मूर्ति कला

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
जन्मेजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:२५, ९ जुलाई २००९ का अवतरण
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

कलाकृतियों की प्राप्ति और उनका संग्रह

मथुरा की कलाकृतियों में पत्थर की प्रतिमाओं तथा प्राचीन वास्तुखण्डों के अतिरिक्त मिट्टी के खिलौनों का भी समावेश होता है । इन सबका प्रमुख प्राप्ति स्थान मथुरा शहर और उसके आसपास का क्षेत्र है । वर्तमान मथुरा शहर को देखने से स्पष्ट होता है कि यह सारा नगर टीलों पर बसा है । इसके आसपास भी लगभग 10 मील के परिसर में अनेक टीले हैं । इनमें से अधिकतर टीलों के गर्भ से माथुरीकला की अत्युच्च कोटि की कलाकृतियां प्रकाश में आयी हैं ।


कंकाली टीला, भूतेश्वर टीला, जेल टीला, सप्तर्षि टीला आदि ऐसे ही महत्त्व के स्थान हैं । इन टीलों के अतिरिक्त कई कुंओं ने भी अपने उदरों में मूर्तियों को आश्रय दे रखा है । मुसलमानों के आक्रमण के समय विनाश के डर से बहुधा मूर्तियों को उनमें फेंक दिया जाता था । इसी प्रकार यमुना के बीच से अनेक प्रकार से प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं। महत्त्व की बात तो यह है कि जहां कुषाण और गुप्त काल में अनेक विशाल विहार, स्तूप, मन्दिर तथा भवन विद्यमान थे, वहां उनमें से अब एक भी अवशिष्ट नहीं है, सबके सब धराशायी होकर पृथ्वी के गर्भ में समा गये हैं ।

प्रथम मूर्ति

माथुरीकला की मूर्ति के प्रथम दर्शन और उसकी पहचान सन् 1836 में हुई । आजकल यह कलकत्ते के संग्रहालय में है । उस समय उसे सायलेनस के नाम से पहचाना गया था । वस्तुत: यह आसवपान का दृश्य है । इसके बाद सन् 1853 में जनरल कनिंघम ने कटरा केशवदेव से कई मूर्तियां व लेख प्राप्त किये । उन्होनें पुन: सन् 1862 में इसी स्थान से गुप्त संवत् 230 (सन् 549-50) में बनी हुई यशा विहार में स्थापित सर्वांगसुन्दर बुद्ध की मूर्ति खोज निकाली । यह इस समय लखनऊ के संग्रहालय में है । इसी बीच सन् 1860 में कलक्टर की कचहरी के निर्माण के लिए जमालपुर टीले को समतल बनाया गया जहां किसी समय दधिकर्ण नाग का मंदिर व हुविष्क विहार था । इस खुदाई से मूर्तियां, शिलापट्ट, स्तम्भ, वेदिकास्तम्भ, स्तम्भाधार आदि के रूप में मथुरा-कला का भण्डार प्राप्त हुआ । इसी स्थान से इस संग्रहालय में प्रर्दिशत सर्वोत्कृष्ट गुप्तकालीन बुद्ध मूर्ति भी मिली । सन् 1869 में श्री भगवानलाल इन्द्राजी को गांधार कला की स्त्रीमूर्ति और सुप्रसिद्ध सिंहशीर्ष मिला ।

जनरल कनिंघम

जनरल कनिंघम ने सन् 1871 में पुन: मथुरा यात्रा की और इस समय उन्होंने दो अन्य टीलों की, कंकाली टीले और चौबारा टीले की खुदाई कराई । कटरा केशवदेव से दक्षिण में लगभग आधे मील के अन्तर पर बसे हुए कंकाली टीले ने मानों मथुरा कला का विशाल भण्डार ही खोल दिया । जहां कभी जैनों का प्रसिद्ध स्तूप, बौद्ध स्तूप था । कनिंघम साहब ने यहां से कनिष्क के राज्य--संवत् 5 से लेकर वासुदेव के राज्य संवत्सर 18 तक की अभिलिखित प्रतिमाएं हस्तगत कीं । चौबारा टीला वस्तुत: 12 टीलों का एक समूह है जहां पर कभी बौद्धों के स्तूप थे । यहीं के एक टीले से सोने का बना एक धातु-करण्डक भी मिला था । कनिंघम को एक दूसरे स्तूप से एक और धातू-करण्डक मिला जो इस समय कलकत्ते के संग्रहालय में है ।

ऍफ़ एस ग्राउज

ग्राउज ने सन् 1872 में निकटस्थ पालिखेड़ा नामक स्थान से यहां की दूसरी महत्त्वपूर्ण प्रतिमा आसवपायी कुबेर को प्राप्त किया था । सन् 1888 से 91 तक डाक्टर फ्यूहरर ने लगातार कंकाली टीले की खुदाई कराई । पहले ही वर्ष में 737 से अधिक मूर्तियां मिलीं जो लखनऊ के राज्य संग्रहालय में भेज दी गयीं । सन् 1836 के बाद सन् 1909 तक फिर मथुरा की मूर्तियों को एकत्रित करने का कोई उल्लेखीनय प्रयास नहीं हुआ । सन् 1909 में रायबहादुर पं. राधाकृष्ण ने मथुरा शहर और गांव में बिखरी हुई अनेक मूर्तियों को एकत्रित किया । फरवरी सन् 1912 में उन्होंने माँट गांव के टोकरी या इटागुरी टीले की खुदाई कराई और कुषाण सम्राट वेम, कनिष्क और चष्टन की मूर्तियों को अन्यान्य प्रतिमाओं के साथ प्राप्त किया । सन् 1915 में नगर के और आसपास के गांव के कई कुएं साफ किये गये और उनमें से लगभग 600 मूर्तियां मिलीं जिनमें से अधिकतर ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित हैं । कुषाण कलाकृतियों के इस संग्रह में मथुरा के पास से बहने वाली यमुना नदी का भी योगदान कम नहीं है । ईसवी सन् की प्रथम शती के यूप स्तम्भों से लेकर आज तक उसके उदर से कितनी ही बहुमूल्य कलाकृतियां प्रकाश में आयी हैं ।

संग्रहालय

मथुरा का यह विशाल संग्रह देश के और विदेश के अनेक संग्रहालयों में बंट चुका है । यहां की सामग्री लखनऊ के राज्य संग्रहालय में, कलकत्ते के भारतीय संग्रहालय में, बम्बई और वाराणसी के संग्रहालयों में तथा विदेशों में मुख्यत: अमेरिका के बोस्टन संग्रहालय में, पेरिस व जुरिख के संग्रहालयों व लन्दन के ब्रिटिश संग्रहालय में प्रदर्शित है । परन्तु इसका सबसे बड़ा भाग मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित है । इसके अतिरिक्त कतिपय व्यक्तिगत संग्रहों मे भी मथुरा की कलाकृतियां हैं । मथुरा का यह संग्रहालय यहां के तत्कालीन जिलाधीश श्री ग्राउज द्वारा सन् 1874 में स्थापित किया गया था ।

पुराना संग्रहालय

प्रारम्भ में यह संग्रहालय स्थानीय तहसील के पास एक छोटे भवन में रखा गया था । कुछ परिवर्तनों के बाद सन् 1881 में उसे जनता के लिए खोल दिया गया । सन् 1900 में संग्रहालय का प्रबन्ध नगरपालिका के हाथ में दिया गया । इसके पांच वर्ष बाद तत्कालीन पुरातत्त्व अधिकारी डा. जे. पी. एच. फोगल के द्वारा इस संग्रहालय की मूतियों का वर्गीकरण किया गया और सन् 1910 में एक विस्तृत सूची प्रकाशित की गई । इस कार्य से संग्रहालय का महत्त्व शासन की दृष्टि में बढ़ गया और सन् 1912 में इसका सारा प्रबन्ध राज्य सरकार ने अपने हाथ में ले लिया । सन् 1908 से रायबहादुर पं. राधाकृष्ण यहां के प्रथम सहायक संग्रहाध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए, बाद में वे अवैतनिक संग्रहाध्यक्ष हो गये। अब संग्रहालय की उन्नति होने लगी, जिसमें तत्कालीन पुरातत्त्व निदेशक सर जॉन मार्शल और रायबहादुर दयाराम साहनी का बहुत बड़ा हाथ था सन् 1929 में प्रदेशीय शासन ने एक लाख छत्तीस हजार रूपया लगाकर स्थानीय डैम्पियर पार्क में संग्रहालय का सम्मुख भाग बनवाया और सन् 1930 में यह जनता के लिए खोला गया । इसके बाद ब्रिटिश शासन काल में यहां कोई नवीन परिर्वतन नहीं हुआ ।

भारत का शासन सूत्र सन् 1947 में जब अपने हाथ में आया तब से अधिकारियों का ध्यान इस सांस्कृतिक तीर्थ की उन्नति की ओर भी गया । द्वितीय पंचवर्षीय योजना में इसकी उन्नति के लिए अलग धनराशि की व्यवस्था की गयी और कार्य भी प्रारम्भ हुआ । सन् 1958 से कार्य की गति तीव्र हुई । पुराने भवन की छत का नवीनीकरण हुआ और साथ ही साथ सन् 1930 का अधूरा बना हुआ भवन पूरा किया गया । वर्तमान स्थिति में अष्टकोण आकार का एक सुन्दर भवन उद्यान के बीच स्थित है । इनमें 34 फीट चौड़ी सुदीर्घ दरीची बनाई गई है और प्रत्येक कोण पर एक छोटा षट्कोण कक्ष भी बना है । शीघ्र ही मथुरा कला का यह विशाल संग्रह पूरे वैभव के साथ सुयोग्य वैज्ञानिक उपकरणों की सहायता से यहां प्रदर्शित होगा । शासन इससे आगे बढ़ने की इच्छा रखता है और परिस्थिति के अनुरूप इस संग्रहालय में व्याख्यान कक्ष, ग्रंथालय, दर्शकों का विश्राम स्थान आदि की स्वतंत्र व्यवस्था की जा रही है । इसके अतिरिक्त कला प्रेमियों की सुविधा के लिए मथुरा कला की प्रतिकृतियां और छायाचित्रों को लागत मूल्य पर देने की वर्तमान व्यवस्था में भी अधिक सुविधाएं देने की योजना है ।

प्रारम्भ से कुषाण काल

यह आश्चर्य का विषय है कि मथुरा से मौर्यकाल की उत्कृष्ट पाषाणकला का कोई भी उदाहरण अब तक प्राप्त नहीं हुआ है । मौर्यकाल का एक लेखांकित स्तंभ अर्जुनपुरा टीले से मिला भी था पर अब इसका पता नहीं है ।

चीनी यात्री हुएनसांग के लेखानुसार यहां पर अशोक के बनवाये हुये कुछ स्तूप 7वीं शताब्दी में विद्यमान थे । परन्तु आज हमें इनके विषय में कुछ भी ज्ञान नहीं है । लोक-कला की दृष्टि से देखा जाय तो मथुरा और उसके आसपास के भाग में इसके मौर्यकालीन नमूने विद्यमान हैं । लोक-कला की ये मूर्तियां यक्षों की हैं । यक्षपूजा तत्कालीन लोकधर्म का एक अभिन्न अंग थी । संस्कृत, पाली और प्राकृत साहित्य यक्षपूजा के उल्लेखों से भरा पड़ा है । पुराणों के अनुसार यक्षों का कार्य पापियों को विघ्न करना, उन्हें दुर्गति देना और साथ ही साथ अपने क्षेत्र का संरक्षण करना था [१] । मथुरा से इस प्रकार के यक्ष और यक्षणियों की छह प्रतिमाएं मिल चुकी हैं, [२] जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण परखम नामक गांव से मिली हुई अभिलिखित यक्ष-मूर्ति है । धोती और दुपट्टा पहने हुये स्थूलकाय माणिभद्र यक्ष खड़े हैं । इस यक्ष का पूजन उस समय बड़ा ही लोकप्रिय था । इसकी एक बड़ी प्रतिमा मध्यप्रदेश के पवाया गांव से भी मिली है, जो इस समय ग्वालियर के संग्रहालय में है । मथुरा की यक्षप्रतिमा भारतीय कला जगत् में परखम यक्ष के नाम से प्रसिद्ध है । शारीरिक बल और सामर्थ्य की अभिव्यंजक प्राचीनकाल की ये यक्षप्रतिमाएं केवल लोक कला के उदाहरण की नहीं अपितु उत्तर-काल में निर्मित बोधिसत्त्व, विष्णु, कुबेर, नाग आदि देवप्रतिमाओं के निर्माण की प्रेरिकाएं भी हैं ।

टीका-टिप्पणी

  1. वामनपुराण, 34.44; 35.38।
  2. वासुदेवशरण अग्रवाल, Pre-Kushana Art of Mathura, TUPHS.,भाग 6,खण्ड़ 2,पृष्ठ 89 ।
    (अ) परखम से प्राप्त यक्ष-स.स.00सी. 1
    (आ) बरोद् से प्राप्त यक्ष -स .स.00सी.23
    (इ) मनसादेवी यक्षिणी
    (ई) नोह यक्ष -भरतपुर के पास
    (उ) पलवल यक्ष-लखनऊ संग्रहालय संख्या ओ. 107
    (ऊ) श्री रत्नचन्द्र अग्रवाल द्वारा नोह से प्राप्त नवीन छोटा सा यक्ष