व्रत

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व्रत संकल्पपूर्वक किए गए कर्म को 'व्रत' कहते हैं। मनुष्य को पुण्य के आचरण से सुख और पाप के आचरण से दु:ख होता है। संसार का प्रत्येक प्राणी अपने अनुकूल सुख की प्राप्ति और अपने प्रतिकूल दु:ख की निवृत्ति चाहता है। मानव की इस परिस्थिति को अवगत कर त्रिकालज्ञ और परहित में रत ऋषि मुनियों ने वेद, पुराण, स्मृति और समस्त निबंधग्रंथों को आत्मसात् कर मानव के कल्याण के हेतु सुख की प्राप्ति तथा दु:ख की निवृत्ति के लिए अनेक उपाय कहे गये हैं। उन्हीं उपायों में से व्रत और उपवास श्रेष्ठ तथा सुगम उपाय हैं। व्रतों के विधान करने वाले ग्रंथों में व्रत के अनेक अंगों का वर्णन देखने में आता है। उन अंगों का विवेचन करने पर दिखाई पड़ता है कि उपवास भी व्रत का एक प्रमुख अंग है। इसीलिए अनेक स्थलों पर यह कहा गया है कि व्रत और उपवास में परस्पर भाव संबंध है। अनेक व्रत के आचरणकाल में उपवास करने का विभिन्न विधान देखा जाता है।

याग का विधान

व्रत धर्म का साधन माना गया है। संसार के समस्त धर्मों ने किसी न किसी रूप में व्रत और उपवास को अपनाया है। व्रत के आचरण से पापों का नाश, पुण्य का उदय, शरीर और मन की शुद्धि, अभिलषित मनोरथ की प्राप्ति और शांति तथा परम पुरुषार्थ की सिद्धि होती है। अनेक प्रकार के व्रतों में सर्वप्रथम वेद के द्वारा प्रतिपादित अग्नि की उपासना रूपी व्रत देखने में आता है। इस उपासना के पूर्व विधानपूर्वक अग्नि परिग्रह आवश्यक होता है। अग्निपरिग्रह के पश्चात व्रती के द्वारा सर्वप्रथम पौर्ण मास याग करने का विधान है। इस याग को प्रारंभ करने का अधिकार उसे उस समय प्राप्त होता है जब याग से पूर्वदित वह विहित व्रत का अनुष्ठान संपन्न कर लेता है। यदि प्रमादवश उपासक ने आवश्यक व्रतानुष्ठान नहीं किया और उसके अंगभूत नियमों का पालन नहीं किया तो देवता उसके द्वारा समर्पित हवि द्रव्य स्वीकार नहीं करते।

व्रत के नियम

ब्राह्मण ग्रंथ के आधार पर देवता सर्वदा सत्यशील होते हैं। यह लक्षण अपने त्रिगुणात्मक स्वभाव से पराधीन मानव में घटित नहीं होता। इसीलिए देवता मानव से सर्वदा परोक्ष रहना पसंद करते हैं। व्रत के परिग्रह के समय उपासक अपने आराध्य अग्निदेव से करबद्ध प्रार्थना करता है -'मैं नियमपूर्वक व्रत का आचरण करुँगा, मिथ्या को छोड़कर सर्वदा सत्य का पालन करूँगा।' इस उपर्युक्त अर्थ के द्योतक वैदिक मंत्र का उच्चारण कर वह अग्नि में आहुति करता है। उस दिन वह अहोरात्र में केवल एक बार हविष्यान्न का भोजन, तृण से आच्छादित भूमि पर रात्रि में शयन और अखंड ब्रह्मचर्य का पालन प्रभृति समस्त आवश्यक नियमों का पालन करता है।

व्रतों के प्रकार

वैदिक काल की अपेक्षा पौराणिक युग में अधिक व्रत देखने में आते हैं। उस काल में व्रत के प्रकार अनेक हो जाते हैं। व्रत के समय व्यवहार में लाए जानेवाले नियमों की कठोरता भी कम हो जाती है तथा नियमों में अनेक प्रकार के विकल्प भी देखने में आते हैं। उदाहरण रूप में जहाँ एकादशी के दिन उपवास करने का विधान है, वहीं विकल्प में लघु फलाहार और वह भी संभव न हो तो फिर एक बार ओदनरहित अन्नाहार करने तक का विधान शास्त्रसम्मत देखा जाता है। इसी प्रकार किसी भी व्रत के आचरण के लिए तदर्थ विहित समय अपेक्षित है। 'वसंते ब्राह्मणोऽग्नी नादधीत' अर्थात् वसंत ऋतु में ब्राह्मण अग्निपरिग्रह व्रत का प्रारंभ करे, इस श्रुति के अनुसार जिस प्रकार वसंत ऋतु में अग्निपरिग्रह व्रत के प्रारंभ करने का विधान है वैसे ही चांद्रायण आदि व्रतों के आचरण के निमित्त वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण तक का विधान है। इस पौराणिक युग में तिथि पर आश्रित रहनेवाले व्रतों की बहुलता है। कुछ व्रत अधिक समय में, कुछ अल्प समय में पूर्ण होते हैं।

  • नित्य, नैमित्तिक और काम्य, इन भेदों से व्रत तीन प्रकार के होते हैं -
  1. जिस व्रत का आचरण सर्वदा के लिए आवश्यक है और जिसके न करने से मानव दोषी होता है वह नित्यव्रत है। सत्य बोलना, पवित्र रहना, इंद्रियों का निग्रह करना, क्रोध न करना, अश्लील भाषण न करना और परनिंदा न करना आदि नित्यव्रत हैं।
  2. किसी प्रकार के पातक के हो जाने पर या अन्य किसी प्रकार के निमित्त के उपस्थित होने पर चांद्रायण प्रभृति जो व्रत किए जाते हैं वे नैमिक्तिक व्रत हैं।
  3. जो व्रत किसी प्रकार की कामना विशेष से प्रोत्साहित होकर मानव के द्वारा संपन्न किए जाते हैं वे काम्य व्रत हैं; यथा पुत्रप्राप्ति के लिए राजा दिलीप ने जो व्रत किया था वह काम्य व्रत है।
व्रत की समय सीमा

प्रत्येक व्रत के आचरण के लिए थोड़ा या बहुत समय निश्चित है। जैसे सत्य और अहिंसा व्रत का पालन करने का समय यावज्जीवन कहा गया है वैसे ही अन्य व्रत के लिए भी समय निर्धारित है। महाव्रत जैसे व्रत सोलह वर्षों में पूर्ण होते हैं। वेद व्रत और ध्वज्व्रत की समाप्ति बारह वर्षों में होती है। पंचमहाभूत्व्रत, संतानाष्टम्व्रत एक वर्ष तक किया जाता है। अरुंधती व्रत वसंत ऋतु में होता है। चैत्र मास में वत्सराध्व्रत, वैशाख मास में स्कंदषष्ठ्व्रत, ज्येष्ठ मास में निर्जला एकादशी व्रत, आषाढ़ मास में हरिशयन्व्रात, श्रावण मास में उपाकर्म व्रत, भाद्रपद मास में स्त्रियों के लिए हरितालिका व्रत, आश्विन मास में नवरात्र व्रत, कार्तिक मास में गोपाष्टम व्रत, मार्गशीर्ष मास में भैरवाष्टम्व्रत, पौष मास में मार्तंड व्रत, माघ मास में षट्तिल्व्रत, और फाल्गुन मास में महाशिवरात्रि व्रत प्रमुख हैं। महालक्ष्मी व्रत, भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को प्रारंभ होकर सोलह दिनों में पूर्ण होता है। प्रत्येक संक्रांति को आचरणीय व्रतों में मेष संक्रांति को सुजन्मावाप्ति व्रत, किया जाता है। तिथि पर आश्रित रहनेवाले व्रतों में एकादशी व्रत किया जाता है। तिथि पर आश्रित रहनेवाले व्रतों में एकादशी व्रत, वार पर आश्रित व्रतों में रविवार को सूर्य व्रत, नक्षत्रों में अश्विनी नक्षत्र में शिव व्रत, योगों में विष्कुंभ योग में धृतदान्व्रात, और करणों में नवकरण में विष्ण्व्रुात का अनुष्ठान विहित है। भक्ति और श्रद्धानुकूल चाहे जब किए जाने वाले व्रतों में सत्यनारायण व्रत प्रमुख है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ


अन्य लिंक

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