संस्कार

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संस्कार / Sanskar

'संस्कार' शब्द प्राचीन वैदिक साहित्य में नहीं मिलता, किन्तु 'सम्' के साथ 'कृ' धातु तथा 'संस्कृत' शब्द बहुधा मिल जाते हैं। ॠग्वेद<balloon title="ॠग्वेद, 5।76।2" style=color:blue>*</balloon> में 'संस्कृत' शब्द धर्म (बरतन) के लिए प्रयुक्त हुआ है, यथा 'दोनों अश्विन पवित्र हुए बरतन को हानि नहीं पहुँचाते।' ॠग्वेद<balloon title="ॠग्वेद, 6।28।4" style=color:blue>*</balloon> में 'संस्कृतत्र' तथा<balloon title="ॠग्वेद, 8।39।9" style=color:blue>*</balloon> 'रणाय संस्कृता' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। शतपथ ब्राह्मण में<balloon title="शतपथ ब्राह्मण, 1।1।4।10" style=color:blue>*</balloon> आया है-- 'सं इदं देवेभ्यो हवि: संस्कुरु साधु संस्कृतं संस्कुर्वित्येवैतदाह्।' शतपथ ब्राह्मण में आया है[१] 'स्त्री किसी संस्कृत (सुगठित) घर में खड़े पुरुष के पास पहुँचती है'।<balloon title="देखिए इसी प्रकार के प्रयोग में वाजसनेयी संहिता, 4।34" style=color:blue>*</balloon> छान्दोग्य उपनिषद में आया है--[२] 'उस यज्ञ की दो विधियाँ है, मन से या वाणी से, ब्रह्मा उनमें से एक को अपने मन से बनाता या चमकाता है।' जैमिनि के सूत्रों में संस्कार शब्द अनेक बार आया है<balloon title="3।1।3; 3।2।15; 3।8।3; 9।2।9; 42, 44; 9।3।25; 9।4।33; 9।4।50 एवं 54; 10।1।2 एवं 11 आदि" style=color:blue>*</balloon> और सभी स्थलों पर यह यज्ञ के पवित्र या निर्मल कार्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, यथा ज्योतिष्टोम यज्ञ में सिर के केश मुँड़ाने, दाँत स्वच्छ करने, नाखून कटाने के अर्थ में<balloon title="3।8।3" style=color:blue>*</balloon>; या प्राक्षेण (जल छिड़कने) के अर्थ में<balloon title="9।3।25" style=color:blue>*</balloon>, आदि। जैमिनि के<balloon title="जैमिनि, 6।1।35" style=color:blue>*</balloon> में 'संस्कार' शब्द उपनयन के लिए प्रयुक्त हुआ है। शबर की व्याख्या में 'संस्कार' शब्द का अर्थ बताया है कि[३] संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है। तन्त्रवार्तिक के अनुसार[४] संस्कार वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं जो योग्यता प्रदान करती हैं। यह योग्यता दो प्रकार की होती है; पाप-मोचन से उत्पन्न योग्यता तथा नवीन गुणों से उत्पन्न योग्यता। संस्कारों से नवीन गुणों की प्राप्ति तथा तप से पापों या दोषों का मार्जन होता है। वीर मित्रोदय ने संस्कार की परिभाषा इस तरह की है-- यह एक विलक्षण योग्यता है जो शास्त्रविहित क्रियाओं के करने से उत्पन्न होती है।…यह योग्यता दो प्रकार की है-

  • जिसके द्वारा व्यक्ति अन्य क्रियाओं (यथा उपनयन संस्कार से वेदाध्ययन आरम्भ होता है) के योग्य हो जाता है, तथा
  • दोष (यथा जातकर्म संस्कार से वीर्य एवं गर्भाशय का दोष मोचन होता है) से मुक्त हो जाता है।

संस्कार शब्द गृह्यसूत्रों में नहीं मिलता (वैखानस में मिलता है), किन्तु यह धर्मसूत्रों में आया है।[५]

टीका टिप्पणी

  1. शतपथ ब्राह्मण, 3।2।1।22-'तस्मादु स्त्री पुमांसं संस्कृते तिष्ठन्तमभ्येति'
  2. 'तस्मादेष एवं यज्ञस्तस्य मनश्च वाक् च वर्तिनी। तयोरन्तरां मनसा संशरोति ब्रह्मा वाचा होता', छान्दोग्यो उपनिषद, 4।16।1-2
  3. 'संस्कारी नाम स भवति यस्मिन्जाते पदर्थो भवति योग्य: कस्यचिदर्थस्य', शबर, 3।1।3
  4. 'योग्यतां चादधाना: क्रिया: संस्कारा इत्युच्यन्ते'
  5. देखिए, गौतम धर्मसूत्र, 8।8; आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 1।1।1।9 एवं वासिष्ठ धर्मसूत्र, 4।1