रामानुज

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रामानुजाचार्य / Ramanujacharya

वैष्णव मत की पुन: प्रतिष्ठा करनेवालों में रामानुज या रामानुजाचार्य का महत्वपूर्ण स्थान है। इनका जन्म 1207 ई0 में मद्रास के निकट हुआ था। इन्होंने कांजीवरम जाकर वेदांत की शिक्षा ली। वेदांत का इनका ज्ञान थोड़े समय में ही इतना बढ़ गया कि इनके गुरू यादवप्रकाश के लिए इनके तर्कों का उत्तर देना कठिन हो गया। रामानुज की विद्वत्ता की ख्याति निरंतर बढ़ती गई। वैवाहिक जीवन से ऊबकर ये संन्यासी हो गए। अब इनका पूरा समय अध्ययन, चिंतन और भगवत-भक्ति में बीतने लगा। इनकी शिष्य-मंडली भी बढ़ने लगी। यहां तक कि इनके पहले के गुरू यादवप्रकाश भी इनके शिष्य बन गए। रामानुज द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत 'विशिष्टाद्वैत' कहलाता है।


आगे चलकर आपने गोष्ठीपूर्ण से दीक्षा ली। गुरू का निर्देश था कि रामानुज उनका बताया हुआ मंत्र किसी अन्य को न बताएं। किंतु जब रामानुज को ज्ञात हुआ कि मंत्र के सुनने से लोगों को मुक्त मिल जाती है तो वे मंदिर की छत पर चढ़कर सैकड़ों नर-नारियों के सामने चिल्ला-चिल्लाकर उस मंत्र का उच्चारण करने लगे। यह देखकर क्रुद्ध गुरू ने इन्हें नरक जाने का शाप दिया। इस पर रामानुज ने उत्तर दिया—यदि मंत्र सुनकर हजारों नर-नारियों की मुक्ति हो जाए तो मुझे नरक जाना भी स्वीकार है।


इनके समय में जैन और बौद्ध धर्मों के प्रचार के कारण वैष्णव धर्म संकटग्रस्त था। रामानुज ने इस संकट का सफलतापूर्वक प्रतिकार किया। साथ ही इन्होंने शंकर के अद्वैत मत का खंडन किया और अपने मत के प्रवर्तन के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की।