"रंगेश्वर महादेव" के अवतरणों में अंतर

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१०:००, ८ जुलाई २०१० का अवतरण

स्थानीय सूचना
रंगेश्वर महादेव

Rangeshwar-1.jpg
मार्ग स्थिति: यह मंदिर पुराने बस अड्डे और होली दरवाज़ा, मथुरा के बीच में स्थित है ।
आस-पास: ज़िला चिकित्सालय मथुरा, गांधी आश्रम
पुरातत्व: निर्माणकाल- सोलहवीं शताब्दी के अंत में
वास्तु: यह एक गुम्बदीय शिखर रूपी संरचना है जिसका आधार आयताकार (60’ X 30’) है । पक्षिममुखी द्वार के खुलने पर सीढ़ियाँ नजर आती हैं जो नीचे गर्भग्रह में प्रविष्ट होती है जहां नन्दि मण्डप स्थित है । उसके पास ही दक्षिण की तरफ रंगभूमि मण्डप स्थित है । इसे बनाने में लखोरी ईंट व चूने, लाल एवं बलुआ पत्थर का इस्तेमाल किया गया है । पत्तीदार व अर्ध गोलाकार आकार के मेहराब, खंबों पर गोलाकार पुष्प-विषयक आकृति और सुंदर छज्जे मंदिर की शोभा बढ़ाते हैं ।
स्वामित्व: सेवायत् भूदेव नाथ पुजारी
प्रबन्धन:
स्त्रोत: इंटैक
अन्य लिंक:
अन्य:
सावधानियाँ:
मानचित्र:
अद्यतन: 2009

रंगेश्वर महादेव मन्दिर / Rangeshwar Mahadev Temple

रंगभूमि एवं श्री रंगेश्वर महादेव

मथुरा के दक्षिण में श्री रंगेश्वर महादेव जी क्षेत्रपाल के रूप में अवस्थित हैं। भेज–कुलांगार महाराज कंस ने श्री कृष्ण और बलदेव को मारने का षड़यन्त्र कर इस तीर्थ स्थान पर एक रंगशाला का निर्माण करवाया। अक्रूर के द्वारा छलकर श्री नन्द गोकुल से श्री कृष्ण–बलदेव को लाया गया। श्रीकृष्ण और बलदेव नगर भ्रमण के बहाने ग्वालबालों के साथ लोगों से पूछते–पूछते इस रंगशाला में प्रविष्ट हुये। रंगशाला बहुत ही सुन्दर सजायी गई थी। सुन्दर-सुन्दर तोरण-द्वार पुष्पों से सुसज्जित थे। सामने शंकर का विशाल धनुष रखा गया था। मुख्य प्रवेश द्वार पर मतवाला कुबलयापीड़ हाथी झूमते हुए, बस इंगित पाने की प्रतीक्षा कर रहा था, जो दोनों भाईयों को मारने के लिए भली भाँति सिखाया गया था ।

धनुर्याग

रंगेश्वर महादेव की छटा भी निराली थी। उन्हें विभिन्न प्रकार से सुसज्जित किया गया था। रंगशाला के अखाड़े में चाणूर, मुष्टिक, शल, तोषल आदि बड़े-बड़े भयंकर पहलवान दंगल के लिए प्रस्तुत थे। महाराज कंस अपने बडे़-बड़े नागरिकों तथा मित्रों के साथ उच्च मंच पर विराजमान था।

रंगशाला में प्रवेश करते ही श्रीकृष्ण ने अनायास ही धनुष को अपने बायें हाथ से उठा लिया। पलक झपकते ही सबके सामने उसकी डोरी चढ़ा दी तथा डोरी को ऐसे खींचा कि वह धनुष भयंकर शब्द करते हुए टूट गया। धनुष की रक्षा करने वाले सारे सैनिकों को दोनों भाईयों ने ही मार गिराया। कुवलयापीड़ का वध कर श्रीकृष्ण ने उसके दोनों दाँतों को उखाड़ लिया और उससे महावत एवं अनेक दुष्टों का संहार किया। कुछ सैनिक भाग खड़े हुए और महाराज कंस को सारी सूचनाएँ दीं, तो कंस ने क्रोध से दाँत पीसते हुए चाणूर मुष्टिक को शीघ्र ही दोनों बालकों का वध करने के लिए इंगित किया। इतने में श्रीकृष्ण एवं बलदेव अपने अंगों पर ख़ून के कुछ छींटे धारण किये हुए हाथी के विशाल दातों को अपने कंधे पर धारण कर सिंहशावक की भाँति मुसकुराते हुए अखाड़े के समीप पहुँचे। चाणूर और मुष्टिक ने उन दोनों भाईयों को मल्लयुद्ध के लिए ललकारा। नीति विचारक श्रीकृष्ण ने अपने समान आयु वाले मल्लों से लड़ने की बात कही। किन्तु चाणूर ने श्रीकृष्ण को और मुष्टिक ने बलराम जी को बड़े दर्प से, महाराज कंस का मनोरंजन करने के लिए ललकारा। श्रीकृष्ण–बलराम तो ऐसा चाहते ही थे। इस प्रकार मल्लयुद्ध आरम्भ हो गया।

वहाँ पर बैठी हुई पुर–स्त्रियाँ उस अनीतिपूर्ण मल्ल्युद्ध को देखकर वहाँ से उठकर चलने को उद्यत हो गई। श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी का दर्शनकर कहने लगीं– अहो! सच पूछो तो ब्रजभूमि ही परम पवित्र और धन्य है। वहाँ परम पुरुषोत्तम मनुष्य के वेश में छिपकर रहते हैं। देवादिदेव महादेव शंकर और लक्ष्मी जी जिनके चरणकमलों की पूजा करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ रंग–बिरंगे पूष्पों की माला धारणकर गऊओं के पीछे–पीछे सखाओं और बलरामजी के साथ बाँसुरी–बजाते और नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हुए आनन्द से विचरण करते हैं। श्रीकृष्ण की इस रूपमधुरिमा का आस्वादन केवल ब्रजवासियों एवं विशेषकर गोपियों के लिए ही सुलभ है। वहाँ के मयूर, शुक, सारी, गौएँ, बछड़े तथा नदियाँ सभी धन्य हैं। वे स्वच्छन्द रूप से श्रीकृष्ण की विविध प्रकार की माधुरियों का पान करके निहाल हो जाते हैं। अभी वे ऐसी चर्चा कर ही रही थीं कि श्रीकृष्ण ने चाणूर और बलरामजी ने मुष्टिक को पछाड़कर उनका वध कर दिया। तदनन्तर कूट, शल, तोषल आदि भी मारे गये। इतने में कंस ने क्रोधित होकर श्रीकृष्ण–बलदेव और नन्द–वसुदेव सबको बंदी बनाने के लिए आदेश दिया। किन्तु, सबके देखते ही देखते बड़े वेग से उछलकर श्रीकृष्ण उसके मञ्च पर पहुँच गये और उसकी चोटी पकड़कर नीचे गिरा दिया तथा उसकी छाती के ऊपर कूद गये, जिससे उसके प्राण पखेरू उड़ गये। इस प्रकार सहज ही कंस मारा गया। श्रीकृष्ण ने रंगशाला में अनुचरों के साथ कंस का उद्धार किया। कंस के पूजित शंकर जी इस रंग को देखकर कृत-कृत्य हो गये। इसलिए उनका नाम श्रीरंगेश्वर हुआ। यह स्थान आज भी कृष्ण की इस रंगमयी लीला की पताका फहरा रहा है। श्रीमद्भागवत के अनुसार तथा श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद के विचार से कंस का वध शिवरात्रि के दिन हुआ था। क्योंकि कंस ने अक्रूर को एकादशी की रात अपने घर बुलाया तथा उससे मन्त्रणा की थी।

द्वादशी को अक्रूर का नन्द भवन में पहुँचना हुआ, त्रयोदशी को नन्दगाँव से अक्रूर के रथ में श्रीकृष्ण बलराम मथुरा में आये, शाम को मथुरा नगर भ्रमण तथा धनुष यज्ञ हुआ था। दूसरे दिन अर्थात शिव चतुर्दशी के दिन कुवलयापीड़, चाणुरमुष्टिक एवं कंस का वध हुआ था।

प्रतिवर्ष यहाँ कार्तिक माह में देवोत्थान एकादशी से एक दिन पूर्व शुक्ला दशमी के दिन चौबे समाज की ओर से कंस-वध मेले का आयोजन किया जाता है। उस दिन कंस की 25–30 फुट ऊँची मूर्ति का श्रीकृष्ण के द्वारा वध प्रदर्शित होता है।

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