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− | मीरांबाई ने चार ग्रंथों की रचना की– | + | {| |
− | बरसी का मायरा | + | |मीरांबाई ने चार ग्रंथों की रचना की– |
− | गीत गोविंद टीका | + | |- |
− | राग गोविंद | + | |बरसी का मायरा |
− | राग सोरठ के पद | + | |- |
− | इनकी एक रचना इस प्रकार हैं- | + | |गीत गोविंद टीका |
− | पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो । | + | |- |
− | वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरू, किरपा कर अपनायो ॥ | + | |राग गोविंद |
− | जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो । | + | |- |
− | खरच न खूटै चोर न लूटै, दिन-दिन बढ़त सवायो ॥ | + | |राग सोरठ के पद |
− | सत की नाँव खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो । | + | |- |
− | 'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस पायो ॥ | + | |इनकी एक रचना इस प्रकार हैं- |
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+ | |पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो । | ||
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+ | |वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरू, किरपा कर अपनायो ॥ | ||
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+ | |खरच न खूटै चोर न लूटै, दिन-दिन बढ़त सवायो ॥ | ||
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+ | |सत की नाँव खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो । | ||
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+ | |'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस पायो ॥ | ||
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०७:२७, १२ मई २००९ का अवतरण
मीरांबाई
मीरांबाई कृष्ण-भक्ति शाखा की प्रमुख कवयित्री हैं । उनका जन्म 1498 ईस्वी में जोधपुर के ग्राम कुड्की में हुआ था । उनके पिता का नाम रत्नसिंह था । उनके पति कुंवर भोजराज उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र थे । विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहांत हो गया । पति की मृत्यु के बाद उन्हे पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया किन्तु मीरां इसके लिये तैयार नही हुई । वे संसार की ओर से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं । कुछ समय बाद उन्होंने घर का त्याग कर दिया और तीर्थाटन को निकल गईं । वे बहुत दिनों तक वृंदावन में रहीं और फिर द्वारिका चली गईं । जहाँ संवत 1547 ईस्वी में उनका देहांत हुआ । इनके जन्म को लेकर कई मतभेद रहे हैं। मीरांबाई ने कृष्ण-भक्ति के स्फुट पदों की रचना की है । ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं ।
रचित ग्रंथ
मीरांबाई ने चार ग्रंथों की रचना की– |
बरसी का मायरा |
गीत गोविंद टीका |
राग गोविंद |
राग सोरठ के पद |
इनकी एक रचना इस प्रकार हैं- |
पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो । |
वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरू, किरपा कर अपनायो ॥ |
जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो । |
खरच न खूटै चोर न लूटै, दिन-दिन बढ़त सवायो ॥ |
सत की नाँव खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो । |
'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस पायो ॥ |