"विष्णु की आरती" के अवतरणों में अंतर

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==श्री विष्णु-वन्दना==
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==श्री विष्णु भगवान की आरती==
सशंखचक्रं सकिरीटकुण्डलं<br />
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*[[विष्णु]] जी की पूजा के समय यह [[आरती पूजन|आरती]] की जाती है।
सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम्।<br />
+
<poem>जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।
सहारवक्ष:स्थलकौस्तुभश्रियं<br />
+
भक्तजनों के संकट, छन में दूर करे॥ \ जय ..
नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम्।।<br />
+
जो ध्यावै फल पावै, दु:ख बिनसै मनका।
==भगवान श्री सत्यनारायण जी की आरती==
+
सुख सम्पत्ति घर आवै, कष्ट मिटै तनका॥ \ जय ..
 
+
मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूँ किसकी।
जय लक्ष्मी रमणा, श्री लक्ष्मी रमणा।<br />
+
तुम बिन और न दूजा, आस करूँ जिसकी॥ \ जय ..
सत्यनारायण स्वामी जन-पातक-हरणा।।जय.।।टेक।।<br />
+
तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतर्यामी।
 
+
पार ब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी॥ \ जय ..>
रत्नजटित सिंहासन अद्भुत छबि राजै।<br />
+
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता।
नारद करत निराजन घंटा ध्वनि बाजै।।जय.।।<br />
+
मैं मुरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ \ जय ..
 
+
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
प्रकट भये कलि कारण, द्विज को दरस दियो।<br />
+
किस विधि मिलूँ दयामय, तुमको मैं कुमती॥ \ जय ..
बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन-महल कियो।।जय.।।<br />
+
दीनबन्धु, दु:खहर्ता तुम ठाकुर मेरे।
 
+
अपने हाथ उठाओ, द्वार पडा तेरे॥ \ जय ..
दुर्बल भील कठारो, जिनपर कृपा करी।<br />
+
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
चन्द्रचूड़ एक राजा, जिनकी बिपति हरी।।जय.।।<br />
+
श्रद्धा-भक्ति बढाओ, संतन की सेवा॥ \ जय ..
 
+
जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।
वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीं।<br />
+
मायातीत, महेश्वर मन-वच-बुद्धि परे॥ जय..
सो फल भोग्यो प्रभुजी फिर अस्तुति कीन्हीं।।जय.।।<br />
+
आदि, अनादि, अगोचर, अविचल, अविनाशी।
 
+
अतुल, अनन्त, अनामय, अमित, शक्ति-राशि॥ जय..
भाव-भक्ति के कारण छिन-छिन रूप धरयो।<br />
+
अमल, अकल, अज, अक्षय, अव्यय, अविकारी।
श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सरयो।।जय.।।<br />
+
सत-चित-सुखमय, सुन्दर शिव सत्ताधारी॥ जय..
 
+
विधि-हरि-शंकर-गणपति-सूर्य-शक्तिरूपा।
ग्वाल-बाल सँग राजा वन में भक्ति करी।<br />
+
विश्व चराचर तुम ही, तुम ही विश्वभूपा॥ जय..
मनवांछित फल दीन्हों दीनदयालु हरी।।जय.।।<br />
+
माता-पिता-पितामह-स्वामि-सुहृद्-भर्ता।
 
+
विश्वोत्पादक पालक रक्षक संहर्ता॥ जय..
चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफल, मेवा।<br />
+
साक्षी, शरण, सखा, प्रिय प्रियतम, पूर्ण प्रभो।
धूप-दीप-तुलसी से राजी सत्यदेवा।।जय.।।<br />
+
केवल-काल कलानिधि, कालातीत, विभो॥ जय..
 +
राम-कृष्ण करुणामय, प्रेमामृत-सागर।
 +
मन-मोहन मुरलीधर नित-नव नटनागर॥ जय..
 +
सब विधि-हीन, मलिन-मति, हम अति पातकि-जन।
 +
प्रभुपद-विमुख अभागी, कलि-कलुषित तन मन॥ जय..
 +
आश्रय-दान दयार्णव! हम सबको दीजै।
 +
पाप-ताप हर हरि! सब, निज-जन कर लीजै॥ जय..</poem>
  
(सत्य) नारायणजी की आरती जो कोई नर गावै।<br />
 
तन-मन-सुख-सम्पत्ति मन-वांछित फल पावै।।जय.।।<br />
 
==सर्वरूप हरि-वन्दन==
 
यं शैवा: समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो<br />
 
बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटव: कर्तेति नैयायिका:।<br />
 
अर्हन्नित्यथ जैनशासनरता: कर्मेति मीमांसका:<br />
 
सोऽयं लो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथो हरि:।।<br />
 
==श्री विष्णु भगवान की आरती==
 
  
जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।<br />
 
भक्तजनों के संकट, छन में दूर करे॥ \ जय ..<br />
 
जो ध्यावै फल पावै, दु:ख बिनसै मनका।<br />
 
सुख सम्पत्ति घर आवै, कष्ट मिटै तनका॥ \ जय ..<br />
 
मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूँ किसकी।<br />
 
तुम बिन और न दूजा, आस करूँ जिसकी॥ \ जय ..<br />
 
तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतर्यामी।<br />
 
पार ब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी॥ \ जय ..<br />
 
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता।<br />
 
मैं मुरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ \ जय ..<br />
 
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।<br />
 
किस विधि मिलूँ दयामय, तुमको मैं कुमती॥ \ जय ..<br />
 
दीनबन्धु, दु:खहर्ता तुम ठाकुर मेरे।<br />
 
अपने हाथ उठाओ, द्वार पडा तेरे॥ \ जय ..<br />
 
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।<br />
 
श्रद्धा-भक्ति बढाओ, संतन की सेवा॥ \ जय ..<br />
 
जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।<br />
 
मायातीत, महेश्वर मन-वच-बुद्धि परे॥ जय..<br />
 
आदि, अनादि, अगोचर, अविचल, अविनाशी।<br />
 
अतुल, अनन्त, अनामय, अमित, शक्ति-राशि॥ जय..<br />
 
अमल, अकल, अज, अक्षय, अव्यय, अविकारी।<br />
 
सत-चित-सुखमय, सुन्दर शिव सत्ताधारी॥ जय..<br />
 
विधि-हरि-शंकर-गणपति-सूर्य-शक्तिरूपा।<br />
 
विश्व चराचर तुम ही, तुम ही विश्वभूपा॥ जय..<br />
 
माता-पिता-पितामह-स्वामि-सुहृद्-भर्ता।<br />
 
विश्वोत्पादक पालक रक्षक संहर्ता॥ जय..<br />
 
साक्षी, शरण, सखा, प्रिय प्रियतम, पूर्ण प्रभो।<br />
 
केवल-काल कलानिधि, कालातीत, विभो॥ <br />जय..<br />
 
राम-कृष्ण करुणामय, प्रेमामृत-सागर।
 
मन-मोहन मुरलीधर नित-नव नटनागर॥ जय..<br />
 
सब विधि-हीन, मलिन-मति, हम अति पातकि-जन।<br />
 
प्रभुपद-विमुख अभागी, कलि-कलुषित तन मन॥ जय..<br />
 
आश्रय-दान दयार्णव! हम सबको दीजै।<br />
 
पाप-ताप हर हरि! सब, निज-जन कर लीजै॥ जय..<br />
 
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श्री रामकृष्ण गोपाल दामोदर, नारायण नरसिंह हरी।<br />
 
जहां-जहां भीर पडी भक्तों पर, तहां-तहां रक्षा आप करी॥ श्री रामकृष्ण ..<br />
 
भीर पडी प्रहलाद भक्त पर, नरसिंह अवतार लिया।<br />
 
अपने भक्तों की रक्षा कारण, हिरणाकुश को मार दिया॥ श्री रामकृष्ण ..<br />
 
होने लगी जब नग्न द्रोपदी, दु:शासन चीर हरण किया।<br />
 
अरब-खरब के वस्त्र देकर आस पास प्रभु फिरने लगे॥ श्री रामकृष्ण ..<br />
 
गज की टेर सुनी मेरे मोहन तत्काल प्रभु उठ धाये।<br />
 
जौ भर सूंड रहे जल ऊपर, ऐसे गज को खेंच लिया॥ श्री रामकृष्ण ..<br />
 
नामदेव की गउआ बाईया, नरसी हुण्डी को तारा।<br />
 
माता-पिता के फन्द छुडाये, हाँ! कंस दुशासन को मारा॥ श्री रामकृष्ण ..<br />
 
जैसी कृपा भक्तों पर कीनी हाँ करो मेरे गिरधारी।<br />
 
तेरे दास की यही भावना दर्श दियो मैंनू गिरधारी॥ श्री रामकृष्ण ..<br />
 
श्री रामकृष्ण गोपाल दामोदर नारायण नरसिंह हरि।<br />
 
जहां-जहां भीर पडी भक्तों पर वहां-वहां रक्षा आप करी॥<br />
 
  
  
[[श्रेणी: कोश]]
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[[Category: कोश]]
[[category:भगवान-अवतार]]
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[[Category:भगवान-अवतार]]
[[category:भक्ति]]
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[[Category:भक्ति]] [[Category:आरती संग्रह]]
 
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०३:३४, १९ मई २०१० के समय का अवतरण

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श्री विष्णु भगवान की आरती

जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।
भक्तजनों के संकट, छन में दूर करे॥ \ जय ..
जो ध्यावै फल पावै, दु:ख बिनसै मनका।
सुख सम्पत्ति घर आवै, कष्ट मिटै तनका॥ \ जय ..
मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूँ किसकी।
तुम बिन और न दूजा, आस करूँ जिसकी॥ \ जय ..
तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतर्यामी।
पार ब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी॥ \ जय ..>
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता।
मैं मुरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ \ जय ..
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूँ दयामय, तुमको मैं कुमती॥ \ जय ..
दीनबन्धु, दु:खहर्ता तुम ठाकुर मेरे।
अपने हाथ उठाओ, द्वार पडा तेरे॥ \ जय ..
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
श्रद्धा-भक्ति बढाओ, संतन की सेवा॥ \ जय ..
जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।
मायातीत, महेश्वर मन-वच-बुद्धि परे॥ जय..
आदि, अनादि, अगोचर, अविचल, अविनाशी।
अतुल, अनन्त, अनामय, अमित, शक्ति-राशि॥ जय..
अमल, अकल, अज, अक्षय, अव्यय, अविकारी।
सत-चित-सुखमय, सुन्दर शिव सत्ताधारी॥ जय..
विधि-हरि-शंकर-गणपति-सूर्य-शक्तिरूपा।
विश्व चराचर तुम ही, तुम ही विश्वभूपा॥ जय..
माता-पिता-पितामह-स्वामि-सुहृद्-भर्ता।
विश्वोत्पादक पालक रक्षक संहर्ता॥ जय..
साक्षी, शरण, सखा, प्रिय प्रियतम, पूर्ण प्रभो।
केवल-काल कलानिधि, कालातीत, विभो॥ जय..
राम-कृष्ण करुणामय, प्रेमामृत-सागर।
मन-मोहन मुरलीधर नित-नव नटनागर॥ जय..
सब विधि-हीन, मलिन-मति, हम अति पातकि-जन।
प्रभुपद-विमुख अभागी, कलि-कलुषित तन मन॥ जय..
आश्रय-दान दयार्णव! हम सबको दीजै।
पाप-ताप हर हरि! सब, निज-जन कर लीजै॥ जय..