोप द्वारा पालित-पोषित हुए थे। कंस के भय से नन्द-गोप गोकुल से वृन्दावन चले आये थे। चैतन्य महाप्रभु वृन्दावन आये थे।<balloon title="(देखिए चैतन्यचरितामृत, सर्ग 19 एवं कवि कर्णपूर या परमानन्द दास कृत नाटक चैतन्यचन्द्रोदय, अंक 9)" style="color:blue">*</balloon> 16वीं शताब्दी में वृन्दावन के गोस्वामियों, विशेषत: सनातन, रूप एवं जीव के ग्रन्थों के कारण वृन्दावन चैतन्य-भक्ति-सम्प्रदाय का केन्द्र था।<balloon title="(देखिए प्रो॰ एस॰ के॰ दे कृत 'वैष्णव फेथ एण्ड मूवमेंट इन बेंगाल, 1942, पृ॰ 83-122)" style="color:blue">*</balloon> चैतन्य के समकालीन वल्लभाचार्य एक दूसरे से वृन्दावन में मिले थे।<balloon title="(देखिए मणिलाल सी॰ पारिख का वल्लभाचार्य पर ग्रन्थ,पृ॰ 161)" style="color:blue">*</balloon> मथुरा के प्राचीन मन्दिरों को औरंगजेब ने बनारस के मन्दिरों की भाँति नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। [३]
सभापर्व (319।23-24) में ऐसा आया है कि जरासंघ ने गिरिव्रज (मगध की प्राचीन राजधानी, राजगिर) से अपनी गदा फेंकी और वह 99 योजन की दूरी पर कृष्ण के समक्ष मथुरा में गिरी, जहाँ वह गिरी वह स्थान 'गदावसान' के नाम से विश्रुत हुआ। वह नाम कहीं और नहीं मिलता।
ग्राउस ने मथुरा नामक पुस्तक में<balloon title="(अध्याय 9)" style="color:blue">*</balloon> वृन्दावन के मन्दिरों एवं<balloon title="(अध्याय 11)" style="color:blue">*</balloon> गोवर्धन, बरसाना, राधा के जन्म-स्थान एवं नन्दगाँव का उल्लेख किया है। मथुरा एवं उसके आसपास के तीर्थ-स्थलों का डब्लू॰ एस॰ कैने कृत 'चित्रमय भारत'<balloon title="चित्रमय भारत(पृ॰ 253)" style="color:blue">*</balloon> में भी वर्णन है।
संस्कृति
यहाँ के वन–उपवन, कुन्ज–निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं । पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है । मोरों की बहुतायत तथा उनकी पिऊ–पिऊ की आवाज से वातावरण गुन्जायमान रहता है । बाल्यकाल से ही भगवान श्रीकृष्ण की सुन्दर मोर के प्रति विशेष कृपा तथा उसके पंखों को शीष मुकुट के रूप में धारण करने से स्कन्द वाहन स्वरूप मोर को भक्ति साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान मिला है । सरकार ने मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर इसे संरक्षण दिया है ।
वराह पुराण<balloon title="वराह पुराण(अध्याय 153 एवं 161। 6-10)" style="color:blue">*</balloon> एवं नारदीय पुराण<balloon title="नारदीय पुराण(उत्तरार्ध, 79।10-18)" style="color:blue">*</balloon> ने मथुरा के पास के 12 वनों की चर्चा की है, यथा- मधुवन, तालवन, कुमुदवन, काम्यवन, बहुलावन, भद्रवन, खदिरवन, महावन, लौहजंघवन, बिल्व, भांडीरवन एवं वृन्दावन। 24 उपवन भी<balloon title="(ग्राउसकृत मथुरा, पृ॰ 76)" style="color:blue">*</balloon> थे जिन्हें पुराणों ने नहीं, प्रत्युत पश्चात्कालीन ग्रन्थों ने वर्णित किया है। |
ब्रज की महत्ता प्रेरणात्मक, भावनात्मक व रचनात्मक है तथा साहित्य और कलाओं के विकास के लिए यह उपयुक्त स्थली है । संगीत, नृत्य एवं अभिनय ब्रज संस्कृति के प्राण बने हैं । ब्रजभूमि अनेकानेक मठों, मूर्तियों, मन्दिरों, महंतो, महात्माओं और महामनीषियों की महिमा से वन्दनीय है । यहाँ सभी सम्प्रदायों की आराधना स्थली है । ब्रज की रज का महात्म्य भक्तों के लिए सर्वोपरि है । इसीलिए ब्रज चौरासी कोस में 21 किलोमीटर की गोवर्धन–राधाकुण्ड, 27 किलोमीटर की गरूणगोविन्द–वृन्दावन, 5–5कोस की मथुरा–वृन्दावन, 15–15 किलोमीटर की मथुरा, वृन्दावन, 6–6 किलोमीटर नन्दगांव, बरसाना, बहुलावन, भांडीरवन, 9 किलोमीटर की गोकुल, 7.5 किलोमीटर की बल्देव, 4.5–4.5 किलोमीटर की मधुवन, लोहवन, 2 किलोमीटर की तालवन, 1.5 किलोमीटर की कुमुदवन की नंगे पांव तथा दण्डोती परिक्रमा लगाकर श्रृद्धालु धन्य होते हैं । प्रत्येक त्योहार, उत्सव, ऋतु माह एवं दिन पर परिक्रमा देने का ब्रज में विशेष प्रचलन है । देश के कोने–कोने से आकर श्रृद्धालु ब्रज परिक्रमाओं को धार्मिक कृत्य और अनुष्ठान मानकर अति श्रद्धा भक्ति के साथ करते हैं । इनसे नैसर्गिक चेतना, धार्मिक परिकल्पना, संस्कृति के अनुशीलन उन्नयन, मौलिक व मंगलमयी प्रेरणा प्राप्त होती है । आषाढ़ तथा अधिक मास में गोवर्धन पर्वत परिक्रमा हेतु लाखों श्रद्धालु आते हैं । ऐसी अपार भीड़ में भी राष्ट्रीय एकता और सद्भावना के दर्शन होते हैं । भगवान श्रीकृष्ण, बलदाऊ की लीला स्थली का दर्शन तो श्रद्धालुओं के लिए प्रमुख है ही यहाँ अक्रूर जी, उद्धव जी, नारद जी, ध्रुव जी और वज्रनाथ जी की यात्रायें भी उल्लेखनीय हैं ।
ब्रज की संस्कृति की कुछ विशेषताएं:
रासलीला, रामलीला एवं स्वांग नाटक :
वेशभूषा :
खान पान :
ब्रज का विशेष भोजन जो दालवाटी चूरमा के नाम से जाना जाता है :
लोकनृत्य :
ब्रज की जीवन शैली
परम्परागत रूप से ब्रजवासी सानन्द जीवन व्यतीत करते हैं । नित्य स्नान, भजन, मन्दिर गमन, दर्शन–झांकी करना, दीन–दुखियों की सहायता करना, अतिथि सत्कार, लोकोपकार के कार्य, पशु–पक्षियों के प्रति प्रेम, नारियों का सम्मान व सुरक्षा, बच्चों के प्रति स्नेह , उन्हें अच्छी शिक्षा देना तथा लौकिक व्यवहार कुशलता उनकी जीवन शैली के अंग बन चुके हैं । यहां कन्या को देवी के समान पूज्य माना जाता है । ब्रज वनितायें पति के साथ दिन–रात कार्य करते हुए कुल की मर्यादा रखकर पति के साथ रहने में अपना जीवन सार्थक मानती है । संयुक्त परिवार प्रणाली साथ रहने, कार्य करने ,एक–दूसरे का ध्यान रखने, छोटे–बड़े के प्रति यथोचित सम्मान , यहां की समाजिक व्यवस्था में परिलक्षित होता है । सत्य और संयम ब्रज लोक जीवन के प्रमुख अंग हैं । यहां कार्य के सिद्धान्त की महत्ता है और जीवों में परमात्मा का अंश मानना ही दिव्य दृष्टि है ।
महिलाओं की मांग में सिंदूर, माथे पर बिन्दी, नाक में लौंग या बाली, कानों में कुण्डल या झुमकी–झाली, गले में मंगल सूत्र, हाथों में चूड़ी, पैरों में बिछुआ–चुटकी, महावर और पायजेब या तोड़िया उनकी सुहाग की निशानी मानी जाती हैं । विवाहित महिलायें अपने पति परिवार और गृह की मंगल कामना हेतु करवा चौथ का व्रत करती हैं, पुत्रवती नारियां संतान के मंगलमय जीवन हेतु अहोई अष्टमी का व्रत रखती हैं । स्वर्गस्तक सतिया चिन्ह यहां सभी मांगलिक अवसरों पर बनाया जाता है और शुभ अवसरों पर नारियल का प्रयोग किया जाता है ।
देश के कोने–कोने से लोग यहां पर्वों पर एकत्र होते हैं । जहां विविधता में एकता के साक्षात दर्शन होते हैं । ब्रज में प्राय: सभी मन्दिरों में रथयात्रा का उत्सव होता है । चैत्र मास में वृन्दावन में रंगनाथ जी की सवारी विभिन्न वाहनों पर निकलती है । जिसमें देश के कोने–कोने से आकर भक्त सम्मिलित होते हैं । ज्येष्ठ मास में गंगा दशहरा के दिन प्रात: काल से ही विभिन्न अंचलों से श्रद्धालु आकर यमुना में स्नान करते हैं । इस अवसर पर भी विभिन्न प्रकार की वेशभूषा और शिल्प के साथ राष्ट्रीय एकता के दर्शन होते हैं , इस दिन छोटे–बड़े सभी कलात्मक ढंग की रंगीन पतंग उड़ाते हैं ।
आषाढ़ मास में गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा हेतु प्राय: सभी क्षेत्रों से यात्री गोवर्धन आते हैं, जिसमें आभूषणों, परिधानों आदि से क्षेत्र की शिल्प कला उद्भाषित होती है । श्रावण मास में हिन्डोलों के उत्सव में विभिन्न प्रकार से कलात्मक ढंग से सज्जा की जाती है । भाद्रपद में मन्दिरों में विशेष कलात्मक झांकियां तथा सजावट होती है । आश्विन माह में सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र में कन्याएं घर की दीवारों पर गोबर से विभिन्न प्रकार की कृतियां बनाती हैं, जिनमें कौड़ियों तथा रंगीन चमकदार कागजों के आभूषणों से अपनी सांझी को कलात्मक ढंग से सजाकर आरती करती हैं । इसी माह से मन्दिरों में कागज के सांचों से सूखे रंगों की वेदी का निर्माण कर उस पर अल्पना बनाते हैं । इसको भी 'सांझी' कहते हैं । कार्तिक मास तो श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से परिपूर्ण रहता है । अक्षय तृतीया तथा देवोत्थान एकादशी को मथुरा तथा वृन्दावन की परिक्रमा लगाई जाती है । बसंत पंचमी को सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र बसन्ती होता है । फाल्गुन मास में तो जिधर देखो उधर नगाड़ों , झांझ पर चौपाई तथा होली के रसिया की ध्वनियां सुनाई देती हैं । नन्दगांव तथा बरसाना की लठामार होली, दाऊजी का हुरंगा जगत प्रसिद्ध है ।
ब्रज का प्राचीन संगीत
ब्रज के प्राचीन संगीतज्ञों की प्रामाणिक जानकारी 16वीं शताब्दी के भक्तिकाल से मिलती है । इस काल में अनेकों संगीतज्ञ वैष्णव संत हुए । संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदास जी, इनके गुरु आशुधीर जी तथा उनके शिष्य तानसेन आदि का नाम सर्वविदित है । बैजूबावरा के गुरु भी श्री हरिदास जी कहे जाते हैं, किन्तु बैजू बावरा ने अष्टछाप के कवि संगीतज्ञ गोविन्द स्वामी जी से ही संगीत का अभ्यास किया था । निम्बार्क सम्प्रदाय के श्रीभट्ट जी इसी काल में भक्त, कवि और संगीतज्ञ हुए । अष्टछाप के महासंगीतज्ञ कवि सूरदास, नन्ददास, परमानन्ददास जी आदि भी इसी काल में प्रसिद्ध कीर्तनकार, कवि और गायक हुए, जिनके कीर्तन बल्लभकुल के मन्दिरों में गाये जाते हैं । स्वामी हरिदास जी ने ही वस्तुत: ब्रज–संगीत के ध्रुपद–धमार की गायकी और रास–नृत्य की परम्परा चलाई ।
संगीत
मथुरा में संगीत का प्रचलन बहुत पुराना है, बांसुरी ब्रज का प्रमुख वाद्य यंत्र है । भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी को जन–जन जानता है और इसी को लेकर उन्हें मुरलीधर और वंशीधर आदि नामों से पुकारा जाता है । वर्तमान में भी ब्रज के लोकसंगीत में ढोल मृदंग, झांझ, मंजीरा, ढप, नगाड़ा, पखावज, एकतारा आदि वाद्य यंत्रों का प्रचलन है ।
16 वीं शती से मथुरा में रास के वर्तमान रूप का प्रारम्भ हुआ । यहां सबसे पहले बल्लभाचार्य जी ने स्वामी हरदेव के सहयोग से विश्रांत घाट पर रास किया । रास ब्रज की अनोखी देन है, जिसमें संगीत के गीत गद्य तथा नृत्य का समिश्रण है । ब्रज के साहित्य के सांस्कृतिक एवं कलात्मक जीवन को रास बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त करता है । अष्टछाप के कवियों के समय ब्रज में संगीत की मधुरधारा प्रवाहित हुई । सूरदास, नन्ददास, कृष्णदास आदि स्वयं गायक थे । इन कवियों ने अपनी रचनाओं में विविध प्रकार के गीतों का अपार भण्डार भर दिया ।
स्वामी हरिदास संगीत शास्त्र के प्रकाण्ड आचार्य एवं गायक थे । तानसेन जैसे प्रसिद्ध संगीतज्ञ भी उनके शिष्य थे । सम्राट अकबर भी स्वामी जी के मधुर संगीत- गीतों को सुनने का लोभ संवरण न कर सका और इसके लिए भेष बदलकर उन्हें सुनने वृन्दावन आया करता था । मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन लम्बे समय तक संगीत के केन्द्र बने रहे और यहां दूर से संगीत कला सीखने आते रहे ।
लोक गीत
ब्रज में अनेकानेक गायन शैलियां प्रचलित हैं और रसिया ब्रज की प्राचीनतम गायकी कला है । भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से सम्बन्धित पद, रसिया आदि गायकी के साथ रासलीला का आयोजन होता है । श्रावण मास में महिलाओं द्वारा झूला झूलते समय गायी जाने वाली मल्हार गायकी का प्रादुर्भाव ब्रज से ही है । लोकसंगीत में रसिया, ढोला, आल्हा, लावणी, चौबोला, बहल–तबील, भगत आदि संगीत भी समय –समय पर सुनने को मिलता है । इसके अतिरिक्त ऋतु गीत, घरेलू गीत, सांस्कृतिक गीत समय–समय पर विभिन्न वर्गों में गाये जाते हैं ।
कला
यहां स्थापत्य तथा मूर्ति कला के विकास का सबसे महत्वपूर्ण युग कुषाण काल के प्रारम्भ से गुप्त काल के अन्त तक रहा । यद्यपि इसके बाद भी ये कलायें 12वीं शती के अन्त तक जारी रहीं । इसके बाद लगभग 350 वर्षों तक मथुरा कला का प्रवाह अवरूद्ध रहा, पर 16वीं शती से कला का पुनरूत्थान साहित्य, संगीत तथा चित्रकला के रूप में दिखाई पड़ने लगता है ।
स्थापत्य एवं वास्तुकला :
ब्रज के प्रमुख पर्व एवं त्योहार
ब्रजभूमि पर्वों एवं त्योहारों की भूमि है । यहां की संस्कृति उत्सव प्रधान है । यहाँ हर ऋतु माह एवं दिनों में पर्व और त्योहार चलते हैं । कुछ प्रमुख त्योहारों का विवरण निम्नवत है ।
पर्यटन एवं ऐतिहासिक स्थल
ब्रज में कृष्णलीला के स्थलों के दर्शन हेतु अनेकों श्रृद्धालुओं को नियमित आना रहता है । भगवान श्रीकृष्ण की लीलायें जहां हुईं उन क्षेत्रों की परिक्रमा तथा पड़ाव की यात्रायें होती है और उनकी तिथियाँ निश्चित हैं । प्रमुख स्थलों का संक्षेप में वर्णन प्रस्तुत है।
मधुवन :
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बहुलावन :
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जतीपुरा :
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घाटा :
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संकेत :
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नन्दगाँव :
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कोटवन :
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कोसी :
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पैगांम :
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शेरगढ़ :
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चीर घाट :
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बच्छवन :
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वृन्दावन :
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बल्देव :
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गोकुल :
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रावल :
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महावन |
मथुरा ज़िले के प्रमुख मन्दिर
भगवान श्रीकृष्ण के जन्म स्थान पर महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी की प्रेरणा से एक विशाल मन्दिर बना है । यह देशी–विदशी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है । मन्दिर में भगवान श्रीकृष्ण का सुन्दर विग्रह है । समीप ही सुविधा युक्त अतिथि ग्रह तथा धर्मार्थ आयुर्वेदिक चिकित्सालय है । अतिथि ग्रह के निकट विशाल भागवत भवन है । यहाँ शोध पीठ एवं बाल मन्दिर भी है । इसके पीछे केशवदेव जी का प्राचीन मन्दिर भी स्थित है ।
वीथिका
बांके बिहारी जी मन्दिर, वृन्दावन
Banke Bihari Temple, Vrindavanरंग नाथ जी का मन्दिर, वृन्दावन
Rang Nath Ji Temple, Vrindavanमहाराज्ञी कम्बोजिका
Queen Kambojikaइस्कॉन मन्दिर, वृन्दावन
Iskcon Temple, Vrindavanरमण रेती आश्रम, महावन
Raman Reti Ashram, Mahavanद्वारिकाधीश मन्दिर, मथुरा
Dwarikadish Temple, Mathuraकुसुम सरोवर, गोवर्धन
Kusum Sarovar, Govardhanरंगेश्वर महादेव मन्दिर, मथुरा
Rangeshwar Mahadev Temple, Mathuraराधा-कृष्ण, कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा
Radha - Krishna, Krishna's Birth Place, Mathuraयमुना स्नान, विश्राम घाट, मथुरा
Yamuna Snan, Vishram Ghat, Mathuraगुरु पूर्णिमा पर भजन-कीर्तन करते श्रृध्दालु, गोवर्धन, मथुरा
Devotees Chanting Bhajans On Guru Purnima, Govardhanमानसी गंगा, गोवर्धन
Mansi Ganga, Govardhanहरिदेव जी मंदिर, गोवर्धन
Haridev Ji Temple, Govardhan
टीका-टिप्पणी
- ↑ नव नाकास्तु (नागास्तु?) भोक्ष्यन्ति पुरीं चम्पावती नृपा:। मथुरां च पुरीं रम्यां नागा भोक्ष्यन्ति सप्त वै।। अनुगंगं प्रयागं च साकेंत मगधांस्तथा। एताञ् जनपदान्सर्वान् भोक्ष्यन्ते गुप्तवंशजा:॥ वायु पुराण (99।382-83); ब्रह्म पुराण (3।74।194)। डा॰ जायसवाल कृत 'हिस्ट्री ऑफ इण्डिया (150-350 ई॰),' पृ॰ 3-15, जहाँ नाग-वंश के विषय में चर्चा है।
- ↑ अभूत्पूर्मथुरा काचिद्रामोक्तो भरतोवधीत्। कोटित्रयं च शैलूषपुत्राणां निशितै: शरै:॥ शैलूषं दृप्तगन्धर्व सिन्धुतीरनिवासिनम्। अग्नि पुराण (2।8-9)। विष्णुधर्मोत्तर॰ (1, अध्याय 201-202)में आया है कि शैलूष के पुत्र गन्धर्वो ने सिन्धु के दोनों तटों की भूमि को तहस-नहस किया और राम ने अपने भाई भरत को उन्हें नष्ट करने को भेजा- 'जहि शैलूषतनयान् गन्धर्वान्, पापनिश्चयान्' (1।202-10)। शैलूष का अर्थ अभिनेता भी होता है। क्या यह भरतनाट्यशास्त्र के रचयिता भरत के अनुयायियों एवं अन्य अभिनेताओं के झगड़े की ओर संकेत करता है? नाट्यशास्त्र (17।47) ने नाटक के लिए शूरसेन की भाषा को अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त माना है। काणेकृत 'हिस्ट्री आव संस्कृत पोइटिक्स' (पृ0 40, सन् 1951)।
- ↑ देखिए इलिएट एवं डाउसन कृत 'हिस्ट्री आव इण्डिया ऐज टोल्ड बाई इट्स ओन हिस्टोरिएन', जिल्द 7, पृ0 184, जहाँ 'म-असिर-ए-आलमगीरी' की एक उक्ति इस विषय में इस प्रकार अनूदित हुई है,-"औरंगजेब ने मथुरा के 'देहरा केसु राय' नामक मन्दिर (जो, जैसा कि उस ग्रन्थ में आया है, 33 लाख रूपयों से निर्मित हुआ था) को नष्ट करने की आज्ञा दी, और शीघ्र ही वह असत्यता का शक्तिशाली गढ़ पृथिवी में मिला दिया गया और उसी स्थान पर एक बृहत् मसजिद की नींव डाल दी गयी।"