मन्द्रप्रबोधिनी
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मन्द्रप्रबोधिनी
- शौरसेनी प्राकृत भाषा में आचार्य नेमिचन्द्र सि0 चक्रवर्ती द्वारा निबद्ध गोम्मटसार मूलग्रन्थ की संस्कृत भाषा में रची यह एक विशद् और सरल व्याख्या है। इसके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। यद्यपि यह टीका अपूर्ण है किन्तु कर्मसिद्धान्त को समझने के लिए एक अत्यन्त प्रामाणिक व्याख्या है। केशववर्णी ने इनकी इस टीका का उल्लेख अपनी कन्नडटीका में, जिसका नाम कर्नाटकवृत्ति है, किया है। इससे ज्ञात होता है कि केशववर्णी ने उनकी इस मन्दप्रबोधिनी टीका से लाभ लिया है।
- गोम्मटसार आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा लिखा गया कर्म और जीव विषयक एक प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण प्राकृत-ग्रन है। इसके दो भाग हैं-
- एक जीवकाण्ड और
- दूसरा कर्मकाण्ड।
जीवकाण्ड में 734 और कर्मकाण्ड में 972 शौरसेनी-प्राकृत भाषाबद्ध गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड पर संस्कृत में 4 टीकाएं लिखी गई हैं। वे हैं-
- गोम्मटपंजिका,
- मन्दप्रबोधिनी,
- कन्नड़ संस्कृत मिश्रित जीवतत्त्वप्रदीपिका,
- संस्कृत में ही रचित अन्य नेमिचन्द्र की जीवतत्त्वप्रदीपिका। इन टीकाओं में विषयसाम्य है पर विवेचन की शैली इनकी अलग अलग हैं। भाषा का प्रवाह और सरलता इनमें देखी जा सकती है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड
गोम्मटसार के जीवकाण्ड में 734 गाथाओं द्वारा 9 अधिकारों में
- गुणस्थान,
- जीवसमास,
- पर्याप्ति,
- प्राण,
- संज्ञा,
- मार्गणा,
- उपयोग,
- अन्तर्भाव तथा
- आलाप- इन विषयों का विशद विवेचन किया गया है।
- यहाँ प्रस्तुत है इसमें प्रतिपादित इन सैद्धान्तिक विषयों का संक्षिप्त परिचय-
गुणस्थान
यह गुणों की अपेक्षा जीव जैसी-जैसी अपनी उन्नति के स्थान प्राप्त करता जाता है वैसे-वैसे उसके उन स्थानों को गुणस्थान संज्ञा दी गई है। वे 14 भेदों में विभक्त हैं-
- मिथ्यादृष्टि,
- सासादन-सम्यग्दृष्टि,
- मिश्र अर्थात सम्यग्मिथ्यादृष्टि,
- असंयतसम्यग्दृष्टि,
- संयतासंयत,
- प्रमत्तसंयत,
- अप्रमत्तसंयत,
- अपूर्वकरण,
- अनिवृत्तिकरण,
- सूक्ष्मसांपराय,
- उपशांतकषाय,
- क्षीणकषाय,
- सयोगकेवली,
- अयोगकेवली।
इन गुणस्थानों में जीव के आध्यात्मिक विकास का हमें दर्शन होता है। जहाँ प्रथम गुणस्थान में जीव की दृष्टि मिथ्या रहती है वहाँ दूसरे गुणस्थान में ऐसी दृष्टि का उल्लेख है जिसमें सम्यक्त्व से पतन और मिथ्यात्व की ओर उन्मुखता पायी जाती है। तीसरे गुणस्थान में जीव की श्रद्धा सम्यक और मिथ्या दोनों रूप मिली जुली पाई जाती है। जैसे दही और गुड़ के मिलने पर जो खटमिट्ठा स्वाद प्राप्त होता है। चौथे गुणस्थान में जीव की श्रद्धा समीचीन हो जाती है पर संयम की ओर लगाव नहीं होता। पाँचवें गुणस्थान में जीव का लगाव कुछ संयम की ओर और कुछ असंयम की ओर रहता है। छठे गुणस्थान में पूर्ण संयम प्राप्त कर लेने पर भी जीव कुछ प्रमादयुक्त रहता है। सातवें गुणस्थान में उसका वह प्रमाद भी दूर हो जाता है और अप्रमत्तसंयत कहा जाने लगता है। आठवें गुणस्थान में उस जीव के ऐसे अपूर्व परिणाम होते हैं, जो उससे पूर्व प्राप्त नहीं हुए थे, अतएव इस गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण है। नवें गुणस्थान में जीव को ऐसे विशुद्ध परिणाम प्राप्त होते हैं जो निवृत नहीं होते, उत्तरोत्तर उनमें निर्मलता आती ही रहती है। दसवें गुणस्थान में जीव की कषाय स्थूल से अत्यंत सूक्ष्म रूप धारणकर लेती है इसलिए उसे सूक्ष्मसांपराय कहा गया है। ग्यारहवें गुणस्थान में क्रोध, मान, माया और लोभ सभी प्रकार की कषायों का उपशमन हो जाता है इसलिए उसे उपशांत कषाय कहा जाता है। बारहवें गुणस्थान में उस जीव की वे कषायें पूर्णतया क्षीण हो जाती हैं और क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ संज्ञा को वह प्राप्त कर लेता है। तेरहवें गुणस्थान में ऐसा प्रकट हो जाता है कि जिसमें इन्द्रिय और मन की कोई सहायता नहीं होती और उस ज्ञान द्वारा त्रिलोकवर्ती और त्रिकालवर्ती सूक्ष्म एवं स्थूल सभी प्रकार के पदार्थों को वह जीव जानने लगता हैं पर हाँ, योग मौजूद रहने से उसे सयोगकेवली कहा जाता है। चौदहवें गुणस्थान में उस केवली का वह योग भी नहीं रहता और अयोगकेवली कहा जाता है। अयोगकेवली अन्तर्मुहूर्त बाद पूर्णतया संसार बंधन से मुक्त होकर शाश्वतमोक्ष को प्राप्तकर लेता है। इस तरह जीव के आध्यात्मिक विकास के ये 14 सोपान हैं, जिन्हें जैन सिद्धान्त में 'चौदह गुणस्थान' नाम से अभिहित किया गया है।
जीव समास
जहाँ-जहाँ जीवों का स्थान है अर्थात निवास है उसे जीवसमास कहा गया है। ये 14 हैं। इन्द्रिय की अपेक्षा जीव 5 प्रकार के हैं;
- स्पर्शनइन्द्रिय वाले,
- स्पर्शन और रसना वाले,
- स्पर्शन, रसना और घ्राणवाले,
- स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु वाले तथा
- स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्रइन्द्रिय वाले। इनमें 5 इन्द्रिय वाले जीव दो प्रकार के हैं, मन सहित और मन रहित। इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीव भी बादर, और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं। इस तरह जीवों के 3+2+2+=7 भेद हैं ये 7 प्रकार के जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के होते हैं। इन सबको मिलाने पर 14 जीवसमास कहे गए हैं।
पर्याप्ति
आहारवर्गणा के परमाणुओं को खल और रस भाग रूप परिणमाने की शक्ति-विशेष को पर्याप्ति कहते हैं। ये 6 हैं- आहार पर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आनापान पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति तथा मन:पर्याप्ति। इन पर्याप्तियों की पूर्णता को पर्याप्तक और अपूर्णता को अपर्याप्तक कहा जाता है।
प्राण
जिनके संयोग होने पर जीव को जीवित और वियोग होने पर मृत कहा जाता है वे प्राण कहे जाते हैं। ये 10 हैं- 5 इन्द्रियाँ तथा कायबल, वचनबल, मनोबल, श्वासोच्छ्वास, व आयु।
संज्ञा
आहार आदि की वांछा को संज्ञा कहते हैं। इसके 4 भेद हैं – आहार, भय, मैथुन और परिग्रह। ये चारों संज्ञाएं जगत् के समस्त प्राणियों में पाई जाती है।
मार्गणा
जिनमें अथवा जिनके द्वारा जीवों का अन्वेषण किया जाता है उन्हें मार्गणा कहा गया है। ये 14 प्रकार की हैं- गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व, आहार। इनका विवेचन आगम ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक किया गया है, अतएव यहाँ इनका विस्तार न कर नाम से संकेतमात्र किया गया है।
उपयोग
जीव के चेतनागुण को उपयोग कहा गया है। यह चेतनागुण दो प्रकार का है- सामान्य अर्थात् निराकार, विशेष अर्थात् साकार। निराकार उपयोग को दर्शनोपयोग और विशेष उपयोग को ज्ञानोपयोग कहा गया है।
अन्तर्भाव
इस अधिकार में यह बताया गया है कि किस मारृगणा में कौन कौन गुणस्थान होते हैं। जैसे नरकगति में आदि के चार गुणस्थान ही होते हैं। इसी तरह शेष तीन गतियों और अन्य 13 मार्गणाओं में भी गुणस्थानों के अस्तित्व का प्ररूपण किया गया है।
आलाप
इसमें तीन आलापों का वर्णन है। गुणस्थान, मार्गणा और पर्याप्ति। आलाप का अर्थ है गुणस्थानों में मार्गणाओं, मार्गणाओं में गुणस्थानों और पर्याप्तियों में गुणस्थान और मार्गणा की चर्चा करना। इससे यह ज्ञात हो जाता है कि जीव का भ्रमण लोक में अनेकों बार और अनेकों स्थानों पर होता रहता है। इस भ्रमण की निवृत्ति का उपाय एकमात्र तत्त्वज्ञान है। यह गोम्मटसार के प्रथम भाग जीवकाण्ड पर लिखी गई मन्दप्रबोधिनी टीका का संक्षिप्त परिचय है, जो संस्कृत में निबद्ध है और जिसकी भाषा प्रसादगुण युक्त एवं प्रवाहपूर्ण है।