रंग नाथ जी का मन्दिर

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श्री सम्प्रदाय के संस्थापक रामानुजाचार्य के विष्णु-स्वरूप भगवान रंगनाथ या रंगजी के नाम से रंग जी का मन्दिर सेठ लखमीचन्द के भाई सेठ गोविन्ददास और राधाकृष्ण दास द्वारा निर्माण कराया गया था । उनके महान गुरू संस्कृत के उद्भट आचार्य स्वामी रंगाचार्य द्वारा दिये गये मद्रास के रंगनाथ मन्दिर की शैली के मानचित्र के आधार पर यह बना था । इसकी लागत पैंतालीस लाख रूपये आई थी । इसकी बाहरी दीवार की लम्बाई 773 फीट और चौड़ाई 440 फीट है । मन्दिर के अतिरिक्त एक सुन्दर सरोवर और एक बाग़ भी अलग से इससे संलग्न किया गया है । मन्दिर के द्वार का गोपुर काफी ऊँचा है । भगवान रंगनाथ के सामने साठ फीट ऊँचा और लगभग बीस फीट भूमि के भीतर धँसा हुआ तांबे का एक ध्वज स्तम्भ बनाया गया । इस अकेले स्तम्भ की लागत दस हज़ार रूपये आई थी। मन्दिर का मुख्य द्वार 93 फीट ऊँचे मंडप से ढका हुआ है। यह मथुरा शैली का है। इससे थोड़ी दूर एक छत से ढका हुआ निर्माण है, जिसमें भगवान का रथ रखा जाता है । यह लकड़ी का बना हुआ है और विशालकाय है। यह रथ वर्ष में केवल एक बार ब्रह्मोत्सव के समय चैत्र में बाहर निकाला जाता है। यह ब्रह्मोत्सव-मेला दस दिन तक लगता है । प्रतिदिन मन्दिर से भगवान रथ में जाते हैं । सड़क से चल कर रथ 690 गज़ रंग जी के बाग़ तक जाता है जहाँ स्वागत के लिए मंच बना हुआ है । इस जलूस के साथ संगीत, सुगन्ध सामग्री और मशालें रहती हैं । जिस दिन रथ प्रयोग मे लाया जाता है, उस दिन अष्टधातु की मूर्ति रथ के मध्य स्थापित की जाती है । इसके दोनों ओर चौरधारी ब्राह्मण खड़े रहते हैं । भीड़ के साथ सेठ लोग भी जब-तब रथ के रस्से को पकड कर खींचतें हैं । लगभग ढ़ाई घन्टे के अन्तराल में काफी जोर लगाकर यह दूरी पार कर ली जाती है । अगामी दिन शाम की बेला में आतिशबाजी का शानदार प्रदर्शन किया जाता है । आसपास के दर्शनार्थियों की भीड़ भी इस अवसर पर एकत्र होती है । अन्य दिनों जब रथ प्रयोग में नहीं आता तो भगवान की यात्रा के लिए कई वाहन रहते हैं- कभी जड़ाऊ पालकी तो कभी पुण्य कोठी, तो कभी सिंहासन होता है । कभी कदम्ब तो कभी कल्पवृक्ष रहता है । कभी कभी किसी उपदेवता को भी वाहन के रूप में प्रयोग किया जाता है । जैसे-सूरज, गरूड़, हनुमान या शेषनाग । कभी घोड़ा, हाथी, सिंह, राजहंस या पौराणिक शरभ जैसे चतुष्पद भी प्रयोग में लाये जाते हैं ।

मथुरा, ए डिस्‍ट्रिक्‍ट मैमोयर, लेखक- एफ ऐस ग्राउस( 1874) का रथ के मेले का व्यय हिसाब


इस समारोह में लगभग पाँच हज़ार रूपये की धनराशि व्यय की जाती है । वर्ष भर के रखरखाव का व्यय सत्तावन हज़ार से कम नहीं होता । इसमें से तीस हज़ार की सबसे बड़ी मद तो भोग में ही ख़र्च होती है । भगवान के सामने रखा जा कर यह भोग पुजारियों द्वारा प्रयोग कर लिया जाता है या दान कर दिया जाता है । प्रतिदिन पाँच सौ श्री संम्प्रदाय अनुयायी वैष्णवों को जिमाया जाता है । प्रत्येक सवेरे दस बजे तक आटे का पात्र किसी भी प्रार्थना कर्त्ता को दे दिया जाता है । मन्दिर से 33 गाँवों की जायदाद लगी हुई है । इससे एक लाख सत्रह हजार रूपये की आय होती है । इसमें से शासन चौसठ हजार रूपये लेता है । इन तैंतीस गाँवों में से चौथाई वृन्दावन समेत तेरह गाँव मथुरा में पड़ते हैं और बीस आगरा ज़िले में । साल भर में भेंट चढ़ावा बीस हज़ार रूपये के लगभग मूल्य का आता है । निधियों में लगाए गए धन से ग्यारह हजार आठ सौ रूपये का ब्याज़ मिलता है। सन् 1868 में स्वामी ने पूरी जमींदारी एक प्रबंध समिति को हस्तान्तिरित कर दी थी । इसमें दो हज़ार रूपये की टिकटें लगीं थी । स्वामी के बाद श्री निवासाचार्य को नामजद किया गया था, जो अपने पूर्वज की भाँति विद्वान न हो कर सामान्यजन की भाँति शिक्षित था । उसके दुराचरण के कारण व्यवस्था करने की आवश्यकता आ पड़ी । उसकी लम्पटता जगजाहिर और कुख्यात थी । उसकी फ़िज़ूलख़र्ची की कोई सीमा नहीं थी । अपने पिता के निधन के बाद वह कुछ गुज़ारा भत्ता पाता रहा । मन्दिर की व्यवस्था-सेवा के लिए मद्रास से दूसरे गुरू लाये गये। जमींदारी पूरी तरह छ: सदस्यों की एक समिति के नियंत्रण में रही । इनमें से सबसे उत्साही सेठ नारायण दास थे । सेठ को न्यासियों का मुख़्तार आम बनाया गया था । मन्दिर की बीस लाख की सम्पत्ति इसी सेठ के नाम कर दी गई । इस सुप्रबन्ध के बाद उत्सव समारोहों के आयोजनों में कोई गिरावट नहीं आने पाई और न दातव्यों की उदारता ही घटी बल्कि दफ़्तर के वैतनिक व्यय में भी कमी हुई । प्राभूत वाले गाँवों में से तीन गाँव महावन में और दो जलेसर में थे। जयपुर नरेश मानसिंह ने रंगजी मन्दिर को ये दान किये थे । यद्यपि वह राजसिंहासन का वैधानिक उत्तराधिकारी था फिर भी वह उस पर कभी न बैठा । राजा पृथिवीसिंह की रानी के गर्भ से वह उसके निधनोपरांत पैदा हुआ था । सन् 1779 ई० में पृथिवीसिंह की मृत्यु के बाद उनके भाई प्रताप सिंह ने उत्तराधिकार का दावा किया । दौलतराव सिंधिया ने इससे भतीजे मानसिंह का अधिकार रोक दिया । मानसिंह युवा राजकुमार था और साहित्य और धर्म के प्रति समर्पित था । तीस हज़ार रूपये वार्षिक आय के आश्वासन पर राजा की उपाधि त्यागकर वह वृन्दावन वास करने लगा । उसने कठिन धार्मिक नियमों के पालन में शेष जीवनकाल यहीं व्यतीत किया। सत्तर वर्ष की आयु में सन् 1848 में उसका वहीं निधन हुआ । सत्ताईस वर्ष पर्यंत पालथी मारे एक ही मुद्रा में बैठा रहा । वह अपने आसन से नही उठता था । सप्ताह में बस एक बार ही प्राकृतिक विवशता वश आसन छोड़ता था । पाँच दिन पूर्व ही उसने अपने अन्त की भविष्यवाणी की थी और अपने बूढे सेवकों की देखभाल करने की प्रार्थना सेठ से की थी। उनमें से लक्ष्मी नारायण व्यास नामक एक सेवक सन् 1874 तक अपनी मृत्यु पर्यन्त मन्दिर की जमींदारी का प्रबन्धक बना रहा।