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==रामानुजाचार्य / Ramanujacharya==
 
==रामानुजाचार्य / Ramanujacharya==
[[वैष्णव]] मत की पुन: प्रतिष्ठा करने वालों में रामानुज या रामानुजाचार्य का महत्वपूर्ण स्थान है।  इनका जन्म 1207 ई0 में मद्रास के समीप पेरुबुदूर गाँव में हुआ था। श्रीरामानुजाचार्य के पिता का नाम केशव भट्ट था। जब श्रीरामानुजाचार्य की अवस्था बहुत छोटी थी, तभी इनके पिता का देहावसान हो गया। इन्होंने कांची में यादव प्रकाश नामक गुरू से वेदाध्ययन किया। इनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि ये अपने गुरू की व्याख्या में भी दोष निकाल दिया करते थे। फलत: इनके गुरू ने इन पर प्रसन्न होने के बदले ईर्ष्यालु होकर इनकी हत्या की योजना बना डाली, किन्तु भगवान की कृपा से एक व्याध और उसकी पत्नी ने इनके प्राणों की रक्षा की।  इन्होंने कांजीवरम जाकर वेदांत की शिक्षा ली। रामानुज के गुरु ने बहुत मनोयोग से शिष्य को शिक्षा दी। वेदांत का इनका ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि इनके गुरू यादवप्रकाश के लिए इनके तर्कों का उत्तर देना कठिन हो गया।  रामानुज की विद्वत्ता की ख्याति निरंतर बढ़ती गई।  वैवाहिक जीवन से ऊबकर ये संन्यासी हो गए।  अब इनका पूरा समय अध्ययन, चिंतन और भगवत-भक्ति में बीतने लगा।  इनकी शिष्य-मंडली भी बढ़ने लगी।  यहां तक कि इनके पहले के गुरू यादवप्रकाश भी इनके शिष्य बन गए।  रामानुज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत 'विशिष्टाद्वैत' कहलाता है।
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[[चित्र:Ramanujacharya.jpg|रामानुजाचार्य<br />Ramanujacharya|thumb|200px|right]][[वैष्णव]] मत की पुन: प्रतिष्ठा करने वालों में रामानुज या रामानुजाचार्य का महत्वपूर्ण स्थान है।  इनका जन्म 1207 ई0 में मद्रास के समीप पेरुबुदूर गाँव में हुआ था। श्रीरामानुजाचार्य के पिता का नाम केशव भट्ट था। जब श्रीरामानुजाचार्य की अवस्था बहुत छोटी थी, तभी इनके पिता का देहावसान हो गया। इन्होंने कांची में यादव प्रकाश नामक गुरू से वेदाध्ययन किया। इनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि ये अपने गुरू की व्याख्या में भी दोष निकाल दिया करते थे। फलत: इनके गुरू ने इन पर प्रसन्न होने के बदले ईर्ष्यालु होकर इनकी हत्या की योजना बना डाली, किन्तु भगवान की कृपा से एक व्याध और उसकी पत्नी ने इनके प्राणों की रक्षा की।  इन्होंने कांजीवरम जाकर वेदांत की शिक्षा ली। रामानुज के गुरु ने बहुत मनोयोग से शिष्य को शिक्षा दी। वेदांत का इनका ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि इनके गुरू यादवप्रकाश के लिए इनके तर्कों का उत्तर देना कठिन हो गया।  रामानुज की विद्वत्ता की ख्याति निरंतर बढ़ती गई।  वैवाहिक जीवन से ऊबकर ये संन्यासी हो गए।  अब इनका पूरा समय अध्ययन, चिंतन और भगवत-भक्ति में बीतने लगा।  इनकी शिष्य-मंडली भी बढ़ने लगी।  यहां तक कि इनके पहले के गुरू यादवप्रकाश भी इनके शिष्य बन गए।  रामानुज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत 'विशिष्टाद्वैत' कहलाता है।
 
==चरित्र==
 
==चरित्र==
 
श्रीरामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान, सदाचारी, धैर्यवान और उदार थे। चरित्रबल और भक्ति में तो ये अद्वितीय थे। इन्हें योगसिद्धियाँ भी प्राप्त थीं। ये श्रीयामुनाचार्य की शिष्य-परम्परा में थे। जब श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु सन्निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा श्रीरामानुजाचार्य को अपने पास बुलवाया, किन्तु इनके पहुँचने के पूर्व ही श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु हो गयी। वहाँ पहुँचने पर इन्होंने देखा कि श्रीयामुनाचार्य की तीन अंगुलियाँ मुड़ी हुई थीं। श्रीरामानुजाचार्य को समझ लिया कि श्रीयामुनाचार्य इनके माध्यम से 'ब्रह्मसूत्र', 'विष्णुसहस्त्रनाम' और अलवन्दारों के 'दिव्य प्रबन्धम्' की टीका करवाना चाहते हैं। इन्होंने श्रीयामुनाचार्य के मृत शरीर को प्रणाम किया और कहा- 'भगवन्! मैं आपकी इस अन्तिम इच्छा को अवश्य पूरी करूँगा।'
 
श्रीरामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान, सदाचारी, धैर्यवान और उदार थे। चरित्रबल और भक्ति में तो ये अद्वितीय थे। इन्हें योगसिद्धियाँ भी प्राप्त थीं। ये श्रीयामुनाचार्य की शिष्य-परम्परा में थे। जब श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु सन्निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा श्रीरामानुजाचार्य को अपने पास बुलवाया, किन्तु इनके पहुँचने के पूर्व ही श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु हो गयी। वहाँ पहुँचने पर इन्होंने देखा कि श्रीयामुनाचार्य की तीन अंगुलियाँ मुड़ी हुई थीं। श्रीरामानुजाचार्य को समझ लिया कि श्रीयामुनाचार्य इनके माध्यम से 'ब्रह्मसूत्र', 'विष्णुसहस्त्रनाम' और अलवन्दारों के 'दिव्य प्रबन्धम्' की टीका करवाना चाहते हैं। इन्होंने श्रीयामुनाचार्य के मृत शरीर को प्रणाम किया और कहा- 'भगवन्! मैं आपकी इस अन्तिम इच्छा को अवश्य पूरी करूँगा।'

१३:४४, ८ नवम्बर २००९ का अवतरण

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रामानुजाचार्य / Ramanujacharya

रामानुजाचार्य
Ramanujacharya

वैष्णव मत की पुन: प्रतिष्ठा करने वालों में रामानुज या रामानुजाचार्य का महत्वपूर्ण स्थान है। इनका जन्म 1207 ई0 में मद्रास के समीप पेरुबुदूर गाँव में हुआ था। श्रीरामानुजाचार्य के पिता का नाम केशव भट्ट था। जब श्रीरामानुजाचार्य की अवस्था बहुत छोटी थी, तभी इनके पिता का देहावसान हो गया। इन्होंने कांची में यादव प्रकाश नामक गुरू से वेदाध्ययन किया। इनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि ये अपने गुरू की व्याख्या में भी दोष निकाल दिया करते थे। फलत: इनके गुरू ने इन पर प्रसन्न होने के बदले ईर्ष्यालु होकर इनकी हत्या की योजना बना डाली, किन्तु भगवान की कृपा से एक व्याध और उसकी पत्नी ने इनके प्राणों की रक्षा की। इन्होंने कांजीवरम जाकर वेदांत की शिक्षा ली। रामानुज के गुरु ने बहुत मनोयोग से शिष्य को शिक्षा दी। वेदांत का इनका ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि इनके गुरू यादवप्रकाश के लिए इनके तर्कों का उत्तर देना कठिन हो गया। रामानुज की विद्वत्ता की ख्याति निरंतर बढ़ती गई। वैवाहिक जीवन से ऊबकर ये संन्यासी हो गए। अब इनका पूरा समय अध्ययन, चिंतन और भगवत-भक्ति में बीतने लगा। इनकी शिष्य-मंडली भी बढ़ने लगी। यहां तक कि इनके पहले के गुरू यादवप्रकाश भी इनके शिष्य बन गए। रामानुज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत 'विशिष्टाद्वैत' कहलाता है।

चरित्र

श्रीरामानुजाचार्य बड़े ही विद्वान, सदाचारी, धैर्यवान और उदार थे। चरित्रबल और भक्ति में तो ये अद्वितीय थे। इन्हें योगसिद्धियाँ भी प्राप्त थीं। ये श्रीयामुनाचार्य की शिष्य-परम्परा में थे। जब श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु सन्निकट थी, तब उन्होंने अपने शिष्य के द्वारा श्रीरामानुजाचार्य को अपने पास बुलवाया, किन्तु इनके पहुँचने के पूर्व ही श्रीयामुनाचार्य की मृत्यु हो गयी। वहाँ पहुँचने पर इन्होंने देखा कि श्रीयामुनाचार्य की तीन अंगुलियाँ मुड़ी हुई थीं। श्रीरामानुजाचार्य को समझ लिया कि श्रीयामुनाचार्य इनके माध्यम से 'ब्रह्मसूत्र', 'विष्णुसहस्त्रनाम' और अलवन्दारों के 'दिव्य प्रबन्धम्' की टीका करवाना चाहते हैं। इन्होंने श्रीयामुनाचार्य के मृत शरीर को प्रणाम किया और कहा- 'भगवन्! मैं आपकी इस अन्तिम इच्छा को अवश्य पूरी करूँगा।'


श्रीरामानुचार्य गृहस्थ थे, किन्तु जब इन्होंने देखा कि गृहस्थी में रहकर अपने उद्देश्य को पूरा करना कठिन है, तब इन्होंने गृहस्थ आश्रम को त्याग दिया और श्रीरंगम् जाकर यतिराज नामक संन्यासी से संन्यासधर्म की दीक्षा ले ली। इनके गुरू श्रीयादव प्रकाश को अपनी पूर्व करनी पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वे भी संन्यास की दीक्षा लेकर श्रीरंगम् चले आये और श्रीरामानुजाचार्य की सेवा में रहने लगे। आगे चलकर आपने गोष्ठीपूर्ण से दीक्षा ली। गुरू का निर्देश था कि रामानुज उनका बताया हुआ मंत्र किसी अन्य को न बताएं। किंतु जब रामानुज को ज्ञात हुआ कि मंत्र के सुनने से लोगों को मुक्ति मिल जाती है तो वे मंदिर की छत पर चढ़कर सैकड़ों नर-नारियों के सामने चिल्ला-चिल्लाकर उस मंत्र का उच्चारण करने लगे। यह देखकर क्रुद्ध गुरू ने इन्हें नरक जाने का शाप दिया। इस पर रामानुज ने उत्तर दिया—यदि मंत्र सुनकर हजारों नर-नारियों की मुक्ति हो जाए तो मुझे नरक जाना भी स्वीकार है।


श्रीरामानुजाचार्य ने भक्तिमार्ग का प्रचार करने के लिये सम्पूर्ण भारत की यात्रा की। इन्होंने भक्तिमार्ग के समर्थ में गीता और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा। वेदान्तसूत्रों पर इनका भाष्य श्रीभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। इनके द्वारा चलाये गये सम्प्रदाय का नाम भी श्रीसम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय की आद्यप्रवर्ति का श्रीमहालक्ष्मी जी मानी जाती हैं। श्रीरामानुजाचार्य ने देशभर में भ्रमण करके लाखों नर-नारियों को भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया। इनके चौहत्तर शिष्य थे। इन्होंने महात्मा पिल्ललोकाचार्य को अपना उत्तराधिकारी बनाकर एक सौ बीस वर्ष की अवस्था में इस संसार से प्रयाण किया। इनके सिद्धान्त के अनुसार भगवान विष्णु ही पुरूषोत्तम हैं। वे ही प्रत्येक शरीर में साक्षीरूप से विद्यमान हैं। भगवान नारायण ही सत हैं, उनकी शक्ति महालक्ष्मी चित हैं और यह जगत उनके आनन्द का विलास है। भगवान श्रीलक्ष्मीनारायण इस जगत के माता-पिता हैं और सभी जीव उनकी संतान हैं।


इनके समय में जैन और बौद्ध धर्मों के प्रचार के कारण वैष्णव धर्म संकटग्रस्त था। रामानुज ने इस संकट का सफलतापूर्वक प्रतिकार किया। साथ ही इन्होंने शंकर के अद्वैत मत का खंडन किया और अपने मत के प्रवर्तन के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की।