शुंग काल

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इतिहास : शुंग काल

शुंग वंश के शासक

मौर्य वंश का अंतिम शासक वृहद्रय था । वृहद्रय को उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने ई० पूर्व 185 में मार दिया और इस प्रकार मौर्य वंश का अंत हो गया । पुष्यमित्र ने सिंहासन पर बैठकर मगध पर शुंग वंश के शासन का आरम्भ किया । शुंग वंश का शासन सम्भवतः ई० पूर्व 185 ई० पूर्व 100 तक रहा है । ई० पू० 100 तक शुंग-शासन दृढ़ बना रहा । पुष्यमित्र इस वंश का प्रथम शासक था, उसके पश्चात उसका पुत्र अग्निमित्र, उसका पुत्र वसुमित्र राजा बना । वसुमित्र के पश्चात् जो शुंग सम्राट् हुए, उसमें कौत्सीपुत्र भागमद्र, भद्रघोष, भागवत और देवभूति के नाम उल्लेखनीय है । शुंग वंश का अंतिम सम्राट देवहूति था, उसके साथ ही शुंग साम्राज्य समाप्त हो गया था । शुग-वंश के शासक वैदिक धर्म के मानने वाले थे । इनके समय में भागवत धर्म की विशेष उन्नति हुई ।

पुष्यमित्र

शुंग वंश में सबसे अधिक विवरण पुष्यमित्र का मिलता है । वह शुंग राजवंश का संस्थापक और एक कुशल प्रशासक था । उसने मगध की गद्दी पर बैठते ही सबसे पहले अपनी शक्ति सुदृढ़ की, तत्पश्चात वह राज्य का विस्तार करने लगा । उसने अपने अधिकार में पश्चिम में यमुना नदी तक और दक्षिण में नर्मदा नदी तक का राज्य कर लिया था । उसके साम्राज्य में तीन बड़े प्रदेश मिलते हैं।

  1. पाटलिपुत्र (पटना)
  2. साकेत (अयोध्या) और
  3. विदिशा (मालव प्रदेश का पूर्वी भाग)

इन तीनों प्रदेशों को अपनी स्वतंत्र सत्ता प्राप्त थी । विदिशा का राज्यपाल पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र नियुक्त था । अग्निमित्र के प्रशासन में ही मथुरा का राज्य भी था । पुष्यमित्र के पूर्ववर्ती मौर्य सम्राट् बौद्ध धर्मावलंबी थे, किंतु वह वैदिक धर्म का अनुयायी था । उसने अपने विजय अभियानों की स्मृति में वैदिक परंपरा के अनुसार कई अश्वमेध यज्ञ किये थे । जैन बौद्ध धर्मो के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण वे यज्ञ बंद हो गये थे । पांडव वंशीय जन्मेजय के पश्चात् पुष्यमित्र ने ही अश्वमेघ यज्ञों का आयोजन किया था । पुष्पमित्र की मृत्यु ई० पूर्व 151में हुई थी ।

व्यापारिक मार्ग मथुरा से ही होकर गुजरते थे । यहाँ से एक सड़क श्रावस्ती को जाती थी । तक्षशिला से पाटलिपुत्र की तरफ जाने वाली तथा दक्षिण में विदिशा और उज्जयिनी की तरफ जाने वाली सड़कें भी मथुरा से ही गुजरती थी । विभिन्न धर्मों का केन्द्र होने के कारण पुष्यमित्र के शासन काल में मथुरा की प्रसिद्धि बहुत बढ़ गई ।

पुष्पमित्र के शासन के समय में व्याकरणाचार्य पंतजलि हुए, जिन्होनें पाणिनि की अष्टाध्यायी पर आधारित प्रसिद्ध महाभाष्य की रचना की थी । इस ग्रंथ में पुष्यमित्र द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का विवरण मिलता है, इसकी पुष्टि अयोध्या से मिले एक लेख से होती है । महाभाष्य मे पतंजलि ने मथुरा का विवरण देते हुए लिखा है , यहाँ के लोग पाटलिपुत्र के नागरिकों की अपेक्षा अधिक सपंन्न थे । [१] शुंग काल में उत्तरी भारत के मुख्य नगरों में मथुरा की भी गिनती होती थी ।

यवन-आक्रमण

शुंगों के शासन के समय में उत्तर भारत पर यवनों के आक्रमणों का विवरण समकालीन साहित्य में मिलता है । [२] डिमेट्रियस नामक यवन राजा पुष्पमित्र का समकालीन था । डिमेट्रियस ने ही संभवत: मथुरा, मध्यमिका (नगरी, चित्तौड़ के समीप) और साकेत (अयोध्या) पर आक्रमण किया था । गार्गी सहिंता के युगपुराण मे विवरण मिलता है कि यवन साकेत, पंचाल और मथुरा पर अधिकार करने के बाद पाटलिपुत्र पहुँच गये थे । यवनों का यह आक्रमण भारत में काफी दूर तक हुआ और नागरिकों में कुछ समय भय व्याप्त हो गया । [३] लेकिन आपसी तालमेल न होने के कारण यवन अधिक समय तक यहाँ रह न सके । पुष्यमित्र के शासन काल में कालिंग का राजा खारवेल था । यह बड़ा लोकप्रिय, वीर और शक्तिशाली राजा था ।


कलिंग के हाथीगुंफा स्थान पर राजा खारवेल का एक ब्राह्मी लिपी लेख प्राप्त हुआ है । इस से ज्ञात होता है कि यवन शासक दिमित (संभवतः डिमेट्रियस के लिए ही कहा गया है) के आक्रमण के विषय में सुनकर खारवेल सामना करने के लिए और यह खबर सुन कर दिमित वापस पंजाब की ओर वापिस चला गया ।

डिमेट्रियस के समय शुङ-शासन को जो हानि हुई, उसकी क्षति-पूर्ति शीघ्र ही हो गई । पुष्यमित्र ने अपनी शक्ति को संगठित करके अपने साम्राज्य को विस्तृत किया । [४] पश्चिमी सीमा से यूनानियों के आक्रमण बाद में भी हुए । महाकवि कालिदास के नाटक `मालविकाग्निमित्र' में विवरण मिलता है कि सिंधु नदी के तट पर अग्निमित्र के लड़के वसुमित्र का युध्द यवनों से हुआ तथा भीषण युध्द के पश्चात यवनों की पराजय हो गई ।


यवनों का नेता सम्भवत: मिनेंडर ही था । इस राजा का नाम बौद्ध साहित्य में 'मिलिंद' आता है । मिनेंडर ने ही नागसेन नामक बौद्ध विद्वान् से अनेक प्रश्न किये, इसका विवरण 'मिलिद-पन्ह' नामक पुस्तक में मिलता है । मिनेंडर के सिक्कों पर धर्मचक्र भी मिलता है जो एक बौद्ध-चिन्ह है तथा उस पर `धमिकस' (धार्मिक) लिखा है । इस राजा के सिक्के काबुल से मथुरा तक बड़ी संख्या में मिलते हैं । मिनेंडर शक्तिशाली शासक था और उसने भारत में यवन साम्राज्य को बढ़ाया । यूनानी लेखक स्ट्रैथों ने लिखा है कि मिनेंडर उस व्यास नदी को पार कर चुका था जहाँ से आगे सिकन्दर नहीं जा सका था । इस के अनुसार पंजाब से लेकर सौराष्ट्र तक यवन साम्राज्य का विस्तार मिनेंडर तथा डिमेट्रियस ने किया । [५] पंजाब में लगभग 200 वर्ष तक यूनानी अधिपत्य बना रहा ।


अग्निमित्र

पुष्पमित्र की मृत्यु ई० पूर्व 151 में हुई उसके पश्चात् उसका पुत्र अग्निमित्र साम्राज्य का अधिकारी हुआ महाकवि कालिदास ने “मालविकाग्निमित्र” नाटक में अग्निमित्र और मालविका की प्रेम कथा वर्णन किया है । सामान्यत: कालिदास को गुप्त कालीन माना जाता है, परन्तु यह नाटक उन्होंने एक प्रत्यक्षदर्शी की भाँति लिखा है, जिससे कुछ विद्वानों का मत है कि यह कवि शुंगकाल में थे । इससे ज्ञात होता है कि अग्निमित्र कुशल शासक था और संगीत , नृत्य, नाट्यादि कलाओं का प्रेमी और ज्ञाता भी था ।

अग्निमित्र के बाद पुराणों में क्रमश: वसुज्येष्ठ, वसुमित्र, आर्द्वक, पुलिंदक, घोषवसु, वज्रमित्र, भागवत तथा देवभूति नामक राजाओं का वर्णन मिलता है । डा० काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार पुष्पमित्र का पुत्र अग्निमित्र वही शासक है जिसके तांबे के सिक्के रूहेलखंड में मिले है । जायसवाल वसुज्येष्ठ की पहचान सिक्कों के जेठमित्र से तथा घोषवसु की पहचान भद्रघोष से करते है । उनके मतानुसार शुंग वंश का पाँचवाँ राजा आर्द्रक है और नवाँ राजा भागवत काशीपुत्र-भागभद्र है । परन्तु डा० जायसवाल के इस मत की पुष्टि उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों से नही होती ।

शुंगवशीय शासक वैदिक धर्म को मानते थे[६]फिर भी शुंग शासन-काल में बौद्ध धर्म की काफी उन्नति हुई । बोधगया मंदिर की वेदिका का निर्माण भी इनके शासन-काल में ही हुआ । अहिच्छत्रा के राजा इंद्रमित्र तथा मथुरा के शासक ब्रह्ममित्र और उसकी रानी नागदेवी ,इन सब के नाम बोधगया की वेदिका में उत्कीर्ण है ।[७] इससे ज्ञात होता है कि सुदूर पंचाल और शूरसेन जनपद में इस काल में बौद्ध धर्म के प्रति भी आस्था थी ।


अग्निमित्र की मृत्यु के बाद उसका पुत्र वसुमित्र शुंग साम्राज्य का शासक हुआ । वह बहुत ही बलशाली पुरूष था । यवनों ने अग्निमित्र के शासन काल में फिर आक्रमण किया, और वे अपने प्रदेश से आगे बढते हुए विदिशा तक आ गये थे । उस समय वसुमित्र ने उनका प्रतिरोध किया और उन्हें पराजित कर भगा दिया था ।


कौत्सी भागमद्र के शासन काल में यवनों ने संधि कर ली थी । उस समय यवन नेता ऐटिआल किड्स (अंतलकित) का विवरण मिलता है , जिसने अपने दूत होलियोडोरस (होलियोदोर) को शुंग सम्राट् के दरबार में भेजा था । तक्षशिला उनकी राजधानी थी । शुंग वंश की प्रधान शाखा का अंतिम सम्राट देवहूति था, जिसे उसके मंत्री वसुदेव ने मार दिया था । वसुदेव ने पाटलिपुत्र पर अधिकार कर एक नये राजवंश “कण्व” की स्थापना की थी । वसुदेव से पाटलिपुत्र पर कणव वंश के शासन का आरम्भ हुआ । यह वंश भी शुंगों की तरह ब्राह्मण वर्ण का था, जिसने लगभग 50 वर्षों तक मगध पर शासन किया । इस वंश का राज्य-काल ई० पूर्व 73 से ई पूर्व 28 तक रहा ।


मगध में शुंग शासन की प्रधान शाखा की समाप्ति हो गई थी, फिर भी कई राज्यों में शुंग वंश की कुछ शाखाओं का शासन रहा । ऐसी ही एक शाखा मित्र राजाओं की थी । इन शाखाओं के केन्द्र अहिच्छत्रा, विदिशा, मथुरा, अयोध्या तथा कौशांबी थे । इनमें से कई शाखाएं पुष्पमित्र और उसके उत्तराधिकारियों के समय से ही चली आ रही थीं और प्रधान शुंग वंश की अधीनता में प्रदेशों का शासन कर रही थी । जिन 'मित्र' नाम वाले शासकों के सिक्के मथुरा से प्राप्त हुए हैं वे ये है-गोमित्र प्रथम तथा द्वितीय, ब्रह्ममित्र, द्दढ़मित्र, सूर्यमित्र और विष्णुमित्र । इनमें से गोमित्र प्रथम का समय ई०. पू०200 के लगभग प्रतीत होता है । अन्य राजाओं ने ई० पू०200से लेकर ई० पू० 100 या उसके कुछ बाद तक शासन किया ।


गोमित्र, ब्रह्ममित्र, विष्णुमित्र आदि के सिक्के मथुरा से मिलें हैं । इन सिक्कों पर एक तरफ कमल को धारण किये लक्ष्मी और दूसरी तरफ हाथियों का चित्रण है । ब्रह्ममित्र बहुत प्रतापी शासक था । उसके सिक्के भी प्राप्त हुए हैं । उसका आकर्षण बौद्ध धर्म के प्रति था । बोधि गया की वेदिका में ब्रह्ममित्र और उसकी रानी नागदेवी के नाम अंकित हैं । मित्र राजाओं के पश्चात् सम्भवतः दत्तवंशीय राजाओं का भी कुछ समय तक मथुरा पर शासन रहा । जिनमें पुष्पदत्त, रामदत्त, कामदत्त, भवदत्त, आदि के सिक्के मिले है । उन पर लक्ष्मी, हाथी और बैल की आकृतियाँ हैं ।


टीका-टिप्पणी

  1. ``सांकाश्यकेभ्यश्च पाटलिपुत्र केभ्यश्चमाथुरा अभिरूपतरा इति (महाभाष्य, 5,3,57) । संकाश्य का आधुनिक नाम संकिसा है, जो उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में काली नदी के तट पर स्थित है ।
  2. पतंजलि ने महाभाष्य में इस आक्रमण का उल्लेख इस प्रकार किया है-`अरुणद्यवनो मध्यामिकाम्' (म० भा० 2, 32, 8)s कालिदास ने भी मालविकाग्निमित्रं में पुष्यमित्र के नाती वसुमित्र के साथ सिंधु (यमुना की सहायक) नदी के तट पर यवनों के संग्राम का वर्णन किया है। यह सिंधु मध्यभारत में बहती हैं।
  3. "तत साकेतमाक्रम्य पंचालं मथुरांस्तथा ।
    सवना: दुष्टविक्रान्ता: प्राप्स्यन्ति कुसुमध्वजम् ।।
    तत: पुष्पपुरे प्राप्ते कर्दमे प्रथिते हिते।
    आकुला विषया सर्वे भविष्यन्ति न संशय: ।।
    मध्यदेशे न स्थास्यन्ति यवना युद्धदुर्मदा: ।
    तेष: अन्योन्य सम्भावा भविष्यन्टि न संशय:।
    आत्मचक्रोत्थितं घोरं युद्धं परमदारुणम् ।।
    (युगपुराण - कर्न का वृहत्संहिता संस्करण, पृ० 37-38)
  4. `पुष्यमित्र के समय शुंग साम्राज्य दक्षिण में नर्मदा तक फैल गया। पाटलिपुत्र, अयोध्या तथा विदिशा इस बड़े राज्य के केंद्र नगर थे। विदिशा में पुष्यमित्र ने अपने पुत्र अग्निमित्र को प्रशासक नियुक्त किया। सम्भवत: मथुरा का शासन कुछ समय तक विदिशा केन्द्र द्वारा ही संचालित होता रहा। दिव्यावदान तथा बौद्ध लेखक तारानाथ के अनुसार जालंधर और शाकल भी पुष्यमित्र के साम्राज्य के अन्तर्गत थे (दे० राय चौधरी-पोलिटिकल हिस्ट्री आफ ऎंश्यंट इंडिया (पंचम सं०, कलकत्ता, 1950), पृ० 371
  5. राय चौधरी - वही, पृ० 380-81
  6. पुष्यमित्र के द्वारा दो अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख अयोध्या से प्राप्त एक लेख में मिलता है (एवीग्राफिया इंडिका, जि० 20, पृ० 54-8)। पतंजलि के महाभाष्य में पुष्यमित्र के यज्ञ का जो उल्लेख है उससे पता चलता है कि स्वयं पतंजलि ने इस यज्ञ में भाग लिया था।
  7. राय चौधरी - वही, पृ० 392-93। ब्रह्ममित्र मथुरा का प्रतापी शासक प्रतीत होता है। इसके सिक्के बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। 1954 के प्रारंभ में ब्रह्ममित्र के लगभग 700 तांबे के सिक्कों का घड़ा, ढेर मथुरा में मिला है।