"मुहम्मद ग़ोरी" के अवतरणों में अंतर
छो (Text replace - '{{menu}}<br />' to '{{menu}}') |
Anand Chauhan (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
{{menu}} | {{menu}} | ||
==मुहम्मद ग़ोरी / Mohammad Ghori== | ==मुहम्मद ग़ोरी / Mohammad Ghori== | ||
− | जिस समय [[मथुरा]] मंडल के उत्तर-पश्चिम में [[पृथ्वीराज चौहान|पृथ्वीराज]] और दक्षिण-पूर्व में [[जयचंद्र]] जैसे महान नरेशों के शक्तिशाली राज्य थे, उस समय भारत के पश्चिम उत्तर के सीमांत पर शाहबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी (1162-1206) नामक एक मुसलमान सरदार ने [[महमूद ग़ज़नवी]] के वंशजों से राज्याधिकार छीन कर एक नये इस्लामी राज्य की स्थापना की थी । मुहम्मद ग़ोरी बड़ा महत्वाकांक्षी और साहसी था। वह महमूद ग़ज़नवी की भाँति भारत पर आक्रमण करने का इच्छुक था, किंतु उसका उद्देश्य ग़ज़नवी से अलग था । वह लूटमार के साथ ही साथ इस देश में मुस्लिम राज्य भी स्थापित करना चाहता था । उस काल में पश्चिमी पंजाब तक और दूसरी ओर मुल्तान एवं सिंध तक मुसलमानों का अधिकार था, जिसके अधिकांश भाग पर महमूद के वंशज ग़ज़नवी सरदार शासन करते थे । मुहम्मद ग़ोरी को भारत के आंतरिक भाग तक पहुँचने के लिए | + | जिस समय [[मथुरा]] मंडल के उत्तर-पश्चिम में [[पृथ्वीराज चौहान|पृथ्वीराज]] और दक्षिण-पूर्व में [[जयचंद्र]] जैसे महान नरेशों के शक्तिशाली राज्य थे, उस समय भारत के पश्चिम उत्तर के सीमांत पर शाहबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी (1162-1206) नामक एक मुसलमान सरदार ने [[महमूद ग़ज़नवी]] के वंशजों से राज्याधिकार छीन कर एक नये इस्लामी राज्य की स्थापना की थी । मुहम्मद ग़ोरी बड़ा महत्वाकांक्षी और साहसी था। वह महमूद ग़ज़नवी की भाँति भारत पर आक्रमण करने का इच्छुक था, किंतु उसका उद्देश्य ग़ज़नवी से अलग था । वह लूटमार के साथ ही साथ इस देश में मुस्लिम राज्य भी स्थापित करना चाहता था । उस काल में पश्चिमी पंजाब तक और दूसरी ओर मुल्तान एवं सिंध तक मुसलमानों का अधिकार था, जिसके अधिकांश भाग पर महमूद के वंशज ग़ज़नवी सरदार शासन करते थे । मुहम्मद ग़ोरी को भारत के आंतरिक भाग तक पहुँचने के लिए पहले उन मुसलमान शासकों से और फिर वहाँ के वीर राजपूतों से युद्ध करना था, अतः वह पूरी तैयारी के साथ भारत पर आक्रमण करने का आयोजन करने लगा । |
+ | |||
==ग़ोरी का आक्रमण== | ==ग़ोरी का आक्रमण== | ||
मुहम्मद ग़ोरी ने अपना पहला आक्रमण 1191 में मुल्तान पर किया था, जिसमें वहाँ के मुसलमान शासक को पराजित होना पड़ा । उससे उत्साहित होकर उसने अपना दूसरा आक्रमण 1192 में [[गुजरात]] के बघेल राजा भीम द्वितीय की राजधानी अन्हिलवाड़ा पर किया, किंतु राजपूत वीरों की प्रबल मार से वह पराजित हो गया। इस प्रकार भारत के हिंदु राजाओं की ओर मुँह उठाते ही उसे आंरभ में ही चोट खानी पड़ी थी । किंतु वह महत्वाकांक्षी मुसलमान आक्रांता उस पराजय से हतोत्साहित नहीं हुआ । उसने अपने अभियान का मार्ग बदल दिया । वह तब पंजाब होकर भारत-विजय का आयोजन करने लगा । उस काल में पेशावर और [[पंजाब]] होकर भारत-विजय का आयोजन करने लगा । उस काल में [[पेशावर]] और पंजाब के शासक महमूद के जो वंशज थे, वे शक्तिहीन हो गये थे, अतः उन्हें पराजित करना ग़ोरी को सरल ज्ञात हुआ । फलतः सं. 1226 में पेशावर पर आक्रमण कर वहाँ के गजनवी शासक को परास्त किया । उसके बाद उसने पंजाब के अधिकांश भाग को ग़ज़नवी के वंशजों से छीन लिया और वहाँ पर अपनी सृदृढ़ किलेबंदी कर भारत के हिंदू राजाओं पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगा । | मुहम्मद ग़ोरी ने अपना पहला आक्रमण 1191 में मुल्तान पर किया था, जिसमें वहाँ के मुसलमान शासक को पराजित होना पड़ा । उससे उत्साहित होकर उसने अपना दूसरा आक्रमण 1192 में [[गुजरात]] के बघेल राजा भीम द्वितीय की राजधानी अन्हिलवाड़ा पर किया, किंतु राजपूत वीरों की प्रबल मार से वह पराजित हो गया। इस प्रकार भारत के हिंदु राजाओं की ओर मुँह उठाते ही उसे आंरभ में ही चोट खानी पड़ी थी । किंतु वह महत्वाकांक्षी मुसलमान आक्रांता उस पराजय से हतोत्साहित नहीं हुआ । उसने अपने अभियान का मार्ग बदल दिया । वह तब पंजाब होकर भारत-विजय का आयोजन करने लगा । उस काल में पेशावर और [[पंजाब]] होकर भारत-विजय का आयोजन करने लगा । उस काल में [[पेशावर]] और पंजाब के शासक महमूद के जो वंशज थे, वे शक्तिहीन हो गये थे, अतः उन्हें पराजित करना ग़ोरी को सरल ज्ञात हुआ । फलतः सं. 1226 में पेशावर पर आक्रमण कर वहाँ के गजनवी शासक को परास्त किया । उसके बाद उसने पंजाब के अधिकांश भाग को ग़ज़नवी के वंशजों से छीन लिया और वहाँ पर अपनी सृदृढ़ किलेबंदी कर भारत के हिंदू राजाओं पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगा । |
०५:५७, ३ फ़रवरी २०१० का अवतरण
मुहम्मद ग़ोरी / Mohammad Ghori
जिस समय मथुरा मंडल के उत्तर-पश्चिम में पृथ्वीराज और दक्षिण-पूर्व में जयचंद्र जैसे महान नरेशों के शक्तिशाली राज्य थे, उस समय भारत के पश्चिम उत्तर के सीमांत पर शाहबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी (1162-1206) नामक एक मुसलमान सरदार ने महमूद ग़ज़नवी के वंशजों से राज्याधिकार छीन कर एक नये इस्लामी राज्य की स्थापना की थी । मुहम्मद ग़ोरी बड़ा महत्वाकांक्षी और साहसी था। वह महमूद ग़ज़नवी की भाँति भारत पर आक्रमण करने का इच्छुक था, किंतु उसका उद्देश्य ग़ज़नवी से अलग था । वह लूटमार के साथ ही साथ इस देश में मुस्लिम राज्य भी स्थापित करना चाहता था । उस काल में पश्चिमी पंजाब तक और दूसरी ओर मुल्तान एवं सिंध तक मुसलमानों का अधिकार था, जिसके अधिकांश भाग पर महमूद के वंशज ग़ज़नवी सरदार शासन करते थे । मुहम्मद ग़ोरी को भारत के आंतरिक भाग तक पहुँचने के लिए पहले उन मुसलमान शासकों से और फिर वहाँ के वीर राजपूतों से युद्ध करना था, अतः वह पूरी तैयारी के साथ भारत पर आक्रमण करने का आयोजन करने लगा ।
ग़ोरी का आक्रमण
मुहम्मद ग़ोरी ने अपना पहला आक्रमण 1191 में मुल्तान पर किया था, जिसमें वहाँ के मुसलमान शासक को पराजित होना पड़ा । उससे उत्साहित होकर उसने अपना दूसरा आक्रमण 1192 में गुजरात के बघेल राजा भीम द्वितीय की राजधानी अन्हिलवाड़ा पर किया, किंतु राजपूत वीरों की प्रबल मार से वह पराजित हो गया। इस प्रकार भारत के हिंदु राजाओं की ओर मुँह उठाते ही उसे आंरभ में ही चोट खानी पड़ी थी । किंतु वह महत्वाकांक्षी मुसलमान आक्रांता उस पराजय से हतोत्साहित नहीं हुआ । उसने अपने अभियान का मार्ग बदल दिया । वह तब पंजाब होकर भारत-विजय का आयोजन करने लगा । उस काल में पेशावर और पंजाब होकर भारत-विजय का आयोजन करने लगा । उस काल में पेशावर और पंजाब के शासक महमूद के जो वंशज थे, वे शक्तिहीन हो गये थे, अतः उन्हें पराजित करना ग़ोरी को सरल ज्ञात हुआ । फलतः सं. 1226 में पेशावर पर आक्रमण कर वहाँ के गजनवी शासक को परास्त किया । उसके बाद उसने पंजाब के अधिकांश भाग को ग़ज़नवी के वंशजों से छीन लिया और वहाँ पर अपनी सृदृढ़ किलेबंदी कर भारत के हिंदू राजाओं पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगा ।
ग़ोरी के राज्य की सीमा
गौरी के राज्य की सीमा तब दिल्ली के चाहमान वीर पृथ्वीराज के राज्य से जा लगी थीं; अतः आगे बढ़ने के लिए उसे एक पराक्रमी शत्रु से मोर्चा लेना था । उससे पहले महमूद के वंशज ग़ज़नवी शासकों से हिंदू राजाओं के भी कई संघर्ष हुए थे; किंतु वे छोटी-मोटी स्थानीय लड़ाईयाँ थीं और उनमें प्रायः हिंदू राजाओं की ही विजय हुई थी । मुहम्मद ग़ोरी ने पृथ्वीराज के विरूद्ध जो अभियान किया, वह एक प्रबल आक्रमण था । इसलिए महमूद ग़ज़नवी के बाद मुहम्मद ग़ोरी ही भारत पर चढ़ाई करने वाला दूसरा मुसलमान आक्रांता माना गया है ।
ग़ोरी और पृथ्वीराज का युद्ध
किंवदंतियों के अनुसार ग़ोरी ने 18 बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था, जिसमें 17 बार उसे पराजित होना पड़ा । किसी भी इतिहासकार को किंवदंतियों के आधार पर अपना मत बनाना कठिन होता है । इस विषय में इतना निश्चित है कि ग़ोरी और पृथ्वीराज में कम से कम दो भीषण युद्ध आवश्यक हुए थे, जिनमें प्रथम में पृथ्वीराज विजयी और दूसरे में पराजित हुआ था । वे दोनों युद्ध थानेश्वर के निकटवर्ती तराइन या तरावड़ी के मैदान में क्रमशः सं. 1247 और 1248 में हुए थे ।
उन युद्धों से पहिले पृथ्वीराज कई हिंदू राजाओं से लड़ाइयाँ कर चुका था । चंदेल राजाओं को पराजित करने में उसे अपने कई विख्यात सेनानायकों और वीरों को खोना पड़ा था। जयचंद्र के साथ होने वाले संघर्ष में भी उसके बहुत से वीरों की हानि हुई थी । फिर उन दिनों पृथ्वीराज अपने वृद्ध मंत्री पर राज्य भार छोड़ कर स्वयं संयोगिता के साथ विलास क्रीड़ा में लगा हुआ था । उन सब कारणों से उसकी सैन्य शक्ति अधिक प्रभावशालिनी नहीं थी, फिर भी उसने गौरी के दाँत खट्टे कर दिये थे ।
ग़ोरी की भारी पराजय
सं. 1247 में जब पृथ्वीराज से मुहम्मद ग़ोरी की विशाल सेना का सामना हुआ, तब राजपूत वीरों की विकट मार से मुसलमान सैनिकों के पैर उखड़ गये । स्वयं ग़ोरी भी पृथ्वीराज के अनुज के प्रहार से बुरी तरह घायल हो गया था । यदि उसका खिलजी सेवक उसे घोड़े पर डाल कर युद्ध भूमि से भगाकर न ले जाता, तो वहीं उसके प्राण पखेरू उड़ जाते । उस युद्ध में ग़ोरी की भारी पराजय हुई थी और उसे भीषण हानि उठाकर भारत भूमि से भागना पड़ा था । भारतीय राजा के विरूद्ध युद्ध अभियान में यह उसकी दूसरी बड़ी पराजय थी, जो अन्हिलवाड़ा के युद्ध के बाद सहनी पड़ी थी ।
पृथ्वीराज की पराजय और मृत्यु
मुहम्मद ग़ोरी उस अपमानजनक पराजय का बदला लेने के लिए तैयारी करने लगा । अगले वर्ष वह 1 लाख 20 हजार चुने हुए अश्वारोहियों की विशाल सेना लेकर फिर तराइन के मैदान में आ डटा । उधर पृथ्वीराज ने भी उससे मोर्चा लेने के लिए कई राजपूत राजाओं को आमंत्रित किया था । कुछ राजाओं ने तो अपनी सेनाएँ भेज दी; किंतु उस समय का गाहड़वाल वंशीय कन्नौज नरेश जयचंद्र उससे तटस्थ ही रहा । किवदंती है कि पृथ्वीराज से विद्वेष रखने के कारण जयचंद्र ने ही मुहम्मद ग़ोरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था । इस किंवदंती की सत्यता का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है; अतः जयचंद्र पर देशद्रोह का दोषारोपण भी अप्रामाणिक ज्ञात होता है । उसमें केवल इतनी ही सत्यता है कि उसने उस अवसर पर पृथ्वीराज की सहायता नहीं की थी । पृथ्वीराज के राजपूत योद्धाओं ने उस बार भी मुसलमानी सेना पर भीषण प्रहार कर अपनी वीरता का परिचय दिया था; किंतु देश के दुर्भाग्य से उन्हें पराजित होना पड़ा । इस प्रकार सं. 1248 के उस युद्ध में मुहम्मद ग़ोरी की विजय और पृथ्वीराज की पराजय हुई थी । युद्ध में पराजित होने के पश्चात पृथ्वीराज की किस प्रकार मृत्यु हुई, इस विषय में इतिहासकारों के विभिन्न मत मिलते है । कुछ के मतानुसार वह पहिले बंदी बना कर दिल्ली में रखा गया था और बाद में ग़ोरी के सैनिकों द्वारा मार दिया गया था । कुछ का मत है कि उसे बंदी बनाकर ग़जनी ले जाया गया था और वहाँ पर उसकी मृत्यु हुई । ऐसी भी किंवदंती है कि पृथ्वीराज का दरबारी कवि और सखा चंदवरदाई अपने स्वामी की दुर्दिनों में सहायता करने के लिए गजनी गया था । उसने अपने बुद्धि कौशल से पृथ्वीराज द्वारा ग़ोरी का संहार कराकर उससे बदला लिया था । फिर ग़ोरी के सैनिकों ने उस दोनों को भी मार डाला था । इस किंवदंती का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं हैं, अतः वह प्रामाणिक ज्ञात नहीं होती है ।
युद्ध स्थल चंदवार
जिस स्थल पर जयचंद्र और मुहम्मद ग़ोरी की सेनाओं मे वह निर्णायक युद्ध हुआ था, उसे 'चंद्रवार' कहा गया है । यह एक ऐतिहासिक स्थल है, जो अब आगरा जिला में फीरोजाबाद के निकट एक छोटे गाँव के रूप में स्थित है । ऐसा कहा जाता है कि उसे चौहान राजा चंद्रसेन ने 11 वीं शती में बसाया था । उसे पहले 'चंदवाड़ा' कहा जाता था; बाद में वह 'चंदवार' कहा जाने लगा । चंद्रसेन के पुत्र चंद्रपाल के शासनकाल में महमूद गज़नवी ने वहाँ आक्रमण किया था; किंतु उसे सफलता प्राप्त नही हुई थी। बाद में मुहम्मद ग़ोरी की सेना विजयी हुई थी । चंदवार के राजाओं ने यहाँ पर एक दुर्ग बनवाया था, और भवनों एवं मंदिरों का निर्माण कराया था । इस स्थान के चारों ओर कई मीलों तक इसके ध्वंसावशेष दिखलाई देते थे ।