मूर्ति कला

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कलाकृतियों की प्राप्ति और उनका संग्रह

मथुरा की कलाकृतियों में पत्थर की प्रतिमाओं तथा प्राचीन वास्तुखण्डों के अतिरिक्त मिट्टी के खिलौनों का भी समावेश होता है । इन सबका प्रमुख प्राप्ति स्थान मथुरा शहर और उसके आसपास का क्षेत्र है । वर्तमान मथुरा शहर को देखने से स्पष्ट होता है कि यह सारा नगर टीलों पर बसा है । इसके आसपास भी लगभग 10 मील के परिसर में अनेक टीले हैं । इनमें से अधिकतर टीलों के गर्भ से माथुरीकला की अत्युच्च कोटि की कलाकृतियां प्रकाश में आयी हैं ।


कंकाली टीला, भूतेश्वर टीला, जेल टीला, सप्तर्षि टीला आदि ऐसे ही महत्त्व के स्थान हैं । इन टीलों के अतिरिक्त कई कुंओं ने भी अपने उदरों में मूर्तियों को आश्रय दे रखा है । मुसलमानों के आक्रमण के समय विनाश के डर से बहुधा मूर्तियों को उनमें फेंक दिया जाता था । इसी प्रकार यमुना के बीच से अनेक प्रकार से प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। महत्त्व की बात तो यह है कि जहां कुषाण और गुप्त काल में अनेक विशाल विहार, स्तूप, मन्दिर तथा भवन विद्यमान थे, वहां उनमें से अब एक भी अवशिष्ट नहीं है, सबके सब धराशायी होकर पृथ्वी के गर्भ में समा गये हैं ।

माथुरीकला की मूर्ति के प्रथम दर्शन और उसकी पहचान सन् 1836 में हुई । आजकल यह कलकत्ते के संग्रहालय में है । उस समय उसे सायलेनस के नाम से पहचाना गया था । वस्तुत: यह आसवपान का दृश्य है । इसके बाद सन् 1853 में जनरल कनिंघम ने कटरा केशवदेव से कई मूर्तियां व लेख प्राप्त किये । उन्होनें पुन: सन् 1862 में इसी स्थान से गुप्त संवत् 230 (सन् 549-50) में बनी हुई यशा विहार में स्थापित सर्वांगसुन्दर बुद्ध की मूर्ति खोज निकाली । यह इस समय लखनऊ के संग्रहालय में है । इसी बीच सन् 1860 में कलक्टर की कचहरी के निर्माण के लिए जमालपुर टीले को समतल बनाया गया जहां किसी समय दधिकर्ण नाग का मंदिर व हुविष्क विहार था । इस खुदाई से मूर्तियां, शिलापट्ट, स्तम्भ, वेदिकास्तम्भ, स्तम्भाधार आदि के रूप में मथुरा-कला का भण्डार प्राप्त हुआ । इसी स्थान से इस संग्रहालय में प्रर्दिशत सर्वोत्कृष्ट गुप्तकालीन बुद्ध मूर्ति भी मिली । सन् 1869 में श्री भगवानलाल इन्द्राजी को गांधार कला की स्त्रीमूर्ति और सुप्रसिद्ध सिंहशीर्ष मिला ।