वेद

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वेद / Ved / Vedas

"विद्" का अर्थ है: जानना, ज्ञान इत्यादि वेद शब्द संस्कृत भाषा के "विद्" धातु से बना है । 'वेद' हिन्दू धर्म के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है, इससे वैदिक संस्कृति प्रचलित हुई । ऐसी मान्यता है कि इनके मन्त्रों को परमेश्वर ने प्राचीन ऋषियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था । इसलिए वेदों को श्रुति भी कहा जाता है । वेद प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति है जो पीढी दर पीढी पिछले चार-पाँच हजार वर्षों से चली आ रही है । वेद ही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थ हैं । वेद के असल मन्त्र भाग को संहिता कहते हैं ।

  • ऋग्वेद :वेदों में सर्वप्रथम ऋग्वेद का निर्माण हुआ । यह पद्यात्मक है । यजुर्वेद गद्यमय है और सामवेद गीतात्मक है ।ऋग्वेद में मण्डल 10 हैं,1028 सूक्त हैं और 11 हजार मन्त्र हैं । इसमें 5 शाखायें हैं - शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन । ऋग्वेद के दशम मण्डल में औषधि सूक्त हैं। इसके प्रणेता अर्थशास्त्र ऋषि है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग निर्दिष्ट की गई है जो कि 107 स्थानों पर पायी जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने का कथानक भी उद्धृत है और औषधियों से रोगों का नाश करना भी समाविष्ट है । इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा एवं हवन द्वारा चिकित्सा का समावेश है
  • सामवेद : चार वेदों में सामवेद का नाम तीसरे क्रम में आता है। पर ऋग्वेद के एक मंत्र में ऋग्वेद से भी पहले सामवेद का नाम आने से कुछ विद्वान् वेदों को एक के बाद एक रचना न मानकर प्रत्येक का स्वतंत्र रचना मानते हैं। सामवेद में गेय छंदों की अधिकता है जिनका गान यज्ञों के समय होता था। 1824 मंत्रों कें इस वेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष सब मंत्र ऋग्वेद से ही संकलित हैं। इस वेद को संगीतशास्त्र का मूल माना जाता है। इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं का प्राधान्य है। इसमें यज्ञ में गाने के लिये संगीतमय मन्त्र हैं, यह वेद मुख्यतः गन्धर्व लोगो के लिये होता है । इसमें मुख्य 3 शाखायें हैं, 75 ऋचायें हैं और विशेषकर संगीतशास्त्र का समावेश किया गया है ।
  • यजुर्वेद : इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य मन्त्र हैं, यह वेद मुख्यतः क्षत्रियो के लिये होता है । यजुर्वेद के दो भाग हैं -
  1. कृष्ण : वैशम्पायन ऋषि का सम्बन्ध कृष्ण से है । कृष्ण की चार शाखायें है।
  2. शुक्ल : याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है । शुक्ल की दो शाखायें हैं । इसमें 40 अध्याय हैं । यजुर्वेद के एक मन्त्र में ‘ब्रीहिधान्यों’ का वर्णन प्राप्त होता है । इसके अलावा औषधि सूक्त, दिव्य वैद्य एवं कृषि विज्ञान का भी विषय समाहित है ।
  • अथर्ववेद : इसमें जादू, चमत्कार, आरोग्य, यज्ञ के लिये मन्त्र हैं, यह वेद मुख्यतः व्यापारियो के लिये होता है । इसमें 20 काण्ड हैं । अथर्ववेद में आठ खण्ड आते हैं जिनमें भेषज वेद एवं धातु वेद ये दो नाम स्पष्ट प्राप्त हैं।

वेदवाड्मय-परिचय एवं अपौरूषेयवाद

'सनातन धर्म' एवं 'भारतीय संस्कृति' का मूल आधार स्तम्भ विश्व का अति प्राचीन और सर्वप्रथम वाड्मय 'वेद' माना गया है। मानव जाति के लौकिक (सांसारिक) तथा पारमार्थिक अभ्युदय-हेतु प्राकट्य होने से वेद को अनादि एवं नित्य कहा गया है। अति प्राचीनकालीन महा तपा, पुण्यपुञ्ज ऋषियों के पवित्रतम अन्त:करण में वेद के दर्शन हुए थे, अत: उसका 'वेद' नाम प्राप्त हुआ। ब्रह्म का स्वरूप 'सत-चित्-आनन्द' होने से ब्रह्म को वेद का पर्यायवाची शब्द कहा गया है। इसीलिये वेद लौकिक एवं अलौकिक ज्ञान का साधन है। 'तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये0'- तात्पर्य यह कि कल्प के प्रारम्भ में आदि कवि ब्रह्मा के हृदय में वेद का प्राकट्य हुआ।

  • सुप्रसिद्ध वेदभाष्यकार महान पण्डित सायणाचार्य अपने वेदभाष्य में लिखते हैं कि 'इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेद:'[१]
  • निरूक्त कहता है कि 'विदन्ति जानन्ति विद्यन्ते भवन्ति0' [२]
  • 'आर्यविद्या-सुधाकर' नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि— वेदो नाम वेद्यन्ते ज्ञाप्यन्ते धर्मार्थकाममोक्षा अनेनेति व्युत्पत्त्या चतुर्वर्गज्ञानसाधनभूतो ग्रन्थविशेष:॥ [३]
  • 'कामन्दकीय नीति' भी कहती है- 'आत्मानमन्विच्छ0।' 'यस्तं वेद स वेदवित्॥' [४] कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मज्ञान का ही पर्याय वेद है।
  • श्रुति भगवती बतलाती है कि 'अनन्ता वै वेदा:॥' वेद का अर्थ है ज्ञान। ज्ञान अनन्त है, अत: वेद भी अनन्त हैं। तथापि मुण्डकोपनिषद् की मान्यता है कि वेद चार हैं- 'ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदो ऽथर्ववेद:॥'[५] इन वेदों के चार उपवेद इस प्रकार हैं—

आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्वश्र्चेति ते त्रय:।
स्थापत्यवेदमपरमुपवेदश्र्चतुर्विध:॥
उपवेदों के कर्ताओं में

  1. आयुर्वेद के कर्ता धन्वन्तरि,
  2. धनुर्वेद के कर्ता विश्र्वामित्र,
  3. गान्धर्ववेद के कर्ता नारदमुनि और
  4. स्थापत्यवेद के कर्ता विश्र्वकर्मा हैं।

मनुस्मृति में वेद ही श्रुति

मनुस्मृति कहती है- 'श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेय:'[६] 'आदिसृष्टिमारभ्याद्यपर्यन्तं ब्रह्मादिभि: सर्वा: सत्यविद्या: श्रूयन्ते सा श्रुति:॥'[७] वेदकालीन महातपा सत्पुरूषों ने समाधि में जो महाज्ञान प्राप्त किया और जिसे जगत के आध्यात्मिक अभ्युदय के लिये प्रकट भी किया, उस महाज्ञान को 'श्रुति' कहते है।

  • श्रुति के दो विभाग हैं-
  1. वैदिक और
  2. तान्त्रिक- 'श्रुतिश्च द्विविधा वैदिकी तान्त्रिकी च।'
  • मुख्य तन्त्र तीन माने गये हैं-
  1. महानिर्वाण-तन्त्र,
  2. नारदपाञ्चरात्र-तन्त्र और
  3. कुलार्णव-तन्त्र।
  • वेद के भी दो विभाग हैं-
  1. मन्त्रविभाग और
  2. ब्राह्मणविभाग- 'वेदो हि मन्त्रब्राह्मणभेदेन द्विविध:।'
    • वेद के मन्त्रविभाग को संहिता भी कहते हैं। संहितापरक विवेचन को 'आरण्यक' एवं संहितापरक भाष्य को 'ब्राह्मणग्रन्थ' कहते हैं। वेदों के ब्राह्मणविभाग में' आरण्यक' और 'उपनिषद्'- का भी समावेश है। ब्राह्मणविभाग में 'आरण्यक' और 'उपनिषद्'- का भी समावेश है। ब्राह्मणग्रन्थों की संख्या 13 है, जैसे ऋग्वेद के 2, यजुर्वेद के 2, सामवेद के 8 और अथर्ववेद के 1 ।
    • मुख्य ब्राह्मणग्रन्थ पाँच हैं-
  1. ऐतरेय ब्राह्मण,
  2. तैत्तिरीय ब्राह्मण,
  3. तलवकार ब्राह्मण,
  4. शतपथब्राह्मण और
  5. ताण्डय ब्राह्मण।
  • उपनिषदों की संख्या वैसे तो 108 हैं, परंतु मुख्य 12 माने गये हैं, जैसे-
  1. ईश,
  2. केन,
  3. कठ,
  4. प्रश्न,
  5. मुण्डक,
  6. माण्डूक्य,
  7. तैत्तिरीय,
  8. ऐतरेय,
  9. छान्दोग्य,
  10. बृहदारण्यक,
  11. कौषीतकि और
  12. श्वेताश्वतर।

वेद पौरूषेय (मानवनिर्मित) है या अपौरूषेय (ईश्वरप्रणीत)? इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का स्पष्ट उत्तर ऋग्वेद (1।164।45)- में इस प्रकार है-'वेद' परमेश्वर के मुख से निकला हुआ 'परावाक्' है, वह 'अनादि' एवं 'नित्य' कहा गया है। वह अपौरूषेय ही है।

इस विषय में मनुस्मृति कहती है कि अति प्राचीन काल के ऋषियों ने उत्कट तपस्या द्वारा अपने तप:पूत हृदय में 'परावाक्' वेदवाड्मय का साक्षात्कार किया था, अत: वे मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहलाये-'ऋषयो मन्त्रद्रष्टार:।' बृहदारण्यकोपनिषद् (2।4।10)- में उल्लेख है- 'अस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्वाग्डिरस।' अर्थात् उन महान् परमेश्वर के द्वारा (सृष्टि- प्राकट्य होने के साथ ही) ¬–ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद नि:श्वास की तरह सहज ही बाहर प्रकट हुए। तात्पर्य यह है कि परमात्मा का नि:श्वास ही वेद है। इसके विषय में वेद के महापण्डित सायणाचार्य अपने वेदभाष्य में लिखते हैं-

यस्य नि:श्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत्।

निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थं महेश्वरम्॥

सारांश यह कि वेद परमेश्वर का नि:श्वास है, अत: परमेश्वर द्वारा ही निर्मित है। वेद से ही समस्त जगत् का निर्माण हुआ है। इसीलिये वेद को अपौरूषेय कहा गया है। सायणाचार्य के इन विचारों का समर्थन पाश्चात्य वेदविद्वान् प्रो0 विल्सन, प्रो0 मैक्समूलर आदि ने अपने पुस्तकों में किया है। प्रो0 विल्सनसाहब लिखते हैं कि 'सायणाचार्य का वेदविषयक ज्ञान अति विशाल और अति गहन है, जिसकी समकक्षता का दावा कोई भी यूरोपीय विद्वान् नहीं कर सकता।' प्रो0 मैक्समूलरसाहब लिखते हैं कि 'यदि मुझे सायणाचार्यरहित बृहद् वेदभाष्य पढ़ने को नहीं मिलता तो मैं वेदार्थों के दुर्भेद्य किला में प्रवेश ही नहीं पा सका होता।' इसी प्रकार पाश्चात्त्य वेदविद्वान् वेबर, बेनफी, राथ, ग्राम्सन, लुडविग, ग्रिफिथ, कीथ तथा विंटरनित्ज आदि ने सायणाचार्य के वेदविचारों का ही प्रतिपादन किया है। निरूक्तकार 'यास्काचार्य' भाषाशास्त्र के आद्यपण्डित माने गये हैं। उन्होंने अपने महाग्रन्थ वेदभाष्य में स्पष्ट लिखा है कि 'वेद अनादि, नित्य एवं अपौरूषेय (ईश्वरप्रणीत)ही है।' उनका कहना है कि 'वेद का अर्थ समझे बिना केवल वेदपाठ करना पशु की तरह पीठ पर बोझा ढोना ही है; क्योंकि अर्थज्ञानरहित शब्द (मन्त्र) प्रकाश (ज्ञान) नहीं दे सकता। जिसे वेद-मन्त्रों का अर्थ-ज्ञान हुआ है, उसी का लौकिक एवं पारलौकिक कल्याण होता है।' ऐसे वेदार्थज्ञान का मार्गदर्शक निरूक्त है। जर्मनी के वेदविद्वान् प्रो0 मैक्समूलरसाहब कहते हैं कि 'विश्व का प्राचीनतम वाड्मय वेद ही है, जो दैविक एवं आध्यात्मिक विचारों को काव्यमय भाषा में अद्भुत रीति से प्रकट करने वाला कल्याणप्रदायक है। वेद परावाक् है।'

नि:संदेह परमेश्वर ने ही परावाक् (वेदवाणी)- का निर्माण किया है- ऐसा महाभारत, शान्तिपर्व (232। 24)- में स्पष्ट कहा गया है-

अनादिनिधना विद्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा॥

अर्थात् जिसमें से सर्वजगत् उत्पन्न हुआ, ऐसी अनादि वेद-विद्यारूप दिव्य वाणी का निर्माण जगन्निर्माता ने सर्वप्रथम किया। ऋषि वेदमन्त्रों के कर्ता नहीं अपितु द्रष्टा ही थे- 'ऋषयो मन्त्रद्रष्टार:।' निरूक्तकार ने भी कहा है- वेदमन्त्रों के साक्षात्कार होने पर साक्षात्कारी को ऋषि कहा जाता है- 'ऋषिर्दर्शनात्।' इससे स्पष्ट होता है कि वेद का कर्तृत्व अन्य किसी के पास नहीं होने से वेद ईश्वरप्रणीत ही है, अपौरूषेय ही है।

भारतीय दर्शनशास्त्र के मतानुसार शब्द को नित्य कहा गया है। वेद ने शब्द को नित्य माना है, अत: वेद अपौरूषेय है यह निश्चित होता है। निरूक्तकार कहते हैं कि 'नियतानुपूर्व्या नियतवाचो युक्तय:।' अर्थात् शब्द नित्य है, उसका अनुक्रम नित्य है और उसकी उच्चारण-पद्धति भी नित्य है, इसीलिये वेद के अर्थ नित्य हैं। ऐसी वेदवाणी का निर्माण स्वयं परमेश्वर ने ही किया है। शब्द की चार अवस्थाएँ मानी गयी हैं- (1) परा, (2) पश्यन्ती, (3) मध्यमा और (4) वैखरी। ऋग्वेद (1।164।45)- में इनके विषय में इस प्रकार कहा गया है-

चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिण:।

गुहा त्रीणि निहिता नेग्डयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्य वदन्ति॥

अर्थात् वाणी के चार रूप होने से उन्हें ब्रह्मज्ञानी ही जानते हैं। वाणी के तीन रूप गुप्त हैं, चौथा रूप शब्दमय वेद के रूप में लोगों में प्रचारित होता है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म-ज्ञान को परावाक् कहते हैं। उसे ही वेद कहा गया है। इस वेदवाणी का साक्षात्कार महातपस्वी ऋषियों को होने से इसे 'पश्यन्तीवाक्' कहते हैं। ज्ञानस्वरूप वेद का आविष्कार शब्दमय है। इस वाणी का स्थूल स्वरूप ही 'मध्यमावाक्' है। वेदवाणी के ये तीनों स्वरूप अत्यन्त रहस्यमय हैं। चौथी 'वैखरीवाक्' ही सामान्य लोगों की बोलचाल की है। शतपथब्राह्मण तथा माण्डूक्योपनिषद् में कहा गया है कि वेदमन्त्र के प्रत्येक पद में, शब्द के प्रत्येक अक्षर में एक प्रकार का अद्भुत सामर्थ्य भरा हुआ है। इस प्रकार की वेदवाणी स्वयं परमेश्वर द्वारा ही निर्मित है, यह नि:शंक है। शिवपुराण में आया है कि ॐके 'अ' कार, 'उ' कार, 'म' कार और सूक्ष्मनाद; इनमें से (1) ऋग्वेद, (2) यजुर्वेद, (3) सामवेद तथा (4) अथर्ववेद नि:सृत हुए। समस्त वाड्मय ओंकार (ॐ)- से ही निर्मित हुआ। 'ओंकारं बिंदुसंयुक्तम्' तो ईश्वररूप ही है। श्रीमद् भगवद् गीता (7।7)- में भी ऐसा ही उल्लेख है-

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥

श्रीमद्भागवत (6।1।40)- में तो स्पष्ट कहा गया है-

वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्यय:।

वेदो नारायण: साक्षात् स्वयम्भूरिति शुश्रुम॥

अर्थात् वेदभगवान् ने जिन कार्यों को करने की आज्ञा दी है वह धर्म है और उससे विपरीत करना अधर्म है। वेद नारायण रूप में स्वयं प्रकट हुआ है, ऐसा श्रुति में कहा गया है। श्रीमद्भागवत (10।4।41)-में ऐसा भी वर्णित है-

विप्रा गावश्च वेदाश्च तप: सत्यं दम: शम:।

श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनू:॥

अर्थात् वेदज्ञ (सदाचारी भी) ब्राह्मण, दुधारू गाय, वेद, तप, सत्य, दम, शम, श्रद्धा, दया, सहनशीलता और यज्ञ- ये श्रीहरि (परमेश्वर) के स्वरूप हैं। मनुस्मृति (2।5) वेद को धर्म का मूल बताते हुए कहती है-

वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्।

आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च ॥

अर्थात् समग्र वेद एवं वेदज्ञ (मनु, पराशर, याज्ञवल्क्यादि)- की स्मृति, शील, आचार, साधु (धार्मिक)- के आत्मा का संतोष-ये सभी धर्मों के मूल हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति (1।7)- में भी कहा गया है-

श्रुति: स्मृति: सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:।

स्म्यक्संकल्पज: कामो धर्ममूलमिदं स्मृतम्॥ अर्थात् श्रुति, स्मृति, सत्पुरूषों का आचार, अपने आत्मा की प्रीति और उत्तम संकल्प से हुआ (धर्माविरूद्ध) काम- ये पाँच धर्म के मूल हैं। इसीलिये भारतीय संस्कृति में वेद सर्वश्रेष्ठ स्थान पर है। वेद का प्रामाण्य त्रिकालाबाधित है।

भारतीय आस्तिक दर्शनशास्त्र के मत में शब्द के नित्य होने से उसका अर्थ के साथ स्वयम्भू-जैसा सम्बन्ध होता है। वेद में शब्द को नित्य समझने पर वेद को अपौरूषेय (ईश्वरप्रणीत) माना गया है। निरूक्तकार भी इसका प्रतिपादन करते हैं। आस्तिक दर्शन ने शब्द को सर्वश्रेष्ठ प्रमाण मान्य किया है। इस विषय में मीमांसा- दर्शन तथा न्याय-दर्शन के मत भिन्न-भिन्न हैं। जैमिनीय मीमांसक, कुमारिल आदि मीमांसक, आधुनिक मीमांसक तथा सांख्यवादियों के मत में वेद अपौरूषेय, नित्य एवं स्वत:प्रमाण हैं। मीमांसक वेद को स्वयम्भू मानते हैं। उनका कहना है कि वेद की निर्मिति का प्रयत्न किसी व्यक्ति-विशेष का अथवा ईश्वर का नहीं है। नैयायिक ऐसा समझते हैं कि वेद तो ईश्वरप्रोक्त है। मीमांसक कहते हैं कि भ्रम, प्रमाद, दुराग्रह इत्यादि दोषयुक्त होने के कारण मनुष्य के द्वारा वेद-जैसे निर्दोष महान् ग्रन्थरत्न की रचना शक्य ही नहीं है। अत: वेद अपौरूषेय ही है। इससे आगे जाकर नैयायिक ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि ईश्वर ने जैसे सृष्टि की, वैसे ही वेद का निर्माण किया; ऐसा मानना उचित ही है।

श्रुति के मतानुसार वेद तो महाभूतों का नि:श्वास (यस्य नि:श्वतिसं वेदा...) है। श्वास-प्रश्वास स्वत: आविर्भूत होते हैं, अत: उनके लिये मनुष्य के प्रयत्न की अथवा बुद्धि की अपेक्षा नहीं होती। उस महाभूत का नि:श्वासरूप वेद तो अदृष्टवशात् अबुद्धिपूर्वक स्वयं आविर्भूत होता है। वेद नित्य-शब्द की संहृति होने से नित्य है और किसी भी प्रकार से उत्पाद्य नहीं है; अत: स्वत: आविर्भूत वेद किसी भी पुरूष से रचा हुआ न होने के कारण अपौरूषेय (ईश्वरप्रणीत) सिद्ध होता है। इन सभी विचारों को दर्शनशास्त्र में अपौरूषेयवाद कहा गया है।

अवैदिक दर्शन को नास्तिक दर्शन भी कहते हैं, क्योंकि वह वेद को प्रमाण नहीं मानता, अपौरूषेय स्वीकार नहीं करता। उसका कहना है कि इहलोक (जगत्) ही आत्मा का क्रीडास्थल है, परलोक (स्वर्ग) नाम की कोई वस्तु नहीं है, 'काम एवैक: पुरूषार्थ:'- काम ही मानव-जीवन का एकमात्र पुरूषार्थ होता है, 'मरणमेवापवर्ग:'- मरण (मृत्यु) माने ही मोक्ष (मुक्ति) है, 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणम्'- जो प्रत्यक्ष है वही प्रमाण है (अनुमान प्रमाण नहीं है)। धर्म ही नहीं है, अत: अधर्म नहीं है; स्वर्ग-नरक नहीं हैं। 'न परमेश्वरोऽपि कश्चित्'- परमेश्वर –जैसा भी कोई नहीं है, 'न धर्म: न मोक्ष:'- न तो धर्म है न मोक्ष है। अत: जब तक शरीर में प्राण है, तब तक सुख प्राप्त करते हैं- इस विषय में नास्तिक चार्वाक-दर्शन स्पष्ट कहता है-

यावज्जीवं सुखं जीवेदृणं कृत्वा घृतं पिबेत्।

भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:॥

अर्थात् जब तक देह में जीव है तब तक सुख पूर्वक जीयें, किसी से ऋण ले करके भी घी पीयें; क्योंकि एक बार देह (शरीर) मृत्यु के बाद जब भस्मीभूत हुआ, तब फिर उसका पुनरागमन कहाँ? अत: 'खाओ, पीओ और मौज करो'- यही है 'नास्तिक-दर्शन' या 'अवैदिक-दर्शन' का संदेश। इसको लोकायत-दर्शन, बार्हस्पत्य-दर्शन तथा चार्वाक-दर्शन भी कहते हैं। चार्वाक-दर्शन शब्द में 'चर्व' का अर्थ है-खाना। इस 'चर्व' पद से ही 'खाने-पीने और मौज' करने का संदेश देने वाले इस दर्शन का नाम 'चार्वाक-दर्शन' पड़ा है। 'गुणरत्न' ने इसकी व्याख्या इस प्रकार से की है- परमेश्वर, वेद, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, आत्मा, मुक्ति इत्यादि का जिसने 'चर्वण' (नामशेष) कर दिया है, वह 'चार्वाक-दर्शन' है। इस मत के लोगों का लक्ष्य स्वमतस्थापन की अपेक्षा परमतखण्डन के प्रति अधिक रहने से उनको 'वैतंडिक' कहा गया है। वे लोग वेदप्रामाण्य मानते ही नहीं।

(1)जगत्, (2) जीव, (3) ईश्वर और (4) मोक्ष- ये ही चार प्रमुख प्रतिपाद्य विषय सभी दर्शनों के होते हैं। आचार्य श्रीहरिभद्र ने 'षड्दर्शन-समुच्चय' नाम का अपने ग्रन्थ में (1) न्याय, (2) वैशेषिक, (3) सांख्य, (4) योग, (5) मीमांसा और (6) वेदान्त- इन छ: को वैदिक दर्शन (आस्तिक-दर्शन) तथा (1) चार्वाक, (2) बौद्ध और (3) जैन-इन तीन को 'अवैदिक दर्शन' (नास्तिक-दर्शन) कहा है औ उन सब पर विस्तृत विचार प्रस्तुत किया है।

वेद को प्रमाण मानने वाले आस्तिक और न मानने वाले नास्तिक हैं, इस दृष्टि से उपर्युक्त न्याय-वैशेषिकादि षड्दर्शन को आस्तिक और चार्वाकादि दर्शन को नास्तिक कहा गया है। दर्शनशास्त्र का मूल मन्त्र है- 'आत्मानं विद्धि।' अर्थात् आत्मा को जानो। पिण्ड-ब्रह्माण्ड में ओतप्रोत हुआ एकमेव आत्म-तत्व का दर्शन (साक्षात्कार) कर लेना ही मानव जीवन का अन्तिम साध्य है, ऐसा वेद कहता है। इसके लिये तीन उपाय हैं- वेदमन्त्रों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन- श्रोतव्य: श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि:। मत्या तु सततं ध्येय एते दर्शनहेतवे॥ इसीलिये तो मनीषी लोग कहते हैं- 'यस्तं वेद स वेदवित्।' अर्थात् ऐसे आत्मतत्त्व को जो सदाचारी व्यक्ति जानता है, वह वेदज्ञ (वेद को जानने वाला) है। वेदस्वरूप (डा0 श्रीयुगलकिशोरजी मिश्र) भारतीय मान्यता के अनुसार वेद सृष्टिक्रम की प्रथम वाणी है।(1¬) फलत: भारतीय संस्कृतिका मूल ग्रन्थ वेद सिद्ध होता है। पाश्चात्य विचारकों ने ऐतिहासिक दृष्टि अपनाते हुए वेद को विश्व का आदि ग्रन्थ सिद्ध किया। अत: यदि विश्वसंस्कृति का उद्गम स्त्रोत वेद को माना जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं है। वेद शब्द और उसका लक्षणात्मक स्वरूप- शाब्दिक विधा से विश्लेषण करने पर वेद शब्द की निष्पत्ति 'विद-ज्ञाने' धातु से 'घञ्' प्रत्यय करने पर होती है। अतएव विचारकों ने कहा है कि-जिसके द्वारा धर्मादि पुरूषार्थ-चतुष्टय-सिद्धि के उपाय बतलाये जायँ, वह वेद है।(2) आचार्य सायणने वेद के ज्ञानात्मक ऐश्वर्य को ध्यान में रखकर लक्षित किया कि- अभिलषित पदार्थ की प्राप्ति और अनिष्ट-परिहार के अलौकिक उपायको जो ग्रन्थ बोधित करता है, वह वेद है।(3) यहाँ यह ध्यातव्य है कि आचार्य सायणने वेद के लक्षण में 'अलौकिकमुपायम्' यह विशेषण देकर वेदों की यज्ञमूलकता प्रकाशित की है। आचार्य लौगाक्षि भास्कर ने दार्शनिक दृष्टि रखते हुए- अपौरूषेय वाक्य को वेद कहा है।(4) इसी तरह आचार्य उदयन ने भी कहा है कि- जिसका दूसरा मूल कहीं उपलब्ध नहीं है और महाजनों अर्थात् आस्तिक लोगों ने वेद के रूप में मान्यता दी हो, उन आनुपूर्वी विशिष्ट वाक्यों को वेद कहते हैं।(5) आपस्तम्बादि सूत्रकारों ने वेद का स्वरूपावबोधक लक्षण करते हुए कहा है कि- वेद मन्त्र और ब्राह्मणात्मक हैं।(6) आचार्यचरण स्वामी श्रीकरपात्री जी महाराज ने दार्शनिक एवं याज्ञिक दोनों दृष्टियों का समन्वय करते हुए वेद का अद्भुत लक्षण इस प्रकार उपस्थापित किया है-' शब्दातिरिक्तं शब्दोपजीविप्रमाणातिरिक्तं च यत्प्रमाणं तज्जन्यप्रमितिविषयानतिरिक्तार्थको यो यस्तदन्यत्वे सति आमुष्मिकसुखजनकोच्चारणकत्वे सति जन्यज्ञानाजन्यो यो प्रमाणशब्दस्तत्त्वं वेदत्वम्।'(7) उपर्युक्त लक्षणों की विवेचना करने पर यह तथ्य सामने आता है कि- ऐहकामुष्मिक फलप्राप्ति के अलौकिक उपाय का निदर्शन करने वाला अपौरूषेय विशिष्टानुपूर्वीक मन्त्र-ब्राह्मणात्मक शब्दराशि वेद है। वेद के दो भाग- मन्त्र और ब्राह्मण- आचार्यों ने सामान्यतया मन्त्र औ ब्राह्मण-रूप से वेदों का विभाजन किया है।(8) इसमें मन्त्रात्मक वैदिक शब्दराशि का मुख्य संकलन संहिता के नाम से प्राचीन काल से व्यवहृत होता आया है। संहितात्मक वैदिक शब्दराशि पर ही पदपाठ, क्रमपाठ एवं अन्य विकृतिपाठ होते हैं। यज्ञों में संहितागत मन्त्रों का ही प्रधान रूप से प्रयोग होता है।(9) आचार्य यास्क के अनुसार 'मन्त्र' शब्द मननार्थक 'मन्' धातु से निष्पन्न है।(10) पाञ्चरात्र-संहिता के अनुसार मनन करने से जो त्राण करते हैं, वे मन्त्र हैं।(11) अथवा मत- अभिमत पदार्थ के जो दाता हैं, वे मन्त्र कहलाते हैं। महर्षि जैमिनि ने मन्त्र का लक्षण करते हुए कहा है- 'तच्चोदकेषु मन्त्राख्या।' इसी को स्पष्ट करते हुए आचार्य माधव का कथन है कि- याज्ञिक विद्वानों का 'यह वाक्य मन्त्र है'- ऐसा समाख्यान (- नाम निर्देश) मन्त्र का लक्षण है। तात्पर्य यह है कि याज्ञिक लोग जिसे मन्त्र कहें, वही मन्त्र है। वे याज्ञिक लोग (1) यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै (श्वेताश्वतरोपनिषद् 6।18)। (2) वेद्यन्ते ज्ञाप्यन्ते धर्मादिपुरूषार्थचतुष्टयोपाया येन स वेद: (का0 श्रौ0 भू0, पृ0 4)। (3) इष्टप्राप्त्यनिष्टपरिहारयोरलौकिकमुपायं यो ग्रन्थो वेदयति स वेद: (का0 भा0 भू0)। (4) अपौरूषेयं वाक्यं वेद: (अर्थसंग्रह, पृ0 36)। (5) अनुपलभ्यमानमूलान्तरत्वे सति महाजनपरिगृहीतवाक्यत्वं वेदत्वम्। (6) मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्। (7) वेदार्थपारिजात, पृ0 20। (8) आम्राय: पुनर्मन्त्राश्च ब्राह्मणानि (कौ0 सू0 1।3)। (9) अपि च यज्ञकर्मणि संहितयैव विनियुज्यन्ते मन्त्रा: (नि0 1।17 पर दुर्ग)। (10) मन्त्रा मननात्। (11) मननान्मनुशार्दूल त्राणं कुर्वन्ति वै यत:। ददते पदमात्मीयं तस्मान्मन्त्रा: प्रकीर्तिता:॥ (ई0 स0, 3।7।9)। अनुष्ठान के स्मारक आदि वाक्यों के लिये मन्त्र शब्द का प्रयोग करते हैं।(1) आचार्य लौगाक्षि भास्करने, अनुष्ठान (प्रयोग)- से सम्बद्ध (समवेत) द्रव्य-देवतादि (अर्थ) का जो स्मरण कराते हैं, उन्हें मन्त्र कहा है।(2) इस प्रकार तत्तत् वैदिक कर्मों के अनुष्ठान काल में अनुष्ठेय क्रिया एवं उसके अंगभूत द्रव्य देवतादिका प्रकाशन (स्मरण) ही मन्त्र का प्रयोजन है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि शास्त्रकारों के अनुसार 'प्रयोगसमवेतार्थस्मारकत्व' मन्त्रों का दृष्ट प्रयोजन है, अत: यज्ञकाल में मन्त्रों का उच्चारण अदृष्ट प्रयोजक है- यह कल्पना नहीं करनी चाहिये; क्योंकि दृष्ट फल की सम्भावना के विद्यमान रहने पर अदृष्ट फल की कल्पना अनुचित होती है।(3) यहाँ यह प्रश्न उठता है कि मन्त्रों का जो अर्थ-स्मरण-रूप दृष्ट प्रयोजन बतलाया गया है, वह प्रकारान्तर से अर्थात् ब्राह्मण-वाक्यों से भी प्राप्त हो जाता है; फिर तो मन्त्रोच्चारण व्यर्थ हुआ? इस आक्षेप का समाधान शास्त्रकारों ने नियम- विधि के आश्रयण से किया है। उनका पक्ष है कि 'स्मृत्वा कर्माणि कुर्वीत' इस विधायक वाक्य से तत्तत्कर्मों के अनुष्ठानकाल में विहित स्मरण के लिये उपायान्तर के अवलम्बन से तत्तत्प्रकरणपठित मन्त्रों का वैयर्थ्य आपतित होता, अत: 'मन्त्रैरेव स्मृत्वा कर्माणि कुर्वीत' (मन्त्रों से ही स्मरण करके कर्म करना चाहिये,)- यह नियम विधि द्वारा स्वीकृत किया जाता है।इसी प्रसंग को आचार्य यास्क ने अपने निरूक्त ग्रन्थ में उठाकर उसके समाधान में एक व्यावहारिक युक्ति प्रस्तुत की है। उनका तर्क है कि मनुष्यों की विद्या (ज्ञान) अनित्य है, अत: अविगुण कर्म के द्वारा फलसम्प्राप्ति –हेतु वेदों में मन्त्र- व्यवस्था है।(4) तात्पर्य यह है कि इस सृष्टि में प्रत्येक मनुष्य बुद्धि ज्ञान, शब्दोच्चारण एवं स्वभावादि में एक-दूसरे से नितान्त भिन्न एवं न्यूनाधिक है। ऐसी स्थिति में यह सर्वथा सम्भव है कि सभी मनुष्य विशुद्धतया एक-जैसा कर्मानुष्ठान नहीं कर सकते। यदि कर्मानुष्ठान एक-रूप में नहीं किया गया तो वह फलदायक नहीं होगा- इस दुरवस्था को मिटाने के लिये वैदिक मन्त्रों के द्वारा कर्मानुष्ठान का विधान किया गया। चूँकि वेदों में नियतानुपूर्वी हैं एवं स्वर वर्णादि की निश्चित उच्चारण-विधि है, अत: बुद्धि, ज्ञान एवं स्वभाव में भिन्न रहने पर भी प्रत्येक मनुष्य उसे एकरूपतया गुरूमुखोच्चारणानुच्चारण विधि से अधिगत कर उसी तरह कर्म में प्रयोग करेगा, जिसके फलस्वरूप सभी को निश्चित फल की प्राप्ति होगी। इस प्रकार मन्त्रों के द्वारा ही कर्मानुष्ठान किया जाना सर्वथा तर्कसंगत एवं साम्यवादी व्यवस्था है। याज्ञिक दृष्टि से मन्त्र चार प्रकार के होते हैं- 1-करण मन्त्र, 2-क्रियमाणानुवादि मन्त्र, 3-अनुमन्त्रण मन्त्र और 4-जपमन्त्र। -इनमें जिस मन्त्र के उच्चारणानन्तर ही कर्म किया जाता है, वह करण मन्त्र' है। यथा-याज्या पुरोऽनुवाक् आदि। कर्मानुष्ठान के साथ-साथ जो मन्त्र पढ़ा जाता है, वह 'क्रियमाणानुवादि मन्त्र' होता है। यथा-युवा सुवासा0 आदि। जब यज्ञ में यूप-संस्कार किया जाता है तभी यह मन्त्र पढ़ा जाता है। कर्म के ठीक बाद जो मन्त्र पढ़ा जाता है, वह 'अनुमन्त्रण मन्त्र' कहलाता है। यथा- एको मम एका तस्य योऽस्मान् द्वेष्टि0 आदि। यह मन्त्र द्रव्यत्याग रूप याग किये जाने के ठीक बाद यजमान द्वारा पढ़ा जाता है। इनके अतिरिक्त जो 'मयीदमिति यजमानो जपति' (का0 श्रौ0, 3। 4।12) इत्यादि वाक्यों द्वारा विहित सन्निपत्योपकारक(5) होते हैं, वे 'जपमन्त्र' हैं। इनमें प्रथम त्रिविध मन्त्रों का अनुष्ठेयस्मारकत्व- (1) याज्ञिकानां समाख्यानं लक्षणं दोषवर्जितम्। तेऽनुष्ठानस्मारकादौ मन्त्रशब्दं प्रयुज्यते॥ (जै0न्या0मा0, 2।1।7)। (2) प्रयोगसमवेतार्थस्मारका मन्त्रा: (अ0 स0, पृ0 157)। (3) न तु तदुच्चारणमदृष्टार्थत्वम्, सम्भवति दृष्टफलकत्वेऽदृष्टकल्पनाया अन्यारूयत्वात् (अं0 सं0, मन्त्र-विचार-प्रकरण)। (4) पुरूषविद्याऽनित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे (नि0 1।2।7) (5) मीमांसादर्शनके अनुसार अंग दो प्रकार के होते हैं-1-सिद्धरूप और 2-क्रियारूप। इनमें जाति, द्रव्य एवं संख्या आदि 'सिद्धरूप' हैं, क्योंकि इन सबका प्रयोजन प्रत्यक्ष (दिखायी देनेवाला) है। क्रियारूप अंग के दो भेद हैं- (1) गुणकर्म और (2) प्रधान कर्म। इनमें गुणकर्म को' सन्निपत्योपकारक' कहते हैं। 'सन्निपत्य द्रव्यादिषु सम्बध्य उपकुर्वन्ति तानि' अर्थात जो साक्षात न होकर किसी के माध्यम से मुख्य भाग के उपकारक होते हैं। यथा- 'व्रीह्यवघात एवं सेचनादि।' जो साक्षात रूप में प्रधान क्रिया के उपकारक होते हैं, उन्हें 'प्रधानकर्म' या 'आरादुपकारक' कहते हैं। रूप दृष्अ प्रयोजन है। जपमन्त्रों का अदृष्ट मात्र प्रयोजन है, ऐसा याज्ञिकों एवं मीमांसकों का सिद्धान्त है। मन्त्रों कें लक्षण के सम्बन्ध में वस्तु-स्थिति का विचार किया जाय तो ज्ञात होता है। कि कोई भी लक्षण सटीक नहीं है। ऐसा इसलिये है कि वैदिक मन्त्र नानाविध हैं।(1¬) यही कारण है कि आपस्तम्बादि आचार्यों ने ब्राह्मण भाग एवं अर्थवाद का लक्षण करने के अनन्तर कह दिया- 'अतोऽन्तये मन्त्रा:'(2) अर्थात इनके अतिरिक्त सभी मन्त्र हैं। विधिभाग- मन्त्रातिरिक्त वेद-भाग 'ब्राह्मण' पद से अभिहित किया जाता है। ब्राह्मण शब्द 'ब्रह्मन्' शब्द से 'अण्' प्रत्यय करने पर नपुंसक लिंग में वेदराशि के अभिधायक अर्थ में सिद्ध होता है। आचार्य जैमिनि ने ब्राह्मण का लक्षण करते हुए कहा है कि – मन्त्र से बचे हुए भाग में 'ब्राह्मण' शब्द का व्यवहार जानना चाहिये।(3) आचार्य भट्ट- भास्कर के अनुसार कर्म और कर्म में प्रयुक्त होने वाले मन्त्रों के व्याख्यान- ग्रन्थ ब्राह्मण हैं।(4) म0म0 विद्याधर शर्मा जी के अनुसार- चारों वेदों के मन्त्रों के कर्मों में विनियोजक, कर्मविधायक, नानाविधानादि इतिहास- आख्यानबहुल ज्ञान- विज्ञानपूर्ण वेदभाग ब्राह्मण है।(5) ब्राह्मण के दो भेद हैं- (1) विधि और (2) अर्थवाद। आचार्य आपस्तम्बने दोनों का भेद प्रदर्शित करते हुए कहा है- कर्म की ओर प्रेरित करने वाली विधियाँ ब्राह्मण है तथा ब्राह्मण का शेष भाग अर्थवाद है।(6) आचार्य लौगाक्षि भास्कर के अनुसार अज्ञात अर्थ को अवबोधित करानेवाले वेदभाग को विधि कहते हैं।(7) यथा- 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम:' अर्थात स्वर्गरूपी फल की प्राप्ति करने के लिये अग्निहोत्र करना चाहिये-यह विधिवाक्य, अन्य प्रमाण से अप्राप्त स्वर्ग फलयुत होम का विधान करता है, अत: अज्ञातार्थ-ज्ञापक है। आचार्य सायण ने विधि के दो भेद बतलाये हैं- 1- अप्रवृत्तप्रवर्तन-विधि और 2- अज्ञातार्थ-ज्ञापन-विधि। इनमें 'आग्नवैष्णवं पुरोडाशं निर्वर्णनादीक्षणीयम्' इत्यादि कर्मकाण्डगत विधियाँ अप्रवृत्त की ओर प्रवृत्त करने वाली हैं। 'आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्' इत्यादि ब्रह्मकाण्डगत विधियाँ प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों से अज्ञात विषय का ज्ञान कराने वाली हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि आचार्य लौगाक्षि भास्कर कर्मकाण्ड एवं ब्रह्मकाण्डगत सभी विधियों को अज्ञातार्थ ज्ञापन मानते हैं, किंतु आचार्य सायण ने सूक्ष्म दृष्टि अपनाते हुए कर्मकाण्डगत विधियों को 'अप्रवृत्तवर्तन-विधि' कहा और ब्रह्मकाण्डगत विधियों को 'अज्ञातार्थ-ज्ञापन-विधि' माना।(8) मीमांसादर्शन में याज्ञिक विचार की दृष्टि से विधि- भाग के चार भेद माने गये हैं- 1-उत्पत्तिविधि, 2-गुणविधि या विनियोग विधि, 3-अधिकारविधि और 4-प्रयोगविधि। इनमें जो वाक्य 'यह कर्म इस प्रकार करना चाहिये' एवंविध कर्मस्वरूप-मात्र के अवबोधन में प्रवृत्त हैं, वे 'उत्पत्तिविधि' कहे जाते हैं, यथा-'अग्निहोत्रं जुहोति'। जो उत्पत्तिविधि से विहित कर्मसम्बन्धी द्रव्य और देवता के विधायक हैं, वे 'गुणविधि' ('विनियोगविधि') कहे जाते हैं। यथा- 'दध्रा जुहोति'। जो उन-उन कर्मों में किस का अधिकार है तथा किस फल के उद्देश्य से कर्म करना चाहिये- यह बतलाते हैं, वे 'अधिकारविधि' कहे जाते हैं। यथा- 'यस्याहिताग्नेरग्निर्गृहान् दहेत् सोऽग्नये क्ष्मावतेऽष्टाकपालं निर्वपेत्'। जो कर्मों के अनुष्ठानक्रमादिका बोधन कराते हैं, वे 'प्रयोगविधि' हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रयोगविधि के वाक्य साक्षात उपलब्ध नहीं होते, अपितु प्रधान वाक्य (दर्शपूर्णमासाभ्याम्)- के साथ अंग-वाक्यों (सामधेयजति0)- की एकवाक्यता होकर कल्पित (1) बृहद्देवता- (1 ।34)। (2) आप0 श्रौ0 सू0, (24 । 1 ।34)। (3) 'शेषे ब्राह्मणशब्द:'। (मी0 2।1।33)। (4) 'ब्राह्मणनाम कर्मणस्तन्मन्त्राणाञ्च व्याख्याग्रन्थ:' (तै0 सं0 1।5।1 पर भाष्य)। (5) 'वेदचतुष्टयमन्त्राणां कर्मसु विनियोजक: कर्मविधायको नानाविधानादीतिहासाख्यानबहुलो ज्ञानविज्ञानपूर्णो भागो ब्राह्मणभाग:। (श0ब्रा0भू0, पृ0 2) (6) कर्मचोदना ब्राह्मणानि। ब्राह्मणशेषोऽर्थवाद: (आप0 परि0 34।35) 'चोदनेति क्रियाया: प्रवर्तकवचनमाहु:' (भाष्य)। (7) तत्राज्ञातार्थज्ञापको वेदभागो विधि: (अ0 सं0, पृ0 36) (8) ऋ0 भा0 भू0 विधिप्रामाण्य-विचार। वाक्य (प्रमाणानुयाजादिभिरूपकृतवद्भ्यां दर्शपूर्णमासाभ्यां स्वर्गकामो यजेत) ही प्रयोगविधि का परिचायक होता है। अर्थवाद- आचार्य आपस्तम्ब ने ब्राह्मण (कर्म की ओर प्रवृत्त करने वाली विधियों)- से अतिरिक्त को शेष अवशिष्ट अर्थवाद कहा हैं।(1) अर्थसंग्रहकार ने अर्थवाद का लक्षण करते हुए कहा है- प्रशंसा अथवा निन्दापरक वाक्य को अर्थवाद कहते हैं।(2) यथा- वायुर्वैं क्षेपिष्ठा देवता। स्तेनं मन: अनृतवादिनी वाक्, आदि। अर्थवाद-वाक्यों को लेकर पाश्चात्य वेद-विचार कों एवं कतिपय भारतीय विचारकों ने वेद के प्रामाण्य एवं उसकी महत्ता पर तीखे प्रहार किये हैं। इसके मूल में आलोचकों का भारतीय चिन्तन-दृष्टि से असम्पर्कित रहना है। भारतीय चिन्तन-दृष्टि (मीमांसा)- में अर्थवाद विधेय अर्थ की प्रशंसा करता है। तथा निषिद्ध अर्थ की निन्दा। किंतु इस कार्य (प्रशंसा और निन्दा)- में अर्थवाद मुख्यार्थद्वारा अपने तात्पर्यार्थ की अभिव्यक्ति नहीं करता, अपितु शब्द की लक्षणा शक्ति का आश्रय ग्रहण करता है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि मीमांसक-दृष्टि से समस्त वेद क्रियापरक है(3) तथा यागादि क्रिया द्वारा ही अभीष्ट-प्राप्ति एवं अनिष्टका परिहार किया जा सकता है। यत: 'स्वाध्यायोऽध्येतव्य:' इस विधान से वेद के अन्तर्गत ही अर्थवाद भी है, अत: उनको भी क्रियापरक मानना उचित है। जैसा कि पहले कहा गया है कि अर्थवाद का प्रयोजन विधेयकी प्रशंसा एवं निषिद्ध की निन्दा में प्रकट होता है। विधान एवं निषेध क्रिया का ही होता है, अत: परम्परया अर्थवाद-वाक्य क्रिया (याग या धर्म) परक होते हैं, अतएव उनका प्रामाण्य एवं उपादेयता सर्वथा सिद्ध है। इसी बात को आचार्य जैमिनि ने इन शब्दों में कहा है- विधिना त्वेकवाक्यत्वात् स्तुत्यर्थेन विधीनां स्यु:।(4) उन्नीसवीं शती के पूर्वार्ध के बाद से पाश्चात्य नव्य वेदार्थ- विचार कों- बर्गाइन आदि ने भारतीय चिन्तन की इस दृष्टि को समझा तथा उसके आलोक में नये सिरे से वेदार्थ-विचार में दृष्टि डाली। प्राशस्त्य और निन्दा से सम्बन्धित अर्थवाद-वाक्य क्रमश: विधिशेष एवं निषेधशेष-रूप से अभिहित किये गये हैं।(5) विधि अर्थात विधायक वाक्य, शेष- अर्थवाद-वाक्य दोनों मिलकर एक समग्र वाक्य की रचना करते हैं, जो कि विशिष्ट प्रभावोत्पादक बनता है। उदाहरणार्थ-'वायव्यं श्वेतमालभेत भूतिकाम:' यह विधि-वाक्य है। इसका शेष- अर्थवाद वाक्य है- 'वायुर्वै क्षेपिष्ठा देवता'। यहाँ वायु की प्रशंसा विधिशेषात्मक अर्थवाद से गयी है। उपर्युक्त दोनों वाक्यों की एकवाक्यता करके लक्षणा द्वारा यह विदित होता है कि वायुदेवता शीघ्रगामी हैं, अत: वे ऐश्वर्य भी शीघ्र प्रदान करते हैं। अब इस विशिष्ट प्रभावोत्पादक अर्थ को सुनकर अधिकारी व्यक्ति की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है। इसी प्रकार निषेध-शेषात्मक अर्थवाद का भी साफल्य जानना चाहिये। अर्थवाद द्वारा प्रतिपादित विषय-परीक्षण की दृष्टि से शास्त्र में इसके तीन भेद माने गये हैं- (1) गुणवाद, (2) अनुवाद और (3) भूतार्थवाद। गुणवाद नामक अर्थवाद में प्रतिपाद्य अर्थ का प्रमाणान्तर से विरोध होता है। यथा- 'आदित्यो यूप:'। यहाँ यूप का आदित्य के साथ अभेद प्रतिपादित है, जो कि प्रत्यक्षतया बाधित है। अत: अर्थ सिद्धि के लिये ऐसे स्थलों पर लक्षणा का आश्रय लेकर यूप का 'उज्ज्वलवादिगुणयोगेनादित्यात्मकत्वम्' अर्थ किया जाता है। अनुवाद-संज्ञक अर्थवाद में पूर्वपरिज्ञात या पूर्वानुभूत प्रमाण से अर्थ का बोध होता है, जबकि प्रतिपाद्य विषय में केवल उसका 'अनुवाद' मात्र रहता है। उदारणार्थ- 'अग्निर्हिमस्य भेषजम्' इस वाक्य में प्रत्यक्षतया सिद्ध है कि अग्नि शैत्य का औषध है। इस पूर्वपरिज्ञात या पूर्वानुभूत विषय (यत्र यत्राग्निस्तत्र तत्र हिमनिरोध:)- का प्रकाशन इस दृष्टान्त में है, अत: यह अनुवाद है। (1) ब्राह्मणशेषोऽर्थवाद:। (2) प्राशस्त्यनिन्दान्यतरपरं वाक्यमर्थवाद: (अ0 सं0)। (3) आम्नायस्य क्रियार्थत्वात्0 (जै0 सू0)। (4) जै0 सू0 (1।2।7) (5) स द्विविध:- विधिशेषो निषेधशेषश्चेति। तृतीय भूतार्थवाद में भूतार्थ का अर्थ पूर्वघटित किसी यथार्थ वस्तु के ज्ञापन से है। यहाँ गुणवाद अर्थवाद की भाँति न तो किसी प्रमाणान्तर से विरोध होता है और न ही अनुवाद अर्थवाद की भाँति प्रमाणान्तरावधारण होता है। अतएव शास्त्र में इसका लक्षण किया गया है- 'प्रमाणान्तर विरोधतत्प्राप्तिरहितार्थबोधकोऽर्थवादो भूतार्थवाद:।' इसका दृष्टान्त है-'इन्द्रो वृत्राय वज्रमुदयच्छत्।' कहीं भी ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं होता जिससे इस कथन का विरोध हो, अत: प्रमाणान्तर-अविरोध है, साथ ही ऐसा भी प्रमाण नहीं है जिससे इसका समर्थन हो, अत: प्रमाणान्तरावधारण भी नहीं है। इस प्रकार उभय पक्ष के अभाव में यह वाक्य भूतार्थवाद का उदाहरण है। अर्थवाद- भाग को आचार्य पारस्करने 'तर्क' शब्द से अभिहित किया है।(1) आचार्य कर्कने 'तर्क' पद की व्याख्या करते हुए कहा कि जिसके द्वारा संदिग्ध अर्थ का निश्चय किया जा सके, वह तर्क अर्थात अर्थवाद है।(2) इसका उदाहरण देते हुए कहा कि-'अक्ता शर्करा उपदधाति तेजो वै घृतम्' इस वाक्य में प्राप्त अञ्जन, तैल तथा वसा आदि द्रव्यों से भी सम्भव है, किंतु 'तेजो वै घृतम्' इस घृतसंस्तावक अर्थवाद-वाक्य से संदेह निराकृत होकर घृत से अञ्जन करना यह स्थिर होता है। इस प्रकार अर्थवाद भाग महदुपकारक है। आपस्तम्ब, पारस्कर आदि आचार्यों ने वेद के तीन ही भाग माने हैं- विधि, मन्त्र और अर्थवाद। अर्थ- संग्रहकारने वेद के पाँच भाग माने हैं- विधि, मन्त्र, नामधेय, निषेध और अर्थवाद।(3) नामधेय- जैसा कि संज्ञा से स्पष्ट हैं, नामधेय-प्रकरण में कतिपय नामों से जुड़े हुए विशेष भागों की आलोचना होती है। इनमें 'उद्भिदा यजेत पशुकाम:','चित्रया यजेत पशुकाम:','अग्निहोत्रं जुहोति', 'श्येनेनाभिचरन् यजेत'- ये चार वाक्य ही प्रमुख हैं। नामधेय विजातीय की निवृत्तिपूर्वक विधेयार्थ का निश्चय कराता है।(4) यथा- 'उद्भिदा यजेत पशुकाम:' इस वाक्य में पशु-रूप फल के लिये याग का विधान किया गया है। यह याग वाक्यान्तर से अप्राप्त है और इस वाक्य द्वारा विहित किया जा रहा है। यदि इस वाक्य से 'उद्भिद्' शब्द हटा दिया जाय तो 'यजेत पशुकाम:' यह वाक्य होगा, जिसका अर्थ है-'यागेन पशुं भावयेत्', किंतु इससे याग-सामान्य का विधान होगा जो कि अविधेय है, क्योंकि याग विशेष का नाम अभिहित किये बिना अनुष्ठान सम्भव नहीं है। 'उद्भिदा' पदद्वारा इस प्रयोजन की पूर्ति होती है, अत: 'उद्भिद्' याग का नाम हुआ तथा याग-विशेष का निर्देशक होने से विधेयार्थ-परिच्छेद भी हुआ। नामधेयत्व चार कारणों से होता है-(1) मत्वर्थ-लक्षणा के भय से, (2) वाक्य भेद के भय से, (3) तत्प्रख्यशास्त्र से और (4) तद्व्यपदेश से। निषेध- जो वाक्य पुरूष को किसी क्रिया को करने से निवृत्त कराता है, उसे 'निषेध' कहते हैं।(5) शास्त्रों ने नरकादिको अनर्थ माना है। इस नरक-प्राप्ति का हेतु कलञ्जभक्षणादि है, अत: पुरूष को ऐसे कार्यों से 'निषेध-वाक्य' निवर्तित करते हैं इस प्रकार अनर्थ उत्पन्न करने वाली क्रियाओं से पुरूष का निवर्तन कराना ही निषेध-वाक्यों का प्रयोजन है। मन्त्र-ब्राह्मणात्मक (विधिमन्त्र-नामधेय-निषेधार्थवाद-रूप) वेद में कतिपय विचारकों ने ब्राह्मणभाग को वेद नहीं माना है। उनके प्रधान तर्क ये हैं- (1)- ब्राह्मण-ग्रन्थ वेद नहीं हो सकते, क्योंकि उन्हीं का नाम इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी भी है। (2)- एक कात्यायन को छोड़कर किसी अन्य ऋषि ने उनके वेद होने में साक्षी नहीं दी है। (3)- ब्राह्मण-भाग को भी यदि वेद माना जाय तो 'छन्दोब्राह्मणानि च तद्विषयाणि'(6) इत्यादि पाणिनि-सूत्र में 'छन्द:' शब्द के ग्रहण से ही ब्राह्मणों का भी ग्रहण हो जाने से अलग से 'ब्राह्मण' शब्द का उल्लेख करना व्यर्थ होगा। (4)- ब्राह्मण-ग्रन्थ चूँकि मन्त्रों के व्याख्यान हैं, अत: ईश्वरोक्त नहीं हैं, अपितु महर्षि लोगों द्वारा प्रोक्त हैं। (1) विधिर्विधेयस्तर्कश्च वेद: (पा0 गृ0 सू0 2।6।6)। (2) तर्कशब्देनार्थवादोऽभिधीयते। तर्क्यते ह्यनेन संदिग्धोऽर्थ: (पा0 गृ0 सू0 2।6।5 पर कर्क)। (3) स च विधिमन्त्रनामधेयनिषेधार्थवादभेदात् पञ्चविध:। (4) नामधेयानां च विधेयार्थपरिच्छेदकतयार्थवत्त्वम् (अ0 स0)। (5) पुरूषस्य निवर्तकं वाक्यं निषेध: (अ0 स0)। (6) पा0 सू0 (4।2।66)। इसके समाधान में यह कहना अत्यन्त संगत है कि ऐतरेय, शतपथ आदि ब्राह्मणों को पुराण अथवा इतिहास नहीं कहा जाता; रामायण, महाभारत, विष्णुपुराण आदि को ही इतिहास, पुराण कहा जाता है। यदि पुरातन अर्थ के प्रतिपादक होने से तथा ऐतिहासिक अर्थ के प्रतिपादक होने से इनको पुराण-इतिहास कहा जायगा तो इस तरह की संज्ञा से 'वेद' संज्ञा का कोई विरोध नहीं है, 'वेद' संज्ञा के रहते हुए भी ब्राह्मण-भाग की पुराण-इतिहास संज्ञा भी हो सकती है। भारतीय दृष्टि से-भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ वेद से ज्ञात होता है।(1) अत: जिस प्रकार कम्बु-ग्रीवादि से युक्त एक ही पदार्थ के घट, कलश आदि अनेक नामधेय होने से कोई विरोध उपस्थित नहीं होता, उसी तरह एक ही ब्राह्मण-ग्रन्थ के वेद होने में और पुराण-इतिहास होने में कोई विरोध नहीं है।(2) कात्यायनको छोड़कर किसी अन्य ऋषि ने ब्राह्मणभाग के वेद होने में प्रमाण नहीं दिया है- यह कथन भी आधार रहित है, क्योंकि भारतीय दृष्टि से किसी भी आप्त ऋषि का प्रामाण्य अव्याहत है। फिर ऐसी बात भी नहीं है कि अन्य ऋषियों ने ब्राह्मण-भाग के वेदत्व को नहीं स्वीकारा है। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र, सत्याषाढ श्रौतसूत्र, बौधायन गृह्यसूत्र आदि ग्रन्थों में तत्तत् आचार्यों ने मन्त्र और ब्राह्मण दोनों को वेद माना है। अत: यह शंका निर्मूल सिद्ध होती है। पाणिनि के 'छन्दोब्राह्मणानि0' इत्यादि सूत्रों में 'छन्द:' शब्द से ही ब्राह्मण का ग्रहण मानने पर 'ब्राह्मणानि' यह पद व्यर्थ होगा, अत: यह कथन भी तर्क-संगत नहीं है। आचार्य पाणिनि ने 'छन्दस्' पद से मन्त्र और ब्राह्मण दोनों का ग्रहण किया है, क्योंकि 'छन्दस्' इस अधिकार में जो-जो आदेश, प्रत्यय, स्वर आदि का विधान किया गया है, वे दोनों में पाये जाते हैं। जो कार्य केवल मन्त्र-भाग में इष्ट था, उनके लिये सूत्रों में 'मन्त्रे' पद तथा जो ब्राह्मण में इष्ट था उनके लिये 'ब्राह्मण' पद दिया है। यह भी ध्यातव्य है कि 'छन्द:' पर यद्यपि मन्त्र-ब्राह्मणात्मक वेद का बोधक है, किंतु कभी-कभी वे इनमें से किसी एक अवयव के भी बोधक होते हैं। महाभाष्य पस्पशाह्निक एवं ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य में यह स्पष्ट किया गया है कि समुदायार्थक शब्दों की कभी-कभी उनके अवयवों के लिये भी प्रवृत्ति देखी जाती है। यथा-'पूर्वपाञ्चाल, उत्तरपाञ्चाल आदि का प्रयोग।' अत: शास्त्र में छन्द अथवा वेद शब्द केवल मन्त्रभाग, केवल ब्राह्मण-भाग अथवा दोनों भागों के लिये प्रसंगानुसार प्रयुक्त होते हैं। ब्राह्मण-भाग मन्त्रों के व्याख्यान हैं, अत: वे वेदान्तर्गत नहीं हो सकते- यह कथन भी सर्वथा असंगत है। मीमांसा एवं न्यायशास्त्र में वेद के जो विषय-विभाग किये गये हैं- विधि, अर्थवाद, नामधेय और निषेध, वे सभी मुख्यतया ब्राह्मण में ही घटित होते हैं। कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय-संहिता आदि में तो मन्त्र और ब्राह्मण सम्मिलित-रूप में ही हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि महाभाष्यकार पतञ्चलि ने यह विचार उठाया है कि व्याकरण केवल सूत्रों को कहना चाहिये या व्याख्यासहित सूत्रों को? इसका सिद्धान्त यही दिया गया है कि व्याख्यासहित सूत्र ही व्याकरण है। इसी प्रकार व्याख्या (ब्राह्मण)-सहित मन्त्र वेद है। इसके अतिरिक्त ब्राह्मण-भाग मात्र मन्त्रों का व्याख्यान नहीं करता; अपितु यज्ञादि कर्मों की विधि, इतिकर्तव्यता, स्तुति तथा ब्रह्मविद्या आदि का स्वतन्त्रतया विधान करता है। अत: ब्राह्मण-भाग का वेदत्व सर्वथा अव्याहत है। मन्त्र-ब्राह्मणात्मक वेद के विषय-सम्बन्धी तीन भेद परम्परा से चले आ रहे हैं। इनमें कर्मकाण्ड के प्रतिपादक भाग का नाम 'ब्राह्मण', उपासनाकाण्ड के प्रतिपादक भाग का नाम 'आरण्यक' तथा ज्ञानकाण्ड के प्रतिपादक भाग का नाम 'उपनिषद्' है। वेद का विभाजन- भारतीय वाड्मय में बतलाया गया है कि सृष्टि के प्रारम्भ में ऋग्यजु:साम-अथर्वात्मक वेद एकत्र संकलित था। सत्ययुग, त्रेतायुग तथा द्वापरयुग की लगभग समाप्तितक एकरूप वेद का ही अध्ययन-अध्यापन यथाक्रम चलता रहा। (1) भूंत भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात् प्रसिध्यति॥ (मनु0 12।97)। (2) वेदार्थपारिजात। द्वापरयुग की समाप्ति के कुछ वर्षों-पूर्व महर्षि व्यास ने भावी कलियुग के व्यक्तियों की बुद्धि, शक्ति और आयुष्य के ह्रास की स्थिति को दिव्य-दृष्टि से जानकर ब्रह्मपरम्परा से प्राप्त एकात्मक वेद का यज्ञ-क्रियानुरूप चार विभाजन किया। इन चार विभाजनों में उन्होंने होत्रकर्म के उपयोगी मन्त्र एवं क्रियाओं का संकलन ऋग्वेद के नाम से, यज्ञ के आध्वर्यव कर्म (आन्तरिक मूलस्वरूप-निर्माण) के उपयोगी मन्त्र एवं क्रियाओं का संकलन यजुर्वेद के नाम से, औद्गात्र कर्म के उपयोगी मन्त्र एवं क्रियाओं का संकलन सामवेद के नाम से और शान्तिक-पौष्टिक अभिलाषाओं (जातविद्या)- के उपयोगी मन्त्र एवं क्रियाओं का संकलन अथर्ववेद के नाम से किया। इस विभाजन में भगवती श्रुति के वचन को ही आधार रखा गया। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सम्प्रति प्रवर्तमान वेद-शब्दराशि का वैवस्वत मन्वन्तर में कृष्णद्वैपायन महर्षि व्यास द्वारा यह 28वाँ विभाजन है। अर्थात् पौराणिक मान्यता के अनुसार इकहत्तर चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है। प्रत्येक चतुर्युगी के अन्तर्गत द्वापरयुग की समाप्ति में विशिष्ट तप:सम्पन्न महर्षि के द्वारा एकात्मक वेद का चार विभाजन अनवरत होता रहता है। यह विभाजन कलियुग के लिये होता है और कलियुग के अन्त तक ही रहता है। सम्प्रति मन्वन्तरों में सप्तम वैवस्वत नामक मन्वन्तर का यह 28वाँ कलियुग है। इसके पूर्व 27 कलियुग एवं 27 ही वेदविभागकर्ता वेदव्यास (विभिन्न नामों के) हो चुके हैं। वेदों का यह 28वाँ उपलब्ध विभाजन महर्षि पराशर के पुत्र कृष्णद्वैपायन के द्वारा किया गया है। वेदों का विभाजन करने के कारण ही उन महर्षि को 'वेदव्यास' शब्द से जाना जाता है। चार वेद और उनकी यज्ञपरकता- जैसा कि ऊपर कहा गया है वेदविभागकर्ता व्यासोपाधि-विभूषित महर्षि कृष्णद्वैपायन ने यज्ञ-प्रयोजन की दृष्टि से वेद का ऋग्वेद-चजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-यह विभाजन प्रसारित किया; क्योंकि भारतीय चिन्तन में वेदों का अभिप्रवर्तन ही यज्ञ एवं उसके माध्यम से समस्त ऐहिकामुष्मिक फलसिद्धि के लिये हुआ है। वैदिक यज्ञों का रहस्यात्मक स्वरूप क्या है एवं साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने किन बीजों द्वारा प्रकृति से अभिलषित पदार्थों का दोहन इस भौतिक यज्ञ के माध्यम से आविष्कृत किया, यह पृथक् विवेचनीय विषय है। यहाँ स्थूलदृष्टया यह जानना है कि प्रत्येक छोटे (इष्टि) और बड़े (सोम, अग्निचयन) यज्ञों में मुख्य चार ऋत्विक्- होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा होते हैं। बड़े यज्ञों में एक-एक के तीन सहायक और होकर सोलह ऋत्विक् हो जाते हैं, किंतु वे तीन सहायक उसी मुख्य के अन्तर्गत मान लिये जाते हैं। इनमें 'अध्वर्यु' नामक ऋत्विक् द्रव्य-देवतात्यागात्मक यज्ञस्वरूप का निर्माण यजुर्वेद से करता है। 'होता' नामक ऋत्विक् यज्ञ के अपेक्षित शस्त्र (अप्रगीत मन्त्रसाध्य स्तुति) एवं अन्य अंगकलापों का अनुष्ठान ऋग्वेद द्वारा तथा 'उद्गाता' नामक ऋत्विक् स्तोत्र (गेय मन्त्रसाध्य स्तुति) और उसके अंगकलापों का अनुष्ठान सामवेद द्वारा करता है।'ब्रह्मा' नामक चतुर्थ ऋत्विक् यज्ञिय कर्मों के न्यूनादि दोषों का परिहार एवं शान्तिक-पौष्टिक-आभिचारिकादि सर्वविध अभिलाषा-सम्पूरक कर्म अथर्ववेद द्वारा सम्पादित करता है। वेद-त्रयी- कतिपय अर्वाचीन वेदार्थ-विचारक 'सैषा त्रय्येव विद्या तपति' (श0 ब्रा0 10।3।6।2), 'त्रयी वै विद्या' (श0 ब्रा0 4।6।7।1), 'इति वेदास्त्रयस्त्रयी' इत्यादि वचनों के द्वारा वेद वस्तुत: तीन हैं तथा कालान्तर में अथर्ववेद को चतुर्थ वेद के रूप में मान्यता दी गयी-ऐसी कल्पना करते हैं, किंतु यह कल्पना भारतीय परम्परा से सर्वथा विपरीत है। भारतीय आचार्यों ने रचना-भेद की दृष्टि से वेदचतुष्टयी का त्रित्वमें अन्तर्भाव कर उसे लक्षित किया है। रचना-शैली तीन ही प्रकार की होती है- (1) गद्य, (2) पद्य और (3) गान। इस दृष्टि से-छन्द में आबद्ध, पादव्यवस्था से युक्त मन्त्र 'ऋक्' कहलाते हैं; वे ही गीति-रूप होकर 'साम' कहलाते हैं तथा वृत्त एवं गीति से रहित प्रश्लिष्टपठित (-गद्यात्मक) मन्त्र 'चजुष्' कहलाते हैं।(1) यहाँ यह ध्यातव्य है कि छन्दोबद्ध ऋग्विशेष मन्त्र ही अथर्वागिंरस हैं, अत: उनका ऋग्रूपा (पद्यात्मिका) रचना-शैली में ही अन्तर्भाव हो जाता है और इस प्रकार वेदत्रयी की अन्वर्थता होती है। (1) पादेनार्थेन चोपेता वृत्तबद्धा मन्त्रा ऋच:। गीतिरूपा मन्त्रा: सामानि। वृत्तगीतिवर्जितत्वेन प्रश्लिष्टपठिता मन्त्रा: यजूंषि। वैदिक वाड्मयका शास्त्रीय स्वरूप (डा0 श्रीश्रीकिशोरजी मिश्र) संस्कृत साहित्य की शब्द-रचना की दृष्टि से 'वेद' शब्द का अर्थ ज्ञान होता है, परंतु इसका प्रयोग साधारणतया ज्ञान के अर्थ में नहीं किया जाता। हमारे महर्षियों ने अपनी तपस्या के द्वारा जिस 'शाश्वत ज्योति' का परम्परागत शब्द-रूप से साक्षात्कार किया, वही शब्द-राशि 'वेद' है। वेद अनादि हैं और परमात्मा के स्वरूप हैं। महर्षियों द्वारा प्रत्यक्ष दृष्ट होने के कारण इनमें कहीं भी असत्य या अविश्वास के लिये स्थान नहीं है। ये नित्य हैं और मूल में पुरूष-जाति से असम्बद्ध होने के कारण अपौरूषेय कहे जाते हैं। वेद अनादि अपौरूषेय और नित्य हैं तथा उनकी प्रामाणिकता स्वत: सिद्ध है, इस प्रकार का मत आस्तिक सिद्धान्तवाले सभी पौराणिकों एवं सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त के दार्शनिकों का है। न्याय और वैशेषिक के दार्शिनकों ने वेद को अपौरूषेय नहीं माना है, पर वे भी इन्हें परमेश्वर (पुरूषोत्तम)- द्वारा निर्मित, परंतु पूर्वानुरूपी का ही मानते हैं। इन दोनों शाखाओं के दार्शनिकों ने वेद को परम प्रमाण माना है और आनुपूर्वी (शब्दोच्चारणक्रम)- को सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक अविच्छिन्न-रूप से प्रवृत्त माना है। जो वेद को प्रमाण नहीं मानते, वे आस्तिक नहीं कहे जाते। अत: सभी आस्तिक मतवाले वेद को प्रमाण मानने में एकमत हैं, केवल न्याय और वैशेषिक दार्शनिकों की अपौरूषेय मानने की शैली भिन्न है। नास्तिक दार्शनिकों ने वेदों को भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा रचा हुआ ग्रन्थ माना है। चार्वाक मतवालों ने तो वेद को निष्क्रिय लोगों की जीविका का साधन तक कह डाला है। अत: नास्तिक दर्शनवाले वेद को न तो अनादि न अपौरूषेय, और न नित्य ही मानते हैं तथा न इनकी प्रामणिकता में ही विश्वास करते हैं। इसीलिये वे नास्तिक कहलाते हैं। आस्तिक दर्शनशास्त्रों ने इस मत का युक्ति, तर्क एवं प्रमाण से पूरा खण्डन किया है। वेद चार हैं वर्तमान काल में वेद चार माने जाते हैं। उनके नाम हैं-(1) ऋग्वेद, (2) यजुर्वेद, (3) सामवेद और (4) अथर्ववेद। द्वापर युग की समाप्ति के पूर्व वेदों के उक्त चार विभाग अलग-अलग नहीं थे। उस समय तो 'ऋक्', 'यजु:' और 'साम'- इन तीन शब्द-शैलियों की संग्रहात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीय शब्द-राशि ही वेद कहलाती थी। यहाँ यक कहना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि परमपिता परमेश्वर ने प्रत्येक कल्प के आरम्भ में सर्वप्रथम ब्रह्माजी (परमेष्ठी प्रजापति)- के हृदय में समस्त वेदों का प्रादुर्भाव कराया था, जो उनके चारों मुखों में सर्वदा विद्यमान रहते हैं। ब्रह्माजी की ऋषिसंतानों ने आगे चलकर तपस्या द्वारा इसी शब्द-राशि का साक्षात्कार किया और पठन-पाठन की प्रणाली से इनका संरक्षण किया। त्रयी विश्व में शब्द-प्रयोग की तीन ही शैलियाँ होती हैं; जो पद्य (कविता), गद्य और गानरूप से जन-साधारण में प्रसिद्ध हैं। पद्य में अक्षर-संख्या तथा पाद एवं विराम का निश्चित नियम रहता है। अत: निश्चित अक्षर-संख्या और पाद एवं विरामवाले वेद-मन्त्रों की संज्ञा 'ऋक्' है। जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानुसार अक्षर-संख्या और पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं हैं, वे गद्यात्मक मन्त्र 'यजु:' कहलाते हैं और जितने मन्त्र गानात्मक हैं, वे मन्त्र 'साम' कहलाते हैं। इन तीन प्रकार की शब्द-प्रकाशन-शैलियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वेद के लिये 'त्रयी' शब्द का भी व्यवहार किया जाता है। 'त्रयी' शब्द से ऐसा नहीं समझना चाहिये कि वेदों की संख्या ही तीन हैं, क्योंकि 'त्रयी' शब्द का व्यवहार शब्द-प्रयोग की शैली के आधार पर है। श्रुति-आम्नाय वेद के पठन-पाठन के क्रम में गुरूमुख से श्रवण कर स्वयं अभ्यास करने की प्रक्रिया अब तक है। आज भी गुरूमुख से श्रवण किये बिना केवल पुस्तक के आधार पर ही मन्त्राभ्यास करना निन्दनीय एवं निष्फल माना जाता है। इस प्रकार वेद के संरक्षण एवं सफलता की दृष्टि से गुरूमुख से श्रवण करने एवं उसे याद करने का अत्यन्त महत्त्व है। इसी कारण वेद को 'श्रुति' भी कहते हैं। वेद परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारा संरक्षणीय है। इस कारण इसका नाम 'आम्नाय' भी है। त्रयी, श्रुति और आम्नाय- ये तीनों शब्द आस्तिक ग्रन्थों में वेद के लिये व्यवहृत किये जाते हैं। चार वेद उस समय (द्वापरयुग की समाप्ति के समय)- में भी वेद का पढ़ाना और अभ्यास करना सरल कार्य नहीं था। कलियुग में मनुष्यों की शक्तिहीनता और कम आयु होने की बात को ध्यान में रखकर वेदपुरूष भगवान् नारायण के अवतार श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी महाराज ने यज्ञानुष्ठान के उपयोग को दृष्टिगत रखकर उस एक वेद के चार विभाग कर दिये और इन चारों विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। ये ही चार विभाग आजकल ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्ध हैं। पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नामक- इन चार शिष्यों ने अपने-अपने अधीत वेदों के संरक्षण एवं प्रसार के लिये शाकल आदि भिन्न-भिन्न शिष्यों को पढ़ाया। उन शिष्यों के मनोयोग एवं प्रचार के कारण वे शाखाएँ उन्हीं के नाम से आजतक प्रसिद्ध हो रही हैं। यहाँ यह कहना अनुचित नहीं होगा कि शाखा के नाम से सम्बन्धित कोई भी मुनि मन्त्रद्रष्टा ऋषि नहीं है और न वह शाखा उसकी रचना है। शाखा के नाम से सम्बन्धित व्यक्ति का उस वेदशाखा की रचना से सम्बन्ध नहीं है, अपितु प्रचार एवं संरक्षण के कारण सम्बन्ध है। कर्मकाण्ड में भिन्न वर्गीकरण वेदों का प्रधान लक्ष्य आध्यात्मिक ज्ञान देना ही है, जिससे प्राणिमात्र इस असार संसार के बन्धनों के मूलभूत कारणों को समझकर इससे मुक्ति पा सके। अत: वेद में कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड –इन दोनों विषयों का सर्वांगीण निरूपण किया गया है। वेदों का प्रारम्भिक भाग कर्मकाण्ड है और वह ज्ञानकाण्डवाले भाग से बहुत अधिक है। कर्मकाण्ड में यज्ञानुष्ठान-सम्बन्धी विधि-निषेध आदि का सर्वांगीण विवेचन है। इस भाग का प्रधान उपयोग यज्ञानुष्ठान में होता है। जिन अधिकारी वैदिक विद्वानों को यज्ञ कराने का यजमान द्वारा अधिकार प्राप्त होता है, उनको 'ऋत्विक्' कहते हैं। श्रौतयज्ञ में इन ऋत्विजों के चार गण हैं। समस्त ऋत्विक् चार वर्गों में बँटकर अपना-अपना कार्य करते हुए यज्ञ को सर्वागींण बनाते हैं। गणों के नाम हैं-(1) होतृगण, (2) अध्वर्युगण, (3) उद्गातृगण और (4) ब्रह्मगण। उपर्युक्त चारों गणों या वर्गों के लिये उपयोगी मन्त्रों के संग्रह के अनुसार वेद चार हुए हैं। उनका विभाजन इस प्रकार किया गया है- ¬ऋग्वेद- इसमें होतृवर्ग के लिये उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसका नाम ऋग्वेद इसलिये पड़ा है कि इसमें 'ऋक्' संज्ञक (पद्यबद्ध) मन्त्रों की अधिकता है। इसमें होतृवर्ग के उपयोगी गद्यात्मक (यजु:) स्वरूप के भी कुछ मन्त्र हैं। इसकी मन्त्र-संख्या अन्य वेदों की अपेक्षा अधिक है। इसके कई मन्त्र अन्य वेदों में भी मिलते हैं। सामवेद में तो ऋग्वेद के मन्त्र ही अधिक हैं। स्वतन्त्र मन्त्र कम हैं। यजुर्वेद- इसमें यज्ञानुष्टान-सम्बन्धी अध्वर्युवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसका नाम यजुर्वेद इसलिये पड़ा है कि इसमें 'गद्यात्मक' मन्त्रों की अधिकता है। इसमें कुछ पद्यबद्ध , मन्त्र भी हैं जो अध्वर्युवर्ग के उपयोगी हैं। इसके कुछ मन्त्र अथर्ववेद में भी पाये जाते हैं। यजुर्वेद के दो विभाग हैं- (1) शुक्लयजुर्वेद और (2) कृष्णयजुर्वेद। सामवेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातृवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इसका नाम सामवेद इसलिये पड़ा है कि इसमें गायन-पद्धति के निश्चित मन्त्र ही हैं। इसके अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद में उपलब्ध होते हैं, कुछ मन्त्र स्वतन्त्र भी हैं। अथर्ववेद- इसमें यज्ञानुष्ठान के ब्रह्मवर्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है। इस ब्रह्मवर्ग का कार्य है यज्ञ की देख-रेख करना, समय-समय पर नियमानुसार निर्देश देना, यज्ञ में ऋत्विजों एवं यजमान के द्वारा कोई भूल हो जाय या कमी रह जाय तो उसका सुधार या प्रायश्चित करना। अथर्व का अर्थ है कमियों को हटाकर ठीक करना या कमी-रहित बनाना। अत: इसमें यज्ञ-सम्बन्धी एवं व्यक्ति-सम्बन्धी सुधार या कमी-पूर्ति करने वाले भी मन्त्र हैं। इसमें पद्यात्मक मन्त्रों के साथ कुछ गद्यात्मक मन्त्र भी उपलब्ध हैं। इस वेद का नामकरण अन्य वेदों की भाँति शब्द-शैली के आधार पर नहीं है, अपितु इसके प्रतिपाद्य विषय के अनुसार है। इस वैदिक शब्दराशि का प्रचार एवं प्रयोग मुख्यत: अथर्व नाम के महार्षि द्वारा किया गया। इसलिये भी इसका नाम अथर्ववेद है। कुछ मन्त्र सभी वेदों में या एक-दो वेदों में समान-रूप से मिलते हैं, जिसका कारण यह है कि चारों वेदों का विभाजन यज्ञानुष्ठान के ऋत्विक् जनों के उपयोगी होने के आधार पर किया गया है। अत: विभिन्न यज्ञावसरों पर विभिन्न वर्गों के ऋत्विजों के लिये उपयोगी मन्त्रों का उस वेद में आ जाना स्वाभाविक है, भले ही वह मन्त्र दूसरे ऋत्विक् के लिये भी अन्य अवसर पर उपयोगी होने के कारण अन्यत्र भी मिलता हो। वेदों का विभाजन और शाखा-विस्तार आधुनिक विचार धारा के अनुसार चारों वेदों की शब्द राशि के विस्तार में तीन दृष्टियाँ पायी जाती हैं- (1) याज्ञिक दृष्टि, (2) प्रायोगिक दृष्टि और (3) साहित्यिक दृष्टि। याज्ञिक दृष्टि- इसके अनुसार वेदोक्त यज्ञों का अनुष्ठान ही वेद के शब्दों का मुख्य उपयोग माना गया है। सृष्टि के आरम्भ से ही यज्ञ करने में साधारणतया मन्त्रोच्चारण की शैली, मन्त्राक्षर एवं कर्म-विधि में विविधता रही है। इस विविधता के कारण ही वेदों की शाखा का विस्तार हुआ है। प्रत्येक वेद की अनेक शाखाएँ बतायी गयी हैं। यथा- ¬ऋग्वेद की 21 शाखा, यजुर्वेद की 101 शाखा, सामवेद की 1,000 शाखा और अथर्ववेद की 9 शाखा- इस प्रकार कुल 1,131 शाखाएँ हैं। इस संख्या का उल्लेख महर्षि पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में भी किया है। अन्य वेदों की अपेक्षा ऋग्वेद में मन्त्र-संख्या अधिक है, फिर भी इसका शाखा-विस्तार यजुर्वेद और सामवेद की अपेक्षा कम है। इसका कारण यह है कि ऋग्वेद में देवताओं के स्तुतिरूप मन्त्रों का भण्डार है। स्तुति-वाक्यों की अपेक्षा कर्मप्रयोग की शैली में भिन्नता होनी स्वाभाविक है। अत: ऋग्वेद की अपेक्षा यजुर्वेद की शाखाएँ अधिक हैं। गायन-शैली की शाखाओं का सर्वाधिक होना आश्चर्यजनक नहीं है। अत: सामवेद की 1000 शाखाएँ बतायी गयी हैं। फलत: कोई भी वेद शाखा-विस्तार के कारण एक-दूसरे से उपयोगिता, श्रद्धा एवं महत्त्व में कम-ज्यादा नहीं है। चारों का महत्व समान है। उपर्युक्त 1,131 शाखाओं में से वर्तमान में केवल 12 शाखाएँ ही मूल ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। वे हैं— 1- ऋग्वेद की 21 शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं-(1)शाकल-शाखा और (2) शांखायन-शाखा। 2- यजुर्वेद में कृष्णयजुर्वेद की 86 शाखाओं में से केवल 4 शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त हैं- (1)तैत्तिरीय शाखा, (2) मैत्रायणीय शाखा, (3) कठ शाखा और (4) कपिष्ठल शाखा। शुक्लयजुर्वेद की 15 शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त हैं- (1) माध्यन्दिनीय-शाखा और (2) काण्व-शाखा। 3- सामवेद की 1000 शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- (1) कौथुम-शाखा और (2) जैमिनीय-शाखा। 4- अथर्ववेद की 9 शाखाओं में से केवल 2 शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- (1) शौनक-शाखा और (2) पैप्पलाद-शाखा। उपर्युक्त 12 शाखाओं में से केवल 6 शाखाओं की अध्ययन-शैली प्राप्त है, जो नीचे दी जा रही है- ऋग्वेद में केवल शाकल-शाखा, कृष्णयजुर्वेद में केवल तैत्तिरीय शाखा और शुक्लयजुर्वेद में केवल माध्यन्दिनीय शाखा तथा काण्व-शाखा, सामवेद में केवल कौथुम-शाखा, अथर्वेवेद में केवल शौनक-शाखा। यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि अन्य शाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किंतु उनसे उस शाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं। कृष्णयजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा महाराष्ट्र में तथा सामवेद की जैमिनीय शाखा केरल के कुछ व्यक्तियों के ही उच्चारण में सीमित हैं। प्रायोगिक दृष्टि- इसके अनुसार प्रत्येक शाखा के दो भाग बताये गये हैं। एक मन्त्र-भाग और दूसरा ब्राह्मण-भाग। मन्त्र-भाग- मन्त्र-भाग उस शब्दराशि को कहते हैं, जो यज्ञ में साक्षात्-रूप से प्रयोग में आती है। ब्राह्मण-भाग- ब्राह्मण शब्द से उस शब्दराशि का संकेत है, जिसमें विधि (आज्ञाबोधक शब्द), कथा, आख्यायिका एवं स्तुति द्वारा यज्ञ कराने की प्रवृत्ति उत्पन्न कराना, यज्ञानुष्ठान करने की पद्धति बताना, उसकी उपपत्ति और विवेचन के साथ उसके रहस्य का निरूपण करना है। इस प्रायोगिक दृष्टि के दो विभाजनों में साहित्यिक दृष्टि के चार विभाजनों का समावेश हो जाता है। साहित्यिक दृष्टि- इसके अनुसार प्रत्येक शाखा की वैदिक शब्द-राशि का वर्गीकरण-(1) संहिता, (2) ब्राह्मण, (3) आरण्यक और (4) उपनिषद्-इन चारों भागों में है। संहिता- वेद का जो भाग प्रतिदिन विशेषत: अध्ययनीय है, उसे 'संहिता' कहते हैं। इस शब्द राशि का उपयोग श्रौत एवं स्मार्त दोनों प्रकार के यज्ञानुष्ठानों में होता है। प्रत्येक वेद की अलग-अलग शाखा की एक-एक संहिता है। वेदों के अनुसार उनको- (1) ऋग्वेद-संहिता, (2) यजुर्वेद- संहिता, (3) सामवेद-संहिता और (4) अथर्ववेद-संहिता कहा जाता है। इन संहिताओं के पाठ में उनके अक्षर, वर्ण, स्वर आदि का किंचित मात्र भी उलट-पुलट न होने पाये, इसलिये प्राचीन अध्ययन-अध्यापन के सम्प्रदाय में (1) संहिता-पाठ, (2) पद-पाठ, (3) क्रम-पाठ-ये तीन प्रकृति पाठ और (1) जटा, (2) माला, (3) शिखा, (4) रेखा, (5) ध्वज, (6) दण्ड, (7) रथ तथा (8) घन- ये आठ विकृति पाठ प्रचलित हैं। ब्राह्मण- वह वेद-भाग जिसमें विशेषतया यज्ञानुष्ठान की पद्धति के साथ-ही-साथ तदुपयोगी प्रवृत्ति का उद्बोधन कराना, उसको दृढ़ करना तथा उसके द्वारा फल-प्राप्ति आदि का निरूपण विधि एवं अर्थवाद के द्वारा किया गया है, 'ब्राह्मण' कहा जाता है। आरण्यक- वह वेद-भाग जिसमें यज्ञानुष्ठान-पद्धति, याज्ञिक मन्त्र, पदार्थ एवं फल आदि में आध्यात्मिकता का संकेत दिया गया है, 'आरण्यक' कहलाता है। यह भाग मनुष्य को आध्यात्मिक बोध की ओर झुकाकर सांसारिक बन्धनों से ऊपर उठाता है। अत: इसका विशेष अध्ययन भी संसार के त्याग की भावना के कारण वानप्रस्थाश्रम के लिये अरण्य (जंगल)- में किया जाता है। इसीलिये इसका नाम 'आरण्यक' प्रसिद्ध हुआ है। उपनिषद्- वह वेद-भाग जिसमें विशुद्ध रीति से आध्यात्मिक चिन्तन को ही प्रधानता दी गयी है और फल सम्बन्धी फलानुबन्धी कर्मों के दृढानुराग को शिथिल करना सुझाया गया है, 'उपनिषद्' कहलाता है। वेद का यह भाग उसकी सभी शाखाओं में है, परंतु यह बात स्पष्ट-रूप से समझ लेनी चाहिये कि वर्तमान में उपनिषद् संज्ञा के नाम से जितने ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनमें से कुछ उपनिषदों (ईशावास्य, बृहदारण्यक, तैत्तिरीय, छान्दोग्य आदि)- को छोड़कर बाकी के सभी उपनिषद् –भाग में उपलब्ध हों, ऐसी बात नहीं है। शाखागत उपनिषदों में से कुछ अंश को सामयिक, सामाजिक या वैयक्तिक आवश्यकता के आधार पर उपनिषद् संज्ञा दे दी गयी है। इसीलिए इनकी संख्या एवं उपलब्धियों में विविधता मिलती है। वेदों में जो उपनिषद्-भाग हैं, वे अपनी शाखाओं में सर्वथा अक्षुण्ण हैं। उनको तथा उन्हीं शाखाओं के नाम से जो उपनिषद्-संज्ञा के ग्रन्थ उपलब्ध हैं, दोनों को एक नहीं समझना चाहिये। उपलब्ध उपनिषद्-ग्रन्थों की संख्या में से ईशादि 10 उपनिषद् तो सर्वमान्य हैं। इनके अतिरिक्त 5 और उपनिषद् (श्वेताश्वतरादि), जिन पर आचार्यो की टीकाएँ तथा प्रमाण-उद्धरण आदि मिलते हैं, सर्वसम्मत कहे जाते हैं। इन 15 के अतिरिक्त जो उपनिषद् उपलब्ध हैं, उनकी शब्दगत ओजस्विता तथा प्रतिपादनशैली आदि की विभिन्नता होने पर भी यह अवश्य कहा जा सकता है कि इनका प्रतिपाद्य ब्रह्म या आत्मतत्त्व निश्चयपूर्वक अपौरूषेय, नित्य, स्वत:प्रमाण वेद-शब्द-राशि से सम्बद्ध है। ऋषि, छन्द और देवता वेद के प्रत्येक मन्त्र में किसी-न-किसी ऋषि, छन्द एवं देवता का उल्लेख होना आवश्यक है। कहीं-कहीं एक ही मन्त्र में एक से अधिक ऋषि, छन्द और देवता के नाम मिलते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि एक ही मन्त्र में एक से अधिक ऋषि, छन्द और देवता क्यों हैं, यह स्पष्ट कर दिया जाय। इसका विवेचन निम्न पंक्तियों में किया गया है- ऋषि- यह वह व्यक्ति है, जिसने मन्त्र के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझा है। 'यथार्थ'- ज्ञान प्राय: चार प्रकार- से होता है (1) परम्परा के मूल पुरूष होने से, (2) उस तत्त्व के साक्षात दर्शन से, (3) श्रद्धापूर्वक प्रयोग तथा साक्षात्कार से और (4) इच्छित (अभिलषित)-पूर्ण सफलता के साक्षात्कार से। अतएव इन चार कारणों से मन्त्र-सम्बन्धित ऋषियों का निर्देश ग्रन्थों में मिलता है। जैसे— 1- कल्प के आदि में सर्वप्रथम इस अनादि वैदिक शब्द-राशि का प्रथम उपदेश ब्रह्माजी के हृदय में हुआ और ब्रह्माजी से परम्परागत अध्ययन-अध्यापन होता रहा, जिसका निर्देश 'वंश-ब्राह्मण' आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। अत: समस्त वेद की परम्परा के मूल पुरूष ब्रह्मा (ऋषि) हैं। इनका स्मरण परमेष्ठी प्रजापति ऋषि के रूप में किया जाता है। 2- इसी परमेष्ठी प्रजापति की परम्परा की वैदिक शब्दराशि के किसी अंश के शब्द तत्त्व का जिस ऋषि ने अपनी तपश्चर्या के द्वारा किसी विशेष अवसर पर प्रत्यक्ष दर्शन किया, वह भी उस मन्त्र का ऋषि कहलाया। उस ऋषि का यह ऋषित्व शब्दतत्त्व के साक्षात्कार का कारण माना गया है। इस प्रकार एक ही मन्त्र का शब्दतत्त्व-साक्षात्कार अनेक ऋषियों को भिन्न-भिन्न रूप से या सामूहिक रूप से हुआ था। अत: वे सभी उस मन्त्र के ऋषि माने गये हैं। 3- कल्प ग्रन्थों के निर्देशों में ऐसे व्यक्तियों को भी ऋषि कहा गया है, जिन्होंने उस मन्त्र या कर्म का प्रयोग तथा साक्षात्कार अति श्रद्धापूर्वक किया है। 4- वैदिक ग्रन्थों विशेषतया पुराण-ग्रन्थों के मनन से यह भी पता लगता है कि जिन व्यक्तियों ने किसी मन्त्र का एक विशेष प्रकार के प्रयोग तथा साक्षात्कार से सफलता प्राप्त की है, वे भी उस मन्त्र के ऋषि माने गये हैं। उक्त निर्देशों को ध्यान में रखने के साथ यह भी समझ लेना चाहिये कि एक ही मन्त्र को उक्त चारों प्रकार से या एक ही प्रकार से देखने वाले भिन्न-भिन्न व्यक्ति ऋषि हुए हैं। फलत: एक मन्त्र के अनेक ऋषि होने में परस्पर कोई विरोध नहीं है, क्योंकि मन्त्र ऋषियों की रचना या अनुभूति से सम्बन्ध नहीं रखता; अपितु ऋषि ही उस मन्त्र से बहिरंग रूप से सम्बद्ध व्यक्ति है। छन्द- मन्त्र से सम्बन्धित (मन्त्र के स्वरूप में अनुस्यूत) अक्षर, पाद, विराम की विशेषता के आधार पर दी गयी जो संज्ञा है, वही छन्द है। एक ही पदार्थ की संज्ञा विभिन्न सिद्धान्त या व्यक्ति के विश्लेषण के भाव से नाना प्रकार की हो सकती है। अत: एक ही मन्त्र के भिन्न नाम के छन्द शास्त्रों में पाये जाते हैं। किसी भी संज्ञा का नियमन उसके तत्त्वज्ञ आप्त व्यक्ति के द्वारा ही होता है। अत: कात्यायन, शौनक, पिंगल आदि छन्द:शास्त्र के आचार्यों की एवं सर्वानुक्रमणीकारों की उक्तियाँ ही इस सम्बन्ध में मान्य होती हैं। इसलिये एक मन्त्र में भिन्न नामों के छन्दों के मिलने से भ्रम नहीं होना चाहिये। देवता- मन्त्रों के अक्षर किसी पदार्थ या व्यक्ति के सम्बन्ध में कुछ कहते हैं। यह कथन जिस व्यक्ति या पदार्थ के निमित्त होता है, वही उस मन्त्र का देवता होता है, परंतु यह स्मरण रखना चाहिये कि कौन मन्त्र, किस व्यक्ति या पदार्थ के लिये कब और कैसे प्रयोग किया जाय, इसका निर्णय वेद का ब्राह्मण-भाग या तत्त्वज्ञ ऋषियों के शास्त्र-वचन ही करते हैं। एक ही मन्त्र का प्रयोग कई यज्ञिय अवसरों तथा कई कामनाओं के लिये मिलता है। ऐसी स्थिति में उस एक ही मन्त्र के अनेक देवता बताये जाते हैं। अत: उन निर्देशों के आधार पर ही कोई पदार्थ या व्यक्ति 'देवता' कहा जाता है। मन्त्र के द्वारा जो प्रार्थना की गयी है, उसकी पूर्ति करने की क्षमता उस देवता में रहती है। लौकिक व्यक्ति या पदार्थ ही जहाँ देवता हैं, वहाँ वस्तुत: वह दृश्य जड पदार्थ ही जहाँ देवता हैं, वहाँ वस्तुत: वह दृश्य जड पदार्थ या अक्षम व्यक्ति देवता नहीं है, अपितु उसमें अन्तर्हित एक प्रभु-शक्तिसम्पन्न देवता-तत्त्व है, जिससे हम प्रार्थना करते हैं। यही बात 'अभिमानीव्यपदेश' शब्द से शास्त्रों में स्पष्ट की गयी है। लौकिक पदार्थ या व्यक्ति का अधिष्ठाता देवता-तत्त्व मन्त्रात्मक शब्द-तत्त्व से अभिन्न है, यह मीमांसा-दर्शन का विचार है। वेदान्तशास्त्र में मन्त्र से प्रतिपादित देवता-तत्व को शरीरधारी चेतन और अतीन्द्रिय कहा गया है। पुराणों में कुछ देवताओं के स्थान, चरित्र, इतिहास आदि का वर्णन करके भारतीय संस्कृति के इस देवता-तत्त्व के प्रभुत्व को हृदयंगम कराया गया है। निष्कर्ष यही है कि इच्छा की पूर्ति कर सकने वाले अतीन्द्रिय मन्त्र से प्रतिपादित तत्त्व को देवता कहते हैं और उस देवता का संकेत शास्त्र-वचनों से ही मिलता है। अत: वचनों के अनुसार अवसर-भेद से एक मन्त्र के विभिन्न देवता हो सकते हैं। वेद के अंग, उपांग एवं उपवेद वेदों के सर्वागींण अनुशीलन के लिये शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त छन्द और ज्योतिष-इन 6 अंगों के ग्रन्थ हैं। प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये 6 उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद-ये क्रमश: चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं। वेदों की जानकारी के लिये विशेष उपयोगी ग्रन्थ वैदिक शब्दों के अर्थ एवं उनके प्रयोग की पूरी जानकारी के लिये वेदांग आदि शास्त्रों की व्यवस्था मानी गयी है। उसमें वैदिक स्वर और शब्दों की व्यवस्था के लिये शिक्षा तथा व्याकरण दोनों अंगों के ग्रन्थ वेद के विशिष्ट शब्दार्थ के उपयोग के लिये अलग-अलग उपांग ग्रन्थ 'प्रातिशाख्य' हैं, जिन्हें वैदिक व्याकरण भी कहते हैं। प्रयोग-पद्धति की सुव्यवस्था के लिये कल्पशास्त्र माना जाता है। इसके चार भेद हैं- (1) श्रौतसूत्र, (2) गृह्यसूत्र, (3) धर्मसूत्र और (4) शुल्बसूत्र। इनका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार हैं- श्रौतसूत्र- इसमें श्रौत-अग्नि (आवहनीय-गार्हपत्य एवं दक्षिणाग्नि)- में होने वाले यज्ञ-सम्बन्धी विषयों का स्पष्ट निरूपण किया गया है। गृह्यसूत्र- इसमें गृह्य (औपासन)-अग्नि में होने वाले कर्मों एवं उपनयन, विवाह आदि संस्कारों का निरूपण किया गया है। धर्मसूत्र- इसमें वर्ण तथा आश्रम-सम्बन्धी धर्म, आचार, व्यवहार आदि का निरूपण है। शुल्बसूत्र- इसमें यज्ञ-वेदी आदि के निर्माण की ज्यामितीय प्रक्रिया तथा अन्य तत्सम्बद्ध निरूपण है। उपर्युक्त प्रकार से प्रत्येक शाखा के लिये अलग-अलग व्याकरण और कल्पसूत्र हैं, जिससे उस शाखा का पूरा ज्ञान हो जाता है और कर्मानुष्ठान में सुविधा होती है। इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिये कि यथार्थ में ज्ञानस्वरूप होते हुए भी वेद; कोई वेदान्त-सूत्र की तरह केवल दार्शनिक ग्रन्थ नहीं हैं, जहाँ केवल आध्यात्मिक चिन्तन का ही समावेश हो। ज्ञान-भण्डार में लौकिक और अलौकिक सभी विषयों का समावेश रहता है और साक्षात या परम्परा से ये सभी विषय परम तत्त्व की प्राप्ति में सहायक होते हैं। यद्यपि किसी दार्शनिक विषय का सांगोपांग विचार वेद में किसी एक स्थान पर नहीं मिलता, किंतु छोटे-से-छोटे तथा बड़े-से-बड़े तत्त्वों के स्वरूप का साक्षात दर्शन तो ऋषियों को हुआ था और वे सब अनुभव वेद में व्यक्त रूप से किसी न किसी स्थान पर वर्णित हैं। उनमें लौकिक और अलौकिक सभी बातें हैं। स्थूलतम तथा सूक्ष्मतम रूप से भिन्न-भिन्न तत्त्वों का परिचय वेद के अध्ययन से प्राप्त होता है। अत: वेद के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि वेद का एक ही प्रतिपाद्य विषय है या एक ही दर्शन है या एक ही मन्तव्य है। यह तो साक्षात –प्राप्त ज्ञान के स्वरूपों का शब्द-भण्डार है। इसी शब्दराशि के तत्त्वों को निकाल कर आचार्यों ने अपनी-अपनी अनुभूति, दृष्टि एवं गुरू-परम्परा के आधार पर विभिन्न दर्शनों तथा दार्शनिक प्रस्थानों (मौलिक दृष्टि से सुविचारित मतों)- का संचयन किया है। इस कारण भारतीय दृष्टि से वेद विश्व का संविधान है। अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:। जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शान्तिवाम्॥

                                           (अथर्व 3।30।2)

पुत्र पिता के अनुकूल कर्म करने वाला हो और माता के साथ समान मन वाला हो। पत्नी पति से मधुर और सुखद वाणी बोले।

टीका-टिप्पणी

  1. अर्थात् इष्ट (इच्छित) फल की प्राप्ति के लिये और अनिष्ट वस्तु के त्याग के लिये अलौकिक उपाय (मानव-बुद्धि को अगम्य उपाय) जो ज्ञानपूर्ण ग्रन्थ सिखलाता है, समझाता है, उसको वेद कहते हैं।
  2. अर्थात् जिसकी कृपा से अधिकारी मनुष्य (द्विज) सद्विद्या प्राप्त करते हैं, जिससे वे विद्वान् हो सकते हैं, जिसके कारण वे सद्विद्या के विषय में विचार करने के लिये समर्थ हो जाते हैं, उसे वेद कहते हैं।
  3. अर्थात् पुरूषार्थचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम औ मोक्ष)- विषयक सम्यक्-ज्ञान होने के लिये साधनभूत ग्रन्थविशेष को वेद कहते हैं।
  4. अर्थात् जिस (नरपुंग्डव) को आत्मसाक्षात्कार किंवा आत्मप्रत्यभिज्ञा हो गया, उसको ही वेद का वास्तविक ज्ञान होता है।
  5. (1) ऋग्वेद, (2) यजुर्वेद, (3) सामवेद और (4) अथर्ववेद।
  6. अर्थात् वेदों को ही श्रुति कहते हैं।
  7. अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक जिसकी सहायता से बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों को सत्यविद्या ज्ञात हुई, उसे 'श्रुति' कहते हैं। 'श्रु' का अर्थ है 'सुनना', अत: 'श्रुति' माने हुआ 'सुना हुआ ज्ञान।'