रसखान व्यक्तित्व और कृतित्व

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रसखान व्यक्तित्व और कृतित्व

रसखान की समाधि महावन, मथुरा
Raskhan's Grave, Mahavan, Mathura

हिंन्दी साहित्य के मध्यकालीन कृष्ण-भक्त कवियों में रसखान की कृष्ण-भक्ति निश्चय ही सराहनीय, लोकप्रिय और निर्विवाद है। कृष्ण-भक्ति और काव्य-सौंदर्य की दृष्टि से 'सुजान रसखान' और 'प्रेमवाटिका' के रचयिता रसखान हिन्दी साहित्य जगत के एक जाज्वल्यमान नक्षत्र के रूप में भारत के जन-जन के हृदय को आज भी भावनात्मक एकता के अग्रदूत के रूप में प्रकाश प्रदान करते हैं।
दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता के अनुसार
वार्ता साहित्य में सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' है। इस वार्ता के अनुसार रसखान दिल्ली में रहते थे। एक बनिए के पुत्र के प्रति आसक्त थे।[१] इस आसक्ति की चर्चा होने लगी। कुछ वैष्णवों ने रसखान से कहा कि यदि इतना प्रेम तुम भगवान से करो तो उद्धार हो जाए। रसखान ने पूछा कि भगवान कहां है? वैष्णवों ने उनको कृष्ण भगवान का एक चित्र दे दिया।[२] रसखान चित्र को लेकर भगवान की तलाश में ब्रज पहुंचे। अनेक मंदिरों में दर्शन करने के उपरांत अपने आराध्य की खोज में ये गोविन्द कुण्ड पर जा बैठे और श्रीनाथ जी के मंदिर को टकटकी लगाकर देखने लगे। आरती के पश्चात श्रीनाथ जी इनका ध्यान करके द्रवीभूत हो गए[३]और चित्र वाला स्वरूप बनाकर दर्शन देने आये।[४] रसखान उन्हें अपना महबूब जानकर पकड़ने दौड़े।[५] श्रीनाथ जी अंतर्धान होकर गोकुल पधारे और श्री गोसाईं जी को संपूर्ण घटना सुनाई। उसके बाद श्री गोसाईं जी ने रसखान को दर्शन दिए और अपने मंदिर में बुलवा लिया।[६]रसखान दर्शन करके बहुत प्रसन्न हुए। वहीं रहकर लीला गान करने लगे। इस वार्ता के अनुसार उन्हें गोपी भाव की सिद्धि हुई। इस वार्ता से यह पता चलता है कि रसखान का संबंध स्वामी विट्ठलनाथ जी से रहा। वार्ता में वर्णित कुछ घटनाओं के संकेत रसखान के काव्य में भी मिलते हैं। रसखान ने भी प्रेमवाटिका में छवि दर्शन<balloon title="प्रेमवाटिका, 50" style=color:blue>*</balloon> की चर्चा की है। 'सुजान रसखान' में लीला वर्णन भी मिलता है। वार्ता के अनुसार ये लीला के दर्शन[७]करके ही कवित्त, सवैयों और दोहों की रचना करते थे और इन्हें गोपी भाव भी सिद्ध हुआ था।

नव भक्तमाल के अनुसार
इसके रचयिता श्रीराधाचरण गोस्वामी ने रसखान के संबंध में लिखा है। इस वर्णन में तथा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में मुख्य अंतर यही है कि 'नव भक्त-माल' के कर्ता के अनुसार दर्शन न पाने पर व्यंग्य रचना कर रसखान ने भगवान से कुछ उपालंभपूर्ण वचन कहे। 'भक्तमाल' की टीका के अनुसार रहीम ने ऐसी ही परिस्थिति में व्यंग्यपूर्ण दोहे रचे थे। अनुमानत: गोस्वामी जी ने यही बात रसखान के संबंध में भी कह डाली।
मूलगोसाईंचरित के अनुसार
संवत् 1687 में रचित बाबा वेणीमाधव दास कृत 'मूलगुसाईंचरित' में भी रसखान का उल्लेख मिलता है। उसमें लिखा है कि 'रामचरितमानस' की रचना दो वर्ष, सात मास और छब्बीस दिवस में संवत 1633 में समाप्त हुई। सबसे पहले मिथिला के रूपारण्य स्वामी ने अयोध्या में इसका श्रवण किया। फिर संडीले के हरदोई ज़िला के स्वामी जंदलाल के शिष्य 'दयाल दास' अथवा दलालदास ने उसकी एक प्रति लिखी और अपने स्थान पर लौटकर तीन वर्ष तक यमुना तट पर मानस को अपने गुरु और रसखान को सुनाया। मूल ग्रंथ का यह अंश इस प्रकार है:
मिथिला के सुसन्त सुजाने हते। मिथिलाधिप भाव पगे रहते॥
सुचि नाम रूपासन स्वामि जुतो। तिहि औसर<balloon title="रामचरित मानस की रचना समाप्त होने पर सं0 1633 में" style=color:blue>*</balloon> औध में आयौ हुतौ॥
प्रथमै यह मानस तेई सुने। तिहि के अधिकारी गुसाईं गुने॥
स्वामीनन्द (सु) लाल<balloon title="संडीला तें आई के, वसु स्वामी नन्दलाल" style=color:blue>*</balloon> को सिशय पुनी। तिस नाम दलाल सुदास गुनी॥
लिखि के सोइर पोथि स्वठाम गयो। गुरु के ढिंग जाय सुनाय दयो॥
जमना तट पर त्रय वत्सा लो। रसखान जाई सुनवत भौ॥<balloon title="पोद्दार-अभिनन्दन-ग्रंथ, भक्त कवि रसखान, पृ0 305" style=color:blue>*</balloon> इस उल्लेख के अनुसार संवत 1634 से 1636 पर्यंत तीन वर्ष तक रसखान ने 'रामचरितमानस' की कथा सुनी। रसखान ने राम संबंधी किसी पद की रचना न करते हुए भी मानस अवश्य सुना होगा; क्योंकि उनका दृष्टिकोण उदार था। वे सबको समान भाव से देखते थे। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त उन्होंने शिव, गंगा आदि पर छंद लिखे। यदि उन्होंने राम के संबंध में काव्य रचना नहीं की तो उनके संबंध में यह धारणा बना लेना तर्क संगत नहीं है कि वे राम काव्य को सुनना भी पंसद नहीं करेंगे अर्थात उन्होंने रामचरितमानस की कथा चाव से सुनी होगी। मूल गोसाईं चरित के अनुसार रसखान तीन वर्ष तक यमुना तट पर रामचरितमानस की कथा सुनते रहे।

रसखान के दोहे महावन, मथुरा
Raskhan Couplets, Mahavan, Mathura

शिवसिंह सरोज के अनुसार
शिवसिंह सरोज ने अपने इतिहास-ग्रंथ में लिखा है कि 'रसखान कवि' सैयद इब्राहीम पिहानी वाले संवत 1630 में हुए। ये मुसलमान कवि थे। श्री वृन्दावन में जाकर कृष्णचंद्र की भक्ति में ऐसे डूबे कि फिर मुसलमानी धर्म त्याग कर माला कंठी धारण किए हुए वृन्दावन की रज में मिल गए। उनकी कविता निपट ललित माधुरी से भरी हुई है। इनकी कथा 'भक्तमाल' में पढ़ने योग्य है।<balloon title="शिवसिंह सरोज, पृ0 439" style=color:blue>*</balloon>
मिश्रबंधु विनोद के अनुसार
'रसखान समय 1645। इनको बहुत लोग सैयद इब्राहीम पिहानी वाले समझते हैं। परंतु वह महाशय वास्तव में दिल्ली के पठान थे। जैसा कि 'दो सौ बावन वैष्णवन' की वार्ता में लिखा है। रसखान ने अपना समय अनुचित व्यवहारों में भी व्यतीत किया था, अत: उनकी कविता का आदिकाल भी 25 वर्ष की अवस्था से प्रारंभ होना अनुमान-सिद्ध नहीं है। विठलेश जी का मरण काल सं0 1643 है, सो सं0 1640 के लगभग उनका शिष्य होना जान पड़ता है। अत: जन्मकाल हम 1615 के लगभग समझते हैं। उनकी अवस्था 70 वर्ष की मानने से उनका मरण काल सं0 1685 मानना पड़ेगा।'<balloon title="मिश्रबंधु विनोद, प्रथम भाग, पृ0 292" style=color:blue>*</balloon>
हिन्दी-साहित्य का प्रथम इतिहास
अब्राहम जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है सैयद इब्राहीम उपनाम रसखान कवि, हरदोई ज़िले के अंतर्गत पिहानी के रहने वाले, जन्म काल 1573 ई॰। यह पहले मुसलमान थे। बाद में वैष्णव होकर ब्रज में रहने लगे थे। इनका वर्णन 'भक्तमाल' में है। इनके एक शिष्य कादिर बख्श हुए।<balloon title="हिन्दी-साहित्य का प्रथम इतिहास, पृ0 107" style=color:blue>*</balloon>
हिन्दी-साहिय का इतिहास
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी-साहित्य के इतिहास में रसखान के संबंध में लिखा है- दिल्ली के एक पठान सरदार थे। इन्होंने 'प्रेमवाटिका' में अपने को शाही वंश का कहा है। संभव है पठान बादशाहों की कुल परंपरा से इनका संबंध रहा हो। ये बड़े भारी कृष्ण भक्त और गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के बड़े कृपापात्र शिष्य थे। इनका रचना काल सं0 1640 के उपरांत ही माना जा सकता है क्योंकि गोसाईं विट्ठलनाथ जी का गोलोकवास सं0 1643 में हुआ था। 'प्रेमवाटिका' का रचनाकाल सं0 1671 है।<balloon title="हिन्दी-साहित्य का इतिहास, पृ0 176" style=color:blue>*</balloon>
हिन्दी-साहित्य
आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने इतिहास में दो रसखान बताये हैं। सबमें प्रमुख है बादशाह वंश की ठसक छोड़ने वाले सुजान रसखानि। इस नाम के दो मुसलमान भक्त कवि बताए जाते हैं।

  1. एक तो सैयद इब्राहीम पिहानी वाले और
  2. दूसरे गोसाई विट्ठलनाथ जी के कृपापात्र शिष्य सुजान रसखान। दूसरे अधिक प्रसिद्ध हैं। संभवत: यह पठान थे इसीलिए अपने को बादशाह वंश का लिखा है।<balloon title="हिन्दी-साहित्य, पृ0 205" style=color:blue>*</balloon>

हिन्दी के मुसलमान कवियों का प्रेम-काव्य
गुरुदेव प्रसाद वर्मा ने 'हिन्दी के मुसलमान कवियों का प्रेम काव्य' नामक पुस्तक में लिखा है कि आपके जन्म संवत के बारे में मतभेद है। यह प्रसिद्ध है कि रसखान ने श्री वल्लभाचार्य के पुत्र श्री विट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली। विट्ठलनाथ की मृत्यु संवत 1642 विक्रमी में हुई, अत: दीक्षा इसके पूर्व ही ली होगी। यदि दीक्षा ग्रहण का समय संवत 1640 माना जाय और उस समय उनकी अवस्था 25 वर्ष मानी जाय तो अनुचित न होगा। इस प्रकार जन्म संवत 1615 विक्रमी के आस-पास माना जा सकता है। जनश्रुति है कि रसखान के हृदय में भगवद्-विषयक रति का आविर्भाव 'भागवत' के फारसी कर उन्हें ध्यान हुआ कि उसी से क्यों न मन लगाया जाय, जिस पर इतनी गोपियां अपने प्राण अर्पण करती हैं। यह विचार कर ये वृन्दावन चले गये।<balloon title="हिन्दी के मुसलमान कवियों का प्रेम काव्य, पृ0 79" style=color:blue>*</balloon> इस पुस्तक में भी अन्य पुस्तकों से मिलते-जुलते तथ्यों का निरूपण किया गया है।
ए हिस्ट्री आफ हिन्दी लिटरेचर
एफ0 ई॰ के0 ने अपनी इस पुस्तक में रसखान के विषय में कहा है कि यह पहले मुसलमान थे और इनका नाम सैयद इब्राहीम था। ये कृष्ण के भक्त हुए हैं। इन्होंने कृष्ण की प्रशंसा में काव्य-रचना की जो अति सुन्दर एवं मधुर है। उनके एक शिष्य कादिर बख़्त थे। उन्होंने भी हिन्दी में काव्य-रचना की।<balloon title="ए हिस्ट्री आफ हिन्दी लिटरेचर, पृ0 68" style=color:blue>*</balloon>
नया दौर (उर्दू)
अगस्त 1960 में 'सरस्वती शरण कैफ' के लेख 'हिन्दी के मुसलमान शाइर' में उन्होंने रसखान के संबंध में लिखा है कि रसखान का असली नाम मालूम नहीं। ये दिल्ली के एक पठान सरदार के लड़के थे। जवानी में यह एक बनिये के लड़के पर आशिक हो गये और इसके पीछे दीवानावार घूमने लगे। एक रोज उन्होंने बाज़ार में किसी को कहते सुना कि भगवान कृष्ण से ऐसी ही मुहब्बत करनी चाहिए जैसी रसखान को बनिये के लड़के से है। इस जुमले (वाक्य) ने रसखान के रूहानी शऊर (आत्मा को) जगा दिया और ये वृन्दावन को चल खड़े हुए। वहां जाकर गोसाईं विट्ठलनाथ के चेले हो गए और रूहानियत के इस दर्जे पर पहुंच गए कि उनका ज़िक्र (चर्चा) मशहूर मजहबी किताब 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में आ गया।<balloon title="नया दौर उर्दू, पृ0 56" style=color:blue>*</balloon>

रसखान: जीवन और कृतित्व

  • देवेन्द्र प्रताप उपाध्याय ने अपनी इस पुस्तक में कहा है कि रसखान का जन्म सं0 1630, जीवन से विराग संवत 1664, प्रेम वाटिका की रचना सं0 1672 और मृत्यु संवत 1690 के लगभग माना जाय तो अधिक संगत होगा। इस प्रस्ताव में यह स्मरणीय है कि संवत 1962-64 में ही जहाँगीर और खुसरो का भयानक संघर्ष भी होता है।<balloon title="रसखान : जीवन और कृतित्व, पृ0 48" style=color:blue>*</balloon> कृष्ण-काव्य में गीति-काव्य का महत्वपूर्ण स्थान है। संवत 1600 से पहले लगभग सभी भक्तों ने पद-रचना को अपनाया।
  • विद्यापति के काव्य में हमें इसका सूत्रपात मिलता है। कबीर ने भी पद रचना की। मीरा से लेकर अष्टछाप के कवियों ने भी इस पद्धति को अपनाया। संवत 1600 के बाद ही कवित्त सवैयों की परम्परा आरम्भ होती है। इसलिए रसखान का रचना काल सं0 1600 से पूर्व नहीं माना जा सकता। 'प्रेमवाटिका' के कुछ दोहों से रसखान के जीवन पर प्रकाश पड़ता है।[८]रसखान के समय में दिल्ली में राज-सत्ता के लिए ग़दर एवं युद्ध हुआ जिसे देखकर रसखान ने बादशाह वंश की ठसक छोड़ दी अर्थात दरबार से या शहंशाहे वक़्त से उनके जो संबंध थे उसको त्याग कर ब्रज आये तथा गोवर्धन पर्वत को अपना निवास स्थान बनाया, श्री कृष्ण के युगल स्वरूप की ओर यह आकर्षित हुए। रसखान ने मोहनी स्त्री के मान तथा मानिनी से संबंध-विच्छेद कर लिया। कृष्ण-छवि का दर्शन करके वे वस्तुत: 'रसखान' हो गये। इस प्रकार उन्होंने अपनी चित्तवृत्तियों का उदात्तीकरण किया। सं0 1672 में उन्होंने अपने मन के उल्लास को व्यक्त करने के लिए 'प्रेमवाटिका' की रचना की। यह कृति कृष्ण के पदपद्मों में समर्पित है जो श्रेष्ठ रसिकों के लिए उसी प्रकार आनन्दप्रद है जिस प्रकार कमल भ्रमरों के लिए। रसखान के इन दोहों के आधार पर प्राय: सभी लेखकों ने रसखान को बादशाह वंश का बताया है।
  • चन्द्रशेखर पाण्डे ने कहा है-

देखि गदर हित साहिबी, दिल्ली नगर मसान।
छिनहिं बादशाह बंश की, ठसक छौरि रसखान॥
रसखान के इस दोहे से पता चलता है कि यह बादशाह वंश के थे।<balloon title="रसखान और उनका काव्य, पृ. 2" style=color:blue>*</balloon>

  • श्री देवेन्द्र प्रताप उपाध्याय ने भी कहा है कि बादशाह वंश की ठसक उन्होंने छोड़ दी। दिल्ली नगर को त्यागा और गोवर्धन धाम में आकर कृष्ण राधा की शरण ली।<balloon title="रसखान- जीवन और कृतित्व, पृ0 40" style=color:blue>*</balloon> किंतु मेरे विचार से इनका संबंध शाही वंश से विशेष न था, यह केवल दरबार में किसी पद पर आसीन थे। मुग़ल बादशाहों के राजसत्ता के लिए हुए युद्ध से इन्हें ग्लानि हुई। बादशाह वंश की ठसक छोड़कर ये वहां से चले आए। सुजान-रसखान के कुछ पदों से भी रसखान के संबंध में कुछ पता लगता है पर इस ओर विद्वानों ने ध्यान नहीं दिया है।

देस बिदेस के देखे नरेसन रीझ की कोऊ न बूझ करैगौ।
तातें तिन्हें तजि जानि गिरयो गुन सौ गुन औगुन गांठि परैगौ॥
बांसुरीवारो बड़ौ रिझवार है स्याम जु नैसुक ढार ढरैगौ।
लाड़लो छैल वही तो अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगौ॥<balloon title="सुजान रसखान,7" style=color:blue>*</balloon> इस पद से पता चलता है कि रसखान ने कई राजाओं से संबंध स्थापित करना चाहा किंतु किसी ने उनसे रीझकर बात नहीं की अर्थात उन पर किसी की अनुकम्पा नहीं हुई। रसखान ने प्रजा, प्रजापति, दरबार<balloon title="सुजान रसखान,9" style=color:blue>*</balloon> आदि शब्दों का प्रयोग भी किया है। राजदरबार का वैभव विलास रसखान के अचेतन मन में अवश्य रहा होगा जो बाद में कविता के माध्यम से नि:सृत हुआ। अन्त में उन्होंने कह डाला कि यह सब होने पर यदि कृष्ण से स्नेह न हो तो व्यर्थ है-
कंचन-मंदिर ऊंचे बनाइ कै मानिक लाइ सदा झलकैयत।
प्रात ही तें सगरी नगरी नग मोतिन की तुलानि तुलैयत।
जद्यपि दीन प्रजान प्रजापति की प्रभुता मधवा ललचैयत।
ऐसे भए तौ कहा रसखानि जो सांवरे ग्वार सों नेह न लैयत॥<balloon title="सुजान रसखान, 7" style=color:blue>*</balloon> कलधौत के धाम भी रसखान की स्मृति में आते हैं। उन्हें वे कुरील कुंजों पर वार<balloon title="सुजान रसखान, 3" style=color:blue>*</balloon> कर संतोष कर लेते हैं। रसखान ने किस सुन्दर ढंग से शाही शान के दर्शन कराये है-
लाल लसै पगिया सब के, सब के पट कोटि सुगंधनि भीने।
अंगनि अंग सजे सब हीं रसखानि अनेक जराउ नवीने॥<balloon title="सुजान रसखान, 137" style=color:blue>*</balloon> लाल पगिया, जरतारी पगिया, सगंधित वस्त्र, अंग जराऊ आभूषणों, मोतियों की मालाएं, इन सबका संबंध सरदार अमीरों से होता है। यह उपकरण रसखान के जीवन के इस तथ्य का उद्घाटन करते हैं कि उनका दरबार से संबंध अवश्य रहा। किसी संकटकाल में रसखान ने यह विचार कर संतोष किया—
काहे को सोच करै रसखानि कहा करिहै रबिनंद बिचारो।
ता खन जा खन राखियै माखन-चाखन हारो सो राखनहारो।<balloon title="सुजान रसखान, 18" style=color:blue>*</balloon> ऐसा भी प्रतीत होता है कि किसी ने इनकी चुगली शाहे वक़्त से की। उससे खीज कर निर्भीकतापूर्वक रसखान ने यह दोहा कहा— कहा करै रसखानि को कोऊ चुगुल लबार,
जौ पै राखनहार है माखन-चाखन हार॥<balloon title="सुजान रसखान, 19" style=color:blue>*</balloon>

जन्म संवत

रसखान के जन्म-संवत के विषय में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। अनेक विद्वानों में इनका जन्म संवत 1615 माना है।

  • शिवसिंह सरोज और उन्हीं के आधार पर वेंद्रप्रताप उपाध्याय ने रसखान का जन्म संवत् 1630 विक्रमी माना है।<balloon title="रसखान- जीवन और कृतित्व, पृ0 48" style=color:blue>*</balloon> यदि रसखान का जन्म-संवत 1615 मान लिया जाए तो इनके ब्रज में आने का समय क्या होगा? इसका अनुमान लगाना कठिन हो जाएगा। रसखान ने स्वयं बतलाया है कि ग़दर के कारण दिल्ली नगर श्मशान बन गया तब वे उसे छोड़ कर ब्रज चले गए।[९] ऐतिहासिक साक्ष्य<balloon title="वाक्यात दारूल हुकूमत देहली, पृ0 308" style=color:blue>*</balloon> के आधार पर पता चलता है कि उपर्युक्त ग़दर सं0 1613 में हुआ था। इससे स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि उनका जन्म सं0 1613 से पहले हो चुका था और वे इतने वयस्क हो चुके थे कि ग़दर के बाद ही ब्रज चले गए। इसलिए सं0 1615 में उनका जन्म मानना उचित नहीं प्रतीत होता। रसखान का जन्म संवत 1590 में मानना अधिक समीचीन प्रतीत होता है।
  • भवानीशंकर याज्ञिक जी ने भी यही माना है। अनेक तथ्यों के द्वारा उन्होंने अपने इस मत की पुष्टि भी की है। ऐतिहासिक ग्रंथों के आधार पर भी यही तथ्य सामने आता है।<balloon title="पोद्दार अभिनन्दन-ग्रंथ का रसखान सम्बन्धी लेख।" style=color:blue>*</balloon> अत: यह मत अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है।

जन्म स्थान

रसखान के जन्म-स्थान के विषय में भी अनेक मत हैं।

  • रसखान ने संभवत: पिहानी अथवा दिल्ली को ही जन्म लेकर पवित्र किया होगा। दिल्ली शब्द का प्रयोग केवल एक बार उनके काव्य में मिलता है जिससे यह सिद्ध होता है कि राजसत्ता के लिए हुए युद्ध के कारण दिल्ली नगर को श्मशान-भूमि के रूप में देखकर रसखान वहां से मथुरा चले गए।<balloon title="प्रेम वाटिका 48" style=color:blue>*</balloon> इस आधार पर विद्वानों ने दिल्ली को रसखान का जन्म-स्थान बताया है। रसखान दिल्ली में अवश्य रहे किन्तु दिल्ली को उनका जन्म-स्थान मानना बिना किसी सबल प्रमाण के उचित नहीं प्रतीत होता।
  • पं॰ विश्वनाथप्रसाद मिश्र का मत है कि पिहानी पठानों की बस्ती है।<balloon title="रसखानि (ग्रन्थावली), प्रस्तावना, पृ0 24" style=color:blue>*</balloon> किन्तु यह कहते समय वे भूल गए हैं कि सैयद पठान नहीं हो सकते और पठान सैयद नहीं। इसलिए कि सैयद और पठान मुसलमानों की चार प्रसिद्ध उपजातियों में से हैं। सैयद तो रसूले इस्लाम हजरत मुहम्मद की आल औलाद की सीधी चली आती परम्परागत पीढ़ी को कहते हैं।<balloon title="देखिए किसी भी सैयद या पठान का वंश-वृक्ष (शजरा)" style=color:blue>*</balloon> पठान अपनी वीरता के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके नाम के साथ 'ख़ान' शब्द का प्रयोग होता रहा है। यह 'ख़ान' शब्द वीरता का पर्यायवाची बन गया। वीरता के कार्य करने पर ख़ान की उपाधि दी जाने लगी। यदि किसी सैयद ने किसी युद्ध में साहस दिखाया या दुश्मन को परास्त कर दिया तो उसको ख़ान की उपाधि मिल जाती थीं। इस उपाधि की प्राप्ति बड़े गर्व के साथ स्वीकार की जाती थी। सैयद लोग भी उपाधि प्राप्त होने पर अपने नाम के बाद ख़ान या ख़ाँ लिखने लगे। ज़िला हरदोई सैयदों की बस्ती है। वहां सैयदों को ख़ान की उपाधि मिली इसका साक्षी बिलग्राम (ज़िला हरदोई) का इतिहास है। वहां के सैयद परम्परा से आई ख़ान की उपाधि को आज भी निबाह रहे हैं।
  • शेरशाह सूरी का पीछा करने पर हुमायूँ को कन्नौज के काजी सैयद अब्दुल गफूर ने आश्रय दिया। इससे प्रसन्न होकर अपनी कृतज्ञता का प्रकाशन करते हुए उसे हुमायूँ ने हरदोई ज़िले की तहसील शाहबाद परगना पिंडरावा में 5000 बीघे का जंगल और पांच गांव दिए। पिहानी की बस्ती के मूल में ये ही गांव हैं।<balloon title="रसखानि (ग्रंथावली, प्रस्तावना, पृ0 24" style=color:blue>*</balloon> यह स्वाभाविक ही है कि इन गांवों के साथ हुमायूँ ने सैयद अब्दुल गफूर को ख़ान की उपाधि भी दी। सैयद अब्दुल गफूर पिहानी में रहने लगे। संभवत: सैयद इब्राहीम इनके ही वंश के थे। हुमायूँ की मृत्यु के बाद अकबर की भी इस स्थान के प्रति वृत्ति बराबर बनी रही<balloon title="रसखानि (ग्रंथावली, प्रस्तावना, पृ0 24" style=color:blue>*</balloon> और सैयद इब्राहीम रसखान परिवार सहित आकर दिल्ली रहने लगे हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। इसी से 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' के लेखक ने यह कह दिया 'श्री गुसाई' जी के सेवक रसखान पठान दिल्ली में रहते, तिनकी वार्ता<balloon title="दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, वार्ता संख्या 119" style=color:blue>*</balloon>.... किन्तु 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में यह नहीं लिखा कि रसखान का जन्म भी दिल्ली में हुआ।
  • अत: हम शिवसिंह सरोज तथा हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास<balloon title="जार्ज ग्रियर्सन, पृ0 117" style=color:blue>*</balloon> तथा उपर्युक्त ऐतिहासिक तथ्यों एवं अन्य पुष्ट प्रमाणों के आधार पर रसखान की जन्म-भूमि पिहानी ज़िला हरदोई मानते हैं। पिहानी, बिलग्राम आदि ऐसे स्थान हैं जहां हिन्दी के उत्तम कोटि के मुसलमान कवि पैदा हुए।<balloon title="'मासेरूलकराम' में इनकी चर्चा विस्तार से की गई है।" style=color:blue>*</balloon> रसखान भी उसके अपवाद नहीं हैं।

नाम तथा उपनाम

रसखान के नाम के सम्बन्ध में भी अनेक मत हैं। प्रामाणिक सामग्री के अभाव में रसखान के नाम के सम्बन्ध में विद्वानों ने अनेक कल्पनाएं कीं जो सर्वथा निराधार प्रतीत होती है।

  • आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी ने भी अपनी पुस्तक 'हिन्दी साहित्य' में दो रसखान लिखे हैं- एक का नाम सैयद इब्राहीम और दूसरे का नाम सुजान रसखान है।<balloon title="हिन्दी साहित्य, पृ0 205" style=color:blue>*</balloon> वास्तव में सुजान रसखान नाम का कोई कवि नहीं। 'सुजान रसखान' तो रसखान की एक रचना का नाम है। ऐसा प्रतीत होता है कि भूल से ही आचार्य जी ने कृति का कृतिकार के रूप में उल्लेख कर दिया है क्योंकि सुजान रसखान कवि का उल्लेख हमें अन्यत्र कहीं नहीं मिला। 'रसखान' का असली नाम सैयद इब्राहीम था और ख़ान<balloon title="रसखान की जन्मस्थान-चर्चा" style=color:blue>*</balloon> उनकी परम्परागत उपाधि थी।
  • श्री देवेंद्रप्रताप उपाध्याय ने लिखा है कि सुलभ सामग्री के अनुसार स्पष्ट है कि कवि का असली नाम सैयद इब्राहीम था। दूसरा नाम रसखान तो हिन्दू होने के बाद जब कवि ने काव्य-रचना प्रारम्भ की तब प्रचलित हुआ। जब वह प्रेमदेव की छवि लिखकर मियां से रसखानि हुए तो उनमें मुस्लिम नाम की बू तक न रह गई और भक्ति के क्षेत्र में आकर के पूर्ण रसखान ही हो गए।<balloon title="रसखान: जीवन और कृतित्व, पृ0 38" style=color:blue>*</balloon> श्री देवेंद्रप्रताप उपाध्याय ने यहाँ भावुकता से काम लिया है। यह मान्यता तर्कसंगत नहीं है कि रसखान अपना धर्म परिवर्तन करके मुसलमान से हिन्दू हो गए। वास्तविकता यह है कि भगवान के प्रति परम प्रेम (भक्ति) उत्पन्न हो जाने पर उनकी दृष्टि में साम्प्रदायिक धर्म का कोई महत्त्व ही नहीं रहा। ऐसा प्रतीत होता है कि रसखान की निम्नांकित पंक्तियों ने आलोचकों को उनके धर्म-परिवर्तन के विषय में कल्पना करने के लिए प्रेरित किया है-

प्रेम देव की छविहि लखि भये मियां रसखान। उन्होंने भये मियां रसखान का अर्थ किया है'- मियां (मुसलमान) सैयद इब्राहीम खान रसखान (हिन्दू भक्त) हो गए। किन्तु इस प्रकार के अर्थ निरूपण के पक्ष में कोई अकाट्य प्रमाण नहीं दिया जा सकता। 'मियां' से मुसलमान और 'रसखान' से हिन्दू का तात्पर्य निकालना स्वमनीषा से की गई उद्भावना भी कही जा सकती है। उपरोक्त पंक्ति का उचित अर्थ यह है कि प्रेमदेव की छवि देखकर भये मियां रसखान- अर्थात रसखान मियां हो गए। मियां शब्द का अर्थ पति के अतिरिक्त नेक, भला सज्जन भी है।<balloon title="नूरूल्लुगात, चतुर्थ भाग, पृ0 723" style=color:blue>*</balloon> मियां कहकर प्रेम-भाव से छोटों और बड़ों को सम्बोधित किया जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि रसखान में जो सांसरिक बुराइयां (बनिए के लड़के की संगति, स्त्रीमोह) थीं वे प्रेमदेव की छवि देखकर दूर हो गईं और वे सज्जन हो गए। दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि मियां सैयद इब्राहीम रसान हो गए, तो भी रसखान शब्द का अर्थ रसखानि अर्थात रस की ख़ान नहीं है। इस पंक्ति में रसखान ने 'रसखानि नहीं 'रसखान' शब्द का प्रयोग किया है।

  • नवलगढ़ के राजकुमार संग्रामसिंह जी द्वारा प्राप्त रसखान के चित्र पर नागरी लिपि के साथ-साथ फारसी लिपि में भी एक स्थान पर 'रसखान' तथा दूसरे स्थान पर 'रसखां' ही लिखा है।<balloon title="यह चित्र रसखानि-ग्रंथावली के प्रारम्भ में लगा है।" style=color:blue>*</balloon> इससे भी यही सिद्ध होता है कि रसखान को रसखानि (रस की खान) नहीं बनना था केवल अपना तखल्लुस (उपनाम) रसखान रखकर कविता करना ही उनका उद्देश्य रहा। यदि उपनाम की परम्परा को लिया जाय तो उसके दर्शन हमें प्राचीन संस्कृत, प्राकृत अपभ्रंश आदि में नहीं होते।
  • डा॰ हरदेव बाहरी का मत इस विषय में उल्लेखनीय है। पुराने हस्तलेखों की एक बड़ी समस्या यह है कि लेखक के विषय में आसानी से अनुमान नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि लेखक अपना नाम कहीं भी नहीं देते। यह विशेषकर संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी के काव्य में मिलता है। भारतीय परम्परा आत्मगोपन की है, खुसरो और सूफी कवि अधिकतर अपने नाम का प्रयोग किया करते थे। कबीर ने लगभग हर पद में अपना नाम लिखा और यह परम्परा वहीं से चल पड़ी। प्रारम्भ में कवि अपना नाम संक्षेप में ही दिया करते थे। जैसे मलिक मुहम्मद जायसी के लिए 'मुहम्मद' कबीरदास के लिए 'कबीर', अब्दुल रहीम खानखाना के लिए 'रहीम'।[१०] इसे फारसी परम्परा कहिए या मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव; उस काल के तथा बाद के हिन्दी कवियों ने भी इस परम्परा को अपनाया। इस परम्परा का पालन रसखान ने भी अपने पूर्वजों की भांति किया। उन्होंने इस परम्परा को अपनाते हुए 'ख़ान' के साथ 'रस' शब्द को लेकर मौलिकता के दर्शन कराए और रसखान अर्थात रस से भरे या रसीले खान होकर, रस में तल्लीन होकर काव्य-रचना की। रस की उनके जीवन में कमी न थी। पहले लौकिक रस का आस्वादन करते रहे फिर अलौकिक रस में लीन हो काव्य-रचना करने लगे। एक स्थान पर उनके काव्य में 'रसखां' शब्द का प्रयोग भी मिलता है।

नैन दलालनि चौहटें मन-मानिक पिय हाथ।
'रसखां' ढोल बजाइकै बेच्यौ हिय जिय साथ।<balloon title="सुजान रसखान, 71" style=color:blue>*</balloon> यह कुछ कहना कि उनमें मुस्लिम नाम की बू तक न रह गई<balloon title="रसखान : जीवन और कृतित्व, पृ0 38" style=color:blue>*</balloon>, धांधलेबाजी तथा भावुकता के सिवा और कुछ नहीं है। इस सुगंध (मुस्मिम बू) के दर्शन केवल उनके नामों में ही नहीं उनके काव्य में भी मिलते हैं। रसखानि का प्रयोग रसखान ने अधिकांश स्थलों पर पाद पूर्ति के लिए किया है। उनका नाम सैयद इब्राहीम तथा उपनाम रसखान था।

बाल्यकाल और शिक्षा

रसखान एक जागीरदार पिता के पुत्र थे। इसलिए इनका लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार के साथ हुआ। यदि ऐसा न होता तो उनके काव्य में एक विशेष प्रकार की कटुता पाई जाती। सम्पन्न परिवार में उत्पन्न होने के कारण उन्हें उच्च शिक्षा दी गई होगी। उनकी विद्वत्ता के दर्शन उनके काव्य की साधिकार अभिव्यक्ति में होते हैं।ये फारसी, हिन्दी एवं संस्कृत के ज्ञाता थे। 'श्रीमद्भागवत' के फारसी अनुवाद सुनने की घटना से उनके फारसी ज्ञान का पता चलता है।[११] संस्कृत और हिन्दी भाषा के ज्ञान का साक्षी उनका काव्य है। रसखान के मकतब आदि में जाकर पढ़ने की चर्चा नहीं मिलती। समृद्धिशाली होने के कारण इनके पिता ने इनकी शिक्षा के लिए मुल्ला और पंडित आदि नियुक्त किए होंगे और वे उनसे घर पर ही पढ़ते होंगे। रसखान को बाल्यकाल से कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा। उन्होंने अपना बचपन सुखपूर्वक बिताया।

मथुरा आगमन

  • यह तो निश्चित ही है कि रसखान दिल्ली में राजसत्ता के लिए हुए युद्ध को देखकर श्रीवन आये।[१२] यह गदर कब पड़ा, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है।
  • चन्द्रशेखर पांडे लिखते हैं कि उन्होंने एक दोहे में लिखा है- देखि गदर हित साहिबी, 'दिल्ली नगर मसान', किन्तु इनके समय दिल्ली में ऐसा कोई राजविप्लव नहीं हुआ था जिसमें दिल्ली नगर श्मशान हो गया हो। संभव है षड्यंत्रकारी दिल्ली में ही मारे गए हों और रसखान के किसी परिचित पर भी आंच पहुंची हो, अत: रसखान ने इसे गदर लिख दिया हो और दिल्ली को श्मशान बताया हो।[१३]
  • पं॰ विश्वनाथ प्रसाद जी[१४], परशुराम चतुर्वेदी[१५] के अनुसार इस घटना के लिए युद्ध तथा विद्रोह दमन की संज्ञा देना अधिक उचित है। वास्तव में इसे ग़दर कहना ठीक नहीं। ग़दर[१६] शब्द अरबी का है। अरबी में इसका अर्थ बेवफाई है, और उर्दू में बग़ावत, हंगामा और बलवा आदि। यह घटना इस अर्थ पर पूरी नहीं उतरती। यह युद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से इतनी महत्त्वपूर्ण घटना नहीं है कि इसे ग़दर मान लिया जाए। दिल्ली में तो कदाचित एक भी गोली नहीं चली। किसी भी इतिहासकार ने इस घटना को ग़दर की संज्ञा नहीं दी, फिर रसखान इसे दिल्ली का ग़दर क्यों कहते।
  • आचार्य चंद्रबली पांडे के अनुसार रसखान के मसान शब्द का संबंध तत्सामयिक किसी ग़दर से नहीं है वरन स्वयं दिल्ली नगर से है। यह आवश्यक नहीं कि गद्दार लोग दिल्ली नगर में ही ग़दर मचाकर उसे मसानवत बना दें, तभी रसखान उसे मसान कहें। सच तो यह है कि दिल्ली नगर जैसा राजवंशों का मसान कोई दूसरा नगर नहीं। कौरवों से लेकर पठानों तक न जाने कितने राजवंश दिल्ली नगर में नष्ट हो चुके थे। अत: रसखान का दिल्ली नगर को मसान कहना ठीक ही था।[१७] आचार्य चंद्रबली पांडे ने बिना किसी आधार के केवल कल्पना के बल पर ही दिल्ली को मसान बना दिया। दिल्ली की भव्यता को देखकर उसके मसान होने की कल्पना करना कल्पना ही प्रतीत होती है।
  • इस घटना को ग़दर मानने में एक आपत्ति यह भी है कि यदि रसखान ने सं0 1638 की घटना को देखकर दिल्ली छोड़ी तो इससे पूर्व सं0 1634 से 1636 तक 'रामचरितमानस' की कथा कैसे सुनी। इस घटना को ग़दर मानने वाले सभी विद्वानों ने रसखान का जन्म समय सं0 1615 माना है, जिसके अनुसार रसखान की अवस्था उस समय 18वर्ष की होती है। 18वर्ष के लड़के से यह आशा करना कि वह किसी घटना से प्रभावित होकर इस प्रकार की रचना करेगा, केवल कोरी कल्पना ही कही जा सकती है।
  • श्री देवेंद्रप्रताप उपाध्याय ने और अधिक पांडित्य का प्रमाण इस घटना को जहाँगीर से मिला कर दिया है। उनके अनुसार 1671 संवत, जो प्रेमवाटिका का रचना काल हैं, वह निश्चय ही जहाँगीर का शासन काल था। इस समय कवि को यदि किसी बादशाह की ठसक हो सकती है तो बादशाही मुग़ल वंश की ही। वह ग़दर या साहिबी की लड़ाई भी बादशाही घराने तक ही सीमित थी। चाहे वह अकबर या उनके पुत्र जहाँगीर की लड़ाई हो या जहाँगीर या खुसरों की। इसमें पहली लड़ाई सं0 1658 में हुई, दूसरी सं0 1662-64 में।[१८]ग़दर उसी घटना को कहा जाएगा जिसका प्रभाव संपूर्ण देश पर पड़े, साथ ही राजधानी में भी उपद्रव मचे, जनता भी उसके कुप्रभाव से न बच सके। रसखान ने जिस ग़दर का वर्णन किया है वह संवत् 1612 और 1613 का है।[१९]
  • 23 जनवरी सन 1556 ई॰ में अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से गिरने के कारण हुमायूँ की अचानक मृत्यु हो गई और अकबर 14 फरवरी सन 1556 ई॰ (सं0 1613 वि0) को गद्दी पर बैठा। उसने पठानों को खदेड़-खदेड़कर अशक्त कर दिया। कुछ ही वर्षों में सबका दमन कर सूरवंश का नाम मिटा दिया। सिकंदरशाह सूर अकबर से संधि करके शेष जीवन बंगाल में बिताने लगा और वहीं तीन वर्ष पश्चात उनकी मृत्यु हो गई।
  • महमूदशाह आदिल को, जो चुनारगढ़ में था, बंगाल के महमूद ख़ाँ के पुत्र खिजिर ने अपने पिता के वध का बदला लेने के लिए सूरजगढ़ में परास्त कर मरवा डाला। इब्राहीम खाँ हेमू से बार-बार पराजित होकर बुन्देलखंड और फिर उड़ीसा भाग गया और कुछ वर्षों में मर गया। हुमायूँ की मृत्यु का समाचार मिलते ही हेमू पानीपत के मैदान में सेना से लड़ने गया और 5 नवम्बर 1556 ई॰ को बैरमखाँ द्वारा मारा गया।[२०] इस इतिहास प्रसिद्ध युद्ध को रसखान ने ग़दर का नाम दिया। ठीक उसी समय सं0 1612 में दिल्ली में भीषण अकाल पड़ा, जिसके कारण जनता की बड़ी दुर्दशा हुई। देश में अराजकता फैल गई। युद्ध और दुर्भिक्ष ने जनता में हाहाकार मचा दिया। मनुष्य बड़ी संख्या में मरने लगे।
  • प्रसिद्ध इतिहासकार अब्दुल कादिर बदायूंनी ने अपनी पुस्तक मुनतखिबुत्तबारीख में दुर्भिक्ष और युद्ध पीड़ित जनता का वड़ा हृदय-विदारक वर्णन किया है- इस समय (सं0 1613 वि0) में एक भयंकर अकाल पड़ा, जो आगरा, बयाना और दिल्ली में विशेष रूप से प्रचण्ड था। एक सेर ज्वारी (Jwar) का मूल्य ढाई टके (सिक्का विशेष) तक हो गया था। इस ऊंचे भाव पर भी वह अप्राप्त था। बहुतों ने विवश होकर मरने के लिए उद्यत हो अपने घरों के द्वार बंद कर लिये जिसमें दस-बीस या उनसे भी अधिक प्राणी मरने लगे। अनेक लोगों को न कफ़न मिला न क़ब्र। हिंदू जनता भी इसी प्रकार मरी। मनुष्य कांटेदार बबूल आदि वृक्षों के बीज, जंगली घास और पशुओं की खाल पर, जो धनी वर्ग द्वारा बेची जाती थी, निर्वाह करते थे। कुछ दिनों में उनके हाथ-पैरों में सूजन आने पर मृत्यु हो जाती थी। मैंने स्वयं अपनी आंखों से देखा है कि मनुष्य नर-मांस-भक्षी हो गए थे। दुर्भिक्ष पीड़ित जनता की मुखाकृति इतनी भयंकर हो गई थी कि उनकी ओर देखना कठिन था। वर्षा की कमी, दुर्भिक्ष और अन्न का अभाव तथा दो वर्ष के लगातार युद्ध के कारण समस्त देश मरूस्थल हो गया। कृषि के लिए कृषक नहीं बचे थे। लुटेरों ने भी नगरों को ख़ूब लूटा।[२१]
  • इस दुर्भिक्ष की चर्चा बशीरूद्दीन अहमद ने भी की है। उनके अनुसार अफ़ग़ानों में जो बाहमी (आपसी) कशाकश (वैमनस्य) और बेइंतजामी रही इसमें हेमू एक जंगी और बाइकबाल (तेजस्वी) राजा बन गया। प्रलय आ रही थी। ढाई रुपया सेर मकई का भाव था औ वह भी हाथ न आती थी।[२२] हेमू की योग्यता और सूझ-बूझ ने इस दशा में भी सेना के भोजन का प्रबन्ध रखा। किन्तु जब ईश्वर अपना कोप दिखाता हे तो चारों ओर से मानव को घेर लेता है। अदली अफ़ग़ान तो आगरे से लश्कर लेकर निकल गया। इधर-उधर वह अपने शत्रुओं को दबाता फिरता था। किले में एक अफ़ग़ान सरदार भोजन और युद्ध-प्रबंध के लिए आया। वह एक दिन सवेरे दीपक लिये हुए हुजरों (कोठरियों) को देख रहा था कि कहीं चिराग का गुल झड़ पड़ा। कोठे बारूद के थे, या पहले उनमें बारूद रह चुकी थी, पल भर में आधा किला उड़ गया। पत्थर की सिलें, महराबें उड़-उड़कर दरिया पार कहीं की कहीं जा पड़ीं। हज़ारों आदमी और जानवर उड़ गए।[२३]
  • पानीपत के युद्ध में हेमू को हराकर अकबर ने आगरे को राजधानी बनाया और इस कारण दिल्ली बिल्कुल वीरान हो गई।[२४] रसखान से अकाल और युद्धों से पीड़ित दिल्ली को देखा न गया। इस दुर्दशा को उन्होंने 'ग़दर' की संज्ञा दे दी। इसके बाद ही रसखान दिल्ली छोड़कर मथुरा आए।

मृत्यु

इस महान साहित्यकार की मृत्यु सं0 1671 के बाद हुई। इनका मृत्यु-स्थान मथुरा-वृन्दावन को मानना पड़ेगा। उन्होंने स्वयं भी कहा है- प्रेम निकेतन श्रीबनहिं आई गोबर्धन धाम।
लहयौ सरन चित चाहि कै, जुगल-सरूप ललाम॥[२५]इस दोहे के अनुसार रसखान गोवर्धन धाम के निकट रहने लगे। वहां उनकी मृत्यु हो गई। उनके मरने के बाद महावन में उनकी समाधि बनाई गई जो रसखान की छत्री के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। रसखान का जन्म सं0 1590 में पिहानी में हुआ। बाल्यावस्था में इन्होंने वहां से दिल्ली प्रस्थान किया। वहां सं0 1613-1614 में हुए भीषण अकाल और गदर को देखकर ये ब्रज चले गए। सं0 1634 से 1637 तक रामचरितमानस का पाठ सुना। संभवत: वहीं से उन्हें काव्य की प्रेरणा मिली। उन्होंने कृष्ण को आधार बना ब्रज में निवास कर काव्यमंदाकिनी को प्रवाहित किया। वहीं की धरती ने उन्हें अपनी आगोश में ले लिया। सं0 1671 के बाद उनकी मृत्यु हो गई।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सो वह रसखान दिल्ली में रहत हतो। सो वह एक साहूकार के बेटा के ऊपर बोहोत आसक्त भयो। सौ वाको अहर्निस देखे। औ वह छोहरा कछू खातो तो वाकी जूठनि लेई और पानी पीवतो तोहू बा को झूठो पीवे। -दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, वार्ता 219
  2. तब वा वैष्णवन की पाग में श्रीनाथ जी को चित्र हतौ।... सा काढ़ि के रसखान को दिखायों तक चित्र देखत ही रसखान को मन फिरि गयौ। -दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, वार्ता 21
  3. तब श्रीनाथ जी मन में विचारे, जो रसखान कों तो कछु देहानुसंधान है नाहीं। यह दसा देखि के श्रीनाथ जी के मन में दया आई।-दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, वार्ता 219
  4. जैसो सिंगार वा चित्र में हतो तैसोई वस्त्र आभूषण अपने श्री हस्त में धारण किए। गाय ग्वाल सखा सब साथ लै कै आप पधारे। -दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, वार्ता 219
  5. सो ऐसो निरधार करि के श्रीनाथ जी को पकरन दोरयो। -दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, वार्ता 219
  6. तब श्री गुसाईं जी ने कृपा करिके वाको नाम सुनायो पाछे खवास सो कही, जो इनको मंदिर में ले आयो। तब रसखान ने श्रीनाथ जी के दरसन किये, सो बहुत प्रसन्न भयो।- दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, वार्ता 219
  7. सो जहां जा लीला के दरसन करते तहां करते तहां ता लीला के कवित्त, दोहा, चौपाई सवैया करते। सो इनको गोपी भाव सिद्ध हुआ।-दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, वार्ता 219
  8. देखि गदर हित-साहबी, दिल्ली नगर मसान।
    छिनहिं बादसा-बंस की, ठसक छोरि रसखान॥
    प्रेम-निकेतन श्रीबनहिं, आइ गोवर्धन धाम।
    लहयौ सरन चित चाहिके, जुगल-सरूप ललाम॥
    तोरि मानिनी तैं हियो, फोरि मोहनी मान।
    प्रेम देव की छबिहि लखि भए मियां रसखान॥
    2 7 6 1 विधु सागर रस इन्दु, सुभ बरस सरस रसखानि।
    प्रेम वाटिका रचि रुचिर चिर हिय हरष बखानि॥
    अरपी श्रीहरि-चरन जुग-पदुम-पराग निहार।
    विचरहिं या में रसिकबर, मधुर-निकर अपार॥ - प्रेमवाटिका 48, 49, 50, 51, 52
  9. देखि ग़दर हित साहबी दिल्ली नगर मसान।
    छिनहि बादसा बस की ठसक छोड़ि रसखान॥– प्रेम वाटिका 48
  10. One of the most important problems about old manuscripts is that the authorship of a work cannot be easily identified because the author himself does not mention his name any where. This is particularly so in poetical works- Sanskrit. Apbhransa and even old Hindu. Indian tradition enjoined self abnegation in such deeds called Yajnas. Khusro and Soofi poets have used their names very often and Kabir used his name almost in every Pada and Saloka. This became a regular fathion in course of time. In the early stages a poet would give his short name as Muhammed (For Malik Muhammed Jaysee) Kabir (for Kabir Dass), Rahim (for Abdul Rahim Khan Khana) -Persian Influence on Hindi p. 78
  11. हिन्दी के मुसलमान कवियों का प्रेमकाव्य, पृ0 79
  12. प्रेम वाटिका 48, 49
  13. रसखान और उनका काव्य, पृ0 11
  14. रसखान ग्रन्थावली की भूमिका, पृ0 27
  15. मध्यकालीन प्रेमसाधना, पृ0 148
  16. नूरूललुगाता (उर्दू-शब्द-कोष), पृ0 578
  17. हिन्दी-कवि-चर्चा, पृ0 271
  18. रसखान: जीवन और कृतित्व, पृ0 45
  19. पोद्दार अभिनंदन-ग्रंथ, पृ0 313
  20. वाकयाते दारूल-हुकूमत देहली, पृ0 308
  21. पोद्दार-अभिनंदन-ग्रंथ, पृ0 314 से उद्धृत
  22. वाक्याते दारूल-हुकूमत, हेहली, पृ0 319
  23. वाक्याते दारूल-हुकूमत, हेहली, पृ0 319
  24. वाक्याते दारूल-हुकूमत, हेहली, पृ0 311
  25. प्रेम वाटिका, पद 42; 6. प्र0 वा0, पद 49

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