मूर्ति कला 5

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मूर्ति कला 5 / संग्रहालय / Sculptures / Museum

बुद्ध जीवन के दृश्य

जातकों के ही समान मथुरा की कलाकृतियों में बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित अनेक घटनाएं अंकित की गई हैं। उनमें से अधोलिखित विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

  • 1. जन्म (सं. सं. 00.एच 1; 00.एन 2 इत्यादि)

इन दृश्यों में एक छायादार घने वृक्ष के नीचे एक स्त्री खड़ी दिखलाई पड़ती हैं जो अपने उठे हुये दाहिने हाथ से वृक्ष की शाखा थामे रहती है और बाएं हाथ से बगल ही में खड़ी हुई दूसरी स्त्री का सहारा-सी लेती रहती हे। उसकी दाहिनी ओर एक मुकुटधारी देवता नवजात शिशु को लेने के लिए दोनों हाथ फैलाये रहता है। इस दृश्य की मूलकथा निम्नांकित है:

गौतम बुद्ध जिन्हें पहले कुमार सिद्धार्थ कहते थे, कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन के बेटे थे। इनके जन्म से ही लोगों की सारी इच्छाएं सिद्ध हो गई थीं इसलिए इन्हें सिद्धार्थ कहा जाता था।<balloon title="ललितविस्तर, 7, पृ0 69 जातमात्रेण सर्वार्था: संसिद्धा:।" style="color:blue">*</balloon> इनकी मां का नाम मायादेवी था जो कुमार के जन्म के समय लुम्बनी (रूम्मनदेई-नेपाल) के उद्यान में एक शालवृक्ष के नीचे खड़ी थीं। उन्होंने अपने दाहिने हाथ से वृक्ष की टहनी को पकड़ लिया था। दैवी प्रभाव के कारण बोधिसत्व ने साधारण मनुष्यों की तरह से जन्म नहीं लिया अपितु अपनी माता के दाहिने पार्श्व से वे प्रगट हुए। सर्वप्रथम उन्हें शक और ब्रह्मा ने अपने हाथों में लिया। ये दोनों देवता मायादेवी के पास ही खड़े थे। माया के पास दिखलाई पड़ने वाली दूसरी स्त्री सम्भवत: उनकी बहिन महाप्रजापति गौतमी है।

शिशु बुद्ध का प्रथम स्नान
First Bath Of Baby Buddha
  • 2. प्रथम स्नान (सं.सं. 00एच 2)

इस शिलाखण्ड पर जो दृशृय बना है उसमें ऊँचे आसन पर एक नग्न मानव खड़ा है और उसके अगल-बगल दो मनुष्याकृति सर्प हाथ जोड़े हुए दिखलाई पड़ते हैं। बिलकुल ऊपर की ओर शंख, बांसुरी, मृदंग, और ढोल ये पांच वाद्य बने हुए हैं जो पंचतूर्य के नाम से पहिचाने जाते थे। स्पष्टत: ये वाद्य स्वर्गीय संगीत का प्रतिनिधित्व करते हैं। कथा का रूप इस प्रकार है: बोधिसत्व के जन्म लेते ही वहाँ पर एक कमल उत्पन्न हुआ जिस पर वे खड़े हो गये। तत्पश्चात नंद और उपनन्द नामक दो नाग राजाओं ने आकाश में ठंडे और गर्भ पानी की दो धाराएं उत्पन्न की जिनसे बोधिसत्व की प्रथम स्नान कराया गया।<balloon title="जे. फोगल, The Mathura School of Sculpture, ASIR., 1906-7 पृ0 152।" style="color:blue">*</balloon>

  • 3. जम्बू वृक्ष के नीचे कुमार सिद्धार्थ

इस दृश्य को अंकित करने वाला शिलाखण्ड इस समय दिल्ली के संग्रहालय में है।<balloon title="A Guide to the Galleries of the National Museum of India, New Delhi, 1956 पृ0 3।" style="color:blue">*</balloon> कथा निम्नांकित हैं:

कुमार सिद्धार्थ अपने साथियों के साथ कृषिग्राम गये। वहाँ पर उन्होंने एक सुन्दर जम्बू वृक्ष देखा जिसकी शीतल छाया बड़ी सुहावनी थी। उसी समय उन्होंने एक मुट्ठी-भर घास लेकर वृक्ष के नीचे आसन बनाया और स्वयं ध्यान में लीन हो गये।<balloon title="मिलाइये ललितविस्तर, 11.19, पृ0 93।" style="color:blue">*</balloon>

  • 4. गृह परित्याग

मथुरा कला में इस दृश्य का अंकन कम स्थानों पर हुआ है। एक तो मथुरा के संग्रहालय में है (सं. सं. 00.एच3) जो अब बहुत ज़्यादा घिस चुका है। दूसरा लखनऊ संग्रहालय में है (लखनऊ सं. सं. बी 84) परन्तु इसका सबसे अच्छा उदाहरण वह है जिसे डा. फोगल ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ में प्रकाशित किया है।<balloon title="फीगल, फलक 51 ए।" style="color:blue">*</balloon> संसार के दु:खों का कारणपता लगाने की तीव्र इच्छा से कुमार सिद्धार्थ ने एक रात्रि को अपना प्रासाद, सुंदरी पत्नी, नवजात शिशु और सभी प्रकार के भोगविलासों का परित्याग कर दिया। कंठक नाम के घोड़े पर बैठकर सेवक छंदक के साथ वे चुपचाप शहर से चले गये। लगभग छह योजन चलने के बाद वे घोड़े से उतर पड़े। अपना राजकीय वेष और सारे आभूषण उन्होंने छंदक को दिये और घोड़े के साथ उसे लौटने की आज्ञा दी। कुमार को इस प्रकार प्रव्रजित होते हुये देखकर केवल छंदक का ही नहीं बल्कि उस घोड़े का भी दिल भर आया परन्तु आज्ञा पालन करने के लिए उन्हें लौट जाना पड़ा।

  • 5. बुद्ध का मुट्ठी भर घास लेकर बोधिवृक्ष के पास पहुँचना (सं. सं. 18.1389)

दरवाजे की धन्नी पर बने हुए एक दृश्य में बुद्ध की आवक्ष मूर्ति दिखलाई पड़ती है जो उठे हुये बाएं हाथ से वृक्ष की शाखा को पकड़े है। उसके वक्षस्थल के पास तक उठे हुये दाहिने हाथ में किसी चीज की एक गड्डी-सी है। दृश्य की पार्श्व भूमि इस प्रकार है:

सुजाता की दी हुई खीर का सेवन करने के बाद जब कुमार सिद्धार्थ ने ध्यानस्थ होने का विचार किया तब वे आसन के लिए घास खोजने लगे। इतने में रास्ते के दाहिनी ओर उन्हें स्वस्तिक नाम का घसियारा दिखलाई पड़ा। उससे उन्होंने मुट्ठी-भर घास मांगी और वे बोधिवृक्ष की ओर चल पड़े।<balloon title="ललितविस्तर, 19, पृ0 207-8।" style="color:blue">*</balloon>

  • 6. मार का आक्रमण (सं.सं. 00.एच 1;00.एन 2 इत्यादि)

बुद्ध के जीवन की प्रमुखतम घटना होने के कारण मथुरा कला में इसका अंकन अनेक स्थानों पर मिलता है। भूमिस्पर्श मुद्रा में बोधिवृक्ष के नीचे सिद्धार्थ बैठे हुये हैं। उनके पैरों के पास या आसन के नीचे मार या कामदेव बाण मारते हुए अथवा गर्दन झुकाये हुए दिखलाई पड़ता है। उसका चिह्न मीनध्वज भी बहुधा दिखलाई पड़ता है। कथा इस प्रकार है:

कुमार सिद्वार्थ को सच्चे ज्ञान को पाने का प्रयास करते हुए देख कर मार ने उनके मार्ग में बाधाएं खड़ी करने का निश्चय किया। प्रथम तो उसने अनेक प्रकार के शस्त्रों को धारण करने वाले भयानक मुखों वाले सैनिकों की सेनाएं भेजीं पर सिद्धार्थ निश्चल रहे। मार के प्रयत्न को देखकर दाहिने हाथ से भूमि को छूते हुए अथवा उसकी शपथ लेते हुये मार के प्रति उन्होंने यह प्रतिज्ञा वाक्य कहे, 'रे मार! इस पक्षपात विहीन, चर-अचर को समान रूप से सुख देने वाली पृथ्वी को साक्षी बना कर मैं शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपने निश्चय और प्रतिज्ञा से कदापि नहीं डिगूँगा। [१] अपने प्रथम प्रयास में इस प्रकार पराभव पाकर मार ने अपनी कन्याओं को अर्थात स्वर्ग की अप्सराओं को बुलवाया और बोधिसत्व के मन को चंचल करने के लिए उन्हें भेजा। काम की इन सहेलियों ने बत्तीस प्रकार की स्त्री-मायाओं [२] का प्रदर्शन किया और भाँति-भाँति से बोधिसत्व का चित्त चंचल करने का प्रयास किया परन्तु वे भी पूरी तरह असफल रहीं इस प्रकार अपने सभी प्रयत्नों में असफलता गले बांधकर मार को अपनी पराजय का घोर दु:ख हुआ वह मुंह लटका कर एक ओर बैठ गया।

  • 7. दो श्रेष्ठियों द्वारा भोजनदान

यह कलाकृति राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली में है।<balloon title="A Guide to the Galleries of the National Museum of India, 1956, पृ0 3।" style="color:blue">*</balloon> बुद्ध के संबोधि प्राप्त करने के सात सप्ताह बाद त्रपुष और भल्लिक नाम के दो व्यापारी अपने अनुयायियों के साथ उस प्रदेश में आये। काशायवस्त्र पहले हुये संबुद्ध कुमार सिद्धार्थ को, जो महापुरुष के बत्तीस लक्षणों से सुशोभित थे, देखकर दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और बुद्ध को प्रथम भोजन देने का सम्मान प्राप्त किया।<balloon title="ललितविस्तर, 24, पृ0 276-77।" style="color:blue">*</balloon>

  • 8. लोकपालों द्वारा भिक्षापात्रों का दान (सं.सं. 00.एच 12)

इस शिलाखण्ड पर एक ऊंचे आसन पर बुद्ध बैठे हुये हैं, उनके चारों ओर मुकुटधारी चार भद्र पुरुष हैं जिनके हाथों में एक-एक पात्र है। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार ये लोकपाल हैं। अभिसंबुद्धकुमार सिद्धार्थ का प्रथम भोजन करने का समय निकट आया हुआ जानकर वैश्रवण, धृतराष्ट्र, विरूधक और विरूपाक्ष नाम के चार लोकपाल वहां पर आये। प्रथम तो वे सोने के पात्र लाये थे जिनको बुद्ध ने स्वीकार नहीं किया। इसके बाद क्रमश: वे वैडूर्य, स्फटिक और मसारगल्ल नामक रत्नों के पात्र लाये पर वे सभी अस्वीकृत होते गये। अन्त में वे शिलामय पात्रों को ले आये जो भिक्षु के लिए उपयुक्त थे। बुद्ध ने अपने प्रभाव से इन चार शिलापात्रों को एक पात्र में परिणत कर दिया जिसका उपयोग उन्होंने त्रपुष और भल्लिक के द्वारा दिए गए भोजन के लिए किया।<balloon title="ललितविस्तर 24, पृ0 276-77।" style="color:blue">*</balloon>

  • 9. महाब्रह्मा और इन्द्र का आगमन (सं. सं. 36.2663)

बहुत बार बोधिवृक्ष के नीचे बुद्ध का कोई प्रतीक चिह्न जैसे उनका प्रभामण्डल अथवा स्वयं बुद्ध बने रहते हैं और अगल-बगल में मुकुटधारी इन्द्र और जटाधारी ब्रह्मा नमस्कार मुद्रा में दिखलाई पड़ते हैं। ललितविस्तार हमें बतलाता है कि सम्बोधि प्राप्त करने के बाद महाब्रह्मा और शक्र (इन्द्र) कई बार बुद्ध के पास यह प्रार्थना करने के लिए आये कि वे अपने नवीन ज्ञान का उपदेश लोगों को करें। बड़ी कठिनाइयों के बाद बुद्ध के द्वारा यह प्रार्थना स्वीकार की गई। [३]

  • 10. धर्म-चक्र-प्रवर्तन (सं.सं. 00.एच 159.4740)

बुद्ध द्वारा धर्मचक्र का प्रवर्तन दिखलाने वाले दृश्य अन्य स्थानों के समान मथुरा में भी विपुल हैं। इसमें या तो आसनस्थ बुद्ध व्यवख्यान-मुद्रा में दिखलाये जाते हैं, या सही अर्थ में धर्मचक्र को चलाते हुए दिखलाई पड़ते हैं। बहुधा वे शिष्यों से घिरे हुए रहते हैं। बौद्ध कथायें हमें बतलाती हैं कि शक्र और महाब्रह्मा की प्रार्थना को स्वीकार कर बुद्ध वज्रासन से उतर पड़े और वाराणसी की ओर चले। वहां पर सारनाथ में, जिसे उस समय इसिपतन कहते थे, उन्हें उने पुराने पांच साथी मिले जो आगे चल कर पंच भद्रवर्गीय भिक्षु कहलाये। इन भिक्षुओं को उन्होंने सर्वप्रथम 'बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' अपना अमूल्य उपदेश दिया और इस प्रकार अपने धर्मचक्र को गति दी। रूपकात्मक भाषा का प्रयोग करते हुए ललितविस्तर बतलाता है कि इस प्रकार बारह तिल्लियों वाले, तीन रत्नों से सुशोभित धर्मचक्र को कौडिन्य, पंच भद्रवर्गीय, छह करोड़ देवता तथा अन्यान्य लोगों के सम्मुख भगवान बुद्ध द्वारा चलाया गया। [४]

  • 11. श्रावस्ती के चमत्कार (सं.सं. 13.290)

इस प्रतिमा में बुद्ध खड़े हैं और उनके कन्धों से ज्वालाएं निकल रही हैं। इस कलाकृति में बुद्ध के प्रातिहार्य का चित्रण है जो उन्होंने श्रावस्ती (आज का सहेत-महेत) में किया था। बौद्ध कथाओं के अनुसार[५] अन्य मतों के आचार्यों द्वारा चुनौती दी जाने पर भगवान बुद्ध ने भी अपना प्रभाव दिखलाने के लिए श्रावस्ती में प्रातिहार्य करने का निश्चय किया। पूर्वनिश्चित समय पर सारे जनसमूह के सम्मुख उन्होंने चार प्रातिहार्य या चमत्कार दिखलाये। ये चार प्रातिहार्य ज्वलन, तपन, वर्षण और विद्योतन के नाम से पहिचाने जाते हैं। आकाश में स्थित बुद्ध के शरीर से जनता ने ज्वालाएं, गर्मी, जल और प्रकाश को निकलते देखा। प्रस्तुत प्रतिमा में ज्वलन प्रातिहार्य दिखलाया गया है।

  • 12. बुद्ध दर्शन के लिए इन्द्र का आगमन अथवा इन्द्रशिला गुफ़ा का दृश्य (सं.सं. 00.एच 11;00.एन 3)

मथुरा कला में इस दृश्य का चित्रण विपुलता से पाया जाता है। अन्यत्र यथा बुद्धगया, सांची, अमरावती एवं स्वातनदी की घाटी में भी<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 23, पृ0 125-26।" style="color:blue">*</balloon> इसका अंकन मिलता है। मथुरा की कलाकृतियों में बहुधा किया गया गुफ़ा का अंकन दिव्यावदान के वर्णन से बहुत कुछ मिलता-जुलता है।<balloon title="मिलाइये- दिव्यावदान 38, मैत्रकन्यकावदान, श्लोक 72-73, पृ0 502।" style="color:blue">*</balloon> पर्वत की गुफ़ा उसमें बैठे हुए बुद्ध, वन का प्रातिनिध्य करने वाले सिंह और मयूर, वीणा पर गायन करने वाला गन्धर्व तथा ऐरावत के साथ इन्द्र का लेखन बड़े ही सुन्दर प्रकार से हुआ है। कथा निम्नांकित है:

एक समय बुद्ध राजगृह के पास एक गुफ़ा में बैठे हुए थे। वहाँ उनका पूजन करने के लिए देवराज इन्द्र आया। उसके साथ ऐरावत हाथी तथा अन्त:पुर की अन्य रमणियाँ भी थीं। बुद्ध समाधि में थे। उस समय वहां गन्धर्वराज पंचशिख ने मधुर गायन किया तथा देवराज ने तथागत का पूजन किया।

  • 13. नालागिरि हाथी का दमन

इस दृश्य का अंकन यहाँ कम मिलता है। लखनऊ के राज्य-संग्रहालय<balloon title="लखनऊ संग्रहालय संख्या बी 356" style="color:blue">*</balloon> में केवल एक ऐसी प्रतिमा है जिसमें बुद्ध खड़े हैं और उनके पैरों के पास नालागिरि हाथी पैर झुकाये बैठा है। इस हाथी को मदान्ध बनाकर देवदत्त द्वारा बुद्ध पर छोड़ा गया था, पर तथागत के प्रभाव से वह नम्र हो गया।

  • 14. बुद्ध का स्वर्ग से अवतरण (सं.सं. 00.एन 2; 39.2038)

इस दृश्य को पहिचानने का मुख्य लक्षण तीन सीढ़ियों का बनाया जाना है, जिनमें से निचली सीढ़ी के नीचे नमस्कार मुद्रा में झुकी हुई एक स्त्री भी दिखलाई पड़ती है। कुछ नमूनों में इन सीढ़ियों पर तीन प्रतिमाएं भी बनी रहती हैं। बुद्ध के स्वर्गावतरण को कथा इस प्रकार है:

संबोधि की प्राप्ति के बाद बुद्ध अपनी माता को उपदेश देने के लिए स्वर्ग में गए। वहाँ पर तीन महीने रहकर उन्होंने अनेक उपदेश दिये। तदुपरान्त वे संकाश्य (वर्तमान संकिस्सा) नामक स्थान पर पृथ्वीतल पर उतर आये। इस समय स्वर्ग से तीन सीढ़ियाँ लगाई गईं। एक सोने की, दूसरी रत्नों की तथा तीसरी चाँदी की थीं बीचवाली सीढ़ी से बुद्ध उतरे तथा अगल-बगल वाली सीढ़ियों से शक्र और ब्रह्मा उनके साथ आये। उत्पलवर्णा नाम की भिक्षुणी ने सर्वप्रथम उन्हें देखा और उनका स्वागत किया। मूर्तियों में सीढ़ी के पास झुकी हुई स्त्री यही उत्पलवर्णा हैं।

  • 15. बालकों द्वारा बुद्ध धूलि-दान (सं. सं. 00.एच 10)

इस संग्रहालय में अब तक संगृहीत मूर्तियों में केवल एक ही स्थान पर यह दृश्य अंकित है। गांधार कला में भी इसके नमूने देखे जा सकते हैं।<balloon title="एन.जी. मजुमदार, A Guide to the Sculpture in the Indian Museum, 1937, खण्ड 2, पृ0 58।" style="color:blue">*</balloon> प्रस्तुत शिलाखण्ड पर भिक्षापात्र फैलाकर खड़े हुए बुद्ध के सामने नमस्कार मुद्रा में झुकी हुई दो नन्हीं-सी मानव आकृतियाँ बनीं हैं। बौद्ध कथाएं हमें इस दृश्य को समझने में बड़ी सहायता करती हैं। एक बार बुद्ध राजगृह में भिक्षाटन कर रहे थे। रास्ते में उन्हें दो बालक जिनका नाम जय और विजय था धूल से खेलते हुए मिले। इनमें से एक बालक ने मुट्ठी-भर धूल बुद्ध के भिक्षापात्र में यह कहकर डाल दी कि यह जौ का आटा है, दूसरा इस घटना को देखता रहा। बुद्ध ने इस पांशु अंजलि को बड़े प्रेम से स्वीकार किया और भविष्यवाणी की कि धूलिदान करने वाला बालक भविष्य में सम्राट अशोक होगा।<balloon title="दिव्यावदान 26— पांशुप्रदानावदान, पृ0 230।" style="color:blue">*</balloon>

  • 16. नंद और सुन्दरी की कथा (सं. सं. 12.186, लखनऊ संग्रहालय संख्या जे 533)

अश्वघोष के प्रमुख काव्य सौंदरानन्द की यह मुख्य कथावस्तु है। इसका अंकन मथुरा में नहीं अपितु गांधार कला में भी हुआ है। मथुरा कला में इसका उपयोग द्वार स्तम्भों को सजाने के लिए किया गया है, जिसका सबसे सुन्दर उदाहरण इस समय लखनऊ के राज्य संग्रहालय में है। अश्वघोष द्वारा वर्णित कथा हम नीचे दे रहे हैं।<balloon title="एन.जी. मजुमदार, A Guide to the Sculpture in the Indian Museum, 1937, खण्ड 2, पृ0 52।" style="color:blue">*</balloon> धम्मपद की टीका में दी हुई कथा में थोड़ा अन्तर है। शाक्य वंश के एक कुमार का नाम नंद था। सुन्दरी उसकी पत्नी थी। एक समय अपने महल के ऊपर वाले मंजिल पर जब दोनों पाति-पत्नि विहार कर रहे थे, उस समय बुद्ध ने नंद के प्रासाद में भिक्षार्थ प्रवेश किया। सेवकों ने उनकी ओर कोई ध्यान न दिया और न उनके आगमन की कोई सूचना दी। फलत: किंचित रूककर बुद्ध बाहर चले गये। उनका इस प्रकार असम्मानित होकर जाना महल की छत पर खड़ी एक सेविका देख रही थी। उसने नंद को यह समाचार दिया। तत्काल नन्द अपनी प्रियतमा की आज्ञा लेकर सौध पर से उतर आया और बुद्ध के पीछे चला। मार्ग में ही उसने बुद्ध को प्रणाम किया और अपराध के लिए क्षमा-याचना की। बुद्धि नन्द को अपने मठ में ले गये और बहुत कुछ उसकी इच्छा के विरुद्ध ही उन्होंनें उसे प्रव्रजित भी किया।

वे बार बार उसे भौतिक सुखों का परित्याग करने का उपदेश देते थे। पर नन्द पर इन उपदेशों का कोई प्रभाव न पड़ा, वह सदैव खिन्न ही रहा करता था। तब एक दिन बुद्ध उसे अपने साथ स्वर्ग ले गए और वहाँ की अनिंद्य सुन्दरियों का उसे दर्शन कराया। अब उनके सामने नन्द को सुन्दरी का सौन्दर्य फीका मालूम पड़ने लगा और उन्हें पाने की इच्छा जग उठी। बुद्ध ने उन्हें बतलाया कि उन्हें पाने के लिए घोर तप करना होगा। नन्द ने तपस्या प्रारम्भ की। शनै:-शनै: बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनन्द ने वैरागय की भावना जगाई। अन्ततोगत्वा सभी प्रकार के ऐहिक और पारलौकिक सुखों का परित्याग कर नन्द सच्चा विरक्त भिक्षु बन गया।

  • 17. तपस्वी ब्राह्मण बावरी की कहानी (सं.सं. 00ज.2, ऊपरी भाग)

एक वेदिका स्तम्भ के ऊपरी फुल्ले में यह दृश्य अंकित है। यहाँ एक छत्रधारी व्यक्ति श्रोताओं के बीच कोई भाषण दे रहा है। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के मतानुसार यह निम्नांकित कथा का चित्रण है:<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 5।" style="color:blue">*</balloon>

गोदावरी के तट पर अपने सोलह शिष्यों के साथ बावरी नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण रहता थां उसके पास एक दिन एक ब्राह्मण आया और 500 मुद्रओं की याचना करने लगा। उक्त धनराशि को न पाकर उसने बावरी को शाप दिया कि आज से सातवें दिन तुम्हारे मस्तक के सात टुकड़े हो जायेगे। बावरी को इस पर घोर दु:ख हुआ पर किसी दयालु देवता ने उसे बुद्ध के पास जाने का सुझाव दिया। अपने सभी शिष्यों को लेकर यह बुद्ध के पास पहुँचा जहाँ प्रत्येक ने बुद्ध से एक-एक प्रश्न पूछा। सबको समाधानकारक उत्तर देकर बुद्ध ने सन्तुष्ट किया।

  • 18. बुद्ध का महापरिनिर्वाण(सं.सं. 00.एच7, एच8, 00.एच2,इत्यादि)

बुद्ध जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना होने का कारण इसका अंकन कई स्थानों पर मिलता है। जब बुद्ध की मृत्यु हुई उस समय उनकी आयु 80 वर्ष की थीं वे उन दिनों कुशीनगर (कसिया, ज़िला देवरिया, उत्तर प्रदेश) को जा रहे थे। अपना अंत निकट जानकर उन्होंने आनन्द से दो शाल वृक्षों के बीच चौकी लगाने के लिए कहा, और सिरहाना उत्तर की ओर करके दाहिनी करवट पर लेट गये। इसी समय एक घुमक्कड़ साधु, जिसका नाम सुभद्र था, वहाँ आया। यही बुद्ध का अन्तिम शिष्य हुआ।

अंत में अपने सभी शिष्यों को निर्वाण के लिए अनन्त प्रयत्न करते रहने का आशीर्वाद देकर भगवान बुद्ध ने अपना पार्थिव देह त्याग दिया। उस समय वहाँ उनके अपने शिष्य, अन्तिम भिक्षु सुभद्र, कुशीनगर के मल्ल शासक आदि के अतिरिक्त कई देवतागण भी उपस्थित थे। कलाकृतियों में राजा के समान दिखलाई पड़ने वाला पुरुष बहुधा मल्लों का अधिपति है। नीचे की ओर ध्यानस्थ सुभद्र है तथा अन्य भिक्षु शोकमुद्रा में खड़े हैं। वृक्ष के ऊपर वृक्ष देवता भी दिखलाई पड़ता है।

अन्य बौद्ध दृश्य

  • (क)रामग्राम में नागों द्वारा स्तूप का संरक्षण (सं. सं.00जे 71 पृष्ठ भाग)

बहुधा कलाकृतियों में ऐसे भी स्तूप दिखलाई पड़ते है जो नागों द्वारा घिरे हुये रहते हैं। इस प्रकार का स्तूप रामग्राम के प्रसिद्ध स्तूप का चित्रण माना जाता है जिसमें बुद्ध के पवित्र अवशेष रखे हुए थें बात यह थी कि बुद्ध के महानिर्वाण के उपरान्त उनकी धातुओं या पांचभौतिक अवशेषों को आठ भागों में विभक्त कर आठ स्तूप बनाये गये थे। उसमें एक रामग्राम का स्तूप भी था। अशोक ने आगे चलकर इनमें से सात स्तूपों को खोला और उनमें निहित पवित्र अवशेषों को लेकर चौरासी हज़ार स्तूपों का निर्माण कराया। परन्तु वह आठवां अर्थात रामग्राम का स्तूप नहीं खोल सका क्योंकि उसका संरक्षण नागगण बड़ी सावधानी से करते थे।

  • (ख)लंका के राजा द्वारा सुमन की सहायता से बुद्ध-धातु की प्राप्ति (सं.सं. 17.1270)<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS., खण्ड 24-25, पृ0 151-52।" style="color:blue">*</balloon>

एक पाषाण खण्ड पर चलता हुआ अलंकृत हाथी बना है तथा 'शस्तख धतु' ये शब्द लिखे हैं। कथा इस प्रकार है: लंका में बुद्ध के धातु-अवशेष न होने के कारण महेन्द्र लंका का परित्याग करना चाहते थे। वहाँ के राजा ने उन्हें ऐसा न करने की प्रार्थना की तथा सुमन को भेजकर भारत से उसने बुद्ध के धातु-अवशेष प्राप्त करने का निश्चय किया। सुमन भारत आये, फिर वे स्वर्ग गये जहाँ से इन्द्र द्वारा उन्हें बुद्ध के गले की दाहिनी हड्डी (दक्खिनक्खक) मिली। लंका में राजकीय हाथी के मस्तक पर उसे पक्षराकर उसका विशेष सम्मान किया गया।

पूजन दृश्य

कथा दृश्यों के अतिरिक्त कई दृश्यों में भक्तगण स्तूप, धर्मचक्र, गंधकुटी या बुद्ध का निवास स्थान, बोधिवृक्ष का मन्दिर या इस प्रकार की पूजनीय वस्तुओं का पूजन करते हुए, अथवा हाथों में पूजन सामग्री लेकर चलते हुए दिखलाई पड़ते हैं। कुछ दृश्यों में स्तूपों का पूजन करने वाले किन्नर और सुपर्ण भी देखे जा सकते है। इन्हें आकाश में उड़ता हुआ दिखलाया गया है।

ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित कथाएं

मथुरा की कलाकृतियों में इस प्रकार की कथाओं की संख्या बहुत ही थोड़ी हैं निम्नांकित कथा-दृश्य विशेष महत्त्वपूर्ण है:--

  • 1. वसुदेव का कृष्ण को गोकुल ले जाना (सं. सं. 17.1344)

एक शिलाखण्ड पर कृष्ण-चरित्र से सम्बन्धित इस कथा का अंकन किया गया है। उन दिनों मथुरा में कंस का शासन चल रहा था उसके पिता उग्रसेन के एक मन्त्री का नाम वसुदेव था। वसुदेव के कार्यों से प्रसन्न होकर कंस ने अपनी बहन देवकी उनके साथ ब्याह दी पर बारात के समय ही भविष्यवाणी हुई कि वसुदेव और देवकी के आठवें पुत्र के हाथ से कंस का निधन होगा। यह सुनते ही कंस ने दोनों को कारागृह में डलवा दिया और वहाँ पर उत्पन्न इनके छह पुत्रों को भी मार डाला। सातवां पुत्र उत्पन्न ही नहीं हुआ अथवा उसकी उत्पत्ति गुप्त रखी गई। आठवें कृष्ण थे। इन्हें कंस के कठोर पंजों से बचाने के लिये वसुदेव ने जन्म के बाद तत्काल ही अपने मित्र नन्द के यहाँ गोकुल पहुँचा दिया। ऐसा करने के लिये उन्हें यमुना को लांघना पड़ा। पानी वरस रहा था, रात का समय था परन्तु कथा हमें बतलाती है कि मार्ग में शेषनाग अपने फणों से इनका संरक्षण करते रहे। प्रस्तुत शिलाखण्ड में यमुना नदी, दोनों हाथ उठाए हुए वसुदेव और शेषनाग स्पष्ट पहिचाने जा सकते हैं।

  • 2. श्रीकृष्ण का केशी के साथ युद्ध (सं.सं. 58.4476)

कृष्ण-लीला से सम्बन्धित कुषाण काल की यह दूसरी कलाकृति है। ऐसा लगता है कि यह भार-संतुलन का कोई एक साधन था जिसके बाहरी भाग पर कृष्ण लीला के दृश्य बने थे। प्रस्तुत शिलाखण्ड पर एक उछलता हुआ पुष्ट घोड़ा बना है जिसकी गर्दन पर किसी पुरुष की लात पड़ रही है। मल्ल विद्या से श्रीकृष्ण का सम्बन्ध होने के कारण हो सकता है कि यह केशी-वध की घटना का अंकन हो। कथा के अनुसार गोकुल में रहने वाले बालक श्रीकृष्ण को मारने के लिए कंस ने अपने अनेक अनुयायी भेजे जिन्होंने विविध रूप लेकर कृष्ण को नष्ट करने का असफल प्रयत्न किया। केशी भी उनमें से एक था जिसने घोड़े का रूप बनाकर कृष्ण पर आक्रमण किया पर अन्त में वह कृष्ण द्वारा मारा गया।<balloon title="विष्णुपुराण, पंचम अंश, सोलहवाँ अध्याय।" style="color:blue">*</balloon>

  • 3. कालिय नाग का दमन (सं.सं. 47.3374)

गुप्तोत्तर काल में कालिय दमन की घटना को अंकित करना कलाकारों का प्रिय विषय रहा है। प्रस्तुत मूर्ति भी उसी प्रवृत्ति का एक नमूना है। वैष्णव कथाएं हमें बताती हैं कि उन दिनों यमुना में कालिय नाम का एक भंयकर विषधर सांप रहता था जिसने सम्पूर्ण वातावरण को विषमय बना रखा था। यमुना के जल में गिरे हुए गेंद को निकालने के बहाने से श्रीकृष्ण जल में कूद पड़े और कालिय को पकड़कर उसके फण पर नाचने लगे। कृष्ण ने कालिय पर पूर्ण रूप से विजय पा ली किन्तु नाग की रानियों द्वारा विनय किये जाने पर उन्होंने नाग के जीवन को बचा दिया। कालिय को श्रीकृष्ण ने उस स्थान को छोड़कर चले जाने की आज्ञा दी।[६]

  • 4. श्रीकृष्ण का गोवर्द्धन पर्वत उठाना (सं. सं. डी. 47)

यह कलाकृति गुप्तोत्तर काल की है जो श्रीकृष्ण के गोवर्द्धन पर्वत धारण करने के दृश्य को अंकित करती है। यह लाल चित्तेदार पत्थर पर बनी है जिसकी गणना मथुरा कला की सुन्दरतम कलाकृतियों में की जा सकती है।[७] मूल कथा का स्वरूप निम्नांकित है:

कृष्ण के कहने पर वृज के लोगों ने वर्षा के देवता इन्द्र की पूजा करने की अपनी पुरानी परम्परा छोड़ दी और उसके विपरीत वे गोवर्द्धन पहाड़ की पूजा करने लगे। इस अपमान से क्रुद्ध होकर इन्द्र ने वृज पर घोर वर्षा करना प्रारम्भ किया। डरे हुए वृजवासी श्रीकृष्ण के पास पहुँचे। इस पर श्रीकृष्ण ने अपने हाथ पर गोवर्द्वन पर्वत उठाकर वृजवासियों के लिए एक विशाल सुरक्षित स्थान का निर्माण किया। सम्पूर्ण वृज को बहा देने के प्रयत्न में अपने को असफल देखकर इन्द्र का गर्व सूर्ण हो गया और उसने आकर श्रीकृष्ण से क्षमा प्रार्थना की।<balloon title="विष्णुपुराण, पंचम अंश, 10वाँ अध्याय।" style="color:blue">*</balloon>

  • 5. रावण द्वारा कैलाश को उठाना (सं.सं. 35.2577)

गुप्तकाल से मध्यकाल तक इस कथा का अंकन शैव कलाकारों का प्रिय विषय रहा। प्रस्तुत शिलाखण्ड पर एक पर्वत-शिखर पर शिव-पार्वती बैठे हुए दिखलाई पड़ते हैं जिसे एक राक्षस कंधों पर उठाने का असफल प्रयत्न कर रहा है। इस दृश्य से सम्बन्धित कथा हमें बतलाती है कि एक बार लंका का राजा रावण कुबेर को पराजित करके लौट रहा था। शरवन नामक स्थान के पास आते ही उसके विमान की गति अकस्मात अवरूद्ध होगई। कारण का पता लगाने पर उसे मालूम हुआ कि उक्त स्थान पर शिव पार्वती विहार कर रहे हैं अतएव वहाँ किसी का भी जाना रोक दिया गया है। अपनी गति को कुंठित जानकर अपमानित रावण ने क्रोध से समूचे कैलाश को उखाड़ डालने का निश्चय किया और पूरी शक्ति लगाकर वह ऐसा करने लगा। कैलाश कम्पित हो उठा और उमा भयभीत हो गईं शिव ने इस बात को जान लिया और अपने पैर के अंगूठे से कैलाश को दबा दिया जिसके नीचे रावण भी दबने लगा। अब रावण ने क्षमा प्रार्थना की और बाद में शिव ने उसे क्षमा दान दे दिया।<balloon title="गोपीनाथ राव, Elements of Hindu Iconography, खण्ड 2, भाग 1, पृ0 217-18।" style="color:blue">*</balloon>

  • 6. श्रृंगी ऋषि की कथा (सं. सं.00.जे7; 11.151)

मथुरा से मिले हुए एक वेदिका स्तम्भ पर तरूण श्रृंगी भौचक्का-सा खड़ा है। दूसरे स्थान पर उसे हम राजकुमारी के साथ प्रणय-क्रीड़ा करते हुए पाते हैं। श्रृंगी ऋषि की कथा ब्राह्मण साहित्य में ही नहीं बौद्ध साहित्य में भी मिलती हैं। श्रृंगी एक ऋषि का बेटा था। वह वन में जन्म से ही ऐसे स्थान पर रहा था जहाँ स्त्रियों का दर्शन दुर्लभ था। एक राजा चाहता था कि उसके राज्य में पड़े हुए अकाल की शांति के लिए यह तरूण ब्रह्मचारी वहां आए। अतएव उसने उसे बुलाने के लिए राजकुमारी को भेजा। शनै:-शनै: राजकुमारी की काम चेष्टाओं का प्रभाव ब्रह्मचारी पर पड़ता गया और एक दिन वह उसके नौका पर बैठ कर चल पड़ा। बाद में राजा के द्वारा वह राजकुमारी उसके साथ ब्याह दी गई।<balloon title="वासुदेवशरण अग्रवाल, Catalogue of the Mathura Museum, JUPHS, खण्ड 24-25, पृ0 7-10।" style="color:blue">*</balloon>

फुटकर दृश्य

यहाँ की कलाकृतियों में जैन कथाओं का तो अभाव सा है। एक शिलापट्ट पर, जो इस समय लखनऊ संग्रहालय में है (लखनऊ संग्रहालय संख्या जे. 626)तीर्थंकर महावीर के गर्भ के संक्रमण की कथा अंकित है। दूसरे एक वेदिका स्तम्भ के टुकड़े पर (लखनऊ संग्रहालय जे. 334) पंचतंत्र की एक कथा का दृश्य बना हुआ है जिसका सम्बन्ध तीक्ष्णाविषाण नामक बैल और प्रलोभक नामक सियार की कथा से जान पड़ता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ललितविस्तर. 21.88, पृ0 233—
    इयं मही सर्व जगत् प्रतिष्ठा।
    अपक्षपाता सचराचरेसमा ॥
    इयं प्रमाणं मम नास्ति मे मृषा।
    साक्षित्वमस्मिं मम संप्रयच्छतु ॥
  2. ललितविस्तर (मारधर्षण परिवर्त, 21, पृ0 233-34) में वर्णित इन स्त्री-मायाओं में से कई मथुरा कला के वेदिकास्तम्भों पर चित्रित की गई हैं। कुछ के उदाहरण निम्नांकित हैं:
    (क) बाहूनुत्क्षिप्य विजृम्भमाणान् कक्षान् दर्शयन्तिस्म (सं.सं. 15.977)
    (ख) उन्नतान्कठिनान्पयोधरान्दर्शयन्तिस्म (सं.सं.13.286)
    (ग) अर्धनिमिलितैर्नयनै: बोधिसत्त्वं निरीक्षन्तेस्म (सं. सं. 00.जे12)
    (घ) शिर: स्वंसेषु च पत्रगुप्तांशुकसारिकांश्चोपविष्टानुपदर्शयन्तिस्म (सं. सं. 17.1307, 12.258)
  3. ललितविस्तर 25, पृ0 287-92।
    अभूच्च ते पूर्वभवेष्वियं मति:। तीर्ण: स्वयं तारयिता भवेयम्।
    असंशयं पारगतोऽसि सांप्रतं। सत्यां प्रतिज्ञां कुरु सत्यविक्रम: ॥32
    धर्मोल्कया विधम मुनेऽन्धकारा। उच्छ्रेपय त्वं हि तथागतध्वजम्।
    अयं स काल: प्रतिलाभ्युदीरणे। मृगाधिपो वा नद दुन्दुभिस्वर:॥33
  4. ललितविस्तर, 26 42-46, पृ0 305।
    एवं हि द्वादशाकारं धर्मचक्रंप्रवर्तितम्।
    कौण्डिन्येन च आज्ञातं निर्वृत्ता रतनात्रय:॥
    बुद्धो धर्मश्च संघश्च इत्येतद्रतनात्रयम्।
    X    X    X
    कौडिन्यं प्रथमं कृत्वा पंचकाश्चैवभिक्षव:।
    षष्टीनां देवकोटीनां धर्मचक्षुर्विशोधितम्॥
  5. दिव्यावदान, 12, पृ0 100
  6. विष्णुपुराण, पंचम अंश, 5,7,44 (गीताप्रेस प्रति)
    आनम्य चापि हस्ताभ्यामुभाभ्यां मध्यमं शिर:।
    आरूह्याभुग्न शिरस: प्रणनर्त्तोरूविक्रम: ॥
  7. गोवर्धनधारी कृष्ण की कुषाण-गुप्तकालीन मृण्मयी मूर्ति रंगमहल से मिली है जो आज बीकानेर संग्रहालय में है- ललितकला, संख्या 8, फलक 21।