महावन

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महावन / Mahavan

मथुरा नाथ श्री द्वारिका नाथ, महावन
Mathura Nath Shri Dwarika Nath, Mahavan

ज़िला मथुरा, उ0प्र0 में मथुरा के समीप, यमुना के दूसरे तट पर स्थित अति प्राचीन स्थान है जिसे बालकृष्ण की क्रीड़ास्थली माना जाता है। यहां अनेक छोटे-छोटे मंदिर हैं जो अधिक पुराने नहीं हैं। समस्त वनों से आयतन में बड़ा होने के कारण इसे बृहद्वन भी कहा गया है। इसकों महावन, गोकुल या वृहद्वन भी कहते हैं। गोलोक से यह गोकुल अभिन्न है।<balloon title="गोलोकरूपिणे तुभ्यं गोकुलाय नमो नम:। अतिदीर्घाय रम्याय द्वाविंशद्योजनायते ॥ (भविष्योत्तरे) " style="color:blue">*</balloon> व्रज के चौरासी वनों में महावन मुख्य था।

इतिहास से

महावन मथुरा-सादाबाद सड़क पर मथुरा से 11 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। यह एक प्राचीन स्थान है। महावन नाम ही इस बात का द्योतक है कि यहाँ पर पहले सघन वन था। मुग़ल काल में सन 1634 ई॰ में सम्राट शाहजहाँ ने इसी वन में चार शेरों का शिकार किया था। सन 1018 ई॰ में महमूद ग़ज़नवी ने महावन पर आक्रमण कर इसको नष्ट भ्रष्ट किया था। इस दुर्घटना के उपरान्त यह अपने पुराने वैभव को प्राप्त नहीं कर सका।

  • मिनहाज नामक इतिहासकार ने इस स्थान को शाही सेना के ठहरने का स्थान बताया है।
  • सन 1234 ई॰ में सुल्तान अल्तमश ने कालिन्जर की ओर जो सेना भेजी थी वह यहाँ ठहरी थी।
  • सन 1526 ई॰ में बाबर ने भी इस स्थान के महत्व को स्वीकार किया था।
  • अकबर के शासनकाल में यह आगरा सरकार के अन्तर्गत 33 महलों में से एक महल था।
  • सन 1803 ई॰ में यह अलीगढ़ ज़िले का एक भाग था।
  • सन 1832 ई॰ में यह फिर मथुरा ज़िले में मिला दिया गया। अँग्रेजी शासन में यहाँ तहसील थी।
  • सन 1910 ई॰ में तहसील मथुरा को स्थानान्तरित कर दी गई।
  • बौद्धकाल में भी एक महत्व की जगह रही होगी। फ़ाह्यान नामक चीनी यात्री ने जिन मठों का वर्णन लिखा है उनमें से कुछ मठ यहाँ भी रहे होंगे क्योंकि उसने लिखा है कि यमुना नदी के दोनों ओर बौद्ध मठ बने हुए थे। बहुत से इतिहासकारों द्वारा यह नगर एरियन और प्लिनी [१] द्वारा वर्णित मेथोरा और क्लीसोबोरा है।
  • महावन में प्राचीन दुर्ग की ऊँची भूमि अब भी देखने को मिलती है जिससे ज्ञात होता है कि यह कुछ तो प्राकृतिक और कुछ कृत्रिम था इस दुर्ग के सम्बन्ध में कहा जाता है कि इसको मेवाड़ के राजा कतीरा ने निर्मित किया था। परम्परागत अनुश्रुतियों से ज्ञात होता है कि राणा मुसलमानों के आक्रमण से मेवाड़ छोड़कर महावन चले आये थे और उन्होंने दिगपाल नामक महावन के राजा के यहाँ आश्रय लिया था। राणा के पुत्र कान्तकुँअर का विवाह दिगपाल की पुत्री के साथ हुआ था और फिर अपने श्वसुर के राज्य का ही वह अन्त में उत्तराधिकारी हुआ। कान्तकुँअर ने अपने पारवारिक पुरोहितों को सम्पूर्ण महावन का पुरोहितत्व प्रदान किया। ये ब्राह्मण सनाढ्य थे। आज भी उन ब्राह्मणों के वंशज चौधरी उपाधि ग्रहण करते हैं और अब भी थोक चौधरीयान के नाम से ये प्रसिद्ध है।
  • आचार्य श्री कैलाशचन्द्र ‘कृष्ण’ के ‘महावन और रमणरेती’ लेख के अनुसार कस्बे में एक स्थान पर ब्रिटिश शासनकाल का शिलालेख है। जिसके द्वारा महावन तथा उसके आसपास में आखेट करना निषिद्ध है। मुग़ल शासक अकबर महान, जहाँगीर, शाहजहाँ आदि शासकों ने भी पुष्टि सम्प्रदाय के गोस्वामियों से प्रभावित होकर इस क्षेत्र में पशु-वध की निषेधाज्ञाएँ प्रसारित की थी।
चित्र वीथिका

  • चौरासी खम्भा मन्दिर से पूर्व दिशा में कुछ ही दूर यमुना जी के तट पर ब्रह्मांड घाट नाम का रमणीक स्थल है। यहाँ बहुत सुन्दर पक्के घाट हैं। चारों ओर सुरम्य वृक्षावली, उद्यान एवं एक संस्कृत पाठशाला है। धार्मिक मान्यता के अनुकूल यहाँ श्रीकृष्ण ने मिट्टी खाने के बहाने यशोदा को अपने मुख में समग्र ब्राह्मांड के दर्शन कराये थे। यहीं से कुछ दूर लतवेष्टित स्थल में मनोहारी चिन्ताहरण शिव दर्शन हैं।
  • ब्रिटिश काल में महावन तहसील बन जाने से इस नगर की कुछ उन्नति हुई लेकिन प्राचीन वैभव को यह प्राप्त नहीं कर सका।
  • महावन को औरंगज़ेब के समय में उसकी धर्मांध नीति का शिकार बनना पड़ा था। इसके बाद 1757 ई॰ में अफगान अहमदशाह अब्दाली ने जब मथुरा पर आक्रमण किया तो उसने महावन में सेना का शिविर बनाया। वह यहां ठहर कर गोकुल को नष्ट करना चाहता था। किंतु महावन के चार हजार नागा सन्यासियों ने उसकी सेना के 2000 सिपाहियों को मार डाला और स्वयं भी वीरगति को प्राप्त हुए। गोकुल पर होने वाले आक्रमण का इस प्रकार निराकरण हुआ और अब्दाली ने अपनी फ़ौज वापस बुला ली। इसके पश्चात महावन के शिविर में विशूचिका (हैजा) के प्रकोप से अब्दाली के अनेक सिपाही मर गए। अत: वह शीघ्र दिल्ली लौट गया किंतु जाते-जाते भी इस बर्बर आक्रांता ने मथुरा, वृन्दावन आदि स्थानों पर जो लूट मचाई और लोमहर्षक विध्वंस और रक्तपात किया वह इसके पूर्व कृत्यों के अनुकूल ही था।

पुरानी गोकुल

महावन गोकुल से आगे 2 किमी. दूर है। लोग इसे पुरानी गोकुल भी कहते हैं। गोपराज नन्द बाबा के पिता पर्जन्य गोप पहले नन्दगाँव में ही रहते थे। वहीं रहते समय उनके उपानन्द, अभिनन्द, श्रीनन्द, सुनन्द, और नन्दन-ये पाँच पुत्र तथा सनन्दा और नन्दिनी दो कन्याएँ पैदा हुईं। उन्होंने वहीं रहकर अपने सभी पुत्र और कन्याओं का विवाह दिया। मध्यम पुत्र श्रीनन्द को कोई सन्तान न होने से बड़े चिन्तित हुए। उन्होंने अपने पुत्र नन्द को सन्तान की प्राप्ति के लिए नारायण की उपासना की और उन्हें आकाशवाणी से यह ज्ञात हुआ कि श्रीनन्द को असुरों का दलन करने वाला महापराक्रमी सर्वगुण सम्पन्न एक पुत्र शीघ्र ही पैदा होगा। इसके कुछ ही दिनों बाद केशी आदि असुरों का उत्पात आरम्भ होने लगा। पर्जन्य गोप पूरे परिवार और सगे सम्बन्धियों के साथ इस बृहद्वन में उपस्थित हुए। इस बृहद् या महावन में निकट ही यमुना नदी बहती है। यह वन नाना प्रकार के वृक्षों, लता-वल्लरियों और पुष्पों से सुशोभित है, जहाँ गऊओं के चराने के लिए हरे-भरे चारागाह हैं। ऐसे एक स्थान को देखकर सभी गोप ब्रजवासी बड़े प्रसन्न हुए तथा यहीं पर बड़े सुखपूर्वक निवास करने लगे। यहीं पर नन्दभवन में यशोदा मैया ने कृष्ण कन्हैया तथा योगमाया को यमज सन्तान के रूप में अर्द्धरात्रि को प्रसव किया। यहीं यशोदा के सूतिकागार में नाड़ीच्छेदन आदि जातकर्म रूप वैदिक संस्कार हुए। यहीं पूतना, तृणावर्त, शकटासुर नामक असुरों का वध कर कृष्ण ने उनका उद्धार किया। पास ही नन्द की गोशाला में कृष्ण और बलदेव का नामकरण हुआ। यहीं पास में ही घुटनों पर राम कृष्ण चले, यहीं पर मैया यशोदा ने चंचल बाल कृष्ण को ओखल से बाँधा, कृष्ण ने यमलार्जुन का उद्धार किया। यहीं ढाई-तीन वर्ष की अवस्था तक की कृष्ण और राम की बालक्रीड़ाएँ हुईं। वृहद्वन या महावन गोकुल की लीलास्थलियों का ब्रह्माण्ड पुराण में भी वर्णन किया गया है। [२]

वर्तमान दर्शनीय स्थल

मथुरा से लगभग छह मील पूर्व मं महावन विराजमान है। ब्रजभक्ति विलास के अनुसार महावन में श्रीनन्दमन्दिर, यशोदा शयनस्थल, ओखलस्थल, शकटभजंनस्थान, यमलार्जुन उद्धारस्थल, सप्तसामुद्रिक कूप, पास ही गोपीश्वर महादेव, योगमाया जन्मस्थल, बाल गोकुलेश्वर, रोहिणी मन्दिर, पूतना बधस्थल दर्शनीय हैं। भक्तिरत्नाकर ग्रन्थ के अनुसार यहाँ के दर्शनीय स्थल हैं- जन्म स्थान, जन्म-संस्कार स्थान, गोशाला, नामकरण स्थान, पूतना वधस्थान, अग्निसंस्कार स्थल, शकटभजंन स्थल, स्तन्यपान स्थल, घुटनों पर चलने का स्थान, तृणावर्त वधस्थल, ब्रह्माण्ड घाट, यशोदा जी का आंगन, नवनीत चोरी स्थल, दामोदर लीला स्थल, यमलार्जुन-उद्धार-स्थल, गोपीश्वर महादेव, सप्तसामुद्रिक कूप, श्रीसनातन गोस्वामी की भजनस्थली, मदनमोहनजी का स्थान, रमणरेती, गोपकूप, उपानन्द आदि गोपों के वासस्थान, श्रीकृष्ण के जातकर्म आदि का स्थान, गोप-बैठक, वृन्दावन गमनपथ, सकरौली आदि।

दन्तधावन टीला

यहाँ नन्द महाराज जी बैठकर दातुन के द्वारा अपने दाँतों को साफ करते थे।

नन्दबाबा की हवेली

दन्त धावन टीला के नीचे और आसपास नन्द और उनके भाईयों की हवेलियाँ तथा सगे-संबन्धी गोप, गोपियों की हवेलियाँ थीं। आज उनका भग्नावशेष दूर-दूर तक देखा जाता है।

राधादामोदर मंदिर

मथुरा से 18 कि0 मी0 दूर महावन में यमुना के बांये तट पर स्थित यह प्रसिद्ध मन्दिर तत्कालीन बोध कला एवं स्थापत्य का दिग्दर्शक है। इसमें अस्सी खम्भा मुख्य दर्शनीय हैं।

नन्दभवन

चौरासी खम्भा, महावन
Chaurasi Khamba, Mahavan

नन्द हवेली के भीतर ही श्री यशोदा मैया के कक्ष में भादों माह के रोहिणी नक्षत्रयुक्त अष्टमी तिथि को अर्द्धरात्रि के समय स्वयं-भगवान श्रीकृष्ण और योगमाया ने यमज सन्तान के रूप में माँ यशोदा जी के गर्भ से जन्म लिया था। यहाँ योगमाया का दर्शन है। श्रीमद्भागवत में भी इसका स्पष्ट वर्णन मिलता है कि महाभाग्यवान नन्दबाबा भी पुत्र के उत्पन्न होने से बड़े आनन्दित हुए। उन्होंने नाड़ीछेद-संस्कार, स्नान आदि के पश्चात ब्राह्मणों को बुलाकर जातकर्म आदि संस्कारों को सम्पन्न कराया।<balloon title="नन्दस्त्वात्मज उत्पन्ने जाताह्वादो महामना:। आहूय विप्रान् वेदज्ञान् स्नात:शुचिरंकृत: ॥ (श्रीमद्भा0 10/5/1)" style="color:blue">*</balloon> श्रीरघुपति उपाध्यायजी कहते हैं कि संसार में जन्म-मरण के भय से भीत कोई श्रुतियों का आश्रय लेते हैं तो कोई स्मृतियों का और कोई महाभारत का ही सेवन करते हैं तो करें, परन्तु मैं तो उन श्रीनन्दराय जी की वन्दना करता हूँ कि जिनके आंगन में परब्रह्म बालक बनकर खेल रहा है।

पूतना उद्धार स्थल

माता का वेश बनाकर पूतना अपने स्तनों में कालकूट विष भरकर नन्दभवन में इस स्थल पर आयी। उसने सहज ही यशोदा-रोहिणी के सामने ही पलने पर सोये हुए शिशु कृष्ण को अपनी गोद में उठा लिया और स्तनपान कराने लगी। कृष्ण ने कालकूट विष के साथ ही साथ उसके प्राणों को भी चूसकर राक्षसी शरीर से उसे मुक्तकर गोलोक में धात के समान गति प्रदान की। पूतना पूर्वजन्म में महाराज बलि की कन्या रत्नमाला थी। भगवान वामनदेव को अपने पिता के राजभवन में देखकर वैसे ही सुन्दर पुत्र की कामना की थी। किन्तु जब वामनदेव ने बलि महाराज का सर्वस्व हरण कर उन्है नागपाश में बाँध दिया तो वह रोने लगी। उस समय वह यह सोचने लगी कि ऐसे क्रूर बेटे को मैं विषमिश्रित स्तन-पान कराकर मार डालूँगी। वामनदेव ने उसकी अभिलाषाओं को जानकर 'एवम् अस्तु' ऐसा ही हो वरदान दिया था। इसीलिए श्रीकृष्ण ने उसी रूप में उसका वध कर उसको धात्रोचित गति प्रदान की। [३]

शकटभंजन स्थल

एक समय बाल-कृष्ण किसी छकड़े के नीचे पलने में सो रहे थे। यशोदा मैया उनके जन्मनक्षत्र उत्सव के लिए व्यस्त थीं। उसी समय कंस द्वारा प्रेरित एक असुर उस छकड़े में प्रविष्ट हो गया और उस छकड़े को इस प्रकार से दबाने लगा जिससे कृष्ण उस छकड़े के नीचे दबकर मर जाएँ। किन्तु चंचल बालकृष्ण ने किलकारी मारते हुए अपने एक पैर की ठोकर से सहज रूप में ही उसका वध कर दिया। छकड़ा उलट गया और उसके ऊपर रखे हुए दूध, दही, मक्खन आदि के बर्तन चकनाचूर हो गये। बच्चे का रोदन सुनकर यशोदा मैया दौड़ी हुई वहाँ पहुँची और आश्चर्यचकित हो गई। बच्चे को सकुशल देखकर ब्राह्मणों को बुलाकर बहुत सी गऊओं का दान किया। वैदिक रक्षा के मन्त्रों का उच्चारणपूर्वक ब्राह्मणों ने काली गाय के मूत्र और गोबर से कृष्ण का अभिषेक किया। यह स्थान इस लीला को संजोये हुए आज भी वर्तमान है। शकटासुर पूर्व जन्म में हिरण्याक्ष दैत्य का पुत्र उत्कच नामक दैत्य था। उसने एक बार लोमशऋषि के आश्रम के हरे-भरे वृक्षों और लताओं को कुचलकर नष्ट कर दिया था। ऋषि ने क्रोध से भरकर श्राप दिया- 'दुष्ट तुम देह-रहित हो जाओं।' यह सुनकर वह ऋषि के चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा।' उसी असुर ने छकड़े में आविष्ट होकर कृष्ण को पीस डालना चाहा, किन्तु भगवान कृष्ण के श्रीचरणकमलों के स्पर्श से मुक्त हो गया। श्रीमद्भागवत में इसका वर्णन है।

तृणावर्त वधस्थल

एक समय कंस ने कृष्ण को मारने के लिए गोकुल में तृणावर्त नामक दैत्य को भेजा। वह कंस की प्रेरणा से बवण्डर का रूप धारण कर गोकुल में आया और यशोदा के पास ही बैठे हुए कृष्ण को उड़ाकर आकाश में ले गया। बालकृष्ण ने स्वाभाविक रूप में उसका गला पकड़ा लिया, जिससे उसका गला रूद्ध हो गया, आँखें बाहर निकल आईं और वह पृथ्वी पर गिर कर मर गया।<balloon title="दैत्यो नाम्ना तृणावर्त: कंसभृत्य: प्रणोदित:। चक्रवातरूपेण जहारासीनमर्भकम् ॥ (श्रीमद्भा0 10/7/20)" style="color:blue">*</balloon>

दधिमन्थन स्थल

यहाँ यशोदा जी दधि मन्थन करती थीं। एक समय बाल कृष्ण निशा के अंतिम भाग में पलंग पर सो रहे थे। यशोदा मैया ने पहले दिन शाम को दीपावली के उपलक्ष्य में दास, दासियों को उनके घरों में भेज दिया था। सवेरे स्वयं कृष्ण को मीठा मक्खन खिलाने के लिए दक्षिमन्थन कर रही थीं तथा ऊँचे स्वर एवं ताल-लय से कृष्ण की लीलाओं का आविष्ट होकर गायन भी कर रही थीं। उधर भूख लगने पर कृष्ण मैया को खोजने लगे। पलगं से उतरकर बड़े कष्ट से ढुलते-ढुलते रोदन करते हुए किसी प्रकार माँ के पास पहँचे। यशोदा जी बड़े प्यार से पुत्र को गोदी में बिठाकर स्तनपान कराने लगीं। इसी बीच पास ही आग के ऊपर रखा हुआ दूध उफनने लगा। मैया ने अतृप्त कृष्ण को बलपूर्वक अपनी गोदी से नीचे बैठा दिया और दूध की रक्षा के लिए चली गईं। अतृप्त बाल कृष्ण के अधर क्रोध से फड़कने लगे और उन्होंने लोढ़े से मटके में छेद कर दिया। तरल दधि मटके से चारों ओर बह गया। कृष्ण उसी में चलकर घर के अन्दर उलटे ओखल पर चढ़कर छींके से मक्खन निकालकर कुछ स्वयं खाने लगे और कुछ बंदरों तथा कौवों को भी खिलाने लगे। यशोदा जी लौटकर बच्चे की करतूत देखकर हँसने लगीं और उन्होंने छिपकर घर के अन्दर कृष्ण को पकड़ना चाहा। मैया को देखकर कृष्ण ओखल से कूदकर भागे, किन्तु यशोदाजी ने पीछे से उनकी अपेक्षा अधिक वेग से दौड़कर उन्हें पकड़ लिया, दण्ड देने के लिए ओखल से बाँध दिया। [४] फिर गृहकार्य में लग गयीं। इधर कृष्ण ने सखाओं के साथ ओखल को खींचते हुए पूर्व जन्म के श्रापग्रस्त कुबेर पुत्रों को स्पर्श कर उनका उद्धार कर दिया। यहीं पर नन्दभवन में यशोदा जी ने कृष्ण को ओखल से बाँधा था। नन्दभवन से बाहर पास ही नलकुबेर वर मणिग्रीव के उद्धार का स्थान है। आजकल जहाँ चौरासी खम्बा हैं, वहाँ कृष्ण का नाड़ीछेदन हुआ था। उसी के पास में नन्दकूप है।

नन्दबाबा की गोशाला

गोशाला में कृष्ण और बलदेव का नामकरण हुआ था। गर्गाचार्य जी ने इस निर्जन गोशाला में कृष्ण और बलदेव का नामकरण किया था। नामकरण के समय श्रीबलराम और कृष्ण के अद्भुत पराक्रम, दैत्यदलन एवं भागवतोचित लीलाओं के संबन्ध में भविष्यवाणी भी की थीं। कंस के अत्याचारों के भय से नन्द महाराज ने बिना किसी उत्सव के नामकरण संस्कार कराया था।

मल्ल तीर्थ

यहाँ नंगे बाल कृष्ण और बलराम परस्पर मल्ल युद्ध करते थें। गोपियाँ लड्डू का लोभ दिखालाकर उनको मल्लयुद्ध की प्रेरणा देतीं तथा युद्ध के लिए उकसातीं। ये दोनों बालक एक दूसरे को पराजित करने की लालसा से मल्ल युद्ध करते थे। यहाँ पर वर्तमान समय में गोपीश्वर महादेव विराजमान हैं।

नन्दकूप

महाराज नन्द जी इस कुएँ का जल व्यवहार करते थे। इसका नामान्तर सप्तसामुद्रिक कूप भी है। ऐसा कहा जाता है कि देवताओं ने भगवान श्रीकृष्णकी सेवा के लिए इसे प्रकट किया था। इसका पानी शीतकाल में उष्ण तथा उष्णकाल में शीतल रहता था। इसमें स्नान करने से समस्त पापों से मुक्ति मिल जाती है।

महावन में श्रीचैतन्य महाप्रभु

श्री रूप सनातन के ब्रज आगमन से पूर्व श्री चैतन्य महाप्रभु वन भ्रमण के समय यहाँ पधारे थे। वे महावन में कृष्ण जन्मस्थान में श्रीमदनमोहन जी का दर्शनकर प्रेम में विह्वल होकर नृत्य करने लगे। उनके नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। [५]

श्रीसनातन गोस्वामी का भजनस्थल

चौरासी खम्बा मन्दिर से नीचे उतरने पर सामुद्रिक कूप के पास ही गुफ़ा के भीतर सनातन गोस्वामी की भजनकुटी है। सनातन गोस्वामी कभी-कभी यहाँ गोकुल में आने पर इसी जगह भजन करते थे और श्रीमदनगोपालजी का प्रतिदिन दर्शन करते थें।<balloon title="सनातन मदनगोपाल दर्शन। महासुख पाईया रहे महावने ॥ (भक्तिरत्नाकर)" style="color:blue">*</balloon> एक समय सनातन गोस्वामी यमुना पुलिन के रमणीय बालू में एक अद्भुत बालक को खेलते हुए देखकर आश्चर्यचकित हो गये। खेल समाप्त होने पर वे बालक के पीछे-पीछे चले, किन्तु मन्दिर में प्रवेश ही वह बालक दिखाई नहीं दिया, विग्रह के रूप में श्रीमदनगोपाल दीखे। वही श्रीमदनगोपाल कुछ समय बाद पुन: मथुरा के चौबाइन के घर में उसके बालक के साथ में खेलते हुए मिले। श्रीमदनगोपाल ने सनातनजी से उनके साथ वृन्दावन में ले चलने लिए आग्रह किया। सनातन गोस्वामी उनको अपनी भजनकुटी में ले आये और विशाल मन्दिर बनवा कर उनकी सेवा-पूजा आरम्भ करवाई। जन्मस्थली नन्दभवन से प्राय: एक मील पूर्व में ब्रह्माण्ड घाट विराजमान है।

कोलेघाट

ब्रह्माण्ड घाट से यमुना पार मथुरा की ओर कोलेघाट विराजमान है। श्री वसुदेव जी नवजात कृष्ण को लेकर यहीं से यमुना पार होकर गोकुल नन्दभवन में पहुँचे थे। जिस समय वसुदेव जी यमुना पार करते समय बीच में उपस्थित हुए, उस समय यमुना श्रीकृष्ण के चरणों को स्पर्श करने के लिए बढ़ने लगी। वसुदेव जी कृष्ण को ऊपर उठाने लगे। जब वसुदेव जी के गले तक पानी पहुँचा तो वे बालक की रक्षा करने की चिन्ता से घबड़ाकर कहने लगे इसे 'को लेवे' अर्थात इसे कौन लेकर बचाये। इसलिए वज्रनाभ जी ने यमुना के इस घाट का नाम कोलेघाट रखा। यमुना के स्तर को बढ़ते देखकर बालकृष्ण ने पीछे से अपने पैरों को यमुना जी के कोल में (गोदी में) स्पर्श करा दिया। यमुना जी कृष्ण के चरणों का स्पर्श पाकर झट नीचे उतर गईं। पीछे से वहाँ टापू हो गया और वहाँ कोलेगाँव बस गया। कोले घाट के तटपर उथलेश्वर और पाण्डेश्वर महादेवजी के दर्शन हैं। दाऊजी से पांच कोस उत्तर की तरफ देवस्पति गोपका निवास स्थान देवनगर है। वहाँ रामसागरकुण्ड, प्राचीन बृहद कदम्ब वृक्ष और देवस्पति गोप के पूजन की गोवर्धन शिला दर्शनीय है। दाऊजी के पास ही हातौरा ग्राम हैं वहाँ नन्दरायजी की बैठक है।

कर्णछेदन स्थान

यहाँ बालकृष्ण और बलराम का कर्णछेदन संस्कार हुआ था। इसका वर्तमान नाम कर्णावल गाँव है। यहाँ कर्णबेध कूप, रत्नचौक और श्रीमदनमोहन तथा माधवरायजी के श्रीविग्रहों के दर्शन हैं।

महावन और ब्रह्माण्ड घाट वीथिका

टीका-टिप्पणी

  1. प्लिनी, नेचुरल हिस्ट्री, भाग 6, पृ 19; तुलनीय ए, कनिंघम, दि ऐंश्‍येंटज्योग्राफी आफ इंडिया, (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1963), पृ 315
  2. एकाविंशति तीर्थानां युक्तं भूरिगुणान्वितम । यमलार्जुन पुण्यात्मानम्, नन्दकूपं तथैव च ॥ चिन्ताहरणं ब्रह्मण्डं, कुण्डं सारस्वतं तथा। सरस्वतीशिला तत्र, विष्णुकुण्डं समन्वितम् ॥ कर्णकूपं, कृष्णकुण्डं गोपकूपं तथैव च । रमणं रमणस्थानं तृणावर्ताख्यपातनम् ॥ पूतनापातनस्थानं तृणावर्ताख्यपातनम् । नन्दहर्म्य नन्दगेह घाटं रमणासंज्ञकम् ॥ मथुरानाथोद्भवं क्षेत्रं पुण्यं पापप्रनाशनम्। जन्मस्थानं तु शेषस्य जन्म योगमायया ॥ (ब्रह्माण्ड पुराण)
  3. श्रुतिमपरे स्मृतिमितरे भारमन्ये भजन्तु भवभीता: । अहमिह नन्दं वन्दे यस्यालिन्दे परंब्रह्म ॥ (श्रीपद्यावली पृष्ठ 67)
  4. स्वमातु: स्विन्नगात्राया विस्रस्तकबरस्रज: । दृष्ट्वा परिश्रमं कृष्ण: कृपयाऽऽसीत् स्वबन्धने ॥ (श्रीमद्भा0 10/9/19)
  5. अहे श्रीनिवास ! कृष्ण चैतन्य एथाय । जन्मोत्सव स्थान देखि उल्लास हियाय ॥ भावावेशे प्रभु नृत्य, गीते मग्न हैला। कृपा करि सर्वचित्त आकषर्ण कैला ॥ भक्तिरत्नाकर


महावन मानचित्र

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