"शान्तिदेव बौद्धाचार्य" के अवतरणों में अंतर

ब्रज डिस्कवरी, एक मुक्त ज्ञानकोष से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
 
पंक्ति १: पंक्ति १:
 
{{Menu}}
 
{{Menu}}
{{महायान के आचार्य}}
 
 
==आचार्य शान्तिदेव / Acharya Shantidev==
 
==आचार्य शान्तिदेव / Acharya Shantidev==
 
माघ्यमिक आचार्यों में आचार्य शान्तिदेव का महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी रचनाएं, अत्यन्त प्राञ्जल एवं भावप्रवण हैं, जो पाठक के हृदय का स्पर्श करती हैं और उसे प्रभावित करती हैं। माध्यमिक दर्शन और [[महायान]] धर्म के प्रसार में इनका अपूर्व योगदान है।  
 
माघ्यमिक आचार्यों में आचार्य शान्तिदेव का महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी रचनाएं, अत्यन्त प्राञ्जल एवं भावप्रवण हैं, जो पाठक के हृदय का स्पर्श करती हैं और उसे प्रभावित करती हैं। माध्यमिक दर्शन और [[महायान]] धर्म के प्रसार में इनका अपूर्व योगदान है।  
पंक्ति २७: पंक्ति २६:
 
तदान्यगत्यभावेन निरालम्बा प्रशाम्यति॥<balloon title="बोधिचिर्यावतार 9:35" style=color:blue>*</balloon><br />
 
तदान्यगत्यभावेन निरालम्बा प्रशाम्यति॥<balloon title="बोधिचिर्यावतार 9:35" style=color:blue>*</balloon><br />
 
तक पहुँचे तब भगवान् सम्मुख प्रादुर्भूत हुए और शान्तिदेव को अपने लोक में ले गए। यह वर्णन उपर्युक्त तालपत्रों से प्राप्त होता है। पण्डित लोग आश्चर्यचकित हुए तदनन्तर उनकी पढु-कुटी ढूंटी गई, जिसमें उन्हें उनके तीनों ग्रन्थ प्राप्त हुए।  
 
तक पहुँचे तब भगवान् सम्मुख प्रादुर्भूत हुए और शान्तिदेव को अपने लोक में ले गए। यह वर्णन उपर्युक्त तालपत्रों से प्राप्त होता है। पण्डित लोग आश्चर्यचकित हुए तदनन्तर उनकी पढु-कुटी ढूंटी गई, जिसमें उन्हें उनके तीनों ग्रन्थ प्राप्त हुए।  
 
+
==सम्बंधित लिंक==
 +
{{महायान के आचार्य2}}
 +
{{महायान के आचार्य}}
 
[[Category:कोश]][[Category:दर्शन]][[Category:बुद्ध]][[Category:बौद्ध]]
 
[[Category:कोश]][[Category:दर्शन]][[Category:बुद्ध]][[Category:बौद्ध]]
 
__INDEX__
 
__INDEX__

१२:१६, ८ जुलाई २०१० के समय का अवतरण

आचार्य शान्तिदेव / Acharya Shantidev

माघ्यमिक आचार्यों में आचार्य शान्तिदेव का महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी रचनाएं, अत्यन्त प्राञ्जल एवं भावप्रवण हैं, जो पाठक के हृदय का स्पर्श करती हैं और उसे प्रभावित करती हैं। माध्यमिक दर्शन और महायान धर्म के प्रसार में इनका अपूर्व योगदान है।

दार्शनिक मान्यता

माध्यमिकों में सैद्धान्तिक दृष्टि से स्वातन्त्रिक एवं प्रासङ्गिक भेद अत्यन्त प्रसिद्ध है। स्वातन्त्रिक माध्यतिकों में भी सूत्राचार स्वातन्त्रिक और योगाचार स्वातन्त्रिक ये दो भेद हैं। आचार्य शान्तिदेव प्रासङ्गिक मत के प्रबल समर्थक हैं। विचारों और तर्कों में ये आचार्य चन्द्रकीर्ति का पूर्णतया अनुगमन करते हैं। उनकी रचनाओं में बोधिचर्यावतार प्रमुख है। इसमें दस परिच्छेद हैं। नौवें प्रज्ञापरिच्छेद में इनकी दार्शनिक मान्यताएं परिस्फुटित हुई हैं। इस परिच्छेद में संवृति और परमार्थ इन दो सत्यों का इन्होंने सुस्पष्ट निरूपण किया है। इस निरूपण में इनका चन्द्रकीर्ति से कुछ भी अन्तर प्रतीत नहीं होता।

मूल सैद्धान्तिक आधार पर ही माध्यमिकों क दो वर्ग हैं। प्रथम वर्ग में वे माध्यमिक दार्शनिक आते हैं, जो पदार्थों की स्वलक्षणसत्ता स्वीकार करते हैं और परमार्थत: उनकी नि:स्वभावता मानते हैं, जिसे वे 'शून्यता' कहते हैं। दूसरे वर्ग में वे दार्शनिक परिगणित होते हैं, जो स्वलक्षणसत्ता कथमपि स्वीकार नहीं करते और उस नि:स्वलक्षणा को ही 'शून्यता' कहते हैं। इनमें प्रथम वर्ग के माध्यमिक दार्शनिक स्वातन्त्रिक तथा दूसरे वर्ग के माध्यमिक प्रासङ्गिक कहलाते हैं। इन दोनों की मान्यताओं में यह आधारभूत अन्तर है, जिसकी ओर जिज्ञासुओं का ध्यान जाना चाहिए, अन्यथा माध्यमिक दर्शन की निगूढ़ अर्थ परिज्ञात नहीं होगा। व्यवहार में किसी धर्म का अस्तित्व या उसकी सत्ता को स्वीकार करना या न करना मूलभूत अन्तर नहीं है, अपितु उस निषेध्य के स्वरूप में जो मूलभूत अन्तर है, वह महत्त्वपूर्ण है, जिस (निषेध्य) का निषेध शून्यता कहलाती है तथा जिसके निषेध से सारी व्यवस्थाएं सम्पन्न होती हैं। वस्तुत: स्वतन्त्र अनुमान या स्वतन्त्र हेतुओं का प्रयोग या अप्रयोग भी इसी निषेध्य पर आश्रित है। शून्यता के सम्यक् परिज्ञान के लिए उसके निषेध्य को सर्वप्रथम जानना परमावश्यक है, अन्यथा उस (शून्यता) का अभ्रान्तज्ञान असम्भव है। बिना निषेध्य को ठीक से जाने शून्यता का विचार निरर्थक होगा और ऐसी स्थिति में शून्यता का अर्थ अत्यन्त तुच्छता या नितान्त अलीकता के अर्थ में ग्रहण करने की सम्भावना बन जाती है। इसलिए आचार्य नागार्जुन ने भी आगाह किया है।
विनाशयति र्दुदृष्टा शून्यता मन्दमेधसम्।
सर्पो यथा दुर्गहीतो विद्या वा दुष्प्रसाधिता॥<balloon title="मूलमाध्यमिककारिका 24:11" style=color:blue>*</balloon>


जब स्वभावसत्ता या स्वलक्षणसत्ता का निषेध किया जाता है तो उसका यह अर्थ कतई नहीं होता है कि स्वलक्षण सत्ता कहीं हो और सामने स्थित किसी धर्म में, यथा- घट या पट में उसका निषेध किया जाता हो। अथवा शश (खरगोश) कहीं हो और श्रृङ्ग (सींग) भी कहीं हो, किन्तु उन दोनों की किसी एक स्थान में विद्यमानता का निषेध किया जाता हो, अपितु सभी धर्मों अर्थात् वस्तुमात्र में स्वलक्षणसत्ता का निषेध किया जाता है। कहने का आशय यह है कि घट स्वयं (स्वत:) या पट स्वयं स्वलक्षणत्तावान् नहीं है। इसी तरह कोई भी धर्म स्वभावत: सत् या स्वत: सत् नहीं है। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि वस्तु किसी भी रूप में नहीं है। स्वभावत: सत् नहीं होने पर भी वस्तु का अपलाप नहीं किया जाता, अपितु इसका सापेक्ष या नि:स्वभाव अस्तित्व स्वीकार किया जाता है और उसी के आधार पर कार्य-कारण, बन्ध-मोक्ष आदि सारी व्यवस्थाएं सुचारुतया सम्पन्न होती हैं। यद्यपि सभी धर्म स्वलक्षणत: या स्वभावत: सत् नहीं हैं, फिर भी वे अविद्या के कारण स्वभावत: सत् के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं और स्वभावत: सत् के रूप में उनके प्रति अभिनिवेश भी होता है। धर्म जैसे प्रतीत होते हैं, वस्तुत: उनका वैसा अस्तित्व नहीं होता। उनके यथादर्शन या प्रतीति के अनुरूप अस्तित्व में तार्थिक बाधाएं हैं, अत: अविद्या के विषय को बाधित करना ही निषेध का तात्पर्य है।

इस तरह नि:स्वभावता के आधार पर आचार्य शान्तिदेव ने जन्म-मरण, पाप-पुण्य, पूर्वापर जन्म आदि की व्यावहारिक सत्ता का प्रतिपादन किया है। इसी तरह अत्यन्त सरल एवं प्रसाद गुणयुक्त भाषा में उन्होंने स्वसंवेदनप्रत्यक्ष के बिना स्मरण की उत्पत्ति, व्यवहृतार्थ का अन्वेषण करने पर उसकी अनुपलब्धि तथा अविचारित रमणीय लोकप्रसिद्धि के आधार पर सारी व्यवस्थाओं का सुन्दर निरूपण किया है। व्यावहारिक सत्ता पर उनका सर्वाधिक जोर इसलिए भी है कि जागतिक व्यवस्थाएं सुचारू रूप से सम्पन्न हो सकें।

जीवन परिचय

आचार्य शान्तिदेव सातवीं शताब्दी के माने जाते हैं। ये सौराष्ट्र के निवासी थे। बुस्तोन के अनुसार ये वहाँ के राजा कल्याणवर्मा के पुत्र थे। इनके बचपन का नाम शान्ति वर्मा था। यद्यपि वे युवराज थे, किन्तु भगवती तारा की प्रेरणा से उन्होंने राज्य का परित्याग कर दिया। कहा जाता है कि स्वयं बोधिसत्त्व मञ्जुश्री ने योगी के रूप में उन्हें दीक्षा दी थी और वे भिक्षु बन गए।

रचनाएँ

प्रसिद्ध इतिहासकार लामा तारानाथ के अनुसार उनकी तीन रचनाएं प्रसिद्ध हैं, यथा- बोधिचर्यावतार, शिक्षासमुच्चय एवं सूत्रसमुच्चय। बोधिचर्यावतार सम्भवत: उनकी अन्तिम रचना है, क्योंकि अन्य दो ग्रन्थों का उल्लेख स्वयं उन्होंने बोधिचर्यावतार में किया है। सर्वप्रथम बोधिचर्यावतार का प्रकाशन रूसी विद्वान् आई.पी. मिनायेव ने किया। तदनन्तर म.म. हरप्रसाद शास्त्री ने बुद्धिस्ट टेक्स्ट सोसाइटी के जनरल में इसे प्रकाशित किया। फ्रेंच अनुवाद के साथ प्रज्ञाकर मति की टीका 'ला वली पूँसे' ने बिब्लिओथिका इण्डिका में सन् 1902 में प्रकाशित की। नांजियों के कैटलाग में बोधिचर्यावतार की एक भिन्न व्याख्या है, उसमें तीन तालपत्र उपलब्ध हुए, जिनमें शान्तिदेव का जीवन चरित दिया हुआ है। इसके अनुसार शान्तिदेव किसी राजा के पुत्र थे। राजा का नाम मञ्जुवर्मा लिखा हुआ है, किन्तु तारानाथ के अनुसार वे सौराष्ट्र के राजा के पुत्र थे। भोट भाषा में बोधिचर्यावतार का प्राञ्जल एवं हृदयावर्जक अनुवाद है।

आचार्य शान्तिदेव पारमितायान के साथ-साथ मन्त्रनय के भी प्रकाण्ड पण्डित थे। इतना ही नहीं, वे महान् साधक भी थे। चौरासी सिद्धों में इनकी गणना की जाती है। तन्त्रशास्त्र पर इनकी महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। हमेशा सोते एवं खाते रहने के कारण इनका नाम 'भुसुकु' पड़ गया था। वस्तुत: 'भुसुकु' नामक समाधि में सर्वदा समापन्न रहने के कारण ये 'भुसुकु' कहलाते थे। संस्कृत में इनके 'श्री गुह्यसमाजमहायोगतन्त्र-बलिविधि' नामक तन्त्रग्रन्थ की सूचना है। चर्याचर्यविनिश्चय से ज्ञात होता है कि भुसुकु ने वज्रयान के कई ग्रन्थ लिखे। बंगाली या अपभ्रंश में इनके कई गान भी पाए जाते हैं। ये गीत बौद्ध धर्म के सहजिया सम्पद्राय में प्रचलित हैं।

शान्त, मौन एवं विनोदी स्वभाव के कारण लोग उनकी विद्वता से कम परिचित थे। नालन्दा की स्थानीय परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में प्रतिवर्ष धर्मचर्या का आयोजन होता था। नालन्दा के अध्येता युवकों ने एक बार उनके ज्ञान की परीक्षा करने का कार्यक्रम बनाया। उनका ख्याल था कि आचार्य शान्तिदेव कुछ भी बोल नहीं पाएंगे और अच्छा मजा आएगा। वे आचार्य के पास गए और धर्मासन पर बैठकर धर्मोपदेश करने का उनसे आग्रह किया। आचार्य ने निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। नालन्दा महाविहार के उत्तर पूर्व में एक धर्मागार था। उसमें पण्डित एकत्र हुए और शान्तिदेव एक ऊँचे सिंहासन पर बैठाए गए। उन्होंने तत्काल पूछा- 'मैं आर्ष (भगवान् बुद्ध द्वारा उपदिष्ट) का पाठ करूँ या अर्थार्ष (आचार्यों द्वारा व्याख्यायित) का पाठ करूँ? पण्डित लोग आश्चर्यचकित हुए और उन्होंने अर्थार्ष का पाठ सुनाने को कहा। उन्होंने (शान्तिदेव ने) सोचा कि स्वरचित तीन ग्रन्थों में से किसका पाठ करूँ? अन्त में उन्होंने बोधिचर्यावतार को पसन्द किया और पढ़ने लगे।
सुगतान् ससुतान् सधर्मकायान्
प्रणिपत्यादरतोऽखिलांश्च वन्द्यान्<balloon title="बोधिचर्यावतार 1:1" style=color:blue>*</balloon>
यहाँ से लेकर-
यदा न भावो नाभावो मते: सन्तिष्ठते पुर:।
तदान्यगत्यभावेन निरालम्बा प्रशाम्यति॥<balloon title="बोधिचिर्यावतार 9:35" style=color:blue>*</balloon>
तक पहुँचे तब भगवान् सम्मुख प्रादुर्भूत हुए और शान्तिदेव को अपने लोक में ले गए। यह वर्णन उपर्युक्त तालपत्रों से प्राप्त होता है। पण्डित लोग आश्चर्यचकित हुए तदनन्तर उनकी पढु-कुटी ढूंटी गई, जिसमें उन्हें उनके तीनों ग्रन्थ प्राप्त हुए।

सम्बंधित लिंक

<sidebar>

  • सुस्वागतम्
    • mainpage|मुखपृष्ठ
    • ब्लॉग-चिट्ठा-चौपाल|ब्लॉग-चौपाल
      विशेष:Contact|संपर्क
    • समस्त श्रेणियाँ|समस्त श्रेणियाँ
  • SEARCH
  • LANGUAGES

__NORICHEDITOR__

  • महायान के आचार्य
    • नागार्जुन बौद्धाचार्य|नागार्जुन आचार्य
    • आर्यदेव बौद्धाचार्य|आर्यदेव आचार्य
    • बुद्धपालित बौद्धाचार्य|बुद्धपालित आचार्य
    • भावविवेक बौद्धाचार्य|भावविवेक आचार्य
    • चन्द्रकीर्ति बौद्धाचार्य|चन्द्रकीर्ति आचार्य
    • असंग बौद्धाचार्य|असंग आचार्य
    • वसुबन्धु बौद्धाचार्य|वसुबन्धु आचार्य
    • स्थिरमति बौद्धाचार्य|स्थिरमति आचार्य
    • दिङ्नाग बौद्धाचार्य|दिङ्नाग आचार्य
    • धर्मकीर्ति बौद्धाचार्य|धर्मकीर्ति आचार्य
    • बोधिधर्म बौद्धाचार्य|बोधिधर्म आचार्य
    • शान्तरक्षित बौद्धाचार्य|शान्तरक्षित आचार्य
    • कमलशील बौद्धाचार्य|कमलशील आचार्य
    • पद्मसंभव बौद्धाचार्य|पद्मसंभव आचार्य
    • शान्तिदेव बौद्धाचार्य|शान्तिदेव आचार्य
    • दीपङ्कर श्रीज्ञान बौद्धाचार्य|दीपङ्कर श्रीज्ञान आचार्य

</sidebar>