मौर्य से गुप्तकालीन मथुरा

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परिचय


ब्रज


मथुरा एक झलक

पौराणिक मथुरा

मौर्य-गुप्त मथुरा

गुप्त-मुग़ल मथुरा


वृन्दावन

मौर्य से गुप्तकालीन मथुरा / Mathura ( Maurya period to Gupta period )

मथोरा और क्लीसोबोरा

मथुरा के विषय में बौद्ध साहित्य में अनेक उल्लेख हैं । 600 ई॰ पू0 में मथुरा में अवंतिपुत्र (अवंतिपुत्तो) नाम के राजा का राज्य था । बौद्ध अनुश्रुति (अंगुत्तरनिकाय) के अनुसार उसके शासन काल में स्वयं गौतम बुद्ध मथुरा आए थे । बुद्ध उस समय इस नगरी के लिए अधिक आकर्षित नहीं हुए क्‍योंकि उस समय यहाँ वैदिक मत सुदृढ़ रूप से स्थापित था।<balloon title="श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी-मथुरा परिचय, प 0 46" style="color:blue">*</balloon> चंद्रगुप्त मौर्य के काल में मथुरा मौर्य-शासन के अंतर्गत था । मैगस्थनीज़ (जो कि एक ग्रीक राजदूत था) ने सूरसेनाई-मथोरा और क्लीसोबोरा नामक नगरियों का वर्णन किया है और इन नगरों को कृष्ण की उपासना का मुख्य केन्द्र वर्णित किया है । मथुरा में बौद्धधर्म का प्रचार अशोक के समय में अधिक हुआ ।

मथुरा और बौद्ध धर्म

सिर विहीन बुद्ध प्रतिमा
Headless Image of Buddha
राजकीय संग्रहालय, मथुरा

मथुरा और बौद्ध धर्म का घनिष्ठ संबंध था । जो बुद्ध के जीवन-काल से कुषाण-काल तक अक्षु्ण रहा । 'अंगुत्तरनिकाय' के अनुसार भगवान बुद्ध एक बार मथुरा आये थे और यहाँ उपदेश भी दिया था।<balloon title="अंगुत्तनिकाय, भाग 2, पृ 57; तत्रैव, भाग 3,पृ 257" style="color:blue">*</balloon> 'वेरंजक-ब्राह्मण-सुत्त' में भगवान् बुद्ध के द्वारा मथुरा से वेरंजा तक यात्रा किए जाने का वर्णन मिलता है।<balloon title="भरत सिंह उपापध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ 109" style="color:blue">*</balloon> पालि विवरण से यह ज्ञात होता है कि बुद्धत्व प्राप्ति के बारहवें वर्ष में ही बुद्ध ने मथुरा नगर की यात्रा की थी ।[१] मथुरा से लौटकर बुद्ध वेरंजा आये फिर उन्होंने श्रावस्ती की यात्रा की ।[२] भगवान बुद्ध के शिष्य महाकाच्यायन मथुरा में बौद्ध धर्म का प्रचार करने आए थे । इस नगर में उपगुप्त<balloon title="वी ए स्मिथ, अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया (चतुर्थ संस्करण), पृ 199" style="color:blue">*</balloon>अशोक के गुरु, ध्रुव<balloon title="स्कंद पुराण, काशी खंड, अध्याय 20" style="color:blue">*</balloon>, एवं प्रख्यात गणिका वासवदत्ता<balloon title="`मथुरायां वासवदत्ता नाम गणिकां।' दिव्यावदान (कावेल एवं नीलवाला संस्करण), पृ 352" style="color:blue">*</balloon> भी निवास करती थी ।

व्यापारिक संबंध

मथुरा राज्य का देश के दूसरे भागों से व्यापारिक संबंध था। मथुरा उत्तरापथ और दक्षिणापथ दोनों भागों से जुड़ा हुआ था।<balloon title="आर सी शर्मा, बुद्धिस्ट् आर्ट आफ मथुरा, पृ 5" style="color:blue">*</balloon> राजगृह से तक्षशिला जाने वाले उस समय के व्यापारिक मार्ग में यह नगर स्थित था।<balloon title="भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धिकालीन भारतीय भूगोल, पृ 440" style="color:blue">*</balloon> मथुरा से एक मार्ग वेरंजा, सोरेय्य, कणकुंज होते हुए पयागतिथ्थ जाता था वहाँ से वह गंगा पार कर बनारस पहुँच जाता था।<balloon title="मोती चंद्र, सार्थवाह, (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1953) 16" style="color:blue">*</balloon> श्रावस्तीऔर मथुरा सड़क मार्ग द्वारा संबद्ध थे।<balloon title="अंगुत्तरनिकाय, भाग 2, पृ 57" style="color:blue">*</balloon> मथुरा का व्यापार पाटलीपुत्र द्वारा जलमार्ग से होता था। वे वस्तुओं का आदान-प्रदान करते थे। उस समय ऐसा लगता था जैसे दोनों पुरियों के बीच नावों का पुल बना हो।<balloon title="यावच्च मथुरां यावच्च पाटलिपुत्रं अंतराय नौसङ् कमोवस्थापित:'।" style="color:blue">*</balloon> भारत के अन्य प्रमुख व्यापारिक नगरों, इन्द्रप्रस्थ, कौशांबी, श्रावस्ती तथा वैशाली आदि से भी यहाँ के व्यापारियों के वाणिज्यक संबंध थे।<balloon title="जी पी मललसेकर, डिक्शनरी ऑफ् पालि प्रापर नेम्स, भाग 2, पृ 930" style="color:blue">*</balloon> बौद्ध ग्रंथों में शूरसेन के शासक अवंतिपुत्र की चर्चा है, जो उज्जयिनीके राजवंश से संबंधित था । इस शासक ने बुद्ध के एक शिष्य महाकाच्यायन से ब्राह्मण धर्म पर वाद-विवाद भी किया था।<balloon title="मज्झिमनिकाय, भाग दो, पृ 83 और आगे; मललसेकर, डिक्शनरी आँफ्‌ पालि प्रापर नेम्स, भाग 2, पृ 438" style="color:blue">*</balloon> भगवान् बुद्ध शूरसेन जनपद में एक बार मथुरा गए थे, जहाँ आनन्द ने उन्हें उरुमुंड पर्वत पर स्थित गहरे नीले रंग का एक हरा-भरा वन दिखलाया था।<balloon title="दिव्यावदान, पृ 348-349" style="color:blue">*</balloon> मिलिंदपन्हों<balloon title="मिलिंदपन्हो (ट्रेंकनर संस्करण), पृ 331" style="color:blue">*</balloon> में इसका वर्णन भारत के प्रसिद्ध स्थानों में हुआ है । इसी ग्रंथ में प्रसिद्ध नगरों एवम् उनके निवासियों के नाम के एक प्रसंग में माधुरका (मथुरा के निवासी का भी उल्लेख मिलता है,<balloon title="मिलिंदपन्हों (ट्रेंकनर संस्करण), पृ 324" style="color:blue">*</balloon> जिससे ज्ञात होता है कि राजा मिलिंद (मिनांडर) के समय (150 ई॰ पू॰) मथुरा नगर पालि परंपरा में एक प्रतिष्ठित नगर के रूप में विख्यात हो चुका था ।

मथुरा जैन और साहित्य

'ललितविस्तर' में मथुरा घनी आबादी वाला नगर वर्णित है तथा राजा सुबाहु की राजधानी बताया गया है ।[३] 'अंगुत्तरनिकाय' के 'पंचकनिपात' में मथुरा के पाँच दोषों का वर्णन है । यहाँ की सड़कें विषम, धूलयुक्त, भयंकर कुत्तों तथा राक्षसों से युक्त थीं तथा यहाँ भिक्षा भी सुलभ नहीं थी ।

[४] परंतु बाद में मथुरा के इन दोषों का संकेत नहीं मिलता । अत: यह कहा जा सकता है कि बाद के दिनों में यह नगरी इन सब दोषों से मुक्त हो चुकी थी ।

युवानच्वांग (हुएन-सांग) के यात्रावृत्त में तथा बौद्ध साहित्य में अशोक के गुरु उपगुप्त का विवरण मिलता है जो मथुरा नगर के निवासी थे । जैन श्रुति के अनुसार जैन संघ की दूसरी परिषद् मथुरा में स्कंदिलाचार्य ने की थी जिसमें 'माथुर वाचना` नाम द्वारा जैन आगमों के संहिताबद्ध विवरण का उल्लेख किया गया था । 5वीं शती ई॰ के आखरी वर्षों में अकाल पड़ने के कारण यह 'वाचना` समाप्त प्रायः हो गई थी । तीसरी परिषद् में आगमों का पुनरूद्धार किया गया । इस परिषद का आयोजन वल्लभिपुर में किया गया । 'विविधतीर्थकल्प' में मथुरा में दो जैन साधुओं-धर्मरूचि और धर्मघोष के निवासस्थान होने का विवरण प्राप्त होता है । मथुरा की श्रीसंपन्नता का भी वर्णन जैन साहित्य में भी मिलता है - "मथुरा बारह योजन लंबी और नौ योजन चौड़ी थी । नगरी के चारों ओर परकोटा खिंचा हुआ था और वह हर-मंदिरों, जिनशालाओं, सरोवरों आदि से संपन्न थी । जैन साधु वृक्षों से भरे हुए भूधरमणि उद्यान में निवास करते थे । इस उद्यान के स्वामी कुबेर ने यहाँ एक जैन स्तूप बनवाया था जिसमें सुपार्श्व की मूर्ति प्रतिष्ठित थी ।" मथुरा के भंडीर यक्ष के मंदिर का उल्लेख 'विविधतीर्थकल्प' में भी मिलता है । मथुरा में ताल, भंडीर कौल, बहुल, बिल्व और लोहजंघ नाम के बगीचे थे । इस ग्रंथ में अर्कस्थल, वीरस्थल, पद्यस्थल, कुशस्थल और महास्थल नामक पांच पवित्र जैन स्थलों का भी वर्णन है। 12 वनों के नाम भी इस ग्रंथ में मिलते हैं- वृन्दावन, मधुवन, तालवन, कुमुदवन, लौहजंघवन, भांडीरवन, बिल्ववन, खदिरवन, काम्यवन, कोलवन, बहुलावन और महावन

तीर्थ

विश्रांतिक तीर्थ (विश्राम घाट) असिकुण्डा तीर्थ (असकुण्डा घाट) वैकुंठ तीर्थ, कालिंजर तीर्थ और चक्रतीर्थ नामक पांच प्रसिद्ध मंदिरों का वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में कालवेशिक, सोमदेव, कंबल और संबल, इन जैन साधुओं को मथुरा का बतलाया गया है।

यमुना स्नान, विश्राम घाट, मथुरा
Yamuna Snan, Vishram Ghat, Mathura

जब यहाँ एक बार घोर अकाल पड़ा था तब मथुरा के एक जैन नागरिक खंडी ने अनिवार्य रूप से जैन आगमों के पाठन की प्रथा चलाई थी।

यह जैन धर्म और कला का भी अत्यंत प्राचीन काल से प्रमुख स्थान था। जैन ग्रंथों मे उल्लेख है कि यहाँ पार्श्वनाथ महावीर स्वामी ने भी प्रवास किया था।<balloon title="विषाकसूत्र, पृ 26, नायाधम्मकहाओ, पृ 156" style="color:blue">*</balloon> पउमचरिय<balloon title="पउमचरिय, 2/2/89; ये सात साधु निम्नलिखित थे- (सुरमन्त्र, श्रीमन्त्र, श्रीतिलम, सर्वसुंदर, अनिल, ललित और जयमित्र " style="color:blue">*</balloon> में एक वर्णन मिलता है कि सात साधुओं द्वारा सबसे पहले मथुरा में ही श्वेतांबर जैन संम्प्रदाय का प्रचार व प्रसार किया गया। जैन सूत्रों में मथुरा को 'पाखंडिगर्भ' कहा गया है। युग प्रधान आर्य-रक्षित आचार्य विहार करते हुए मथुरा आए और वे `भूतगुहा' नामक चैत्य में भी ठहरे थे। <balloon title="आवश्यकचूर्णि, भाग 1, पृ 411" style="color:blue">*</balloon> जैन परंम्पराओं से पता चलता है कि मथुरा में देवताओं द्वारा निर्मित तथा रत्नों से जड़ा हुआ एक[५] स्तूप था।<balloon title="जगदीशचंद्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ 219; वासुदेवशरण अग्रवाल, भारतीय कला" style="color:blue">*</balloon> 'वृहत्कल्पभाष्य'<balloon title="बृहत्कल्पभाष्य, 5/1536" style="color:blue">*</balloon> में वर्णित है कि जिस प्रकार `धर्मचक्र' के लिए उत्तरापथ और `जीवंत स्वामी' प्रतिमा के लिए कोशल नगरी प्रसिद्ध है, देवनिर्मित स्तूप के लिए मथुरा प्रसिद्ध है। मथुरा के इस स्तूप का सबसे प्राचीन उल्लेख व्यवहारभाष्य में मिलता है।<balloon title="व्यवहारभाष्य, 5/27/28" style="color:blue">*</balloon> मथुरा में जैन धर्म का बड़ा प्रसार था। मथुरा नगरी में गृहों के निर्माण में आलों (उतरंग) मंगलार्थ `अर्हत प्रतिमा' बनायी जाती थी। `मंगलचैत्य' मथुरा नगर और उसके आसपास के छियानवे ग्रामों के घरों और चौराहों पर बनाए गए थे।<balloon title="बृहत्कल्पभाष्य, 1/1774" style="color:blue">*</balloon> यह नगर व्यापार का भी एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था । विशेषकर सूती एवं रेशमी वस्त्र के लिए यह प्रसिद्ध था।<balloon title="आवश्यक टीका (हरिभद्र), पृ 307" style="color:blue">*</balloon> यहाँ के नागरिक मुख्यत: व्यापारी थे, कृषक नहीं।<balloon title="बृहत्कल्पभाष्य, 1/1239" style="color:blue">*</balloon> व्यापार मुख्यत: स्थलमार्ग से किया जाता था।<balloon title="आचारांगचूर्णि, पृ 280" style="color:blue">*</balloon>

उत्खनन

मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से अनेक जैन मूर्तियाँ तथा दो जैन स्तूपों के अवशेष मिले हैं । इसमें सबसे प्राचीन स्तूप का निर्माण तीसरी शताब्दी ई. पू. में हुआ होगा।<balloon title="जैन जर्नल, भाग 3 (अप्रैल 1969 ई.), पृ 185-186" style="color:blue">*</balloon> मथुरा का यह स्तूप प्रारंभ में स्वर्णजटित था। इसे `कुबेरा' नामक देवी ने सातवें तीर्थंकर 'सुपार्श्वनाथ' की स्मृति में बनवाया था। कंकाली टीले के उत्खनन से अन्य प्रमाण भी मिले हैं, सबसे महत्त्वपूर्ण शक प्रदेश के महाक्षत्रप षोडास शोडास का अभिलेख है। <balloon title="एपिग्राफिया इंडिका, भाग 2, पृ 199" style="color:blue">*</balloon> इस अभिलेख में अर्हत वर्धमान की प्रार्थना की गई है। यहाँ एक श्राविका (समन वाविका) का भी उल्लेख मिलता है, जिसने अपने तीन पुत्रों- घनघोष, पोथघोष और पलघोष के साथ प्रार्थना की थी। तत्कालीन समाज के व्यापारी तथा निम्न वर्ग दोनों समुदायों के व्यक्ति बहुत बड़ी संख्या मे जैन धर्मानुयायी थे; क्योंकि दान देने वालों में कोषाध्यक्ष, गंधी, धातुकर्मी, गोष्ठियों के सदस्य, ग्राम प्रमुख, सार्थवाहों की पत्नियाँ, नर्तकों की पत्नियाँ, स्वर्णकार तथा गणिका जैसे वर्गों के व्यक्ति थे।<balloon title="एस बी देव हिस्ट्री ऑफ जैन माँनकिज्म, (पूना, 1959), पृ 101" style="color:blue">*</balloon> इन शिलालेखों में विभिन्न गणों, कुलों, शाखाओं तथा संभागों का वर्णन है। जैन संघ सुगठित एवं सुव्यवस्थित था। इस काल में मूर्तिपूजा पूर्णरूपेण स्थापित एवं प्रचलित हो चुकी थी। <balloon title="अमलानंद घोष, जैन कला एवं स्थापत्य (नई दिल्ली, 1975), पृ 30" style="color:blue">*</balloon> बौद्ध, शैव, वैष्णव आदि अनेक धर्मों की तरह मथुरा राज्य जैन धर्मावलंबियों का भी एक पवित्र स्थान रहा है। एक अनुश्रुति में मथुरा को इक्कीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ<balloon title="बीस़ी भट्टाचार्य, जैन आइकोनोग्राफी (लाहौर, 1939), पृ 80" style="color:blue">*</balloon> की जन्मभूमि बताया गया है, किंतु उत्तर पुराण में इनकी जन्मभूमि मिथिला वर्णित है।<balloon title="बी.सी भट्टाचार्य, जैन आइकोनोग्राफी (लाहौर, 1939), पृ 79" style="color:blue">*</balloon> विविधतीर्थकल्प से ज्ञात होता है कि नेमिनाथ का मथुरा में विशिष्ट स्थान था।<balloon title="विविधतीर्थकल्प, पृ 80" style="color:blue">*</balloon> मथुरा पर प्राचीन काल से ही विदेशी आक्रामक जातियों, शक, यवन एवं कुषाणों का शासन रहा। इन राजाओं ने विकसित बौद्ध एवं जैन (श्रमण-परंपरा ) को अपनाकर इन धर्मों को प्रचारित किया। यह स्थान प्राचीन काल से ही व्यापारिक केंद्र के रूप में विकसित हो गया था। अहिंसावादी जैन धर्मावलंबियों ने कृषि-कार्य में होने वाली हिंसा के कारण ही आजीविका का प्रधान माध्यम व्यापार और वाणिज्य को माना है। इस प्रकार बौद्ध एवं जैन धर्म में विश्वास करने वालों का मुख्यत: विकास व्यापारिक केंदों में भी दृष्टिगत होता है। पाँचवी शताब्दी ई. में फ़ाह्यान भारत आया तो उसने भिक्षुओं से भरे हुए अनेक विहार देखे। सातवीं शताब्दी में हुएन-सांग ने भी यहाँ अनेक विहारों को देखा। इन दोनों चीनी यात्रियों ने अपनी यात्रा में यहाँ का वर्णन किया है। चीनी यात्री फ़ाह्यान "पीतू" देश से होता हुआ 80 योजन चलकर मताउला [६] (मथुरा) जनपद पहुँचा था।

बौद्ध धर्म

इस समय यहाँ बौद्ध धर्म अपने विकास की चरम सीमा पर था। उसने लिखा है कि यहाँ 20 से भी अधिक संघाराम थे, जिनमें लगभग तीन सहस्र से अधिक भिक्षु रहा करते थे।<balloon title="जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स ऑफ फ़ाह्यान , पृ॰ 42" style="color:blue">*</balloon> यहाँ के निवासी अत्यंत श्रद्धालु और साधुओं का आदर करने वाले थे। राजा भिक्षा (भेंट) देते समय अपने मुकुट उतार लिया करते थे और अपने परिजन तथा अमात्यों के साथ अपने हाथों से दान करते (देते) थे। यहाँ अपने आपसी झगड़ों को स्वयं तय किया जाता था; किसी न्यायाधीश या क़ानून की शरण नहीं लेनी पड़ती थीं। नागरिक राजा की भूमि को जोतते थे तथा उपज का कुछ भाग राजकोष में देते थे।

मथुरा की जलवायु शीतोष्ण थी। नागरिक सुखी थे। राजा प्राणदंड नहीं देता था, शारीरिक दंड भी नहीं दिया जाता था। अपराधी को अवस्थानुसार उत्तर या मध्यम अर्थदंड दिया जाता था।<balloon title="जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स ऑफ फ़ाह्यान, पृ 43" style="color:blue">*</balloon> अपराधों की पुनरावृत्ति होने पर दाहिना हाथ काट दिया जाता था।

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फ़ाह्यान लिखता हैं कि पूरे राज्य में चांडालों को छोड़कर कोई निवासी जीव-हिंसा नहीं करता था। मद्यपान नहीं किया जाता था और न ही लहसुन-प्याज का सेवन किया जाता था। चांडाल (दस्यु) नगर के बाहर निवास करते थे। क्रय-विक्रय में सिक्कों एवं कौड़ियों का प्रचलन था।<balloon title="जेम्स लेग्गे, दि टे्रवेल्स ऑफ फ़ाह्यान, पृ 43" style="color:blue">*</balloon>

बुद्ध के निर्वाण के बाद विभिन्न जनपदों के राजाओं और सेठों ने भिक्षुओं के लिए विहारों का निर्माण करवाया। साथ ही खेत, वन, घर, उपवन प्रजा और पशुओं को दान कर दिया। दान की गई वस्तुओं का वर्णन ताम्रपत्र पर उल्लिखित है। फ़ाह्यान लिखता है कि यह परंपरा पुरातन समय से चली आ रही है और आज भी उसी रूप में चल रही है।<balloon title="तत्रैव, पृ 43" style="color:blue">*</balloon> श्रमणों का कार्य शुभ कार्यों से धनोपार्जन करना, सूत्र का पाठ करना और ध्यान लगाना था। जब किसी साम्राज्य के अतिथि आते थे तो स्थाई रहने वाले भिक्षु उनका स्वागत करते थे।<balloon title="तत्रैव, पृ 44" style="color:blue">*</balloon>

फ़ाह्यान ने संघ के स्थान पर सारिपुत्त, महामौद्गलायन और काश्यप के बने स्तूपों को देखा। सारिपुत्त कुलीन ब्राह्मण थे। फ़ाह्यान ने लिखा है कि जब भिक्षुक वार्षिक अन्नहार पाते थे। भिक्षु उन्हें लेकर यथाभाग आपस में बाँट लेते थे। धर्म और संघों के नियम परंपरा आज भी वैसी ही है, जैसा कि बुद्ध के समय प्रचलित थी। हुएन-सांग 635 ई (संवत 692) में मथुरा आया था।<balloon title="ए कनिंघम, ऐंश्‍येंटज्योग्राफी, ऑफ इंडिया, प्रस्तावना, पृ 5" style="color:blue">*</balloon> ह्वेनसाँग ने मथुरा नगर के विषय में विस्तार से लिखा है- कि इस नगर का विस्तार 5000 ली (लगभग 833 मील) और नगर (राजधानी) की परिधि 20 ली (लगभग 3.5 मील) थी।<balloon title="थामस वाट्र्स, ऑन युवॉन् च्वाँग ट्रेवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृ 301" style="color:blue">*</balloon> ह्वेनसाँग के इस विवरण के आधार पर कनिंघम ने मथुरा राज्य में केवल वैराट और अतरंजी जनपदों के बीच के भूभाग को ही नहीं वरन् आगरा से परे दक्षिण में नरवर और श्यौपुरी तक तथा पूर्व में सिन्धु नदी तक के विस्तृत क्षेत्र को भी माना है।<balloon title="ए कनिंघम, ऐंश्‍येंटज्योग्राफी ऑफ इंडिया, पृ 327-28" style="color:blue">*</balloon> ह्वेनसाँग ने मथुरा राज्य की उपज और राज्य के निवासियों के संबंध में भी विस्तृत विवरण किया है। उसने लिखा है कि यहाँ की भूमि उपजाऊ है और अन्न उत्पादन के लिए उपयुक्त है। यहाँ कपास की अच्छी उपज होती थी। यहाँ के नागरिक सह्रदय, विनम्र और सहनशील थे। लोग कर्म में विश्वास रखते थे तथा नैतिक तथा बौद्धिक श्रेष्ठता का आदर करते थे।[७] इनमें हीनयान और महायान दोनों मतों के समर्थक थे। इनके अतिरिक्त यहाँ पाँच देवमंदिर थे जिनमें सभी धर्मों के अनुयायी पूजा करते थे। तथागत के पवित्र अवशेषों पर भी स्मारक रूप में कई स्तूप बने हुए थे। इन स्तूपों के दर्शन के लिए धार्मिक अवसरों पर संन्यासी बड़ी संख्या में आते थे और वस्तुएँ भेंट में देते थे। ये संन्यासी अपने संप्रदायों के अनुसार अलग-अलग पवित्र स्थानों की पूजा करते थे। ह्वेनसाँग ने लिखा है कि नगर से एक मील पूर्व की ओर उपगुप्त द्वारा बनवाया गया एक संघाराम था। इसके अन्दर एक स्तूप था। जिसमें तथागत के नाख़ून रखे हुए थे। संघाराम के उत्तर में 20 फुट ऊँची और 30 फुट चौड़ी एक गुफ़ा थी। उपगुप्त द्वारा निर्मित संघाराम को ग्राउस ने कंकाली टीले पर माना है।[८] कनिंघम ने इस संघाराम का वर्णन नगर के पश्चिम में किया है। विहार से 24-25 ली (लगभग 5 मील) दक्षिण-पूर्व में एक तालाब था, जो सूख गया था उसके किनारे एक स्तूप था। हुएन-सांग के अनुसार बुद्ध के आगमन के समय एक बंदर ने उन्हें थोड़ा-सा मधु दिया जिसे बुद्ध ने थोड़े-से फलों के साथ मिश्रित करके अपने शिष्यों में वितरित करवा दिया था। बंदर को इतनी प्रसन्नता हुई कि वह एक गड्ढे में गिरकर मर गया और अपने पूर्वोक्त-पुण्यजन्यकृत्य के कारण अगले जन्म में मनुष्य योनि प्राप्त करने में सफल रहा ।[९] इस तालाब के पास ही एक घना जंगल था, जिसमें चार बुद्धों के चरण-चिन्ह सुरक्षित थे। यहीं पर वे स्तूप हैं जहाँ पर सारिपुत्र तथा बुद्ध के अन्य 1250 शिष्यों ने कठिनतम तपस्या की थी।<balloon title="थामस बाट्र्स, ऑन् यूवान् च्वांग्स् ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृ 311" style="color:blue">*</balloon>

सम्पन्नता-वैभव

शुंगकाल के प्रारंभ से ही मथुरा का महत्व बढ़ गया था। शुंग वंश का शासनकाल ई. पू. 185 के लगभग प्रारम्भ हुआ। पतंजलि ने यहाँ के लोगों की श्री व सम्पन्नता का उल्लेख किया है।<balloon title="प्रभुदयाल अग्निहोत्री,पतञ्जलिकालीन भारत,पटना 1963,पृ.119 ।" style="color:blue">*</balloon> मथुरा का महत्व इस काल में भी बना रहा। शुंग-साम्राज्य के पश्चिमी प्रदेश की राजधानी मथुरा ही थी। प्राचीन भारत का उत्तर-पश्चिमी भाग, गांधार के प्रमुख नगर पुष्कलावती से पाटलीपुत्र, वैशाली, ताम्रलिप्ति, श्रावस्ती, कौशाम्बी आदि मथुरा मार्ग से ही जुड़े थे। पश्चिम के सबसे बड़े बन्दरगाह भरूकच्छ (भडौच) को जाने वाला मार्ग भी विदिशा और उज्जयिनी होकर मथुरा से ही जाता था।<balloon title="जे.पी. एच.फोगल,La Sculpture De Mathura, pw. 17-18 ।" style="color:blue">*</balloon> मथुरा, व्यापार का भी एक बड़ा केन्द्र बनता गया।

इस नगरी को समकालीन साहित्य में सुभिक्षा, ऐश्वर्यवती और घनी बस्ती वाली कहा गया है।<balloon title="ललितविस्तर,3 पृ.15- इयं मथुरा नगरी श्रध्दा च स्फीता च क्षेमा च सुभिक्षा च आकीर्ण बहुजनमनुष्या।" style="color:blue">*</balloon> मथुरा के जगमगाते वैभव को देखकर यूनानी आक्रमणकारियों की दृष्टि इस ओर घूमी और उन्होंने लगभग ई. पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य में मथुरा पर आक्रमण किया। इस आक्रमण का उल्लेख युग पुराण में मिलता है। परन्तु आपसी झगड़ों के कारण यवनों के यहाँ पैर न जम सके। गार्गी-संहिता में कहा गया है कि 150 ई॰ पू0 के लगभग यवनराज दिमित्रियस (Demetrius) ने थोड़े से समय के लिए मथुरा पर अधिकार कर लिया था।

शुंग वंश की समाप्ति के बाद भी कहीं-कहीं इस वशं के छोटे-मोटे शासक राज्य करते रहे। मथुरा में मित्रवंशी राजाओं का शासन कुछ काल तक चलता रहा। इनकी मुद्राएं मथुरा से प्राप्त हो चुकी हैं। इनके अतिरिक्त बलभूति तथा दत्त नाम वाले राजाओं के सिक्के मथुरा से प्राप्त हुए हैं। ये सारे शासक मथुरा में ई. पू. 100 तक शासन करते रहे। लगभग ई. पू. 100 में विदेशी शकों का बल बढ़ने लगा। मथुरा में भी इनका केन्द्र स्थापित हुआ।

राजुल या राजबुल तथा शोडास

यहाँ के शासक शक क्षत्रप के नाम से पहचाने जाते थे। इनमें राजुल या राजबुल तथा शोडास का काल विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने लगभग 75 वर्षों तक शासन किया। इस समय के कई महत्त्वपूर्ण शिलालेख हमें प्राप्त हुए हैं जिनमें सबसे उल्लेखनीय वह लेख है जिसमें एक वासुदेव (कृष्ण) मन्दिर का निर्माण किये जाने का उल्लेख है।<balloon title="(मथुरा सं. सं. 00 क्यू ; 13.367)" style="color:blue">*</balloon> इन शकों को ई. पू. 57 में मालवगण ने जीत लिया, तथापि इसी समय से शकों की एक दूसरी शाखा, जो आगे कुषाण कहलायी, बलशाली हो रही थी।

अभिलेखों से ज्ञात होता है कि इन्होंने यहाँ यमुना-तट पर एक सिंह-स्तंभ बनवाया था जो बहुत विशाल था और अब जिसका शीर्ष लंदन के संग्रहालय में रखा हुआ है। खंडितावस्था में प्राप्त शोडास के अभिलेख से मथुरा का, उस काल का वृतांत मिलता है जिसमें मथुरा का वासुदेव कृष्ण की उपासना का केन्द्र होने का पता चलता है।[१०]

कुषाण

कुषाण इस देश के लिए पूर्णत: विदेशी थे। प्राचीनकाल में चीन के उत्तर-पश्चिम प्रदेश में यूची नाम की एक जाति रहा करती थी। लगभग 165 ई. पू. में ये लोग वहां से भगाये गये। अपनी मूलभूमि छोड़ने के बाद कुछ काल तक ये लोग सीस्तान या शक स्थान में जमे रहे पर आगे चलकर उन्हें वह स्थान भी छोड़ना पड़ा। वे और भी अधिक दक्षिण की ओर हटे। लगभग ई. पू. 10 में बल्ख या बैक्ट्रिया पर इनका अधिकार हो गया। लगभग ईस्वी 50 में तक्षशिला का भू प्रदेश भी इनके अधिकार में आ गया। अब ये कुषाण नाम से पहिचाने जाने लगे। इस समय उनका नेता था कुजुल कैडफाइसेस या कट्फिस प्रथम। इसके बाद कट्फिस द्वितीय या वेम उसका उत्तराधिकारी हुआ। इसके इष्टदेव शिव थे। यह पराक्रमी शासक था। इसकी मृत्यु के बाद ईस्वी 78 में कुषाण साम्राज्य का शासन कनिष्क के हाथ में आया।

वेम और कनिष्क

वेम और कनिष्क ने राज्य की सीमाओं को ख़ूब बढ़ाया । इस समय राज्य की राजधानी पेशावर (पुरुषपुर) थी, परन्तु उसके दक्षिण भाग का मुख्य नगर मथुरा था । शक, क्षत्रपों के समय मथुरा उनका एक प्रमुख केन्द्र रहा । कुषाणों ने भी उसे इसी रूप में अपनाया । मथुरा के इन राजकीय परिर्वतनों का प्रभाव उसकी कला पर पड़ना स्वाभाविक था । इसी प्रभाव ने यहाँ कला की एक नवीन शैली को जन्म दिया जो भारतीय कला के इतिहास में कुषाण-कला या मथुरा-कला के नाम से प्रसिद्ध है । कुषाणवंश के तीनों सम्राट् कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव के समय यह नगर और यहाँ की कला उन्नत होती चली गयी । अपनी कलाकृतियों के लिए समस्त उत्तर-भारत में मथुरा प्रसिद्ध हो गया और यहाँ की मूर्तियां दूर-दूर तक जाने लगीं ।

वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. `दिव्यावदान, पृ 348 में उल्लिखित है कि भगवान बुद्ध ने अपने परिनिर्वाण काल से कुछ पहले ही मथुरा की यात्रा की थी-"भगवान्......परिनिर्वाणकालसमये..........मथुरामनुप्राप्त:। पालि परंपरा से इसका मेल बैठाना कठिन है।
  2. उल्लेखनीय है कि वेरंजा उत्तरापथ मार्ग पर पड़ने वाला बुद्धकाल में एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव था, जो मथुरा और सोरेय्य के मध्य स्थित था।
  3. `इयं मथुरा नगरी ऋद्धा च स्फीता च क्षेमा च सुभिक्षाचाकार्षाबाहुजन महुष्या।' ललितविस्तर, पृ 21; विमलचरण लाहा, ज्योग्राफिकल एसेज, पृ 26। रोचक है कि पुराणों में राजा सुबाहु को शूरसेन का भाई और शत्रुघ्न का पुत्र बताया गया है अत: ललितविस्तर का कंसकुल का शूरसेनों का शासक सुबाहु से उसकी समता नहीं की जा सकती। संभव है यह कोई अन्य बुद्धपूर्वकालीन शूरसेन जनपद का शासक रहा हो।
  4. `पंच इसमें भिक्खवे आदीवना मथुरायम्। कतमें पंच ? विषमा, बहुरजा, चंडसुनख, बाल्यक्खा दुल्लभपिंडो। इमे खो भिक्खवे पंच आदोरवा मधुरायंति।' अंगुत्तरनिकाय,भाग 3, पृ. 256
  5. रोचक है यह देवनिर्मित शब्द स्तूप की प्राचीनता की ओर इंगित करता है, जब मानवीय निर्माण की परंपरा से भी पीछे देवनिर्माण की परंपरा में लोगों का विश्वास था।
  6. `मूचा' (मोर का शहर) का विस्तार 27° 30' उत्तरी आक्षांश से 77° 43' पूर्वी देशांतर तक था। यह कृष्ण की जन्मस्थली थी जिसका राजचिन्ह मोर था।
  7. ग्राउस, मथुरा ए डिस्ट्रिक्ट मेमायर, (तृतीय संस्करण, 1883), पृ 4 ह्वेनसाँग द्वारा वर्णित तथ्य आजकल मथुरा में नहीं दिखलाई पड़ते। मथुरा की भूमि न तो पैदावार योग्य है और न कपास की फ़सल ही अच्छी होती है। ऐसी स्थिति में यह भ्रम उत्पन्न होता है कि ह्वेनसाँग ने मथुरा के नाम पर किसी अन्य स्थान का विवरण तो नहीं लिखा है। ग्राउस का मत है ह्वेनसाँग के समय में मथुरा में मैनपुरी, आगरा, शिकोहाबाद तथा मुस्तफ़ाबाद के कुछ परगने भी सम्मिलित रहे हों।
  8. ग्राउस, मथुरा ए डिस्ट्रिक्ट मेमायर (तृतीय संस्करण, 1883), पृ 113; उल्लेख्य है कि कंकाली टीला प्राचीन काल से ही जैनियों का एक बड़ा केन्द्र था और 11 वीं शताब्दी तक बना रहा। अत: इस अवधि में यहाँ बौद्धों के किसी बड़े स्तूप या विहार का होता असंगत प्रतीत होता है। बहुत संभव है कि यह संघाराम या तो वर्तमान सप्तर्षि टीलों पर था या उससे पूर्व की ओर था जो आजकल बुद्ध तीर्थ के नाम से विख्यात है।
  9. ग्राउस महोदय ने बंदर वाले स्तूप का स्थान (दमदम) डीह निश्चित किया है। जो सराय जमालपुर के निकट और कटरा से दक्षिणी-पूर्व थोड़ी दूर पर है। कनिंघम भी इसकी पुष्टि करते हैं। इस बंदर का इतिहास बहुधा बौद्ध प्रस्तरों में प्रदर्शित किया गया है।
  10. 'वसुना भगवतो वासुदेवस्य महास्थान चतु:शालं तोरणं वेदिका प्रतिष्ठापितो प्रीतोभवतु वासुदेव: स्वामिस्य महाक्षत्रपस्य शोडासस्य संवर्तेयाताम्`