मथुरा एक झलक

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मथुरा / Mathura

मथुरा भौगोलिक संदर्भ

मथुरा यमुना नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है । समुद्र तल से ऊँचाई 187 मीटर है । जलवायु- ग्रीष्म 220 से 450 से0, शीत 400 से 320 से0 औसत वर्षा 66 से.मी. जून से सितम्बर तक । मथुरा जनपद उ0प्र0 की पश्चिमी सीमा पर स्थित है । इसके पूर्व में जनपद एटा, उत्तर में जनपद अलीगढ़, दक्षिण–पूर्व में जनपद आगरा, दक्षिण–पश्चिम में राजस्थान एवं पश्चिम–उत्तर में हरियाणा राज्य स्थित हैं । मथुरा, आगरा मण्डल का उत्तर–पश्चिमी जिला है । यह Lat. 270 141 तथा 270 581 N और 770 171 तथा 780 121E के मध्य स्थित है । मथुरा जनपद में तीन तहसीलें –माँट, छाता और मथुरा तथा 10 विकास खण्ड हैं – नन्दगाँव, छाता, चौमुहाँ, गोवर्धन, मथुरा , फरह, नौहझील, मांट, राया और बल्देव हैं ।

जनपद का भौगोलिक क्षेत्रफल 3329.4 वर्ग कि.मी. है । जनपद की प्रमुख नदी यमुना है , जो उत्तर से दक्षिण की ओर बहती हुई जनपद की कुल तीन तहसीलों मांट, मथुरा और छाता में से होकर बहती है । यमुना का पूर्वी भाग पर्याप्त उपजाऊ है तथा पश्चिमी भाग अपेक्षाकृत कम उपजाऊ है ।

इस जनपद की प्रमुख नदी यमुना है, इसकी दो सहायक नदियाँ "करवन" तथा "पथवाहा" हैं । यमुना नदी वर्ष भर बहती है तथा जनपद की प्रत्येक तहसील को छूती हुई बहती है । यह प्रत्येक वर्ष अपना मार्ग बदलती रहती है , जिसके परिणाम स्वरूप हजारों हैक्टेयर क्षेत्रफल बाढ़ से प्रभावित हो जाता है । यमुना नदी के किनारे की भूमि खादर है । जनपद की वायु शुद्ध एवं स्वास्थ्यवर्धक है । गर्मियों में अधिक गर्मी और सर्दियों में अधिक सर्दी पड़ना यहाँ की विशेषता है । वर्षा के अलावा वर्ष भर शेष समय मौसम सामान्यत: शुष्क रहता है । मई व जून के महीनों में तेज गर्म पश्चिमी हवायें (लू) चलती हैं । जनपद में अधिकांश वर्षा जुलाई व अगस्त माह में होती है । जनपद के पश्चिमी भाग में आजकल बाढ़ का आना सामान्य हो गया है , जिससे काफी क्षेत्र जलमग्न हो जाता है ।

संस्कृति

यहाँ के वन–उपवन, कुन्ज–निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं । पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है । मोरों की बहुतायत तथा उनकी पिऊ–पिऊ की आवाज से वातावरण गुन्जायमान रहता है । बाल्यकाल से ही भगवान श्रीकृष्ण की सुन्दर मोर के प्रति विशेष कृपा तथा उसके पंखों को शीष मुकुट के रूप में धारण करने से स्कन्द वाहन स्वरूप मोर को भक्ति साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान मिला है । सरकार ने मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर इसे संरक्षण दिया है ।

ब्रज की महत्ता प्रेरणात्मक, भावनात्मक व रचनात्मक है तथा साहित्य और कलाओं के विकास के लिए यह उपयुक्त स्थली है । संगीत, नृत्य एवं अभिनय ब्रज संस्कृति के प्राण बने हैं । ब्रजभूमि अनेकानेक मठों, मूर्तियों, मन्दिरों, महंतो, महात्माओं और महामनीषियों की महिमा से वन्दनीय है । यहाँ सभी सम्प्रदायों की आराधना स्थली है । ब्रज की रज का महात्म्य भक्तों के लिए सर्वोपरि है । इसीलिए ब्रज चौरासी कोस में 21 किलोमीटर की गोवर्धन –राधाकुण्ड, 27 किलोमीटर की गरूणगोविन्द–वृन्दावन, 5–5कोस की मथुरा–वृन्दावन, 15–15 किलोमीटर की मथुरा, वृन्दावन, 6–6 किलोमीटर नन्दगांव, बरसाना, बहुलावन, भांडीरवन, 9 किलोमीटर की गोकुल, 7.5 किलोमीटर की बल्देव, 4.5–4.5 किलोमीटर की मधुवन, लोहवन, 2 किलोमीटर की लालवन, 1.5 किलोमीटर की कुमुदवन की नंगे पांव तथा दण्डोती परिक्रमा लगाकर श्रृद्धालु धन्य होते हैं । प्रत्येक त्यौहार, उत्सव, ऋतु माह एवं दिन पर परिक्रमा देने का ब्रज में विशेष प्रचलन है । देश के कोने–कोने से आकर श्रृद्धालु ब्रज परिक्रमाओं को धार्मिक कृत्य और अनुष्ठान मानकर अति श्रद्धा भक्ति के साथ करते हैं । इनसे नैसर्गिक चेतना, धार्मिक परिकल्पना, संस्कृति के अनुशीलन उन्नयन, मौलिक व मंगलमयी प्रेरणा प्राप्त होती है । आषाढ़ तथा अधिक मास में गोवर्धन पर्वत परिक्रमा हेतु लाखों श्रद्धालु आते हैं । ऐसी अपार भीड़ में भी राष्ट्रीय एकता और सद्भावना के दर्शन होते हैं । भगवान श्रीकृष्ण, बलदाऊ की लीला स्थली का दर्शन तो श्रद्धालुओं के लिए प्रमुख है ही यहाँ अक्रूर जी, उद्धव जी, नारद जी, ध्रुव जी और वज्रनाथ जी की यात्रायें भी उल्लेखनीय हैं ।

रासलीला, रामलीला एवं स्वांग नाटक :

मल्ल विद्या :

वेशभूषा :

खान–पान :

ब्रज का विशेष भोजन जो दालवाटी चूरमा के नाम से जाना जाता है :

लोकनृत्य :

चरकुला नृत्य :

ब्रज की जीवन शैली

परम्परागत रूप से ब्रजवासी सानन्द जीवन व्यतीत करते हैं । नित्य स्नान, भजन, मन्दिर गमन, दर्शन–झांकी करना, दीन–दुखियों की सहायता करना, अतिथि सत्कार, लोकोपकार के कार्य, पशु–पक्षियों के प्रति प्रेम, नारियों का सम्मान व सुरक्षा, बच्चों के प्रति स्नेह , उन्हें अच्छी शिक्षा देना तथा लौकिक व्यवहार कुशलता उनकी जीवन शैली के अंग बन चुके हैं । यहां कन्या को देवी के समान पूज्य माना जाता है । ब्रज वनितायें पति के साथ दिन–रात कार्य करते हुए कुल की मर्यादा रखकर पति के साथ रहने में अपना जीवन सार्थक मानती है । संयुक्त परिवार प्रणाली साथ रहने, कार्य करने ,एक–दूसरे का ध्यान रखने, छोटे–बड़े के प्रति यथोचित सम्मान , यहां की समाजिक व्यवस्था में परिलक्षित होता है । सत्य और संयम ब्रज लोक जीवन के प्रमुख अंग हैं । यहां कार्य के सिद्धान्त की महत्ता है और जीवों में परमात्मा का अंश मानना ही दिव्य दृष्टि है ।

महिलाओं की मांग में सिंदूर, माथे पर बिन्दी, नाक में लौंग या बाली, कानों में कुण्डल या झुमकी–झाली, गले में मंगल सूत्र, हाथों में चूड़ी, पैरों में बिछुआ–चुटकी, महावर और पायजेब या तोड़िया उनकी सुहाग की निशानी मानी जाती हैं । विवाहित महिलायें अपने पति परिवार और गृह की मंगल कामना हेतु करवा चौथ का व्रत करती हैं, पुत्रवती नारियां संतान के मंगलमय जीवन हेतु अहोई अष्टमी का व्रत रखती हैं । स्वर्गस्तक सतिया चिन्ह यहां सभी मांगलिक अवसरों पर बनाया जाता है और शुभ अवसरों पर नारियल का प्रयोग किया जाता है ।

देश के कोने–कोने से लोग यहां पर्वों पर एकत्र होते हैं । जहां विविधता में एकता के साक्षात दर्शन होते हैं । ब्रज में प्राय: सभी मन्दिरों में रथयात्रा का उत्सव होता है । चैत्र मास में वृन्दावन में रंगनाथ जी की सवारी विभिन्न वाहनों पर निकलती है । जिसमें देश के कोने–कोने से आकर भक्त सम्मिलित होते हैं । ज्येष्ठ मास में गंगा दशहरा के दिन प्रात: काल से ही विभिन्न अंचलों से श्रद्धालु आकर यमुना में स्नान करते हैं । इस अवसर पर भी विभिन्न प्रकार की वेशभूषा और शिल्प के साथ राष्ट्रीय एकता के दर्शन होते हैं , इस दिन छोटे–बड़े सभी कलात्मक ढंग की रंगीन पतंग उड़ाते हैं ।

आषाढ़ मास में गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा हेतु प्राय: सभी क्षेत्रों से यात्री गोवर्धन आते हैं, जिसमें आभूषणों, परिधानों आदि से क्षेत्र की शिल्प कला उद्भाषित होती है । श्रावण मास में हिन्डोलों के उत्सव में विभिन्न प्रकार से कलात्मक ढंग से सज्जा की जाती है । भाद्रपद में मन्दिरों में विशेष कलात्मक झांकियां तथा सजावट होती है । आश्विन माह में सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र में कन्याएं घर की दीवारों पर गोबर से विभिन्न प्रकार की कृतियां बनाती हैं, जिनमें कौड़ियों तथा रंगीन चमकदार कागजों के आभूषणों से अपनी सांझी को कलात्मक ढंग से सजाकर आरती करती हैं । इसी माह से मन्दिरों में कागज के सांचों से सूखे रंगों की वेदी का निर्माण कर उस पर अल्पना बनाते हैं । इसको भी 'सांझी' कहते हैं । कार्तिक मास तो श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से परिपूर्ण रहता है । अक्षय तृतीया तथा देवउठान एकदशी को मथुरा तथा वृन्दावन की परिक्रमा लगाई जाती है । बसंत पंचमी को सम्पूर्ण ब्रज क्षेत्र बसन्ती होता है । फाल्गुन मास में तो जिधर देखो उधर नगाड़ों , झांझ पर चौपाई तथा होली के रसिया की ध्वनियां सुनाई देती हैं । नन्दगांव तथा बरसाना की लठामार होली, दाऊजी का हुरंगा जगत प्रसिद्ध है ।

ब्रज का प्राचीन संगीत

ब्रज के प्राचीन संगीतज्ञों की प्रामाणिक जानकारी 16वीं शताब्दी के भक्तिकाल से मिलती है । इस काल में अनेकों संगीतज्ञ वैष्णव संत हुए । संगीत शिरोमणि स्वामी हरिदास जी, इनके गुरू आशुधीर जी तथा उनके शिष्य तानसेन आदि का नाम सर्वविदित है । बैजू बावरा के गुरू भी श्री हरिदास जी कहे जाते हैं, किन्तु बैजू बावरा ने अष्टछाप के कवि संगीतज्ञ गोविन्द स्वामी जी से ही संगीत का अभ्यास किया था । निम्बार्क सम्प्रदाय के श्रीभट्ट जी इसी काल में भक्त, कवि और संगीतज्ञ हुए । अष्टछाप के महासंगीतज्ञ कवि सूरदास, नन्ददास, परमानन्ददास जी आदि भी इसी काल में प्रसिद्ध कीर्तनकार, कवि और गायक हुए, जिनके कीर्तन बल्लभकुल के मन्दिरों में गाये जाते हैं । स्वामी हरिदास जी ने ही वस्तुत: ब्रज–संगीत के ध्रुपद–धमार की गायकी और रास –नृत्य की परम्परा चलाई ।

संगीत

मथुरा में संगीत का प्रचलन बहुत पुराना है, बांसुरी ब्रज का प्रमुख वाद्य यंत्र है । भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी को जन–जन जानता है और इसी को लेकर उन्हें मुरलीधर और वंशीधर आदि नामों से पुकारा जाता है । वर्तमान में भी ब्रज के लोकसंगीत में ढोल मृदंग, झांझ, मंजीरा, ढप, नगाड़ा, पखावज, एकतारा आदि वाद्य यंत्रों का प्रचलन है ।

16 वीं शती से मथुरा में रास के वर्तमान रूप का प्रारम्भ हुआ । यहां सबसे पहले बल्लभाचार्य जी ने स्वामी हरदेव के सहयोग से विश्रांत घाट पर रास किया । रास ब्रज की अनोखी देन है, जिसमें संगीत के गीत गद्य तथा नृत्य का समिश्रण है । ब्रज के साहित्य के सांस्कृतिक एवं कलात्मक जीवन को रास बड़ी सुन्दरता से अभिव्यक्त करता है । अष्टछाप के कवियों के समय ब्रज में संगीत की मधुरधारा प्रवाहित हुई । सूरदास, नन्ददास, कृष्णदास आदि स्वयं गायक थे । इन कवियों ने अपनी रचनाओं में विविध प्रकार के गीतों का अपार भण्डार भर दिया ।

स्वामी हरिदास संगीत शास्त्र के प्रकाण्ड आचार्य एवं गायक थे । तानसेन जैसे प्रसिद्ध संगीतज्ञ भी उनके शिष्य थे । सम्राट अकबर भी स्वामी जी के मधुर संगीत- गीतों को सुनने का लोभ संवरण न कर सका और इसके लिए भेष बदलकर उन्हें सुनने वृन्दावन आया करता था । मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, गोवर्धन लम्बे समय तक संगीत के केन्द्र बने रहे और यहां दूर से संगीत कला सीखने आते रहे ।

लोक गीत

ब्रज में अनेकानेक गायन शैलियां प्रचलित हैं और रसिया ब्रज की प्राचीनतम गायकी कला है । भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं से सम्बन्धित पद, रसिया आदि गायकी के साथ रासलीला का आयोजन होता है । श्रावण मास में महिलाओं द्वारा झूला झूलते समय गायी जाने वाली मल्हार गायकी का प्रादुर्भाव ब्रज से ही है । लोकसंगीत में रसिया, ढोला, आल्हा, लावणी, चौबोला, बहल–तबील, भगत आदि संगीत भी समय –समय पर सुनने को मिलता है । इसके अतिरिक्त ऋतु गीत, घरेलू गीत, सांस्कृतिक गीत समय–समय पर विभिन्न वर्गों में गाये जाते हैं ।

कला

यहां स्थापत्य तथा मूर्तिकला के विकास का सबसे महत्वपूर्ण युग कुषाण काल के प्रारम्भ से गुप्तकाल के अन्त तक रहा । यद्यपि इसके बाद भी ये कलायें 12वीं शती के अन्त तक जारी रहीं । इसके बाद लगभग 350 वर्षों तक मथुरा कला का प्रवाह अवरूद्ध रहा, पर 16वीं शती से कला का पुनरूत्थान साहित्य, संगीत तथा चित्रकला के रूप में दिखाई पड़ने लगता है ।

स्थापत्य एवं वास्तुकला :

मूर्तिकला :

जैन मूर्तियाँ :

बौद्ध मूर्तियाँ :

हिन्दू मूर्तियाँ :

अन्य प्रतिमाएँ :

चित्रकला :