मध्य काल (2)

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
Brajdis1 (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:५४, ३१ मई २००९ का अवतरण (नया पृष्ठ: हुएनसांग की भारत यात्रा का वृत्तांत चीनी भाषा में लिखा हुआ मिलता ...)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

हुएनसांग की भारत यात्रा का वृत्तांत चीनी भाषा में लिखा हुआ मिलता है, जो सी-यु-की (Si-Yu-Ki) कहा जाता है । उससे पहिले दूसरे चीनी यात्री फाह्यान ने भी भारत की यात्रा की थी, जिसका यात्रा-वृत्तांत फो-क्यु-की (Fo-Kkue-Ki) कहलाता हैं । इन दोनों का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका हैं । हुएनसांग की यात्रा का विवरण फाह्यान की अपेक्षा अधिक विस्तृत और पूर्ण है । उन दोनों यात्रियों ने जिन स्थानों की यात्रा की थी, उनकी पारस्परिक दूरी का भी उन्होंने उल्लेख किया हैं । उसके लिए फाह्यान ने यहाँ योजन का व्यवहार किया, वहाँ हुएनसांग ने योजन के साथ ही साथ ली का भी प्रयोग किया है ।

कनिंघम का मत है कि वर्तमान काल का एक मील फाह्यान की 6.71 ली के बराबर और हुएनसांग की 6.75 ली के समतुल्य फाह्यान का योजन 6.75 मील के बराबर होता है । कनिघंम के मतानुसार हुएनसांग द्वारा अंकित दूरियों में भ्रांतियाँ भी है । जहाँ हुएनसांग ने एक हजार ली और पश्चिम दिशा लिखा है, वहाँ कभी कभी वह एक सौ ली और पूर्व दिशा ही सिद्ध होती है । हुएनसांग सं. 662 (सन् 635 ई.) में मथुरा आया था । यहाँ आने से पहिले उसने जालंधर में चातुर्मास्य किया था और फिर वैराट होकर मथुरा पहुँचा था । श्री कनिंघम ने उसकी यात्रा के विविध स्थानों की तारीखें निश्चित की हैं । उसके अनुसार वह सन् 635 की 15 मार्च को जालंधर में था । वहाँ से 25 सितंबर को वह वैराट गया था और 5 अक्टूबर को मथुरा आथा था । मथुरा से चल कर वह 25 अक्टूबर को थानेश्वर पहुँचा था । इस प्रकार वह शरद ऋतु में मथुरा आया और 15 दिन के लगभग यहाँ ठहरा । उसने हर्ष के शासन का विस्तृत विवरण किया है ।

हुएन-सांग के यात्रा विवरण से तत्कालीन मथुरा की दशा पर बहुत-कुछ प्रकाश पड़ता है । यह यात्री लगभग 635 ई० में मथुरा आया । इसने मथुरा का जो वर्णन किया है वह संक्षेप में इस प्रकार है--"मथुरा राज्य का क्षेत्रफल 5,000 ली (लगभग 833 मील) तथा उसकी राजधानी (मथुरा नगर)का विस्तार 20 ली (लगभग 3॥ मील)है । यहाँ की भूमि उत्तम और उपजाऊ है । अन्न की पैदावार अच्छी होती है । यहाँ आम बहुत पैदा होता है जो छोटा व बड़ा दो प्रकार का होता है । पहले प्रकार वाला आम छुटपन में हरा रहता है और पकने पर पीला हो जाता है । बडी किस्म वाला आम सदा हरा रहता है । इस राज्य में उत्तम कपास और पीला सोना उत्पन्न होता है ।" मथुरा के निवासियों के विषय में हुएन-सांग लिखता है - "उनका स्वभाव कोमल है और वे दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं । ये लोग तत्त्वज्ञान का गुप्त रूप से अध्ययन करना पसंद करते है । ये परोपकारी हैं और विद्या के प्रति बड़े सम्मान का भाव रखते है ।"

मथुरा की उस समय की धार्मिक स्थिति का परिचय हुएन-सांग के निम्नलिखित वर्णन से प्राप्त होता है - "इस नगर में लगभग 20 संघाराम हैं, जिनमें 2,000 भिक्षु रहते हैं । इन भिक्षुओं में हीनयान और महायन इन दोनों मतों के मानने वाले हैं । यहाँ पाँच देव-मन्दिर भी है, जिनमें बहुत से साधु पूजा करते हैं । राजा अशोक के बनवाये हुए तीन स्तूप यहाँ विद्यमान हैं । विगत चारों बुद्धों के भी अनेक चिन्ह यहाँ दिखाई देते है । तथागत भगवान के साथियों के पवित्र अवशेषों पर भी स्मारक रूप में कई स्तूप बने हुए है ।.... विभिन्न धार्मिक अवसरों पर संन्यासी लोग बड़ी संख्या में इन स्तूपों का दर्शन करते आते हैं और बहुमूल्य वस्तुएं भेंट में चढ़ाते है । ये लोग अपने-अपने संप्रदाय के अनुसार अलग-अलग पवित्र स्थानों का दर्शन-पूजन करते है ।....... विशेष उत्सवों पर झंडे और बहुमूल्य छत्र चारों ओर प्रदर्शित किये जाते हैं और पहाड़ों की घाटियाँ तुमुल घोष से निनादित हो उठती हैं । देश का राजा तथा उसके मंत्री लोग भी बड़े उत्साह के साथ धार्मिक कार्यो को करते है । "

"नगर में पूर्व 5 -6 ली (लगभग 2 मील) चलने पर एक ऊँचे संघाराम में पहुँचते है । उसके अगल-बगल गुफाएं बनी है । यह संघाराम पूज्य उपगुप्त के द्वारा बनवाया गया था । इसके भीतर एक स्तूप है, जिसमें तथागत के नाखून रखे हैं । संघाराम के उत्तर में 20 फुट ऊँची और 30 फुट चौड़ी एक गुफा है । इसमें चार इंच लम्बे लकड़ी के टुकड़े भरे हैं । महात्मा उपगुप्त जिन लोगों को बौद्ध धर्म में दीक्षित कर उन्हें अर्हत् पद प्राप्त कराते थे [ उसकी संख्या मालूम रहे, इसलिए ] उनमें से प्रत्येक विवाहित युग्म का एक टुकड़ा उस कमरे में डाल देते थे । जो लोग अविवाहित होते थे, उनके अर्हत् हो जाने पर भी उनकी कोई गणना नहीं रखी जाती थी । " "यहाँ से 24 - 25 ली (लगभग 4 मील) दक्षिण-पूर्व में एक बड़ा सूखा तालाब है, जिसके पास ही एक स्तूप है । यहीं पर, जब भगवान बुध्द घूमघाम रहे थे, एक बन्दर ने उन्हें थोड़ा शहद दिया, जिसे बुद्ध ने थोड़े जल के साथ मिश्रित कर उसे अपने शिष्यओं में बँटवा दिया । इससे बन्दर को इतनी खुशी हुई कि वह एक खड्ड में गिर कर मर गया और अपने पूर्वोक्त पुण्यजन्य कृत्य के कारण अगले जन्म उसने मनुष्य - योनि प्राप्त की । इस सूखे तालाब के उत्तर में थोड़ी ही दूर पर एक घना जंगल था जिसमें पिछले चार बुद्धों के चरण-चिन्ह सुरक्षित हैं । इसके निकट ही उन स्थानों पर बने हुए स्तूप हैं, जहाँ सारिपुत्र तथा बुद्ध के अन्य 1,250 महान शिष्यों ने कठोर तपस्या की थी । यहीं धर्म-प्रचारार्थ आये हुए भगवान् बुद्ध के स्मारक स्थान हैं ।" [संदर्भ देखें]

हुएन-सांग के इस विवरण से पता चलता है । उसके समय में मथुरा-राज्य बहुत विस्तृत था । कनिंघम का कहना है कि उस समय के मथुरा-राज्य में वर्तमान बैराट और अतंरजीखेड़ा के बीच राज्य ही नहीं, वरन आगरा के दक्षिण में नरवर और शिवपुरी तक तथा पूर्व में काली सिंध नदी तक का भूभाग रहा होगा । [संदर्भ देखें] कनिंघम के अनुसार इस राज्य में मथुरा-आगरा जिलों के अतिरिक्त भरतपुर, करौली और धौलपुर तथा ग्वालियर राज्य का उत्तरी आधा भाग शामिल रहा होगा । पूर्व में मथुरा राज्य की सीमा जिझौती से तथा दक्षिण में मालवाकी सीमा से मिलती रही होगी । इस यात्री के विवरण से यह भी ज्ञात होता है कि ई० सातवीं शती में मथुरा की भूमि बहुत अधिक उपजाऊ थी । वर्तमान समय में यहाँ आम कम होता है और कपास की उपज भी इतनी अधिक नहीं होती । संभवतः अब से 1300 वर्ष पहले यहाँ इन वस्तुओं की, अन्न की पैदावार अधिक होती रही हो । परंतु हुएन-सांग ने पीले सोने के विषय में जो विवरण किया है वह सही नहीं है, क्योंकि आजकल मथुरा की जमीन में कहीं भी स्वर्ण खनन नहीं होता है ।

हुएन-सांग ने मथुरा की धार्मिक स्थिति का बहुत अच्छा वर्णन किया है । सातवीं शती के पूर्वार्ध में भी यहाँ बौद्ध धर्म का बहुत प्रचार था । फाह्यान (ई० 400) ने जब मथुरा में प्रवास किया था तब से इस समय तक यहाँ के बौद्ध मतावलम्बियों की संख्या में काफी कमी हो गयी थी । फाह्यान ने मथुरा के बौद्ध संघारामों के विषय में, जिनमें अनुमानतः 3,000 बौद्ध सन्यासियों का निवास थे । हुएन-सांग के समय वहाँ संघारामों की संख्या संम्भवतः उतनी ही रही, पर बौद्ध-संन्यासी घट कर 2,000 ही रह गये थे । मथुरा में बौद्ध धर्म की अवनति का मुख्य था कि पौराणिक हिंदू धर्म की उन्नति प्रारम्भ हो गयी थी । हुएन-सांग ने मथुरा के पाँच बड़े हिंदू-मंदिरों का विवरण अपनी पुस्तक में किया है, इस मन्दिर में बहुत सारे पुजारी रह कर पूजा करते थे । मथुरा के किसी भी नगर के नाम का उल्लेख हुएन-सांग ने नहीं किया है, राजधानी मथुरा नगर का भी नाम उसके वर्णन में नहीं आया, न प्रसिद्ध यमुना नदी या यहाँ के पहाड़-वनों आदि का ही वर्णन मिलता है ।

मथुरा के बड़े बौद्ध विहारों का नाम भी हुएन-सांग ने नही दिया है । उसके विवरण से केवल इतना पता चलता है कि यहाँ बहुत से बौद्ध-स्तूप एवं विहार बने हुए थे । हुएन-सांग द्वारा वर्णित उपगुप्त [संदर्भ] के संघाराम की पहचान पर विद्वानों में काफी मतभेद है । हुएन-सांग के लेखानुसार मथुरा नगर में पूर्व दिशा में लगभग एक मील चलने पर यह संघाराम मिलता था । कनिंघम ने 'पूर्व' की जगह 'पश्चिम' दिशा को ठीक माना है और कनिंघम ने उक्त संघाराम की स्थिति वर्तमान कटरा मुहल्ले में पुरातन 'यशविहार' के स्थान पर मानी है । [संदर्भ देखें] ग्राउस का मत है कि उपगुप्त वाला विहार कंकाली टीला पर रहा होगा । [संदर्भ देखें] परन्तु इस संबंध में ग्राउस ने कोई पुष्ट प्रमाण नही दिया ।

हुएनसांग के लिखे हुए मथुरा राज्य के विवरण से डा. रामशंकर त्रिपाठी का मत है कि उस काल में मथुरा का राज्य हर्ष के साम्राज्य के अंतर्गत नहीं होगा । हुएनसांग मथुरा में हर्ष के शासन के उत्तर काल में आया था वह समझा जा सकता है ।

ककांली टीला बहुत प्राचीन काल से ही जैन धर्म का बड़ा केन्द्र था और लगभग ई० 11 वी शती तक मथुरा जैन-धर्म का केन्द्र रहा । उस स्थान पर बौद्धों के किसी बड़े स्तूप या विहार का पता नहीं चलता । सम्भवतः उपगुप्त वाला संघाराम या तो आजकल का 'सप्तर्षि-टीला' था या उसके पूर्व में कुछ आगे उस स्थान पर जिसे आजकल 'बुद्ध तीर्थ' के नाम से जाना जाता है ।

हर्ष भारत के अंतिम हिन्दू सम्राटों में सर्वाधिक प्रसिद्ध है । उसके यशस्वी शासन काल के 40 वर्ष राजनैतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक सभी दृष्टियों अत्यंत महत्वपूर्ण हैं । हर्ष की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में बहुत से छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये थे । हर्ष के कोई सन्तान नहीं थी, और उसका कोई योग्य संबंधी भी नहीं था अतः उसे उत्तराधिकारी के लिए झगड़े होना स्वाभाविक था । उसके कारण ही हर्ष का विशाल राज्य टुकड़े होकर अनेक छोटे राज्यों में बँट गया था । उन राज्यों पर हर्ष के सरदार सामंतों ने अधिकार कर अपना स्वतंत्र शासन चलाया । मथुरा राज्य भी तब संभवतः स्वाधीन हो गया था । उसका राजा मथुरा के प्राचीन यादव अथवा नाग वंश का था, या किसी वंश का था, इसका उल्लेख नहीं मिलता है ।

हर्ष के पश्चात् कन्नौज के राजसिंहासन पर कौन आसीन हुआ और वह किस राजवंश का था, इसका प्रमाणिक उल्लेख उपलब्ध नहीं है । चीनी लेखकों के वृतांतों से पता चलता है कि हर्ष के बाद वेंग-हिउंत्सें नामक दूत की अध्यक्षता में एक चीनी प्रतिनिधी दल भारत आया था । अर्जुन (या अरूणाश्र्व ) नामक हर्ष के मंत्री ने, जो गद्दी पर बैठ गया था, चीनी दल पर हमला कर दिया था । तिब्बत और नेपाल से मदद ले कर वेंग-हिउंत्से ने अर्जुन को हराकर भगा दिया । चीनी लेखकों का यह विवरण अतिश्योक्तिपूर्ण मालूम पड़ता है । किंतु वह राज्य में शान्ति और व्यवस्था कायम करने में असमर्थ सिद्ध हुआ । फलतः वह बहुत थोड़े काल तक ही राज्याधिकारी रहा था । उक्त चीनी उल्लेख इतना भ्रमात्मक है कि उसके आधार पर अर्जुन के अस्तित्व की बाद संदिग्ध हो जाती है । यशोवर्मन (लगभग 700 -740ई०)--आठवीं शती के प्रारंभ में कन्नौज के यशोवर्मन नामक शासक का विवरण मिलता है । यशोवर्मन के वंश के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नही है । यह भी संभव है कि वह कन्नौज के मौखरी-वंश से ही संबंधित रहा हो । यशोवर्मन के राजकवि वाक्पति ने 'गौड़वहो' नाम के प्राकृत ग्रन्थ में जो लिखा है, उससे यशोवर्मन की अनेक विजय-यात्राओं का ज्ञान होता है । काश्मीर के शासक ललितादित्य ने कनौज पर हमला कर यशोवर्मन को पराजित कर दिया था । इस युद्ध का विवरण कल्हण की 'राजतंरगिणी' [संदर्भ देखें] में मिलता है । इस विजय के बाद यमुना नदी के किनारे तक का प्रदेश, जिसमें मथुरा भी था, ललितादित्य के अधिकार में हो गया था । किन्तु यह शासन बहुत ही कम समय तक रहा ।

यशोवर्मन एक बहुत ही शक्तिशाली शासक था । उसके शासन में कन्नौज के साथ-साथ मथुरा की भी उन्नति हुई होगी । यशोवर्मन विद्या और कला का बहुत प्रेमी था । इसकी राज-सभा में वाक्पति के अतिरिक्त भवभूति जैसे महान कवि और नाटककार थे । भवभूति ने उत्तररामचरित, मालतीमाधव आदि कई नाटकों की रचना की, जो संस्कृत साहित्य में नाटय साहित्य की सर्वोत्तम रचनाएं मानी जाती है । वाक्पति कृत प्राकृत काव्य “गौडवहो” और भवभूति कृत संस्कृत नाटक 'उत्तर रामचरित्' एवं 'मालती माधव' प्रसिद्ध हैं । हर्षवर्धन एवं यशोवर्मन् जैसे विद्वान राजाओं और उसके आश्रित कवियों एवं नाटककारों द्वारा उस काल में साहित्य की बड़ी उन्नति हुई थी । हर्ष के बाद भी युगांतरकारी घटनाएँ – हर्षवर्धन के बाद इस देश में ऐसी अनेक अभूतपूर्व घटनाएँ हुई जिन्होंने इतिहास को नया मोड़ दिया । हर्ष का विशाल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होकर अनेक छोटे राज्यों में विभाजित हो गया । फिर शताब्दियों तक कोई ऐसा प्रभावशाली राजा नहीं हुआ, जो हर्ष की तरह इस देश को एकता से सूत्र में बाँध कर यहाँ व्यापक रूप से शांति और व्यवस्था कायम करता । उस काल में यहाँ जो छोटे-बड़े अनेक राज्य बने थे, उनके राजागण अधिकतर राजपूत जातियों के थे ।

राजपूत जातियों का उदय और प्रसार इस काल की महत्वपूर्ण घटना है, जिसने कई शताब्दियों तक देश की राजनैतिक स्थिति पर अपनी महत्ता की छाप छोड़ी । बौद्ध धर्म ने विगत अनेक शताब्दियों से इस देश के सांस्कृतिक जीवन को समृद्धिशाली बनाते हुए विदेशों को भी संदेश दिया और हर्ष के समय तक अपना गौरव बनाये रखा, वह लुप्तप्रायः हो गया । उसी समय में भारत के सुदूर पश्चिम में इस्लाम के रूप में एक नई शक्ति का उदय और प्रसार हुआ । उसने दूसरे देशों के साथ ही भारत में भी अपना विस्तार कर यहाँ के जनजीवन को पूरी तरह झकझोर दिया और देश की धार्मिक और राजनैतिक परिस्थिति को प्रभावित किया । इन घटनाओं का इस समय और उसके बाद भी काफी प्रभाव रहा ।