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==लोकनृत्य / Folk Dance==
 
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[[रासलीला]], लोकनृत्य की प्रमुख विधा के अलावा चैत्र तथा अश्विनी मास की नवरात्रियों में महिलाओं के लांगुरिया नृत्य होते हैं । इसके दौरान महिलायें लांगुरिया गाती हैं और मध्य में एक महिला द्वारा अनेक मुद्राजन नृत्य का प्रदर्शन होता है । ग्रामीण अंचल में होली के दूसरे दिन से बासोड़ा या संवत्सर प्रतिपदा तक हुरंगा नृत्य चलता है । इसमें ग्राम के थोकों के अनुसार स्त्री–पुरूष सायंकाल एकत्रित होकर होली गाते हुए नृत्य करते हैं । नृत्य में युवा स्त्री–पुरूष ही नाचते हैं । शेष सभी आयु के स्त्री–पुरूष गायन वादन करते हैं । वादन में [[नगाड़े]], [[ढप]], [[ढोल]], खंजरी [[बांसुरी]], [[अलगोजा]], बम, चंग, उपंग मोचंग, ढपली आदि वाद्यों का प्रयोग होता है । हुरंगा नृत्य में [[दाऊजी]] का हुरंगा प्रसिद्ध है । [[वल्लभ संप्रदाय|वल्लभ सम्प्रदाय]] के मंदिरों में [[बसन्त पंचमी]] से चैत्र कृष्ण द्वितीया तक ढ़ाढा–ढाढ़ी नृत्य का आयोजन होता है । यह नृत्य सायंकाल के समय श्री ठाकुरजी के सामने शयन के दर्शनों में होता है । कलाविद् स्त्री–पुरूष वेष में रसिया और [[धमार]] पद गायन के साथ अलग–अलग अपना नृत्य प्रदर्शित कर दर्शकों को भावविभोर कर देते हैं । इस नृत्य की परम्परा में [[मथुरा]] का [[द्वारिकाधीश मन्दिर|श्री द्वारिकाधीश मंदिर]] अग्रणी है ।
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[[रासलीला]], लोकनृत्य की प्रमुख विधा के अलावा चैत्र तथा अश्विनी मास की नवरात्रियों में महिलाओं के लांगुरिया नृत्य होते हैं । इसके दौरान महिलायें लांगुरिया गाती हैं और मध्य में एक महिला द्वारा अनेक मुद्राजन नृत्य का प्रदर्शन होता है । ग्रामीण अंचल में होली के दूसरे दिन से बासोड़ा या संवत्सर प्रतिपदा तक हुरंगा नृत्य चलता है । इसमें ग्राम के थोकों के अनुसार स्त्री–पुरूष सायंकाल एकत्रित होकर होली गाते हुए नृत्य करते हैं । नृत्य में युवा स्त्री–पुरूष ही नाचते हैं । शेष सभी आयु के स्त्री–पुरूष गायन वादन करते हैं । वादन में [[नगाड़े]], [[ढप]], [[ढोल]], [[खंजरी]]' [[बांसुरी]], [[अलगोजा]], [[बम]], [[चंग]], [[उपंग]] [[मोचंग]], [[ढपली]] आदि वाद्यों का प्रयोग होता है । हुरंगा नृत्य में [[दाऊजी]] का हुरंगा प्रसिद्ध है । [[वल्लभ संप्रदाय|वल्लभ सम्प्रदाय]] के मंदिरों में [[बसन्त पंचमी]] से चैत्र कृष्ण द्वितीया तक ढ़ाढा–ढाढ़ी नृत्य का आयोजन होता है । यह नृत्य सायंकाल के समय श्री ठाकुरजी के सामने शयन के दर्शनों में होता है । कलाविद् स्त्री–पुरूष वेष में रसिया और [[धमार]] पद गायन के साथ अलग–अलग अपना नृत्य प्रदर्शित कर दर्शकों को भावविभोर कर देते हैं । इस नृत्य की परम्परा में [[मथुरा]] का [[द्वारिकाधीश मन्दिर|श्री द्वारिकाधीश मंदिर]] अग्रणी है ।
 
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नृसिंह नृत्य वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को सूर्यास्त या पूर्णिमा की प्रात: बेला में होता है । नृसिंह बनने वाले कलाकार को उस दिन व्रत रखना पड़ता है और नर्तक नृसिंह वेश तथा चेहरे को पहनता है । अन्य सभी [[तबला]] घण्टा, घड़ियाल, [[झांझ]] आदि बाजे एक विशिष्ट स्वर ताल में बजाते हैं , जिनके बोल  
 
नृसिंह नृत्य वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को सूर्यास्त या पूर्णिमा की प्रात: बेला में होता है । नृसिंह बनने वाले कलाकार को उस दिन व्रत रखना पड़ता है और नर्तक नृसिंह वेश तथा चेहरे को पहनता है । अन्य सभी [[तबला]] घण्टा, घड़ियाल, [[झांझ]] आदि बाजे एक विशिष्ट स्वर ताल में बजाते हैं , जिनके बोल  

०७:१४, ३ दिसम्बर २००९ का अवतरण

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लोकनृत्य / Folk Dance

रासलीला, लोकनृत्य की प्रमुख विधा के अलावा चैत्र तथा अश्विनी मास की नवरात्रियों में महिलाओं के लांगुरिया नृत्य होते हैं । इसके दौरान महिलायें लांगुरिया गाती हैं और मध्य में एक महिला द्वारा अनेक मुद्राजन नृत्य का प्रदर्शन होता है । ग्रामीण अंचल में होली के दूसरे दिन से बासोड़ा या संवत्सर प्रतिपदा तक हुरंगा नृत्य चलता है । इसमें ग्राम के थोकों के अनुसार स्त्री–पुरूष सायंकाल एकत्रित होकर होली गाते हुए नृत्य करते हैं । नृत्य में युवा स्त्री–पुरूष ही नाचते हैं । शेष सभी आयु के स्त्री–पुरूष गायन वादन करते हैं । वादन में नगाड़े, ढप, ढोल, खंजरी' बांसुरी, अलगोजा, बम, चंग, उपंग मोचंग, ढपली आदि वाद्यों का प्रयोग होता है । हुरंगा नृत्य में दाऊजी का हुरंगा प्रसिद्ध है । वल्लभ सम्प्रदाय के मंदिरों में बसन्त पंचमी से चैत्र कृष्ण द्वितीया तक ढ़ाढा–ढाढ़ी नृत्य का आयोजन होता है । यह नृत्य सायंकाल के समय श्री ठाकुरजी के सामने शयन के दर्शनों में होता है । कलाविद् स्त्री–पुरूष वेष में रसिया और धमार पद गायन के साथ अलग–अलग अपना नृत्य प्रदर्शित कर दर्शकों को भावविभोर कर देते हैं । इस नृत्य की परम्परा में मथुरा का श्री द्वारिकाधीश मंदिर अग्रणी है ।


नृसिंह नृत्य वैशाख शुक्ला चतुर्दशी को सूर्यास्त या पूर्णिमा की प्रात: बेला में होता है । नृसिंह बनने वाले कलाकार को उस दिन व्रत रखना पड़ता है और नर्तक नृसिंह वेश तथा चेहरे को पहनता है । अन्य सभी तबला घण्टा, घड़ियाल, झांझ आदि बाजे एक विशिष्ट स्वर ताल में बजाते हैं , जिनके बोल

'जै नृसिंह, जै नृसिंह जै, जै, जै, जै, जै नृसिंह जै जै जै भई जै जै जै, हिरनाकुस मार्यो तुही तुही–नर्सिहा नरचै थेई थेई' है ।

इसे नृसिंह नृत्य न कहकर नृसिंह लीला भी कहा जाता है , जिसका सम्बन्ध हिरण्यकश्यप द्वारा प्रहलाद जी को सताये जाने से लेकर हिरण्यकश्यप की पुरानी कथा से है । यह नृत्य विशेष कर मथुरा नगर के द्वारकाधीश मंदिर, नृसिंह बगीची भूतेश्वर, गोलपाड़ा, मानिक चौक, स्वामी घाट, कुआं गली, सतघड़ा में होता है । इनके अतिरिक्त विवाहों के दौरान विभिन्न जातियों के नृत्यों का भी जनपद में चलन है । इनमें 'माँढयौ जगानौ', 'ललमनिया भैरो' नृत्य सहित कुछ अन्य नृत्य भी शामिल हैं ।