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==पु्ष्यभूति==
 
==पु्ष्यभूति==
ई० छठी शती के प्रारम्भ में पु्ष्यभूति ने थानेश्वर में एक नये राजवंश की नींव डाली । इस वंश का पाँचवा और शक्तिशाली राजा प्रभाकरवर्धन (लगभग 583 - 605 ई०) हुआ । उसकी उपाधि  'परम भट्टारक महाराजाधिराज' थी । उपाधि से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया था । बाणभट्ट द्वारा रचित 'हर्षचरित' से पता चलता है कि इस शासक ने सिंध, गुजरात और मालवा पर अधिकार कर लिया था । गांधार प्रदेश तक के शासक प्रभाकरवर्धन से डरते थे तथा उसने हूणों को भी पराजित किया था ।  
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ई० छठी शती के प्रारम्भ में पु्ष्यभूति ने थानेश्वर में एक नये राजवंश की नींव डाली । इस वंश का पाँचवा और शक्तिशाली राजा प्रभाकरवर्धन (लगभग 583 - 605 ई०) हुआ । उसकी उपाधि  'परम भट्टारक महाराजाधिराज' थी । उपाधि से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया था । बाणभट्ट द्वारा रचित 'हर्षचरित' से पता चलता है कि इस शासक ने सिंध, गुजरात और मालवा पर अधिकार कर लिया था । गांधार प्रदेश तक के शासक प्रभाकरवर्धन से डरते थे तथा उसने [[हूण|हूणों]] को भी पराजित किया था ।  
 
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==प्रभाकरवर्धन==
 
==प्रभाकरवर्धन==
राजा प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र राज्यवर्धन, [[हर्षवर्धन]] और एक पुत्री राज्यश्री थी । राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरीवंश के शासक ग्रहवर्मन से हुआ था । उस वैवाहिक संबंध के कारण उत्तरी भारत के दो प्रसिद्ध मौखरी और वर्धन राज्य प्रेम-सूत्र मे बँध गये थे, जिससे उन दोनों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी । हर्षचरित से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपनी मृत्यु से पहले राज्यवर्धन को उत्तर दिशा में हूणों का दमन करने के लिए भेजा था । संभवत: उस समय हूणों का अधिकार उत्तरी पंजाब और काश्मीर के कुछ भाग पर ही था । शक्तिशाली प्रभाकरवर्धन का शासन पश्चिम में [[व्यास]] नदी से लेकर पूर्व में [[यमुना]] तक था । [[मथुरा]] राज्य की पूर्वी सीमा पर था ।  
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राजा प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र राज्यवर्धन, [[हर्षवर्धन]] और एक पुत्री राज्यश्री थी । राज्यश्री का विवाह [[कन्नौज]] के मौखरीवंश के शासक ग्रहवर्मन से हुआ था । उस वैवाहिक संबंध के कारण उत्तरी भारत के दो प्रसिद्ध मौखरी और वर्धन राज्य प्रेम-सूत्र मे बँध गये थे, जिससे उन दोनों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी । हर्षचरित से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपनी मृत्यु से पहले राज्यवर्धन को उत्तर दिशा में हूणों का दमन करने के लिए भेजा था । संभवत: उस समय हूणों का अधिकार उत्तरी पंजाब और काश्मीर के कुछ भाग पर ही था । शक्तिशाली प्रभाकरवर्धन का शासन पश्चिम में [[व्यास नदी]] से लेकर पूर्व में [[यमुना]] तक था । [[मथुरा]] राज्य की पूर्वी सीमा पर था ।  
 
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कन्नौज भारतवर्ष के राजनैतिक और सांस्कृतिक महत्व का केन्द्र रहा । प्रागैतिहासिक काल में यह कुरू–पंचाल जनपदों का भूभाग था । जब से देश का प्रामाणिक इतिहास प्रारम्भ हुआ है, तब से उस महत्व का केन्द्र मगध ही रहा । मगध साम्राज्य और उसकी राजधानी पाटलिपुत्र का महत्व प्राय: हजारों वर्षों तक रहा था । गुप्त साम्राज्य का अंत होने पर मगध का महत्व भी समाप्त हो गया था । जब हर्षवर्धन का उदय हुआ, तब कुछ ऐसी परिस्थितियाँ थी कि हर्षवर्धन को इच्छा न होते हुए भी थानेश्वर के साथ ही साथ कन्नौज का शासन भी  सम्भालना पड़ा । हर्षवर्धन के शासन काल में कन्नौज का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक महत्व इतना अधिक बढ़ गया था कि उसकी तुलना मगध से की जाने लगी थी । कन्नौज का यह महत्व हर्षवर्धन के जीवन काल तक रहा था ।  
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कन्नौज भारतवर्ष के राजनैतिक और सांस्कृतिक महत्व का केन्द्र रहा । प्रागैतिहासिक काल में यह [[कुरू]]–[[पंचाल]] जनपदों का भूभाग था । जब से देश का प्रामाणिक इतिहास प्रारम्भ हुआ है, तब से उस महत्व का केन्द्र [[मगध]] ही रहा । मगध साम्राज्य और उसकी राजधानी [[पाटलिपुत्र]] का महत्व प्राय: हजारों वर्षों तक रहा था । गुप्त साम्राज्य का अंत होने पर मगध का महत्व भी समाप्त हो गया था । जब हर्षवर्धन का उदय हुआ, तब कुछ ऐसी परिस्थितियाँ थी कि हर्षवर्धन को इच्छा न होते हुए भी थानेश्वर के साथ ही साथ कन्नौज का शासन भी  सम्भालना पड़ा । हर्षवर्धन के शासन काल में कन्नौज का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक महत्व इतना अधिक बढ़ गया था कि उसकी तुलना मगध से की जाने लगी थी । कन्नौज का यह महत्व हर्षवर्धन के जीवन काल तक रहा था ।  
  
 
'''प्रभाकर वर्धन की मृत्यु और थानेश्वर की स्थिति'''
 
'''प्रभाकर वर्धन की मृत्यु और थानेश्वर की स्थिति'''
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'''कन्नौज का संकट'''
 
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इस समय थानेश्वर में विषम परिस्थितियाँ थीं, साथ ही कन्नौज में भी परिवर्तनकारी घटनाएँ घटित हो रही थीं । थानेश्वर और कन्नौज के घरानों के बीच वैवाहिक संबंधों को देख कर उत्तर भारत के शासक शंकित और भयग्रस्त थे । दोनों राज्यों की सम्मिलित शक्ति के विरोध में मालवा के शासक देवगुप्त और गौड़ के शासक शशांक ने अपना संगठन बना लिया । हुएनसांग ने शंशाक को कर्णसुवर्ण का राजा लिखा है । कर्णसुवर्ण सम्भवतः वर्तमान काल का मुर्शिदाबाद जिला हैं, जो उस समय गौड़ प्रदेश की राजधानी था । उस समय गौड़ प्रदेश बंगाल के एक भाग का नाम था, जो उत्तर मध्य काल तक रहा, किंतु प्राचीन काल में इस देश के कुछ दूसरे भी गौड़ कहलाते थे । थानेश्वर के निकट का भू-भाग इस काल में गौड़ प्रदेश कहलाता था और वहाँ के ब्राह्मणों को गौड़ ब्राह्मण कहा जाता था ।  पुराणों में उत्तर कौशल (वर्तमान फैजाबाद कमिश्नरी) को गौड़ प्रदेश कहा गया है, इसकी राजधानी श्रावस्ती थी । वर्तमान गोंड़ा जिला उसकी प्राचीन नाम की पुष्टि करता है । शशांक का राज्याधिकार सभंवत: गोंडा से मुर्शिदाबाद तक था । जब मालवा के शासक देवगुप्त को प्रभाकरवर्धन की असाध्य बीमारी और राज्यवर्धन का हूणों के संघर्ष में फँसे होने का समाचार मिला, उसने एक विशाल सेना के साथ कन्नौज पर आक्रमण कर दिया । कन्नौज के मौखरी राजा ग्रहवर्मन ने वीरतापूर्वक युध्द किया, किंतु दुर्भाग्य से वह वीरगति को प्राप्त हुए । कन्नौज पर शत्रुओं का अधिकार हो गया और ग्रहवर्मन की रानी राजश्री को कारागार में डाल दिया गया । जब इस घटना का समाचार थानेश्वर पहुँचा, उस समय विरक्त जीवन बिताने की इच्छा रखने वाले राज्यवर्धन को बाध्य होकर अपना विचार बदलना पड़ा । वह थानेश्वर के प्रबंध का भार हर्ष पर छोड़ कर स्वयं एक विशाल सेना के साथ देवगुप्त को दंड देने के लिए चल पड़ा । उसका उद्देश्य ग्रहवर्मन की मृत्यु का बदला लेना और राजश्री को बंधन-मुक्त कराना था । उसने देवगुप्त को परास्त कर दिया, किंतु गौड़ के शासक शशांक ने उसे धोखा से मार डाला । इस प्रकार जीती हुई बाजी पलट गई । जब वह दु:खद समाचार थानेश्वर पहुँचा तो वहाँ बड़ा दुःखद वातावरण था । इस विषम परिस्थिति में हर्ष का बाध्य होकर थानेश्वर की बागड़ोर संभालनी पड़ी ।  राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात हर्षवर्धन थानेश्वर राज्य का शासक हुआ । भविष्यति पुरी रम्या शूरसेना न संशय: ।<ref> [रामा0, उत्तर0, 70, 6]</ref> तथा-स पुरा दिव्यसंकाशो वर्षे द्वादशमें शुभे । निविष्ट: शूरसेनानां विषयंश्चाकुतोभय: ।<ref> [रामा0, उत्तर070, 1]</ref>  
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इस समय थानेश्वर में विषम परिस्थितियाँ थीं, साथ ही कन्नौज में भी परिवर्तनकारी घटनाएँ घटित हो रही थीं । थानेश्वर और कन्नौज के घरानों के बीच वैवाहिक संबंधों को देख कर उत्तर भारत के शासक शंकित और भयग्रस्त थे । दोनों राज्यों की सम्मिलित शक्ति के विरोध में मालवा के शासक देवगुप्त और गौड़ के शासक शशांक ने अपना संगठन बना लिया । [[हुएन-सांग]] ने शंशाक को कर्णसुवर्ण का राजा लिखा है । कर्णसुवर्ण सम्भवतः वर्तमान काल का मुर्शिदाबाद जिला हैं, जो उस समय गौड़ प्रदेश की राजधानी था । उस समय गौड़ प्रदेश बंगाल के एक भाग का नाम था, जो उत्तर मध्य काल तक रहा, किंतु प्राचीन काल में इस देश के कुछ दूसरे भी गौड़ कहलाते थे । थानेश्वर के निकट का भू-भाग इस काल में गौड़ प्रदेश कहलाता था और वहाँ के ब्राह्मणों को गौड़ ब्राह्मण कहा जाता था ।  पुराणों में उत्तर कौशल (वर्तमान फैजाबाद कमिश्नरी) को गौड़ प्रदेश कहा गया है, इसकी राजधानी [[श्रावस्ती]] थी । वर्तमान गोंड़ा जिला उसकी प्राचीन नाम की पुष्टि करता है । शशांक का राज्याधिकार सभंवत: गोंडा से मुर्शिदाबाद तक था । जब मालवा के शासक देवगुप्त को प्रभाकरवर्धन की असाध्य बीमारी और राज्यवर्धन का हूणों के संघर्ष में फँसे होने का समाचार मिला, उसने एक विशाल सेना के साथ कन्नौज पर आक्रमण कर दिया । कन्नौज के मौखरी राजा ग्रहवर्मन ने वीरतापूर्वक युध्द किया, किंतु दुर्भाग्य से वह वीरगति को प्राप्त हुए । कन्नौज पर शत्रुओं का अधिकार हो गया और ग्रहवर्मन की रानी राजश्री को कारागार में डाल दिया गया । जब इस घटना का समाचार थानेश्वर पहुँचा, उस समय विरक्त जीवन बिताने की इच्छा रखने वाले राज्यवर्धन को बाध्य होकर अपना विचार बदलना पड़ा । वह थानेश्वर के प्रबंध का भार हर्ष पर छोड़ कर स्वयं एक विशाल सेना के साथ देवगुप्त को दंड देने के लिए चल पड़ा । उसका उद्देश्य ग्रहवर्मन की मृत्यु का बदला लेना और राजश्री को बंधन-मुक्त कराना था । उसने देवगुप्त को परास्त कर दिया, किंतु गौड़ के शासक शशांक ने उसे धोखा से मार डाला । इस प्रकार जीती हुई बाजी पलट गई । जब वह दु:खद समाचार थानेश्वर पहुँचा तो वहाँ बड़ा दुःखद वातावरण था । इस विषम परिस्थिति में हर्ष का बाध्य होकर थानेश्वर की बागड़ोर संभालनी पड़ी ।  राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात हर्षवर्धन थानेश्वर राज्य का शासक हुआ । भविष्यति पुरी रम्या शूरसेना न संशय: ।<ref> [रामा0, उत्तर0, 70, 6]</ref> तथा-स पुरा दिव्यसंकाशो वर्षे द्वादशमें शुभे । निविष्ट: शूरसेनानां विषयंश्चाकुतोभय: ।<ref> [रामा0, उत्तर070, 1]</ref>  
 
==हर्षवर्धन (606 - 647 ई०)==
 
==हर्षवर्धन (606 - 647 ई०)==
 
हर्षवर्धन बहुत ही विषम स्थिति में थानेश्वर का शासक हुआ । उस समय की अभूतपूर्व विकट परिस्थितियों से वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ, वरन उसने साहसपूर्वक उनका सामना किया । वह शीघ्र ही अपनी सेना लेकर युद्ध स्थल को चल दिया । उसे सबसे पहिले अपनी बहन राजश्री को बंधनमुक्त करना था और फिर शशांक तथा देवगुप्त को दंड देना था । जब हर्ष अपनी सेना सहित युद्ध अभियान के लिए जा रहा था, तब मार्ग में उसे कन्नौज की सेना मिल गई । उसके सेनापति भांडी से उसे समाचार मिला कि राजश्री कन्नौज के कारागृह से भाग कर विंध्याचल के वन्य प्रदेश में चली गई है । हर्ष ने भांडी को शत्रु से मोर्चा लेने का भार सौंपा और वह स्वयं राजश्री की खोज में चला गया । जिस समय हर्ष राजश्री के पास पहुँचा, उस समय वह सती होने के लिए चिता पर बैठने की तैयारी कर रही थी । हर्ष ने बड़ी कठिनाईपूर्वक उसे जलने से रोका और फिर उसे साथ लेकर भांडी की सेना से आ मिला । उसके बाद वह कन्नौज पर अधिकार करने के लिए आगे बढ़ा । गौड़ाधिपति शशांक ने हर्ष से युद्ध करना उचित न समझ कर कन्नौज से अपना अधिकार हटा लिया और वह अपने राज्य को वापिस चला गया । इस प्रकार हर्ष ने राजश्री के साथ ही साथ कन्नौज का भी उद्धार किया, उसने कन्नौज की राजगद्दी पर राज्यश्री को बैठने के लिए कहा, पर उसने अस्वीकार कर दिया । वह अपने पति की मृत्यु से बहुत दु:खी थी, वह अपने जीवन का अंत करना चाहती थी, अथवा विरक्त होकर तपस्विनी की भाँति रहना चाहती थी । राज्यश्री ने अपने भाई हर्ष से कन्नौज का शासन भी संभालने के लिए कहा । कन्नौज राज्य के सरदार-सामन्त भी यही चाहते थे, किंतु हर्ष इसके लिए तैयार नहीं हुआ । थानेश्वर के पैतृक राज्य को सँभालने में उसकी अनिच्छा थी, बहिन का राज्य वह किस प्रकार स्वीकार कर सकता था, परन्तु परिस्थितियों ने जहाँ थानेश्वर का राज्य भार उस पर डाला, वहीं कन्नौज का  शासन भी उसे  संभालना पड़ा । थानेश्वर और कन्नौज दोनों का शासन हर्षवर्धन ने सं. 670 के लगभग असाधारण परिस्थितियों में स्वीकार किया । वह उत्तर भारत के दो विशाल राज्यों का शासक होने के कारण देश का सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था । उसने 'शीलादित्य' की उपाधि धारण की और वह 'सकलोत्तरापथेश्वर' कहलाया । अपने शासन को दृढ़ता और सुव्यवस्थित चलाने के लिए उसने अपने राज्य के केन्द्र कन्नौज में अपनी राजधानी रखी जो महत्व पिछले एक हजार वर्ष से मगध की राजधानी पाटलिपुत्र का था, वह हर्ष के काल में कन्नौज का था और बाद में भी मुसलमानों के आक्रमण काल तक कन्नौज महत्वपूर्ण रहा ।  
 
हर्षवर्धन बहुत ही विषम स्थिति में थानेश्वर का शासक हुआ । उस समय की अभूतपूर्व विकट परिस्थितियों से वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ, वरन उसने साहसपूर्वक उनका सामना किया । वह शीघ्र ही अपनी सेना लेकर युद्ध स्थल को चल दिया । उसे सबसे पहिले अपनी बहन राजश्री को बंधनमुक्त करना था और फिर शशांक तथा देवगुप्त को दंड देना था । जब हर्ष अपनी सेना सहित युद्ध अभियान के लिए जा रहा था, तब मार्ग में उसे कन्नौज की सेना मिल गई । उसके सेनापति भांडी से उसे समाचार मिला कि राजश्री कन्नौज के कारागृह से भाग कर विंध्याचल के वन्य प्रदेश में चली गई है । हर्ष ने भांडी को शत्रु से मोर्चा लेने का भार सौंपा और वह स्वयं राजश्री की खोज में चला गया । जिस समय हर्ष राजश्री के पास पहुँचा, उस समय वह सती होने के लिए चिता पर बैठने की तैयारी कर रही थी । हर्ष ने बड़ी कठिनाईपूर्वक उसे जलने से रोका और फिर उसे साथ लेकर भांडी की सेना से आ मिला । उसके बाद वह कन्नौज पर अधिकार करने के लिए आगे बढ़ा । गौड़ाधिपति शशांक ने हर्ष से युद्ध करना उचित न समझ कर कन्नौज से अपना अधिकार हटा लिया और वह अपने राज्य को वापिस चला गया । इस प्रकार हर्ष ने राजश्री के साथ ही साथ कन्नौज का भी उद्धार किया, उसने कन्नौज की राजगद्दी पर राज्यश्री को बैठने के लिए कहा, पर उसने अस्वीकार कर दिया । वह अपने पति की मृत्यु से बहुत दु:खी थी, वह अपने जीवन का अंत करना चाहती थी, अथवा विरक्त होकर तपस्विनी की भाँति रहना चाहती थी । राज्यश्री ने अपने भाई हर्ष से कन्नौज का शासन भी संभालने के लिए कहा । कन्नौज राज्य के सरदार-सामन्त भी यही चाहते थे, किंतु हर्ष इसके लिए तैयार नहीं हुआ । थानेश्वर के पैतृक राज्य को सँभालने में उसकी अनिच्छा थी, बहिन का राज्य वह किस प्रकार स्वीकार कर सकता था, परन्तु परिस्थितियों ने जहाँ थानेश्वर का राज्य भार उस पर डाला, वहीं कन्नौज का  शासन भी उसे  संभालना पड़ा । थानेश्वर और कन्नौज दोनों का शासन हर्षवर्धन ने सं. 670 के लगभग असाधारण परिस्थितियों में स्वीकार किया । वह उत्तर भारत के दो विशाल राज्यों का शासक होने के कारण देश का सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था । उसने 'शीलादित्य' की उपाधि धारण की और वह 'सकलोत्तरापथेश्वर' कहलाया । अपने शासन को दृढ़ता और सुव्यवस्थित चलाने के लिए उसने अपने राज्य के केन्द्र कन्नौज में अपनी राजधानी रखी जो महत्व पिछले एक हजार वर्ष से मगध की राजधानी पाटलिपुत्र का था, वह हर्ष के काल में कन्नौज का था और बाद में भी मुसलमानों के आक्रमण काल तक कन्नौज महत्वपूर्ण रहा ।  
 
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हर्ष वीर योद्धा, सुयोग्य शासक, उदार, दानी, विद्याव्यसनी और उच्च कोटि का कवि था । व्यवस्थित शासन और योग्यता से हर्ष के व्यक्तित्व का ज्ञान होता है । हर्ष पहिले सूर्योपासक था, परन्तु कालान्तर में उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था । हर्ष सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता था और उन्हें आश्रय देता था । वह धार्मिक और जनोपयोगी कार्यों में बड़ी उदारतापूर्वक दान किया करता था । प्रयाग में हर्ष हर अर्धकुम्भ और कुम्भ में विशाल धर्मोत्सव करता था, जिसमें सभी धर्मों के अनुयायी बड़ी संख्या में उपस्थित होते थे । उत्सव के अंतिम दिन वह अपने राजकोष का समस्त धन धर्मार्थ वितरित कर दिया करता था । हर्ष के दरबार मे सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट था, जिसके द्वारा रचित 'हर्ष- चरित्' प्रसिद्ध ग्रन्थ है । कवि बाणभट्ट ने संस्कृत में यह गद्य ग्रन्थ लिखा है । इस ग्रन्थ में बाणभट्ट ने हर्ष के प्रारंभिक शासन-काल का विस्तृत वर्णन किया है । इसके अलावा 'मंजुश्रीमूलकल्प' आदि ग्रन्थों से और प्राप्त कई समकालीन अभिलेखों से उस काल के इतिहास का ज्ञान होता है । हर्ष ने सिंहासन पर बैठते ही एक बड़ी सेना तैयार की और उत्तरी पूर्वी  अनेक राज्यों को जीत लिया । हर्ष ने थोडे समय में ही अपनी विशाल सेना की सहायता से एक बहुत बड़े साम्राज्य को निर्मित कर लिया । वर्तमान उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और उड़ीसा के लगभग सभी राज्य हर्ष के शासन के अंतर्गत हो गये थे । पश्चिम में जालंधर तक उसका शासन स्थापित हो गया । मथुरा का प्रदेश हर्ष के शासन के अंतर्गत ही रहा ।<ref>डा.रमाशंकर त्रिपाठी का विचार है कि मथुरा तथा मतिपुर - ये दो राज्य हर्ष के साम्राज्य से बाहर रहे ।त्रिपाठी जी हुएन-सांग के यात्रा विवरण के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं -दे.हिस्ट्री आफ कनौज,पृ.119 ।</ref> हर्षवर्धन ने उत्तरी भारत में अपना एकच्छत्र राज्य स्थापित कर लिया । इसके पश्चात उसने दक्षिण को भी जीतने की इच्छा होने के कारण दक्षिण पर चढ़ाई की । लेकिन बादामी के तत्कालीन चालुक्य राजा पुलकेशिन, द्वितीय ने उसे हरा दिया, जिससे हर्ष की यह इच्छा पूरी न हो सकी । चालुक्य-वंश के लेखों में हर्ष की उपाधि 'सकलोत्तरापथनाथ' मिलती है । जिससे समग्र उत्तरापथ पर हर्ष के एकाधिकार का ज्ञान होता है । हर्षवर्धन ने गद्दी पर बैठते ही एक नया संवत् प्रारम्भ किया था, जो 'हर्ष संवत्' नाम से जाना जाता है ।
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हर्ष वीर योद्धा, सुयोग्य शासक, उदार, दानी, विद्याव्यसनी और उच्च कोटि का कवि था । व्यवस्थित शासन और योग्यता से हर्ष के व्यक्तित्व का ज्ञान होता है । हर्ष पहिले सूर्योपासक था, परन्तु कालान्तर में उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था । हर्ष सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता था और उन्हें आश्रय देता था । वह धार्मिक और जनोपयोगी कार्यों में बड़ी उदारतापूर्वक दान किया करता था । [[प्रयाग]] में हर्ष हर अर्धकुम्भ और कुम्भ में विशाल धर्मोत्सव करता था, जिसमें सभी धर्मों के अनुयायी बड़ी संख्या में उपस्थित होते थे । उत्सव के अंतिम दिन वह अपने राजकोष का समस्त धन धर्मार्थ वितरित कर दिया करता था । हर्ष के दरबार मे सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट था, जिसके द्वारा रचित 'हर्ष-चरित्' प्रसिद्ध ग्रन्थ है । कवि बाणभट्ट ने संस्कृत में यह गद्य ग्रन्थ लिखा है । इस ग्रन्थ में बाणभट्ट ने हर्ष के प्रारंभिक शासन-काल का विस्तृत वर्णन किया है । इसके अलावा 'मंजुश्रीमूलकल्प' आदि ग्रन्थों से और प्राप्त कई समकालीन अभिलेखों से उस काल के इतिहास का ज्ञान होता है । हर्ष ने सिंहासन पर बैठते ही एक बड़ी सेना तैयार की और उत्तरी पूर्वी  अनेक राज्यों को जीत लिया । हर्ष ने थोडे समय में ही अपनी विशाल सेना की सहायता से एक बहुत बड़े साम्राज्य को निर्मित कर लिया । वर्तमान उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और उड़ीसा के लगभग सभी राज्य हर्ष के शासन के अंतर्गत हो गये थे । पश्चिम में जालंधर तक उसका शासन स्थापित हो गया । मथुरा का प्रदेश हर्ष के शासन के अंतर्गत ही रहा ।<ref>डा.रमाशंकर त्रिपाठी का विचार है कि मथुरा तथा मतिपुर - ये दो राज्य हर्ष के साम्राज्य से बाहर रहे ।त्रिपाठी जी हुएन-सांग के यात्रा विवरण के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं -दे.हिस्ट्री आफ कनौज,पृ.119 ।</ref> हर्षवर्धन ने उत्तरी भारत में अपना एकच्छत्र राज्य स्थापित कर लिया । इसके पश्चात उसने दक्षिण को भी जीतने की इच्छा होने के कारण दक्षिण पर चढ़ाई की । लेकिन बादामी के तत्कालीन चालुक्य राजा पुलकेशिन, द्वितीय ने उसे हरा दिया, जिससे हर्ष की यह इच्छा पूरी न हो सकी । चालुक्य-वंश के लेखों में हर्ष की उपाधि 'सकलोत्तरापथनाथ' मिलती है । जिससे समग्र उत्तरापथ पर हर्ष के एकाधिकार का ज्ञान होता है । हर्षवर्धन ने गद्दी पर बैठते ही एक नया संवत् प्रारम्भ किया था, जो 'हर्ष संवत्' नाम से जाना जाता है ।
 
==अलबेरूनी==
 
==अलबेरूनी==
 
11वीं शताब्दी के लेखक अलबेरूनी ने लिखा है कि श्रीहर्ष का संवत् मथुरा और कन्नौज में प्रचलित था । हर्षवर्धन ने एक बड़े एवं दृढ़ साम्राज्य की स्थापना के साथ साथ अपने शासन काल में साहित्य, कला और धर्म की भी बहुत उन्नति कराई । बाणभट्ट तथा मयूर-जैसे प्रसिद्ध लेखक उसकी सभा में थे । बाण का विद्वान पुत्र भूषणभट्ट, आचार्य, दंडी, मातंग-दिवाकर तथा मानतुंगाचार्य भी हर्ष की सभा के रत्न थे । हर्ष स्वयं एक अच्छा लेखक था । उसके द्वारा रचित तीन नाटक 'रत्नावली', 'प्रियदर्शिका' तथा 'नागानं'द मिले हैं, इन रचनाओं से हर्ष की साहित्यिक प्रतिभा का ज्ञान होता है । नालंदा के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की हर्ष ने सहायता की । उसने नालंदा में एक विशाल बौद्ध विहार निर्मित कराया । हर्ष बौद्ध धर्म के अतिरिक्त अन्य सभी धर्मों का भी आदर करता था । उसकी दानशीलता बहुत प्रसिद्ध है । प्रति पाँचवें वर्ष  प्रयाग में गंगा यमुना के संगम पर होने वाले कुम्भ में हर्ष और राजश्री दान किया करते थे । कनौज नगर की हर्ष के शासन-काल में बड़ी उन्नति हुई । यहाँ अनेक भव्य इमारतों का निर्माण हुआ । हर्ष की राजसभा में धार्मिक शास्त्रार्थ हुआ करते थे । सम्राट हर्ष ने हुएन-सांग की विद्वत्ता और धार्मिकता से अत्यंत प्रभावित हो कर कन्नौज की राजसभा में उसे बहुत सम्मानित किया था । हर्ष के शासन-काल में प्रजा बहुत सुखी थी । राज्य का प्रबंध सुव्यवस्थित और अच्छा था ।  अपराधों के लिए कठोर दंड व्यवस्था थी । अधिकारी  अपने कर्तव्यों का बड़ी सतर्कता और सजगता से पालन करते थे । कृषकों से जमीन की आय का छठा भाग कर के रूप में लिया जाता था । सभी धर्मों के मानने वालों को पूरी स्वतन्त्रता थी । मथुरा में उस समय पौराणिक हिंदू धर्म अपने चरम की ओर हो चला था, ऐसा उस समय की कला-कृतियों से अनुमान होता है ।   
 
11वीं शताब्दी के लेखक अलबेरूनी ने लिखा है कि श्रीहर्ष का संवत् मथुरा और कन्नौज में प्रचलित था । हर्षवर्धन ने एक बड़े एवं दृढ़ साम्राज्य की स्थापना के साथ साथ अपने शासन काल में साहित्य, कला और धर्म की भी बहुत उन्नति कराई । बाणभट्ट तथा मयूर-जैसे प्रसिद्ध लेखक उसकी सभा में थे । बाण का विद्वान पुत्र भूषणभट्ट, आचार्य, दंडी, मातंग-दिवाकर तथा मानतुंगाचार्य भी हर्ष की सभा के रत्न थे । हर्ष स्वयं एक अच्छा लेखक था । उसके द्वारा रचित तीन नाटक 'रत्नावली', 'प्रियदर्शिका' तथा 'नागानं'द मिले हैं, इन रचनाओं से हर्ष की साहित्यिक प्रतिभा का ज्ञान होता है । नालंदा के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की हर्ष ने सहायता की । उसने नालंदा में एक विशाल बौद्ध विहार निर्मित कराया । हर्ष बौद्ध धर्म के अतिरिक्त अन्य सभी धर्मों का भी आदर करता था । उसकी दानशीलता बहुत प्रसिद्ध है । प्रति पाँचवें वर्ष  प्रयाग में गंगा यमुना के संगम पर होने वाले कुम्भ में हर्ष और राजश्री दान किया करते थे । कनौज नगर की हर्ष के शासन-काल में बड़ी उन्नति हुई । यहाँ अनेक भव्य इमारतों का निर्माण हुआ । हर्ष की राजसभा में धार्मिक शास्त्रार्थ हुआ करते थे । सम्राट हर्ष ने हुएन-सांग की विद्वत्ता और धार्मिकता से अत्यंत प्रभावित हो कर कन्नौज की राजसभा में उसे बहुत सम्मानित किया था । हर्ष के शासन-काल में प्रजा बहुत सुखी थी । राज्य का प्रबंध सुव्यवस्थित और अच्छा था ।  अपराधों के लिए कठोर दंड व्यवस्था थी । अधिकारी  अपने कर्तव्यों का बड़ी सतर्कता और सजगता से पालन करते थे । कृषकों से जमीन की आय का छठा भाग कर के रूप में लिया जाता था । सभी धर्मों के मानने वालों को पूरी स्वतन्त्रता थी । मथुरा में उस समय पौराणिक हिंदू धर्म अपने चरम की ओर हो चला था, ऐसा उस समय की कला-कृतियों से अनुमान होता है ।   
 
हुएन-सांग नाम का प्रसिध्द चीनी यात्री भी हर्ष के शासन-काल में भारत आया था । हुएनसांग एक चीनी विद्वान और बौद्ध भिक्षु था । उसका जन्म और देहावसान चीन देश में क्रमश संवत् 653 और संवत् 721 में हुआ था । उसने अपने देश में बौद्ध ग्रंथों के चीनी अनुवाद पढ़े, जो उसे अशुद्ध लगे । उसने भारत जाकर उन ग्रंथों का पालि और संस्कृत भाषाओं मे लिखे हुए मूल संस्करण उपलब्ध करने का निश्चय किया, जिससे वह स्वयं उनका शुद्ध चीनी अनुवाद कर सके । उक्त निश्चय की पूर्ति के लिए वह भारत चल पड़ा । मध्य एशिया के मार्ग से होता हुआ बहुत ही मुश्किल से यहाँ पहुँचा । यह उत्तर–पश्चिमी सीमा से सं. 687 में पहुँचा और 2 वर्ष तक रहा था । फिर पंचनद प्रदेश में होता हुआ वह वैराट गया और वहाँ से मथुरा आया था ।  
 
हुएन-सांग नाम का प्रसिध्द चीनी यात्री भी हर्ष के शासन-काल में भारत आया था । हुएनसांग एक चीनी विद्वान और बौद्ध भिक्षु था । उसका जन्म और देहावसान चीन देश में क्रमश संवत् 653 और संवत् 721 में हुआ था । उसने अपने देश में बौद्ध ग्रंथों के चीनी अनुवाद पढ़े, जो उसे अशुद्ध लगे । उसने भारत जाकर उन ग्रंथों का पालि और संस्कृत भाषाओं मे लिखे हुए मूल संस्करण उपलब्ध करने का निश्चय किया, जिससे वह स्वयं उनका शुद्ध चीनी अनुवाद कर सके । उक्त निश्चय की पूर्ति के लिए वह भारत चल पड़ा । मध्य एशिया के मार्ग से होता हुआ बहुत ही मुश्किल से यहाँ पहुँचा । यह उत्तर–पश्चिमी सीमा से सं. 687 में पहुँचा और 2 वर्ष तक रहा था । फिर पंचनद प्रदेश में होता हुआ वह वैराट गया और वहाँ से मथुरा आया था ।  
इस तरह वह प्राय: 17 वर्ष तक पूरे भारत में घूमता रहा । उसने बौद्ध धर्म से संबंधित विविध स्थानों की यात्रा की और बौद्ध ग्रंथों के प्रमाणिक संस्करण प्राप्त किये । वह अपने साथ बहुसंख्यक हस्त लिखित ग्रंथों के अतिरिक्त इस देश से कुछ अन्य बहुमूल्य भारतीय सामग्री लेकर चीन गया, तब वहाँ के शासक ने उसका बड़ा आदर-सत्कार किया । उसके बाद उसने अपना शेष जीवन भारत से उपलब्ध बौद्ध ग्रंथो के चीनी भाषा में अनुवाद करने में व्यतीत किया ।  
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इस तरह वह प्राय: 17 वर्ष तक पूरे भारत में घूमता रहा । उसने बौद्ध धर्म से संबंधित विविध स्थानों की यात्रा की और [[बौद्ध]] ग्रंथों के प्रमाणिक संस्करण प्राप्त किये । वह अपने साथ बहुसंख्यक हस्त लिखित ग्रंथों के अतिरिक्त इस देश से कुछ अन्य बहुमूल्य भारतीय सामग्री लेकर चीन गया, तब वहाँ के शासक ने उसका बड़ा आदर-सत्कार किया । उसके बाद उसने अपना शेष जीवन भारत से उपलब्ध बौद्ध ग्रंथो के चीनी भाषा में अनुवाद करने में व्यतीत किया ।  
 
==हुएन-सांग==
 
==हुएन-सांग==
 
हुएन-सांग अपनी भारत यात्रा में सम्राट हर्षवर्धन से भेंट करने कन्नौज गया और वहाँ कई महीनों तक रहा था । वह सन् 636 में कन्नौज पहुँचा । उस समय तक हर्ष 30 वर्ष से भी अधिक काल तक शासन कर चुका था और उसके यश, प्रताप, बल, विक्रम, और वैभव की देश भर में धूम थी । उसने हुएनसांग का बहुत आदर किया और उसे अपने दरबार में समस्त धर्माचार्यों में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया । इस कारण वह विभिन्न धर्मों के विद्वानों का कोप-भाजन भी हुआ, फिर भी उसने उस विदेशी पर्यटक के आदर-सम्मान में कोई कमी नहीं आने दी । वह प्रयाग में आयोजित कुम्भ नामक धर्मोंत्सव में भी हुएनसांग को ले गया और वहाँ उसने अन्य धर्म वालों धर्माचार्यों के साथ उसके शास्त्रार्थ की व्यवस्था कराई । किंतु बिना शास्त्रार्थ कराये ही उसने हुएनसांग की विजयी घोषित कर दिया, ताकि उस विदेशी विद्वान का किसी प्रकार का अपमान न हो । यह हर्ष की उदारता ही थी कि हुएनसांग भारतवर्ष में रह कर अत्यधिक आदर-सम्मान और सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्राप्त करता रहा । जब वह यहाँ से जाने लगा, तब उसे इस देश की बहुमूल्य सामग्री को अपने साथ ले जाने की सभी राजकीय सुविधाएँ दी गई थीं ।
 
हुएन-सांग अपनी भारत यात्रा में सम्राट हर्षवर्धन से भेंट करने कन्नौज गया और वहाँ कई महीनों तक रहा था । वह सन् 636 में कन्नौज पहुँचा । उस समय तक हर्ष 30 वर्ष से भी अधिक काल तक शासन कर चुका था और उसके यश, प्रताप, बल, विक्रम, और वैभव की देश भर में धूम थी । उसने हुएनसांग का बहुत आदर किया और उसे अपने दरबार में समस्त धर्माचार्यों में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया । इस कारण वह विभिन्न धर्मों के विद्वानों का कोप-भाजन भी हुआ, फिर भी उसने उस विदेशी पर्यटक के आदर-सम्मान में कोई कमी नहीं आने दी । वह प्रयाग में आयोजित कुम्भ नामक धर्मोंत्सव में भी हुएनसांग को ले गया और वहाँ उसने अन्य धर्म वालों धर्माचार्यों के साथ उसके शास्त्रार्थ की व्यवस्था कराई । किंतु बिना शास्त्रार्थ कराये ही उसने हुएनसांग की विजयी घोषित कर दिया, ताकि उस विदेशी विद्वान का किसी प्रकार का अपमान न हो । यह हर्ष की उदारता ही थी कि हुएनसांग भारतवर्ष में रह कर अत्यधिक आदर-सम्मान और सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्राप्त करता रहा । जब वह यहाँ से जाने लगा, तब उसे इस देश की बहुमूल्य सामग्री को अपने साथ ले जाने की सभी राजकीय सुविधाएँ दी गई थीं ।

१२:०६, २९ मई २००९ का अवतरण

इतिहास : मध्य काल

पु्ष्यभूति

ई० छठी शती के प्रारम्भ में पु्ष्यभूति ने थानेश्वर में एक नये राजवंश की नींव डाली । इस वंश का पाँचवा और शक्तिशाली राजा प्रभाकरवर्धन (लगभग 583 - 605 ई०) हुआ । उसकी उपाधि 'परम भट्टारक महाराजाधिराज' थी । उपाधि से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिया था । बाणभट्ट द्वारा रचित 'हर्षचरित' से पता चलता है कि इस शासक ने सिंध, गुजरात और मालवा पर अधिकार कर लिया था । गांधार प्रदेश तक के शासक प्रभाकरवर्धन से डरते थे तथा उसने हूणों को भी पराजित किया था ।


प्रभाकरवर्धन

राजा प्रभाकरवर्धन के दो पुत्र राज्यवर्धन, हर्षवर्धन और एक पुत्री राज्यश्री थी । राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरीवंश के शासक ग्रहवर्मन से हुआ था । उस वैवाहिक संबंध के कारण उत्तरी भारत के दो प्रसिद्ध मौखरी और वर्धन राज्य प्रेम-सूत्र मे बँध गये थे, जिससे उन दोनों की शक्ति बहुत बढ़ गई थी । हर्षचरित से ज्ञात होता है कि प्रभाकरवर्धन ने अपनी मृत्यु से पहले राज्यवर्धन को उत्तर दिशा में हूणों का दमन करने के लिए भेजा था । संभवत: उस समय हूणों का अधिकार उत्तरी पंजाब और काश्मीर के कुछ भाग पर ही था । शक्तिशाली प्रभाकरवर्धन का शासन पश्चिम में व्यास नदी से लेकर पूर्व में यमुना तक था । मथुरा राज्य की पूर्वी सीमा पर था ।


कन्नौज भारतवर्ष के राजनैतिक और सांस्कृतिक महत्व का केन्द्र रहा । प्रागैतिहासिक काल में यह कुरू–पंचाल जनपदों का भूभाग था । जब से देश का प्रामाणिक इतिहास प्रारम्भ हुआ है, तब से उस महत्व का केन्द्र मगध ही रहा । मगध साम्राज्य और उसकी राजधानी पाटलिपुत्र का महत्व प्राय: हजारों वर्षों तक रहा था । गुप्त साम्राज्य का अंत होने पर मगध का महत्व भी समाप्त हो गया था । जब हर्षवर्धन का उदय हुआ, तब कुछ ऐसी परिस्थितियाँ थी कि हर्षवर्धन को इच्छा न होते हुए भी थानेश्वर के साथ ही साथ कन्नौज का शासन भी सम्भालना पड़ा । हर्षवर्धन के शासन काल में कन्नौज का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक महत्व इतना अधिक बढ़ गया था कि उसकी तुलना मगध से की जाने लगी थी । कन्नौज का यह महत्व हर्षवर्धन के जीवन काल तक रहा था ।

प्रभाकर वर्धन की मृत्यु और थानेश्वर की स्थिति

प्रभाकर वर्धन के शासन के अंतिम काल में उत्तर के हुणों ने उपद्रव आरंभ कर दिया था, जिसे दबाने के लिए उसने अपने बड़े पुत्र राज्यवर्धन को एक प्रबल सेना के साथ भेजा था, जिस समय राज्यवर्धन हूणों से युद्ध करने गया था, उसी समय उसका वृद्ध पिता असाध्य रूप से बीमार हो गया । हर्षवर्धन ने अपने भाई राज्यवर्धन के पास दूतों को भेज कर महाराज की असाध्य बीमारी से अवगत कराया और शीघ्र ही राजधानी लौटने का आग्रह किया । राज्यवर्धन हूणों को पराजित कर अपने पिता के अंतिम दर्शन के लिए शीध्रता से राजधानी की ओर चला, किंतु उसके पँहुचने से पहिले ही महाराज का स्वर्गवास हो गया । हर्ष, थानेश्वर राज्य के सरदार-सांमत तथा प्रजाजन सभी शोकाकुल थे । राज्यवर्धन भी बहुत दु:खी था । वह अपनी मानसिक विक्षोभ से और महाराज की अंतिम इच्छा के बाद भी थानेश्वर का शासक बनने को तैयार नहीं हुआ । वह हर्ष को राज्याधिकार सौंप कर स्वयं विरक्त और तपस्वी का जीवन व्यतीत करना चाहता था । हर्ष को उसके विचारों से अपार कष्ट हुआ । हर्षवर्धन ने राजा बनने से इंकार कर दिया और आग्रह पूर्वक राज्यवर्धन से शासन सम्भालने की प्रार्थना की । उन दोनों भाईयों का वह प्रसंग त्रेता युग के राम और भरत की कथा का स्मरण दिलाता था । वह दृश्य परवर्ती मुस्लिम काल से भिन्न था, जिनमें राज्य के कारण परिजनों की हत्या करना साधारण बात थी ।

कन्नौज का संकट

इस समय थानेश्वर में विषम परिस्थितियाँ थीं, साथ ही कन्नौज में भी परिवर्तनकारी घटनाएँ घटित हो रही थीं । थानेश्वर और कन्नौज के घरानों के बीच वैवाहिक संबंधों को देख कर उत्तर भारत के शासक शंकित और भयग्रस्त थे । दोनों राज्यों की सम्मिलित शक्ति के विरोध में मालवा के शासक देवगुप्त और गौड़ के शासक शशांक ने अपना संगठन बना लिया । हुएन-सांग ने शंशाक को कर्णसुवर्ण का राजा लिखा है । कर्णसुवर्ण सम्भवतः वर्तमान काल का मुर्शिदाबाद जिला हैं, जो उस समय गौड़ प्रदेश की राजधानी था । उस समय गौड़ प्रदेश बंगाल के एक भाग का नाम था, जो उत्तर मध्य काल तक रहा, किंतु प्राचीन काल में इस देश के कुछ दूसरे भी गौड़ कहलाते थे । थानेश्वर के निकट का भू-भाग इस काल में गौड़ प्रदेश कहलाता था और वहाँ के ब्राह्मणों को गौड़ ब्राह्मण कहा जाता था । पुराणों में उत्तर कौशल (वर्तमान फैजाबाद कमिश्नरी) को गौड़ प्रदेश कहा गया है, इसकी राजधानी श्रावस्ती थी । वर्तमान गोंड़ा जिला उसकी प्राचीन नाम की पुष्टि करता है । शशांक का राज्याधिकार सभंवत: गोंडा से मुर्शिदाबाद तक था । जब मालवा के शासक देवगुप्त को प्रभाकरवर्धन की असाध्य बीमारी और राज्यवर्धन का हूणों के संघर्ष में फँसे होने का समाचार मिला, उसने एक विशाल सेना के साथ कन्नौज पर आक्रमण कर दिया । कन्नौज के मौखरी राजा ग्रहवर्मन ने वीरतापूर्वक युध्द किया, किंतु दुर्भाग्य से वह वीरगति को प्राप्त हुए । कन्नौज पर शत्रुओं का अधिकार हो गया और ग्रहवर्मन की रानी राजश्री को कारागार में डाल दिया गया । जब इस घटना का समाचार थानेश्वर पहुँचा, उस समय विरक्त जीवन बिताने की इच्छा रखने वाले राज्यवर्धन को बाध्य होकर अपना विचार बदलना पड़ा । वह थानेश्वर के प्रबंध का भार हर्ष पर छोड़ कर स्वयं एक विशाल सेना के साथ देवगुप्त को दंड देने के लिए चल पड़ा । उसका उद्देश्य ग्रहवर्मन की मृत्यु का बदला लेना और राजश्री को बंधन-मुक्त कराना था । उसने देवगुप्त को परास्त कर दिया, किंतु गौड़ के शासक शशांक ने उसे धोखा से मार डाला । इस प्रकार जीती हुई बाजी पलट गई । जब वह दु:खद समाचार थानेश्वर पहुँचा तो वहाँ बड़ा दुःखद वातावरण था । इस विषम परिस्थिति में हर्ष का बाध्य होकर थानेश्वर की बागड़ोर संभालनी पड़ी । राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात हर्षवर्धन थानेश्वर राज्य का शासक हुआ । भविष्यति पुरी रम्या शूरसेना न संशय: ।[१] तथा-स पुरा दिव्यसंकाशो वर्षे द्वादशमें शुभे । निविष्ट: शूरसेनानां विषयंश्चाकुतोभय: ।[२]

हर्षवर्धन (606 - 647 ई०)

हर्षवर्धन बहुत ही विषम स्थिति में थानेश्वर का शासक हुआ । उस समय की अभूतपूर्व विकट परिस्थितियों से वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ, वरन उसने साहसपूर्वक उनका सामना किया । वह शीघ्र ही अपनी सेना लेकर युद्ध स्थल को चल दिया । उसे सबसे पहिले अपनी बहन राजश्री को बंधनमुक्त करना था और फिर शशांक तथा देवगुप्त को दंड देना था । जब हर्ष अपनी सेना सहित युद्ध अभियान के लिए जा रहा था, तब मार्ग में उसे कन्नौज की सेना मिल गई । उसके सेनापति भांडी से उसे समाचार मिला कि राजश्री कन्नौज के कारागृह से भाग कर विंध्याचल के वन्य प्रदेश में चली गई है । हर्ष ने भांडी को शत्रु से मोर्चा लेने का भार सौंपा और वह स्वयं राजश्री की खोज में चला गया । जिस समय हर्ष राजश्री के पास पहुँचा, उस समय वह सती होने के लिए चिता पर बैठने की तैयारी कर रही थी । हर्ष ने बड़ी कठिनाईपूर्वक उसे जलने से रोका और फिर उसे साथ लेकर भांडी की सेना से आ मिला । उसके बाद वह कन्नौज पर अधिकार करने के लिए आगे बढ़ा । गौड़ाधिपति शशांक ने हर्ष से युद्ध करना उचित न समझ कर कन्नौज से अपना अधिकार हटा लिया और वह अपने राज्य को वापिस चला गया । इस प्रकार हर्ष ने राजश्री के साथ ही साथ कन्नौज का भी उद्धार किया, उसने कन्नौज की राजगद्दी पर राज्यश्री को बैठने के लिए कहा, पर उसने अस्वीकार कर दिया । वह अपने पति की मृत्यु से बहुत दु:खी थी, वह अपने जीवन का अंत करना चाहती थी, अथवा विरक्त होकर तपस्विनी की भाँति रहना चाहती थी । राज्यश्री ने अपने भाई हर्ष से कन्नौज का शासन भी संभालने के लिए कहा । कन्नौज राज्य के सरदार-सामन्त भी यही चाहते थे, किंतु हर्ष इसके लिए तैयार नहीं हुआ । थानेश्वर के पैतृक राज्य को सँभालने में उसकी अनिच्छा थी, बहिन का राज्य वह किस प्रकार स्वीकार कर सकता था, परन्तु परिस्थितियों ने जहाँ थानेश्वर का राज्य भार उस पर डाला, वहीं कन्नौज का शासन भी उसे संभालना पड़ा । थानेश्वर और कन्नौज दोनों का शासन हर्षवर्धन ने सं. 670 के लगभग असाधारण परिस्थितियों में स्वीकार किया । वह उत्तर भारत के दो विशाल राज्यों का शासक होने के कारण देश का सबसे अधिक शक्तिशाली राजा था । उसने 'शीलादित्य' की उपाधि धारण की और वह 'सकलोत्तरापथेश्वर' कहलाया । अपने शासन को दृढ़ता और सुव्यवस्थित चलाने के लिए उसने अपने राज्य के केन्द्र कन्नौज में अपनी राजधानी रखी जो महत्व पिछले एक हजार वर्ष से मगध की राजधानी पाटलिपुत्र का था, वह हर्ष के काल में कन्नौज का था और बाद में भी मुसलमानों के आक्रमण काल तक कन्नौज महत्वपूर्ण रहा ।


हर्ष वीर योद्धा, सुयोग्य शासक, उदार, दानी, विद्याव्यसनी और उच्च कोटि का कवि था । व्यवस्थित शासन और योग्यता से हर्ष के व्यक्तित्व का ज्ञान होता है । हर्ष पहिले सूर्योपासक था, परन्तु कालान्तर में उसने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था । हर्ष सभी धर्मों का समान रूप से आदर करता था और उन्हें आश्रय देता था । वह धार्मिक और जनोपयोगी कार्यों में बड़ी उदारतापूर्वक दान किया करता था । प्रयाग में हर्ष हर अर्धकुम्भ और कुम्भ में विशाल धर्मोत्सव करता था, जिसमें सभी धर्मों के अनुयायी बड़ी संख्या में उपस्थित होते थे । उत्सव के अंतिम दिन वह अपने राजकोष का समस्त धन धर्मार्थ वितरित कर दिया करता था । हर्ष के दरबार मे सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट था, जिसके द्वारा रचित 'हर्ष-चरित्' प्रसिद्ध ग्रन्थ है । कवि बाणभट्ट ने संस्कृत में यह गद्य ग्रन्थ लिखा है । इस ग्रन्थ में बाणभट्ट ने हर्ष के प्रारंभिक शासन-काल का विस्तृत वर्णन किया है । इसके अलावा 'मंजुश्रीमूलकल्प' आदि ग्रन्थों से और प्राप्त कई समकालीन अभिलेखों से उस काल के इतिहास का ज्ञान होता है । हर्ष ने सिंहासन पर बैठते ही एक बड़ी सेना तैयार की और उत्तरी पूर्वी अनेक राज्यों को जीत लिया । हर्ष ने थोडे समय में ही अपनी विशाल सेना की सहायता से एक बहुत बड़े साम्राज्य को निर्मित कर लिया । वर्तमान उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और उड़ीसा के लगभग सभी राज्य हर्ष के शासन के अंतर्गत हो गये थे । पश्चिम में जालंधर तक उसका शासन स्थापित हो गया । मथुरा का प्रदेश हर्ष के शासन के अंतर्गत ही रहा ।[३] हर्षवर्धन ने उत्तरी भारत में अपना एकच्छत्र राज्य स्थापित कर लिया । इसके पश्चात उसने दक्षिण को भी जीतने की इच्छा होने के कारण दक्षिण पर चढ़ाई की । लेकिन बादामी के तत्कालीन चालुक्य राजा पुलकेशिन, द्वितीय ने उसे हरा दिया, जिससे हर्ष की यह इच्छा पूरी न हो सकी । चालुक्य-वंश के लेखों में हर्ष की उपाधि 'सकलोत्तरापथनाथ' मिलती है । जिससे समग्र उत्तरापथ पर हर्ष के एकाधिकार का ज्ञान होता है । हर्षवर्धन ने गद्दी पर बैठते ही एक नया संवत् प्रारम्भ किया था, जो 'हर्ष संवत्' नाम से जाना जाता है ।

अलबेरूनी

11वीं शताब्दी के लेखक अलबेरूनी ने लिखा है कि श्रीहर्ष का संवत् मथुरा और कन्नौज में प्रचलित था । हर्षवर्धन ने एक बड़े एवं दृढ़ साम्राज्य की स्थापना के साथ साथ अपने शासन काल में साहित्य, कला और धर्म की भी बहुत उन्नति कराई । बाणभट्ट तथा मयूर-जैसे प्रसिद्ध लेखक उसकी सभा में थे । बाण का विद्वान पुत्र भूषणभट्ट, आचार्य, दंडी, मातंग-दिवाकर तथा मानतुंगाचार्य भी हर्ष की सभा के रत्न थे । हर्ष स्वयं एक अच्छा लेखक था । उसके द्वारा रचित तीन नाटक 'रत्नावली', 'प्रियदर्शिका' तथा 'नागानं'द मिले हैं, इन रचनाओं से हर्ष की साहित्यिक प्रतिभा का ज्ञान होता है । नालंदा के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की हर्ष ने सहायता की । उसने नालंदा में एक विशाल बौद्ध विहार निर्मित कराया । हर्ष बौद्ध धर्म के अतिरिक्त अन्य सभी धर्मों का भी आदर करता था । उसकी दानशीलता बहुत प्रसिद्ध है । प्रति पाँचवें वर्ष प्रयाग में गंगा यमुना के संगम पर होने वाले कुम्भ में हर्ष और राजश्री दान किया करते थे । कनौज नगर की हर्ष के शासन-काल में बड़ी उन्नति हुई । यहाँ अनेक भव्य इमारतों का निर्माण हुआ । हर्ष की राजसभा में धार्मिक शास्त्रार्थ हुआ करते थे । सम्राट हर्ष ने हुएन-सांग की विद्वत्ता और धार्मिकता से अत्यंत प्रभावित हो कर कन्नौज की राजसभा में उसे बहुत सम्मानित किया था । हर्ष के शासन-काल में प्रजा बहुत सुखी थी । राज्य का प्रबंध सुव्यवस्थित और अच्छा था । अपराधों के लिए कठोर दंड व्यवस्था थी । अधिकारी अपने कर्तव्यों का बड़ी सतर्कता और सजगता से पालन करते थे । कृषकों से जमीन की आय का छठा भाग कर के रूप में लिया जाता था । सभी धर्मों के मानने वालों को पूरी स्वतन्त्रता थी । मथुरा में उस समय पौराणिक हिंदू धर्म अपने चरम की ओर हो चला था, ऐसा उस समय की कला-कृतियों से अनुमान होता है । हुएन-सांग नाम का प्रसिध्द चीनी यात्री भी हर्ष के शासन-काल में भारत आया था । हुएनसांग एक चीनी विद्वान और बौद्ध भिक्षु था । उसका जन्म और देहावसान चीन देश में क्रमश संवत् 653 और संवत् 721 में हुआ था । उसने अपने देश में बौद्ध ग्रंथों के चीनी अनुवाद पढ़े, जो उसे अशुद्ध लगे । उसने भारत जाकर उन ग्रंथों का पालि और संस्कृत भाषाओं मे लिखे हुए मूल संस्करण उपलब्ध करने का निश्चय किया, जिससे वह स्वयं उनका शुद्ध चीनी अनुवाद कर सके । उक्त निश्चय की पूर्ति के लिए वह भारत चल पड़ा । मध्य एशिया के मार्ग से होता हुआ बहुत ही मुश्किल से यहाँ पहुँचा । यह उत्तर–पश्चिमी सीमा से सं. 687 में पहुँचा और 2 वर्ष तक रहा था । फिर पंचनद प्रदेश में होता हुआ वह वैराट गया और वहाँ से मथुरा आया था । इस तरह वह प्राय: 17 वर्ष तक पूरे भारत में घूमता रहा । उसने बौद्ध धर्म से संबंधित विविध स्थानों की यात्रा की और बौद्ध ग्रंथों के प्रमाणिक संस्करण प्राप्त किये । वह अपने साथ बहुसंख्यक हस्त लिखित ग्रंथों के अतिरिक्त इस देश से कुछ अन्य बहुमूल्य भारतीय सामग्री लेकर चीन गया, तब वहाँ के शासक ने उसका बड़ा आदर-सत्कार किया । उसके बाद उसने अपना शेष जीवन भारत से उपलब्ध बौद्ध ग्रंथो के चीनी भाषा में अनुवाद करने में व्यतीत किया ।

हुएन-सांग

हुएन-सांग अपनी भारत यात्रा में सम्राट हर्षवर्धन से भेंट करने कन्नौज गया और वहाँ कई महीनों तक रहा था । वह सन् 636 में कन्नौज पहुँचा । उस समय तक हर्ष 30 वर्ष से भी अधिक काल तक शासन कर चुका था और उसके यश, प्रताप, बल, विक्रम, और वैभव की देश भर में धूम थी । उसने हुएनसांग का बहुत आदर किया और उसे अपने दरबार में समस्त धर्माचार्यों में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया । इस कारण वह विभिन्न धर्मों के विद्वानों का कोप-भाजन भी हुआ, फिर भी उसने उस विदेशी पर्यटक के आदर-सम्मान में कोई कमी नहीं आने दी । वह प्रयाग में आयोजित कुम्भ नामक धर्मोंत्सव में भी हुएनसांग को ले गया और वहाँ उसने अन्य धर्म वालों धर्माचार्यों के साथ उसके शास्त्रार्थ की व्यवस्था कराई । किंतु बिना शास्त्रार्थ कराये ही उसने हुएनसांग की विजयी घोषित कर दिया, ताकि उस विदेशी विद्वान का किसी प्रकार का अपमान न हो । यह हर्ष की उदारता ही थी कि हुएनसांग भारतवर्ष में रह कर अत्यधिक आदर-सम्मान और सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्राप्त करता रहा । जब वह यहाँ से जाने लगा, तब उसे इस देश की बहुमूल्य सामग्री को अपने साथ ले जाने की सभी राजकीय सुविधाएँ दी गई थीं ।


टीका-टिप्पणी

  1. [रामा0, उत्तर0, 70, 6]
  2. [रामा0, उत्तर070, 1]
  3. डा.रमाशंकर त्रिपाठी का विचार है कि मथुरा तथा मतिपुर - ये दो राज्य हर्ष के साम्राज्य से बाहर रहे ।त्रिपाठी जी हुएन-सांग के यात्रा विवरण के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं -दे.हिस्ट्री आफ कनौज,पृ.119 ।